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Sunday, 1 November 2020

सब्ज़ी ले लो

शौपिंग चाहे कपड़े की हो या सब्ज़ी की गोयल साब को झंझट का काम ही लगता है. ये बात और है की कपड़े अगर मॉल से लें तो पिकनिक का मज़ा आ जाता है. ए सी हॉल में घूमना हो जाता है और फिर कुछ खाना पीना भी हो जाता है. किसी किसी मॉल में सब्जी और फल की दूकान या काउंटर लगा होता है वहां गोयल साब को सब्ज़ी लेना थोड़ा बेहतर लगता है. पर घर के आसपास ठेले वाले से सब्ज़ी लेना बेसुरा काम लगता है पर करना पड़ता है. श्रीमती का आदेश भी मानना जरूरी है क्या किया जाए?

जब गोयल साब थैला लेकर बाज़ार की तरफ चले तो रास्ते में रिटायर्ड दोस्त मनोहर भाई ने पूछा,

- आज क्या लेने जा रहे हो गोयल सा?

- आदेश हुआ है की प्याज और लस्सन ले आना. वही लेने जा रहा हूँ और क्या. ये काम सबसे मुश्किल लगता है मुझे. पर करना तो है ही. बड़े बड़े प्याज लेकर जाउंगा तो कहेगी छोटे लाने थे. अगर छोटे ले जाऊं तो कहेगी गोली जैसे प्याज क्यूँ ले आए? अपनी वाट तो लगनी ही है.     

- हेंहेंहें! गोयल सा एक ट्रिक बताता हूँ ये झंझट ख़तम हो जाएगा. प्याज सौ ग्राम और लस्सन एक किलो ले जाओ. घर वापिस पहुंचोगे तो एक बार तो बादल गरजेंगे पर आइन्दा के लिए झंझट समाप्त हो जाएगा. कितनी आसान सी ट्रिक है ना? भाई आज कर डालो.

किया तो वही था पर ट्रिक फ्लॉप हो गई. जोरदार डांट पड़ी. बात श्रीमती मनोहर तक जा पहुंची और मनोहर भाई की भी कान खिंचाई हो गई. आइन्दा के लिए ये रास्ता बंद हो गया. 

बात ये है कि गोयल सा को खाने का ज्ञान तो है पर पकाने का ज्ञान नहीं है तो सब्जियों की शौपिंग कैसे होगी? और फिर मोल तोल करना भी नहीं आता. किसी मॉल से कुछ लेना हो या फिर ऑनलाइन मंगानी हो तो मोल भाव का मतलब नहीं है इसलिए ऐसी शौपिंग आसान हो जाती है. लेकिन ऐसे में धनिया या मिर्च बोनस में नहीं मिलता. ये बात पता नहीं अच्छी है या बुरी, पर महिलाओं को ये फ्री का बोनस बहुत पसंद है. कॉलोनी में जो सब्ज़ी बेचने आता है वो भी बड़ा घाघ है. महिलाएं सब्जी लेंगी तो धनिया या हरी मिर्च या दोनों फ्री थमा देगा लेकिन मर्दों को नहीं. मांग लिया तो ठीक और नहीं माँगा तो नहीं देगा. नतीजतन डांट पड़ने की संभावना सौ प्रतिशत बनी रहती है.  

परसों की ही बात है कि गोयल सा के कानों में ऊँची कर्कश आवाज़ आई 'सब्ज़ी ले लो'. उसके तुरंत बाद किचन से मधुर मधुर आवाज़ आई 'सुनो कोई सब्ज़ी ले लो मैं बिज़ी हूँ'. 

- हूँ ओके ओके! आदेश का पालन करने के लिए गोयल सा ने जेब में पर्स डाला, मुंह पे मास्क चढ़ाया और चप्पल ढूंढी. बाहर देखा तो सब्जी वाला पहुँच चुका था. मिसेज़ जामवाल उस से शिकायत कर रही थी और गोयल सा का हाल भी पूछ रही थी बिना जवाब सुने,

- पहले तुम इस गेट से आते थे अब दूसरे गेट से आते हो. देखो ये कैसी गाजर है? अच्छी वाली सब्जियां बाँट के अब आ रहे हो. नमस्ते गोयल भाईसाब. ये आलू एक किलो और प्याज एक किलो. भाईसाब आज आप आए हो? संध्या ठीक है? टमाटर भी दे दे और हिसाब कर दे. बच्चे ठीक हैं जी? धनिया नहीं डाला? और हरी मिर्च?

तब तक मिसेज़ पालीवाल सर पर तौलिया लपेट कर आ गई. गोयल सा ने दूरी थोड़ी और बढ़ा ली. सबला शक्ति से दूर ही ठीक हैं. अब मिसेज़ पालीवाल गोयल सा से, सब्ज़ी वाले से और मिसेज़ जामवाल से एक साथ बतियाने लगी पर जवाब सुनने की उनकी इच्छा नहीं थी. - अरे तू मेथी लाया कि नहीं? ख़तम? जामवाल जी आप ने तो छाँट छाँट के मेथी ले भी ली! गुड मोर्निंग गोयल साब. लो पालक भी बची खुची पड़ी है. गोभी कैसे दी?

जब गोयल सा की नज़र मेथी पर थी तो वो बिक गई और जब गोभी पसंद आई तो वो भी गई. अब तो बचे थे केवल सिंघाड़े गोयल सा ने सोचा फिलहाल यही ले चलो. सब्जी वाले से पूछा भाई कैसे दिए सिंघाड़े? उसने तो नहीं सुना पर मिसेज़ अग्रवाल ने ठेले के नज़दीक आते आते सुन लिया. तुरंत सिंघाड़े उठा कर टोकरी में डाल दिए - एक किलो कर दे! नमस्ते भाईसाब. 

भाईसाब ने नज़र मारी तो ठेले में शकरकंदी ही बची थी. चार शकरकंद लेकर वापिस आ गए. अब खाली हाथ क्या वापिस जाना था. पर वही हुआ जिसका अंदेशा था. 

- ये सब्ज़ी लाए आप? ये सब्ज़ी है? तुम्हारे सारे काम ऐसे ही होते हैं!

गोयल सा ने सब्ज़ी खरीदी 


Wednesday, 28 October 2020

लॉकर में बंद

बैंकों में आजकल लोन के अलावा सोने के सिक्के, इन्शोरेन्स, मेडिक्लैम, म्यूच्यूअल फण्ड भी मिलने लगे हैं. पहले ये सब झमेला नहीं था. अब इसे झमेला ना कह कर  'फाइनेंशियल लिटरेसी' कहा जाने लगा है. याने पैसे कहाँ लगाने हैं और ब्याज ज्यादा कहाँ मिलेगा ये बताया जाता है. 

चालीस बरस बैंक की नौकरी कर ली, मकान बना लिया, बच्चे सेटल कर दिए और बुढ़ापे का भी इंतज़ाम कर लिया पर आज भी अगर ब्रांच में जाएं तो कोई ना कोई 'फाइनेंशियल लिटरेसी' का ज्ञान देने लग जाता है. लच्छेदार लेक्चर सुनने को मिलता है. सुन कर लगता है हम तो 'फाइनेंशियल इल-लिटरेट ही रह गए. जो भी हो अब रिटायरमेंट के बाद तो फिक्स डिपाज़िट ही अच्छी लगती है. और एक चीज़ जो अच्छी लगती है वो है 'माल' जो कभी लॉकर में डाला था. पर उसकी भी चाबी अपनी जेब में नहीं बल्कि श्रीमती के पर्स में होती है. हम तो बॉडीगार्ड की तरह पीछे पीछे चले जाते हैं और ड्राईवर की तरह गाड़ी में बिठा कर वापिस ले आते हैं.  

इसी पर लॉकर का एक किस्सा याद आ गया. कनॉट प्लेस के एक बैंक की शाखा में बहुत से लॉकर थे. कुछ छोटे, कुछ मझोले और कुछ बड़े साइज़ के थे. गिनती में शायद चार हज़ार से कुछ ज्यादा ही होंगे. ये लॉकर एक बहुत बड़े तहखाने में थे. लॉकर की दो भारी केबिनेट पीठ से पीठ मिला कर कतारों में रखी हुई थीं. इन कतारों के बीच में कस्टमर के लिए जगह छोड़ दी गई थी. तहखाने के एक कोने में लकड़ी की पार्टीशन बनी हुई थी जिसमें बैंक की अपनी भारी भरकम तिजोरियां खड़ी थीं. इनमें दिन भर का जमा कैश रखा जाता था. 

ग्राहकों के लिए लॉकर शनिवार को डेढ़ बजे तक बंद कर दिए जाते थे. लगभग उसी समय ब्रांच का कैश मैनेजर और हैड केशियर दोनों एक साथ चाबियाँ लगा कर बंद कर देते थे. उसके बाद लोहे की ग्रिल और लोहे का भारी दरवाज़ा बंद होता था. इस तरह तहखाना बंद करके अंदर की लाइट्स बाहर से बंद कर दी जाती थी. 

शनिवार को लगभग सवा एक बजे एक मेजर साब अपनी पत्नी के साथ पधारे और लॉकर रजिस्टर साइन किया. मेजर साब श्रीमती से बोले - मैं सामने पोस्ट ऑफिस होकर आता हूँ तुम लॉकर देख लो. मैडम और उनके साथ लॉकर अधिकारी अंदर गए, लाकर खोला और अधिकारी बाहर आ गया. मैडम अपने काम में बिज़ी हो गई. उन्हें टाइम का ध्यान नहीं रहा.

उधर मैनेजर और हैड केशियर कैश बंद करने आ गए. जब ये लोग आये तो लॉकर अधिकारी ने सोचा कि अब मेरा क्या काम और वो घर की ओर रवाना हो गया. कैश बंद करने की कारवाई पूरी की गई. पहले गार्ड और चपरासी बाहर निकले, फिर तिजोरी बंद करके मैनेजर और हैड केशियर. ग्रिल गेट बंद किया गया और आखिर में बड़ा भारी भरकम दरवाज़ा भी बंद कर दिया गया. गार्ड ने बिजली का स्विच बंद कर दिया. जैसे ही अँधेरा हुआ तो मैडम अंदर जोर से चिल्लाई - ये क्या है लाइट क्यूँ बंद की? पर बाहर ना आवाज़ निकलनी थी ना निकली. 

तब तक दो बज चुके थे. मेजर साब अपनी मैडम को लेने आ गए. मैडम नदारद. वो भांप गए की गड़बड़ हो गई है. जोर जोर से चिल्लाने लगे. शोर मचा तो ब्रांच का बचा खुचा स्टाफ तहखाने में इकट्ठा हो गया. चाबी वाले मैनेजर साब तो आ गए पर हैड केशियर नदारद! वो तो घर के लिए निकल चुका था. तभी किसी ने बताया की वो अक्सर सड़क के दूसरी तरफ बस लेता है शायद अभी भी खड़ा हो?

दो लोग भागे बाहर की तरफ. हैड केशियर इत्मीनान से बस स्टॉप पर बस की इंतज़ार में खड़ा था. शनिवार और लंच टाइम की वजह से बसें कम चल रही थी. तीनों ब्रांच में वापिस भागे. लाइट जलाई गई और ताले फटाफट खोले गए.  

अन्दर मैडम फर्श पर पड़ी हुई मेजर साब का नाम बुदबुदा रही थी - मेजर बचा लो, मेजर बचा लो. मैडम की आवाज़ सुन कर सबकी जान में जान आ गई. 

सावधानी हटी और दुर्घटना घटी!

लॉकर की चाबी 


Sunday, 25 October 2020

लेखा जोखा

बैंक में ऑडिट बहुत होता है. जितनी ज्यादा बिज़नेस होगा उतनी बड़ी ब्रांच होगी और उतने ही ज्यादा ऑडिटर आएँगे. एक तो घरेलू या इंटरनल ऑडिटर होते हैं ये साल में एक बार आते हैं. एक और इंटरनल ऑडिटर भी हैं जिन्हें कनकरंट ऑडिटर कहते हैं. ये बड़ी ब्रांच में बारहों महीने बैठे रहते हैं और बीच बीच में करंट मारते रहते हैं. कहीं कहीं कनकरंट ऑडिट बाहर से आये चार्टर्ड अकाउंटेंट करते हैं. हर अप्रैल में रिज़र्व बैंक अपने पैनल में से चार्टर्ड अकाउंटेंट को भेजता है जाओ ब्रांच के हालात देख कर आओ और रिपोर्ट भेजो. कभी कभी रिज़र्व बैंक अपने ही अधिकारी भी भेज देता है. क्षेत्रीय कार्यालय या अंचल कार्यालय या प्रधान कार्यालय से भी अधिकारीगण दौरा लगाते रहते हैं. पर फ्रॉड और घपले फिर भी होते रहते हैं कारण है पैसा. क्यूंकि बैंक में पैसा जमा होने के लिए आएगा और लोन देने में जाएगा तो गड़बड़ कहीं भी हो सकती है. दूसरे शब्दों में जहाँ गुड़ होगा तो वहां मक्खियाँ भी आएंगी और ततैये भी आएँगे!

अब झुमरी तलैय्या ब्रांच को ही लें. इस ब्रांच में छोटे बड़े लोन बहुत हैं, लाकर बहुत हैं और तिजोरियां भी बहुत हैं. इस कारण से स्टाफ भी बहुत है. जाहिर है की ऐसी ब्रांच में ऑडिट करने के लिए बड़ा अनुभवी ऑडिटर भेजा जाता है. इस काम के लिए हमारे प्रिय बॉस चीफ ऑडिटर गोयल साब बिलकुल फिट हैं. हेड ऑफिस ने उन्हें सन्देश भेजा जिसमें कहा गया के झुमरी जाएं और ऑडिट करें. 

हमारे गोयल साब बड़े धाकड़ और ज्ञानी ऑडिटर हैं. सही लेखा जोखा करते हैं. बड़ी बड़ी और टेढ़ी ब्रांचों का ऑडिट आसानी से निपटा देते हैं. गोयल साब के ऊपर जो बड़े साब हैं उनका पूरा पूरा आशीर्वाद गोयल साब को प्राप्त है. जब ब्रांच का ऑडिट हो जाएगा, कच्ची रिपोर्ट बन जाएगी तो गोयल साब बड़े साब से फोन पर बात कर लेंगे. बड़े साब के स्वादानुसार रिपोर्ट में नमक, मिर्च और मसाले डाल दिए जाएंगे. फिर उस रिपोर्ट पर मन मुताबिक कारवाई की जा सकती है.

इस ब्रांच के बारे में बड़े सा ने इशारा कर दिया था कि बहुत स्टाफ बैठा है वहां और फिर भी ब्रांच का बिज़नेस बढ़ नहीं रहा है. वहां मनोहर नरूला बैठा बैठा क्या कर रहा है? शाखा में अनुशासन नहीं है जरा चेक किया जाए. अब गोयल सा ऑडिट की काली किताब और अपना ब्रीफ केस लेकर झुमरी ब्रांच में पहुंच गए और शाखा प्रबंधक से बोले, 

- मनोहर जी दस बज चुके हैं और अभी पूरा स्टाफ नज़र नहीं आ रहा? सीटें खाली पड़ी हैं?

- सर आप देख रहे हैं इस सड़क पर कितना ट्रैफिक है? पार्किंग आधा किमी दूर है और बस स्टॉप दो सौ मीटर. वहां से पैदल आना पड़ता है. आप भी तो बीस मिनट बाद पहुंचे हैं. खैर मैं दोबारा बोलता हूँ सबको. 

- हुंह! कल से जो दस बजे तक नहीं पहुंचे आप उसका क्रॉस लगाइए. कल से मैं देखूंगा हाजिरी रजिस्टर. और इस रजिस्टर में तो 56 नाम हैं. ये तो बहुत ज्यादा हैं. बिजनेस तो इतना है नहीं. 

- हुंह! आपने ब्रांच की फिगर्स तो देखी नहीं फिर आप कैसे कह सकते हो बिज़नेस बढ़ा नहीं? कमाल है!

- हुंह!

- हुंह!

जाहिर था की ऑडिटर और ब्रांच मैनेजर की तलवारें खिंच गईं थीं. ऑडिट अब आसान नहीं होने वाला था. अगले दिन गोयल सा और मनोहर सा और स्टाफ ने पौने दस बजे हाजिरी लगाने की ठान ली. गोयल सा ने पार्किंग में पहुँच कर अपनी गाड़ी लगानी चाही पर जगह मिलने में देर लगी. गाड़ी लगा कर तुरंत ब्रीफ केस उठाया और तेज़ी से ब्रांच की तरफ लपके. पर मोटापा तेज़ चलने में ब्रेक का काम कर रहा था. कितनी बार पत्नी कह चुकी है वजन घटाओ पर गोयल सा सुनते ही नहीं. हाँफते हुए पसीने में तर-बतर केबिन में पहुंचे तो दस बज के पांच मिनट हो चुके थे. इससे पहले कि गोयल सा हाजिरी लगाएं मनोहर जी ने उनके नाम के आगे वाले कॉलम में क्रॉस लगा दिया. बात हॉल में पहुंची तो स्टाफ खुश हुआ और कोरस में आवाज़ आई - काटा लगा! इधर मनोहर साब बोले,

- गोयल सा ठंडा लोगे या चाय मंगाऊं?

- हुंह!

- और ये देखिये बिज़नेस फिगर्स. दस परसेंट जमा राशी बढ़ गई है और सोलह परसेंट लोन, मनोहर जी ने कागज़ आगे बढ़ा दिया. 

- हुंह!

उसके बाद तो ब्रांच का ऑडिट करना और भी मुश्किल हो गया. मूछ का सवाल था हालांकि दोनों मुछ-मुंडे थे. गोयल सा ने अपनी गाड़ी छोड़ कर बस में आना शुरू कर दिया. पर फिर भी दो चार मिनट ऊपर हो जाते थे. दफ्तर दस बजे से पहले पहुंचना भारी पड़ रहा था. लोन फाइलें और बाकी काम काज भी ठीक ठाक ही था कुछ गड़बड़ नहीं निकल रही था. उधर बड़े साब ऑडिट रिपोर्ट जल्दी चाहते थे. जैसे तैसे काम ख़तम कर के गोयल सा ने रिपोर्ट तैयार कर दी और बड़े साब को फोन पर बताया.  

रिपोर्ट में लिख दिया की ब्रांच में छप्पन आदमी काम कर रहे हैं जबकि छत्तीस ही काफी थे. बिजनेस आंकड़ा और बढ़ सकता था उतना नहीं बढ़ा है जितना की स्कोप था. गोयल सा की रिपोर्ट बड़े सा को पसंद आ गई. पर साथ ही एक और ख़ुशी की बात हुई. बड़े सा का प्रमोशन हो गया और ट्रान्सफर भी आ गई. वहां अब नए साब बैठ गए. नए साब और मनोहर साब हमप्याला थे. मनोहर साब ने फोन लगाया और ऑडिट के बारे में नए सा को कथा सुनाई. बड़े सा ने रिपोर्ट देखी और बोले, 

- हूँ बहुत नाइंसाफी है रे गोयल! 

अब बड़े सा ने मानव संसाधन विभाग में फोन लगाया और गोयल सा की डट कर तारीफ़ कर दी. गोयल जैसा आदमी ही इस ब्रांच को चला सकता है. बहुत काबिल आदमी है वगैरा. और फिर गोयल सा की पोस्टिंग उसी झुमरी ब्रांच में करा दी. गोयल सा ने ना नुकुर तो की पर ब्रांच ज्वाइन करनी पड़ी. अब बड़े साब ने फोन लगाया, 

- गोयल साब अब जल्दी से स्टाफ छप्पन से घटा कर छत्तीस करो और बिज़नेस बढ़ाओ. 

 ऑडिट


Sunday, 18 October 2020

देवियों और सज्जनों

अखबार में कुछ दिनों पहले खबर छपी थी कि जापान एयरलाइन्स भविष्य में अपने हवाई जहाज़ में इस तरह से घोषणा नहीं करेंगे - गुड मोर्निंग लेडीज़ & जेंटलमेन. अब जापानी एयर होस्टेस दूसरी तरह से घोषणा करेगी - 'गुड मोर्निंग एवरीवन' या फिर 'गुड मोर्निंग पैस्सेंजर्स'. ब्रिटेन में भी 'हेलो एवरीवन' शुरू कर दिया गया है. इसका एक कारण तो यह बताया गया की सब बराबर हैं और लिंग भेद नहीं होना चाहिए. ये पुरुष प्रधान समाज को बदलने की लम्बी कोशिश की एक कड़ी है. दूसरा कारण यह की समाज में किन्नर भी हैं तो उन्हें भी गुड मोर्निंग पहुंचनी चाहिए. तीसरा इशारा यह भी था की अब लड़की-लड़की और लड़के-लड़के जैसी शादियाँ भी हो रही हैं तो जेंटलमैन और जेंटलवीमेन शब्द छोड़ ही दिए जाएं. 

बैठे ठाले इन्टरनेट पर खोजबीन शुरू की तो पता लगा की सोलहवीं सदी में जेंटलमैन और जेंटलवीमेन दोनों शब्द चला करते थे. जेंटलमेन वो थे जो निकम्मे थे याने बड़े ज़मींदार या अमीर जो खुद कभी काम नहीं करते थे बल्कि लोग उनके लिए काम करते थे! लोग कमा कर देते थे और वो बैठ कर खाते थे! कैसे इस शब्द ने मतलब बदला की सभी आम-ओ-खास  जेंटलमैन / जेंटलवीमेन हो गए! हालांकि आम जनता की जेब खाली की खाली ही रही. जनता जनार्दन को भाषण देते समय ये संबोधन 'लेडीज़ & जेंटलमैन' कहना कब और किसने शुरू किया ये कहीं भी लिखा नहीं पाया. पता लगा कि इस तरह का कोई रिकॉर्ड नहीं है. 

कुछ समय पहले ऑक्सफ़ोर्ड विश्विद्यालय ने एक प्रयोग शुरू किया था कि छात्र छात्राएं 'ही' या 'शी' शब्द के बजाए ज़ी शब्द इस्तेमाल करें. कैसा चल रहा है ये प्रयोग? इस पर कोई जानकारी नहीं मिल पाई.    

हमारे यहाँ मीटिंग या चुनावी रैली में 'लेडीज़ & जेंटलमेन' कहना हो तो 'महिलाओं और पुरुषों' ना कह कर 'देवियों और सज्जनों' कहा जाता है अर्थात मान सम्मान बढ़ा दिया जाता है. ये अलग बात है की असल में मान सम्मान बढ़ता है या नहीं. नेताओं के भाषणों में ज्यादातर संबोधन  'भाइयों और बहनों' का है. वोट लेने के लिए रिश्तेदारी गांठने की कोशिश रहती है! नेता जी जीतने के बाद में शक्ल दिखाएंगे या नहीं कह नहीं सकते.

मीटिंग या चुनावी रैली में मित्रों, साथियों, कॉमरेड, भारतवासियो जैसे संबोधन भी इस्तेमाल होते हैं. इन शब्दों में स्त्री, पुरुष और किन्नर सभी शामिल हैं कोई भेदभाव नहीं है. परन्तु इन संबोधनों का प्रचलन कम है. 

पश्चिमी देशों के विपरीत आम तौर पर यहाँ पर किसी अनजान राहगीर से बात करनी हो तो 'सुनिए भाईसाहब, बहनजी, माताजी, अम्माजी' जैसा रिश्तेदारी वाला संबोधन ही करते हैं सुनिए श्रीमान या महाशय या साहब नहीं बोलते या काफी कम बोलते हैं. ज्यादातर पश्चिमी देशों में टीचर, बॉस या पड़ोसी को नाम से ही पुकारते हैं. नाम के साथ में सर, मैडम, जी, जनाब या साहब लगाने की जरूरत नहीं समझते हैं. हमारे यहाँ ऐसा होना मुश्किल ही लगता है की बच्चे अपनी टीचर गायत्री भट्ट को गायत्री कह कर पुकारें. चलती प्रथा का बदलना आसान नहीं है. और पुरुष प्रधानता को बदलना और भी मुश्किल है.

वैसे बराबरी का संबोधन तो राजस्थान में खूब चलता है जैसे राम राम भाई सा, भाभी सा, ससुर सा, सासू सा. हो सकता है ये 'सा' साहब या साहिबा या दोनों का संक्षिप्त संस्करण हो. जो भी हो इस 'सा' ने साहब और साहिबा का भेद समाप्त कर दिया. सा लगा कर सब बराबर! इसी सा को आगे भी बढ़ाया जा सकता है. हवाई जहाज वाली होस्टेस बोले - सभी यात्रियाँ ने राम राम सा. अपणा अपणा सामान संभालणा सा. संबोधन में तो बराबरी अच्छी है पर आम जीवन में तो वैसी बराबरी नहीं है. 

वैदिक इतिहास में गार्गी और मैत्रेयि जैसी विदुशियाँ ज्ञानी पुरुषों से शास्त्रार्थ के लिए जानी जाती हैं. इससे लगता है की लिंग भेद नहीं रहा होगा या होगा तो बहुत कम रहा होगा. इसी तरह बौद्ध ग्रन्थ 'संयुक्त निकाय' में भिक्खु संघ के प्रमुख का नाम सारिपुत्त और मोगल्लना आता है तो भिक्खुनी संघ के प्रमुख का नाम खेम्मा( क्षेमा ) और उप्पल्वन्ना( उत्पलवर्णा ) लिखा मिलता है. ये सभी महिलाएं और पुरुष समान रूप से बिना भेद भाव के अरहंत बने या निर्वाण को प्राप्त हुए. पर भारतीय इतिहास में महिला राजा का नाम सुना नहीं. 

लगभग तीन साल के लिए 1986 से 88 तक असम में पोस्टिंग हुई थी. आसपास के छोटे छोटे राज्यों में घूमने का मौका मिला. वहां बहुत से कबीले हैं - खासी, गारो, कूकी, बोडो, नागा, मिज़ो वगैरा. बहुत से कबीलों में प्रथा है की जमीन जायदाद लड़कियों को ही मिलती है. बेटियों में से भी सबसे छोटी बेटी को सबसे ज्यादा मिलती है. बूढ़े माँ बाप छोटी बेटी के साथ ही रहते हैं. इसी तरह कुछ आदिवासियों में शादी के बाद लड़का लड़की के घर चला जाता है. शादी भी स्वयम्वर की तरह ही हो जाती है. इन कारणों से वहां लड़की या महिला के प्रति पुरुषों का दृष्टिकोण अलग है. पैत्रक व्यवस्था या patriarchy का जोर कम है. पुरुष प्रधानता ज्यादातर मधुशाला में दिखती है!

हमारे पेंशनर मित्र हैं जिनके पास एक कीमती फ्लैट है और गाँव में एक आम का बाग़ और एक बड़ा पुश्तैनी मकान भी है. उनका कहना है की जमीन जायदाद तो मैं बेटे को ही दूंगा. हाँ सोना, चांदी, कैश और बैंक बैलेंस बेटी को दे जाऊँगा. जब उन्हें बताया कि अब तो बेटे बेटी का जमीन जायदाद पर बराबर का हक है तो वो बोले की जितने मर्ज़ी क़ानून बना लो पर मेरा वंश तो बेटे ने ही चलाना है. जैसे स्वर्गीय पिता जी से मुझे जायदाद मिली थी वैसे ही मैं भी बेटे को ही दे कर जाउंगा. जो प्रथा चल रही है वही चलेगी.

पिछले तीस पैंतीस साल के दौरान घूँघट की प्रथा का समाप्त होना, शादी ब्याह तय होने से पहले लड़का-लड़की का आपस में मिलना और महिलाओं का नौकरी पर जाना भी बहुत बड़े बदलाव हैं. फिर भी संसद और विधान सभाओं में महिलाएं काफी कम हैं. ऊँचे ओहदों पर भी महिलाएं कम हैं. पर आजकल के अखबार तो बलात्कार और महिलाओं पर अत्याचार की ख़बरों से रंगे रहते हैं.  इन्हें पढ़ कर तो लगता है पुरुष प्रधानता कभी घटने वाली नहीं है. अर्थात हम पुरुषों की ऊँची गद्दी सुरक्षित है!  

सागरिका घटगे 'मानसून फुटबॉल' का उद्घाटन करते हुए ( filmytown.com से साभार ). फुटबॉल कितनी दूर जाएगी? सागरिका क्रिकेट के खिलाड़ी ज़हीर खान की पत्नी हैं. 


Patriarchy / पितृतंत्र / पुरुष प्रधानता की परिभाषाएँ :

* ऐसी सामाजिक व्यवस्था जिसमें सत्ता तथा नियंत्रण पुरुषों को प्राप्त होता है न कि महिलाओं को. 

* Patriarchy is a social system in which men hold primary power and predominate in roles of political leadership, moral authority, social privilege and control of property. Some patriarchal societies are also patrilineal, meaning that property and title are inherited by the male lineage - Wikipedia.

* (i) Social organization marked by the supremacy of the father in the clan or family, the legal dependence of wives and children, and the reckoning of descent and inheritance in the male line. (ii) A society or institution organized according to the principles or practices of patriarchy - Merriam-Webster.

* A society in which the oldest male is the leader of the family, or a society controlled by men in which they use their power to their own advantage - Cambridge Dictionary. 



Wednesday, 14 October 2020

ब्रीफकेस

बैंक बड़ा हो तो स्टाफ भी ज्यादा होता है. और स्टाफ जिस तरह के समाज से आता है और जिस तरह के बम पटाखे वहां फूटते हैं वही सब कुछ अंदर भी होता रहता है. स्टाफ के आपसी झगड़े, गाली गलौज, हाथापाई भी हो जाती है. कई बार ऐसा भी हो जाता है की किसी कर्मचारी या अधिकारी ने फ्रॉड कर दिया या फिर फ्रॉड कराने में शामिल हो गया. ऐसे में जवाब तलब किया जाता है और जवाब संतोषजनक ना पाया गया तो कचहरी बैठा दी जाती है. फिर वही सब कुछ होता है - मुंसिफ, मुद्दा, मुद्दई, मुद्दालेह और आखिर में सज़ा. 

मुकदमा चूँकि मैनेजमेंट चलाती है तो इन्क्वायरी ऑफिसर मन पसंद चुन लेती है. जिस चार्जशीटेड बन्दे को बैंक प्रबन्धन ने कड़ी सजा देनी होती वहीँ गोयल साब की याद आ जाती थी. गोयल सा केस लंबा खींचना हो या जल्दी  ख़त्म करना हो तो कर देते थे. इन्क्वायरी उलझाए रखने, आरोपी को धमकाने डराने में भी तेज़ थे. मैनेजमेंट के मूड के मुताबिक रिपोर्ट तैयार कर देते थे. कड़ी सजा देनी हो तो रिपोर्ट में ऐसा लिखते की मानो इस बन्दे और इस बन्दे की करतूत के कारण बैंक का दिवाला पीटने वाला है. इसलिए चार्जशीटेड बन्दे को बैंक के बाहर फेंक देना चाहिए. 

गोयल सा enquiry और inquiry में फर्क करते थे. उनका कहना था मैं इन्क्वायरी 'e' से नहीं 'i' से करता हूँ -  'i' याने डंडा! ऐसे धाकड़ इन्क्वायरी ऑफिसर का मुकाबला कौन करे? बचाव पक्ष में बचाव बस कॉमरेड मनोहर उर्फ़ मन्नू भैय्या ही कर पाते थे. छोटे मोटे बचाव अधिकारी तो गोयल सा से खौफ खाते थे और कन्नी काट जाते थे. 

एक बार हमारे मित्र ने किसी मैनेजर को कथित अपशब्द बोल दिए. हमारी जानकारी में ये मित्र अच्छी भाषा का ही इस्तेमाल करता था गलत शब्द नहीं बोला करता था. क्या जाने क्या हुआ होगा? हो सकता है की किसी बात पर मैनेजर साब की पूँछ पर पैर आ गया हो. बहरहाल जब गोयल साब को जज बनाया गया तो जाहिर था सजा सख्त होगी. 

इन्क्वायरी का सातवाँ दिन था. बचाव पक्ष से कॉमरेड मनोहर ने हमारे मित्र के पक्ष में दलील पेश करनी थी. कॉमरेड ने मित्र के कान में फुसफुसाया - देख चार बजे गोयल आएगा. मैं उस के साथ किसी ना किसी बहाने तू तू मैं मैं शुरू कर दूंगा. वो भी ऊँचा ऊँचा बोलने लगेगा. इस बीच जैसे ही उसका ध्यान इधर उधर हो तू उसका ब्रीफकेस ले कर ब्रांच के बाहर भाग जाना. और मेरी वेट करना. बाकी मैं सम्भाल लूँगा. मित्र झिझका और घबराया पर फिर हिम्मत कर के उसने हाँ कर दी.  

गोयल सा आए और आकर राजा भोज की सीट पर विराजमान हुए. मुकदमा आगे बढ़ने के लिए तैयार हो गए. आरोपी मित्र और कामरेड मनोहर नमस्ते कर के बैठ गए. कामरेड ने ड्रामा शुरू कर दिया - क्या सर झूठे केस बनाते हो, जी एम के चमचे हो .....गोयल सा भी भिड़ गए - ये क्या बकवास है? मुझे इन्क्वायरी दी गई है मुझे काम करने दो. बदतमीज़ी नहीं करना वरना मैं देख लूँगा तुमको... 

वार्तालाप ऊँची ऊँची आवाज़ में शुरू हो गई और केबिन का तापमान बढ़ गया. इस बीच कॉमरेड ने मित्र को इशारा किया. मित्र ने ब्रीफकेस उठाया और बाहर भाग लिया. अब गोयल सा का पारा सातवें आसमान पर पहुँच गया. फ़िल्मी डायलाग शुरू हो गए. काफी देर तक गरमा गर्मी चलती रही.  

पर ए सी की ठंडक ने थोड़ी देर में गोयल सा को शांत कर दिया और वो बोले - अरे यार मेरा कैश पड़ा हुआ है उस ब्रीफकेस में, गाड़ी की चाबियाँ हैं ऐसा कैसे कर सकते हो आप? सरासर गुंडागर्दी है ये तो! 

जवाब में कॉमरेड मनोहर समझाने लगे- गोयल सा ठण्ड रखो ठण्ड. कॉमरेड ने पानी मंगाया, चाय मंगाई और अंत में आपसी सुलह हो गई. हमारा मित्र बाइज्ज़त बरी हो गया. 

अंत भला तो सब भला. 

गोयल सा का ब्रीफकेस 

Saturday, 10 October 2020

देर कर दी

पंजाबी बोलना सीखना चाहिए या फिर बंगाली बोलना? या फिर दोनों? पर मुश्किल तो यो हो रही की सिखाए कौण? 

मनोहर जी आजकल बैंक में काम कर रहे हैं और रहने वाले हैं गाँव खेड़े के. अब खेड़े में ये दोनों भाषाएँ बोलने बताने वाला कोई है नहीं. तो मनोहर जी उर्फ़ हमारे मन्नू भैया का काम कैसे होगा? एक दोस्त ने सुझाव दिया अंग्रेजी बोलना सीख ले तो सारे काम निपट जाएंगे. अंग्रेजी सिखाने के वो पैसे भी नहीं लेगा. कनॉट प्लेस में तो नौकरी है ही वहां कोई किताब विताब ले लेगा और आगे पढ़ लेगा. क्यूँ जी? 

बात मन्नू भैय्या को जंची और एकाध पाठ पढ़ा भी. दोस्त ने बताया की अगर लड़की को अपना प्यार जताना हो तो कहना 'आई लव यू'. बहुत प्रैक्टिस के बाद भी मन्नू भैय्या 'आई लव जू' ही बोल पाए. यू और जू अलग अलग हैं मन्नू भैय्या को समझ तो आ रहे थे पर उच्चारण ठीक से ना हो पा रहा था जी. आपको तो पता ई है जी गाम में तो आम तौर पर नूं ही बोला जा - अबे जे का है? और बताऊँ जी यमुना नदी को भी तो जमना जी ही कहा जावे है क्यूँ जी?  

बात जे है की हमारे मन्नू भैय्या गाम छोड़ के सहर चले गए बैंक में नौकरी करने. वहां भान्त भान्त के लोग आवें तरा तरा की बोली बोलें जभी तो भैय्या ने सोची की दो एक बोली और सीख लें काम आ जागी. जहाँ पोस्टिंग हो लोकल भासा पहले सीखो क्यूँ जी. एक बात और भी तो है जी की हमारे मन्नू भैय्या अब तक कंवारे हैं. तो आप जानों बैंक में कोई पंजाबी बंगाली छोरी भी तो हो सके. टांका भिडाने में आसानी हो जा हाहाहा! क्यूँ जी? 

पर जे बात बाद में पता लगी जी की पंजाबी छोरी कैड़े सवाल कर गई मन्नू भैय्या से. बोली, कहाँ कहाँ से आ जाते हैं बालों में तेल चुपड़ के? लो बताओ भैय्या? कच्ची घनी का सरसों का तेल ले के आप बालों में गेर दो तो भैय्या दूर दूर तक चमकेंगे. पर हमारे भैय्या तेल की सीसी वापिस ले आए. योई बात खराब लगे दिल्ली वाली लड़कियन की. फिर दूसरे दिन बोली, कहाँ कहाँ से आ जाते हैं भूसे की स्मेल ले के? लो बताओ? उस दिन भैय्या दरअसल सुबह भैंसिया को चारा पानी दे के, फटफटिया दौड़ा के, सीधे डूटी पे जा लिए थे. बस जी दोस्ती छुट गई. सहर की छोरियां से बात जल्दी ना बनती. ऐंठन बहुत है ऐंठन. अब अपनी ऐंठ में रहती हों तो रहें.

पर जे बात भी बाद में पता लगी की कलकत्ते की छोरी जो बैंक में मन्नू भैय्या के साथ काम करे थी वा में ऐंठन ना थी. भैय्या ने बताया के संध्या की बड़ी बड़ी आँखें और बाल तो काले और इतने लम्बे की जमीन पे लोट रहे. उसी की खातर बंगाली पढनी थी मन्नू भैय्या ने. पर गाम में कौन पढावे? तब अंग्रेजी भासा का पाठ पढा. फिरंगी भासा अटक अटक के पढी जा. जल्दी से ना आती. मन्नू भैय्या को दोस्त ने सिखा दिया था की जब बोलना हो 'मैं तुम पे मरता हूँ' बोल दियो 'लेडी आई डाई ओन यू'. पर बेचारे भैय्या गड्ड मड्ड बोल दें थे - लेडी डाई आई जू.

भैय्या कोसिस कर के संध्या को नमस्ते जरूर कर दें थे. हालचाल भी रोज पता करें थें. एक दिन संध्या से पूछी- नास्ते में हमारे तो परांठे बनते हैं आप के तो मछली बनती होगी? जवाब में वो बोली, 

- मनोहर जी देस बिदेस में तरा तरा के खाने बनते हैं. मर्जी हो मछली खाओ ना मर्जी हो ना खाओ. 

बात तो लड़की ने ठीक कही जी. खाना हो खाओ ना खाना ना खाओ. उसके बाद लड़की छुट्टी ले के और कलकत्ते चली गई.    

खैर बड़े दिनां बाद कलकत्ते से वो संध्या वापिस आई. मन्नू भैय्या बोले,

- नमस्ते संध्या जी. कई दिन बाद आए हो जी?

- हेल्लो मनोहर जी. हाँ घर जाओ तो ऐसा ही होता है समय लग ही जाता है. 

- बड़ी सुंदर साड़ी पहरे हो जी. जच रही है जी. 

- थैंक्यू . मेरे मंगेतर ने दी है.

- ओ तेरे की! ***? # @ >*< % $ ?!***. 

भैय्या कुछ सोच में पड़ गए. मन को मजबूत करा और फिर बोले, 

- मैं सोचूं था आप आओगे तो जी शादी की बात चलाऊंगा जी. परपोज करना था जी आपको.   

- कमाल है मनोहर जी ! पर आपने देर कर दी.

मन्नू भैय्या के दिल का गुलाब कतई मुरझा गया जी.  

बाएं से दाएं - मंगेतर के गुलाब 😀 और मनोहर का गुलाब 😞 


Wednesday, 7 October 2020

केबिन में क्रांति

बड़े बड़े बैंकों में छोटी छोटी बातें होती रहती हैं. अब देखिये झुमरी तलैय्या की सबसे बड़ी ब्रांच के सबसे बड़े केबिन में सबसे बड़े साब गोयल जी बिराजमन थे. बड़ी सी टेबल पूरी तरह से ग्लास से ढकी हुई थी. एक तरफ कुछ फाइलें थी, अखबार थी, पेन स्टैंड था और फोन था. सामने तीन कुर्सियां थी जिनमें से एक पर ब्रांच यूनियन के सेक्रेटरी कॉमरेड मनोहर बैठे थे. 

आप तो गोयल साब और कॉमरेड को जानते ही होंगे? नहीं तो हम परिचय करा देते हैं कोई दिक्कत नहीं है. हमारे गोयल सा ज़रा सा सांवले कलर में हैं पर सफ़ेद कमीज़ पहनते हैं, लाल काली टाई लगाते हैं. उनके टकले सर पर दर्जन भर बाल खड़े रहते हैं जो यदा कदा हवा में लहरा जाते हैं फिर वापिस आ कर खड़े हो जाते हैं. हाव भाव में गोयल सा का अंदाज़ कुछ यूँ रहता है - अरे हटो यार तुम्हारे जैसे बहुत देखे हैं. 

कामरेड मनोहर उर्फ़ मन्नू भाई कुछ बरस पहले ही नौकरी में आए हैं. गाँव खेड़े के हैं तो ज़रा हृष्ट पुष्ट हैं. जोर से बोलते हैं. बताते हैं की कभी हम गाय भैंसिया वगैरह चराते थे. वही सब तो आवाज़ अंदाज़ में आ गया है. बुलंद आवाज़ में गजब के नारे लगाते हैं. अब जो जोर से बोलता है वही ना यूनियन का नेता बनता है? कामरेड की भाव भंगिमा यूँ रहती - अबे मानता है की नहीं?     

ब्रांच के केबिन में चीफ सा और कॉमरेड सा की आमने सामने गरमा गरम बहस चल रही थी. मुद्दा था ओवरटाइम. चीफ सा दस घंटे की पेमेंट देने के लिए तैयार थे जबकि कॉमरेड बीस घंटे का ओवरटाइम मांग रहे थे. 

बैंकों का राष्ट्रीयकरण को तीन चार बरस बीत चुके थे. रोज़ नई शाखाएं खुल रहीं थी और नया स्टाफ भी भरती हो रहा था. बैंक जो दरबार-ए-ख़ास हुआ करता था अब दरबार- ए-आम होता जा रहा था . शहर की बड़ी शाखाओं में भी नया स्टाफ पोस्ट किया जा रहा था. इसी ब्रांच में सौ लोग थे अब 110 हो गए हैं. 

बैंक का ख़याल था की ओवरटाइम अब बंद कर दिया जाए क्यूंकि एक्स्ट्रा स्टाफ दे दिया गया है. यूनियन कहती थी दिसम्बर और जून में खातों में ब्याज लगाने का काम एक्स्ट्रा था इसके ओवरटाइम मिलना चाहिए और सबको मिलना चाहिए. 

ब्रांच में बड़े लोन और फोरेन एक्सचेंज का काम भी था और रूसी एम्बेसी का खाता भी. केबिन में अभी बातचीत चल ही रही थी कि एक रूसी महिला और एक सज्जन भी अंदर आ गए.  

कामरेड ने मौके की नज़ाकत देख कर बात ख़तम करनी चाही और खड़े हो गए. बोले - चलो आप पंद्रह घंटे दे दो. 

चीफ साब बोले - नो! दस घंटे. 

कामरेड ने खड़े खड़े थोड़ा और ऊँचे सुर में बोल दिया - पंद्रह घंटे! और यह कह कर मेज़ पर जोर से थपकी मारी. उसी हाथ की कलाई में स्टील का कड़ा पहना हुआ था वो जोर से शीशे से टकराया और शीशा कड़क गया. आवाज़ सुन कर बाहर बैठा स्टाफ भी देखने लग गया. ये दृश्य देख कर दोनों रूसी तुरंत खड़े हो गए और महिला ने सोचा की भारत में क्रांति आरम्भ हो गई है. वो बोल पड़ी, 

революция ( revolution)! और दोनों रूसी केबिन से बाहर भाग लिए. 
गोयल सा भी उछल कर खड़े हो गए. कॉमरेड को लगा काम खराब हो जाएगा सो बोले, 
- सॉरी चीफ साब सॉरी.

खैर जो भी हुआ इस क्रांति का समापन शांतिपूर्ण रहा. क्रांति केबिन के अन्दर ही समाप्त हो गई. 
ओवरटाइम? वो तो दस घंटे में ही संतोष करना पड़ा.  
गोयल सा की ऐतिहासिक टेबल 



Saturday, 3 October 2020

खाली प्याला

बैंक में नौकरी लगे मनोहर को अभी ज्यादा दिन नहीं हुए थे. इम्तिहान देकर नौकरी लगी तो अपना गाँव कसेरू खेड़ा छोड़ कर कनॉट प्लेस पहुँच गए. कहाँ हरे भरे खेत और गाय भैंस का दूध और कहाँ ये कंक्रीट जंगल और चाय और कॉफ़ी. पर फिर भी कनॉट प्लेस की इमारतें, बड़े बड़े सुंदर शोरूम, रेस्तरां वगैरह में मनोहर उर्फ़ मन्नू भैया का दिल उलझ गया. अब वापिस जाना मुश्किल लगता था.

एक बड़ी दिक्कत थी यहाँ इस बैंक में. वो ये की कोई बात नहीं करता था और ना ही कोई बात करती थी. खुद बात शुरू करनी पड़ती थी. चलो आदमियों से क्या बात करणी थी उनें सुसरों को तो छोडो पर कोई सी छोरी भी ना बात करे तो जी में आग लगनी थी के नईं? 

बैंक में आए भी कई महीन्ने हो लिए पर काम भी पूरा ना सीख पाया. लोग सिखाते भी ना हैं जी पता नहीं क्यूँ? ट्रेनिंग में जो सीखा सो सीखा. फिक्स डिपाजिट है, लाकर है, लोन है जितने लोग बैठे हैं कोई ना काम समझाता. काम सीख के उस सीट पे कुंडली मार के बैठ जाँ. भई नया आदमी आया है इसे बता तो दो पर ना नू सोचें की पोल खुल जाएगी. किसी दिन इन सबका पत्ता साफ़ करणा है.

इब आज लोन डिपार्टमेंट में ड्यूटी लगा दी है मैनेजर साब ने. लोन की संध्या मैडम पता नहीं कुछ काम सिखाएगी या वो भी बैरंग वापिस भेज देगी. चलो ध्याड़ी तो पूरी करणी ही पड़ेगी. वैसे संध्या देखने में भली लागे है, जीन वीन पहरे है और जब चले है तो हॉल में टिक टोक चले है, अंग्रेजी भी बोले है थोड़ी घणी. चल भाई डिपार्टमेंट में चलो. आज तो अखबार में 'आज का भविष्य फल' भी ना पढ़ा!

संध्या बड़े अच्छे से मनोहर से पेश आई. उसने लोन फाइलों का काम बड़ी अच्छी तरह से समझाया. जब भी कोई सवाल मन्नू ने पूछा संध्या ने पूरी तरह से समझाया और करके भी दिखाया. मन्नू भैय्या का दिल बाग़ बाग़ हो गया और भैय्या वो गदगद हो गए. चार बजे तक संध्या के फैन हो गए और साढ़े चार बजे बोले,

- संध्या जी मैं दिल की बात कहूँ जी? 

- हाँ कहो.

- आज तक इस ब्रांच में मुझे किसी ने इतने बढ़िया तरीके से काम नहीं सिखाया जितना आपने जी. सब सिखाने के नाम पर टरका देते हैं जी. मैं तो जी आपको दिल से कह रहा हूँ जी रिक्वेस्ट है जी. आपको आज मैं चाय कॉफ़ी या आइस क्रीम जो भी आपकी इच्छा हो, मैं खिलाऊंगा जी.

- हाँ हाँ क्यूँ नहीं. मैं मंगा देती हूँ अभी. बताइये क्या लेंगे आप? 

- ना जी ना! मेरी तरफ से और यहाँ नहीं बाहर बैठेंगे जी.

- अच्छा ठीक है पांच बजे चलेंगे. मेरे एक गेस्ट आने वाले हैं पांच बजे इकट्ठे चलेंगे. 

- थैंक्यू जी. मैं सामने सोफे पर बैठा हूँ जी आप इसारा कर देना. 

सोफे पर बैठे मनोहर जी के मन में सितार, गिटार, बांसुरी, शहनाई और कई तरह की घंटियाँ बजने लगीं. मन कभी नदिया किनारे, कभी बगिया में और कभी आसमान में उड़ रहा था. पर बड़े सावधानी से अपना पर्स निकाल कर चेक किया की नोटों की संख्या में कमी तो नहीं है. बिल का भुगतान हो जाएगा जी. आश्वस्त होकर फिर से सपनों में खो गए मन्नू भाई. सपनों के बीच में काली घटा भी आई पर जल्दी उड़ गई थी. 

पांच बज के पांच मिनट पर देखा तो संध्या अपनी सीट पर खड़ी हुई थी चलने के लिए तैयार और सामने कोई कन-कौव्वा खड़ा हुआ बतिया रहा था. जरूर लोन लेने वाला होगा कमबखत. ये लोन लेने वाले शाम को ही आते हैं. तब तक दोनों काउंटर के पीछे से घूम कर सामने आ गए.

- मनोहर जी चलो कहाँ चलना है? 

मनोहर जी भी खड़े हो गए. कभी संध्या को और कभी कन-कौव्वे को देखने लगे. एक तरफ तो गुस्सा आ रहा था ये कन-कौव्वा बीच में टपक पड़ा. दूसरी तरफ ख़तरा नज़र आ रहा था ये संध्या का भाई वाई ना हो. जो भी हो ये अगर साथ चला तो मज़ा कतई किरकिरा होने वाला है.

- वो...

- मनोहर जी मैं परिचय कराना तो भूल ही गई. ये मेरे मंगेतर हैं युगल किशोर जी और आप हैं मनोहर जी. मनोहर जी आज कहीं ले जाने वाले हैं हमें? 

- वो क्या है संध्या जी आज नहीं, आज नहीं. मुझे कुछ काम याद आ गया है.

दोनों बोल पड़े - चलिए चलिए मनोहर जी चलते हैं?

- आप दोनों घूम आइए जी. मैं फिर कभी चलूँगा, कहते कहते मन्नू भाई का मुंह लाल हो गया. 

दोनों खिलखिलाते हुए निकल गए. मन्नू भाई की प्रबल इच्छा हुई की आसपास कोई गड्ढा हो तो उसमें छलांग लगा दूँ.    

प्याला खाली था और खाली ही रह गया 


Friday, 25 September 2020

मीठी बोली

जनरल मैनेजर( रिटायर्ड ) गोयल साब ने शाम की तैयारी शुरू कर दी. नहा धो के चकाचक कुरता पायजामा पहन लिया. सिर पर जुल्फों के नाम पर गिनती के चार बाल बचे थे, उन पर प्यार से कंघी फेरी क्यूंकि बेशकीमती जो हैं. डाइनिंग टेबल पर दो बियर के गिलास, एक प्लेट में चखना और फ्रिज में से चिल्ड बोतल निकल कर रख ली. मोबाइल उठा कर नंबर लगाया,

- आजा भाई मन्नू!  आज की शाम तेरे नाम!

मन्नू उर्फ़ मनोहर आ गया और बोला - वाह वा! गोयल यार दिल खुश कर दिया. पर ये बताओ ये शाम मेरे नाम क्यूँ? और भाभी सा कहाँ हैं?

- भाभी गई है अपनी बहन के पास. मुझे तो लगता नहीं की वो वापिस आएगी अब तो सुबह ही आएगी. इशारा कर गई थी की फ्रिज में सब कुछ तैयार है भूख लगे तो माइक्रो कर लेना. ये लो अपना ग्लास चियर्स.

- चियर्स गोयल सा! पास में ही तो गई हैं कौन सा दूर है?

- अरे भई मुझे पता है दोनों बहनों में घंटों बातें चलेंगी. मतलब की कम और बेमतलब की ज्यादा बातें होंगी. कभी हँसेंगी, कभी फुसफुसाएंगी और कभी रोएंगी. मुझे आज तक ये समझ नहीं आया की ये बहनें जब इकट्ठी बैठती हैं तो कितनी बातें करती हैं? क्या बातें करती हैं? जाने किस बात पर तो हंसती हैं और ना जाने किस बात पर रोती हैं. मेरी समझ के बाहर है. अगर दोनों बतिया रहीं हों और मैं पहुँच जाऊं तो दोनों मिल कर मुझ पर ही टूट पड़ती हैं - लो आ गए पी के? ये पेट कहाँ जा रहा है? बोतल ख़तम कर दी होगी? चश्मा तो साफ़ कर लेते? अरे इनकी कथा वैसी है जैसे हरी अनन्त हरी कथा अनन्ता. ये लो खाते भी रहो साथ साथ.  

- आपने तो लम्बी हांक दी. हालांकि मेरी वाली तो अकेली बिटिया है अपने माँ बाप की पर आम तौर पर ऐसा ही होता है. जब कभी उसकी कोई कज़न वज़न आ जाती है तो बातें नॉन स्टॉप चलती हैं इनकी. पर गोयल सा ये तो आज की बात है ना जब हम और आप सठियाए हुए हैं हाहाहा. जब तीस पैंतीस के थे तब की बात करो ना आप!  

- और मैं क्या कह रहा हूँ भई. शुरू में जब ये बाइक के पीछे बैठती थी तो कुछ ना कुछ स्वीट स्वीट बोलती रहती थी और मुझे भी स्वीट स्वीट फीलिंग आती थी. कुछ दिनों बाद में इस मीठी मीठी बोली की मिठास कम हो गई. और कुछ दिन गुज़रने के बाद मीठी बोली फीकी हो गई और फीकी बोली कांय कांय में बदलने लग गई. और तब मैंने तो हेलमेट ले लिया, कान बंद. और फिर भी बोलती तो स्पीड बढ़ा देता फटफट-फुररर. अब बोलती रह.

- भाई जवानी तो जवानी थी. फटफटिया दौड़ाता था मैं. कितना पेट्रोल फूंक दिया कसम से इनकी सेवा में. सैकड़ों बार तो इंडिया गेट पर इन्हें आइस क्रीम खिला दी. इतनी खिला दी की बस उलटे मुझे ही शुगर हो गई कमबख्त! कभी कभी दोनों बहनों को बैठा कर भी घुमाया और कभी होली भी खूब खेली. फिर बस धीरे धीरे रस्ते अलग अलग हो गए. पता ही नहीं चला.

- वाह गोयल सा वाह! पुराने खिलाड़ी हो.

- अरे यार नौकरी लगने के बाद जिंदगी की चरखी ऐसी घूमी की कुछ पता ही नहीं चला. शादी, फिर बालक आ गए, कभी ट्रान्सफर और कभी प्रमोशन हो गई. अब मुड़ कर देखो तो और ही नज़ारा दिखता है.

 - घंटी बजी गोयल सा? किसी ने आना था?

- देखता हूँ कहीं वापिस तो नहीं आ गई? हाँ वापिस आ गई है शैतान को याद किया तो उसकी खाला आ गई. आप तो बैठो यार.  

- नमस्ते भाभी जी. बस अभी आपको याद कर रहे थे गोयल सा.

- नमस्ते जी. याद कर रहे थे? ये कहाँ याद करते हैं मुझे?

- ओहो मैं तो अभी इस को कह रहा था की जब तक भाभी की मधुर मधुर आवाज़ सुनाई ना दे तब तक यहीं बैठो. 

- गोयल सा अब आप मधुर मधुर आवाज़ सुनो और मैं चला अपनी बुलबुल की आवाज़ सुनने! 

बुलबुल 


Wednesday, 23 September 2020

पेंशनर और बीमा

भारत में उन पेंशनर की संख्या कितनी है जो अपने पूर्व एम्प्लायर से पेंशन लेते हैं? कुल मिला के कितने लोग नौकरी के बाद पेंशन ले रहे हैं? ये आंकड़े इन्टरनेट में खोजने की कोशिश की पर पता नहीं लग पाया. यूरोपियन यूनियन की एक साईट में 2005 से 2050 तक के आंकड़े और भविष्य के ग्राफ वगैरह थे. ऐसा लगता है की यूरोप में जनता और ख़ास कर वरिष्ठ नागरिकों की सेहत पर ज्यादा ध्यान रखा जाता है. भारत में केन्द्रीय, प्रादेशिक और सार्वजानिक प्रतिष्ठानों में अंदाज़न ढाई तीन करोड़ से ज्यादा नहीं होंगे? पता नहीं. आपको पता लगे तो कृपया बताएं. 

इन पेंशनर का स्वास्थ्य सम्बन्धी क्या इंतज़ाम है? फौजी भाइयों के तो अपने अस्पताल हैं, केन्द्रीय सरकार से रिटायर्ड लोगों का अपना इंतज़ाम है. जहां तक रिटायर्ड बैंकर का सवाल है वो अस्पताल की सेवाओं के लिए मेडिक्लैम बीमा पर निर्भर हैं. ओ पी डी सेवा ज्यादातर अपने खर्चे पर ही है. बैंक मेडिकल कॉलेज या अस्पताल या क्लिनिक बनाने के लिए लोन तो दे सकते हैं पर अपने पेंशनर के लिए इनमें कोई व्यवस्था नहीं करते या कर पाते? 

रिटायर होने के बाद क्या सेहत खराब हो जाती है या फिर बेहतर हो जाती है?  इस विषय पर इन्टरनेट पर खोज बीन की पर कुछ पक्का नियम या सिद्धांत हाथ नहीं लगा. फिर ख़याल आया कि विश्व स्वस्थ संगठन की वेबसाइट देखी जाए. यहाँ भी कुछ ख़ास नहीं मिला. पता ये लगा की ये एक जटिल सवाल है की सेहत बनी रहेगी या बिगड़ेगी और इसके लिए बहुत बड़ा और बहुत देर तक चलने वाला सर्वे कराना पड़ेगा. मतलब इस काम पर डॉलर लगेंगे और वो उनके पास हैं नहीं फिलहाल. पेंशनर की जेब की तरह इनका खज़ाना भी खाली है. 

फिर भी कुछ मोटी मोटी बातें दी हुई थी. अगर रिटायर होने से पहले सेहत अच्छी थी तो वो ज्यादातर अच्छी ही बनी रहती है. हाँ उम्र का प्रभाव तो नकारा नहीं जा सकता. नौकरी में रोजाना की मेहनत, उतार-चढ़ाव और मानसिक तनाव झेलते रहे थे पर स्वस्थ रहे थे तो फिर रिटायर होने के बाद भी स्वास्थ्य ठीक ही रहता है. ऐसे में तो रिटायर होना एक घटना मात्र है. बल्कि ये बदलाव काफी हद तक सुकून भी देता है कि चलो रोजमर्रा की किचकिच और खडूस बॉस से छुट्टी मिली. इसलिए लोग स्वस्थ बने रहते हैं. मतलब की आप दो पेग लगाते थे तो लगाते रहें फिकरनॉट! 

सर्वे में कुछ उदाहरण इसके उलट भी मिले हैं. याने रिटायर होते ही बिस्तर पकड़ लिया. ऐसा ज्यादातर रिटायर होने के तुरंत बाद ही हो सकता है. पर फिर जैसे जैसे समय निकलता है तो इस तरह की घटनाएं नहीं देखी गईं. इसका मुख्य कारण खुद पर से विश्वास घट जाना बताया गया है.

रिटायर हो चुके बन्दे के लिए मानसिक दबाव मसलन पैसा या निजी मकान ना होना या विषम घरेलु स्थिति भी स्वस्थ रहने में बाधक हैं. विकसित देशों में बेहतर स्वास्थ्य सुविधाएं, ओल्ड ऐज होम जैसी सुविधाएँ हैं जो रिटायर होने वाले को आश्वस्त रखती है. हमारे यहाँ वृद्धाश्रम जैसा इंतज़ाम बहुत ही कम है और दूसरी ओर संयुक्त परिवार भी तेजी से घटते जा रहे हैं. वैसे संयुक्त परिवार में बुज़ुर्ग की पूरी देखभाल होती है या नहीं ये एक अलग सवाल है. इसके साथ ही अब औसत उम्र भी बढ़ती जा रही है. मतलब बुढ़ापा लम्बा चल सकता है तैय्यारी रखें.

तैय्यारी में एक तरफ तो सुबह शाम की सैर, दौड़, खेलकूद, योगाभ्यास, साइकिलिंग वगैरह है और दूसरी तरफ डाइट का भी ध्यान रखना है. साथ ही खाते में पैसे भी रखने हैं कम से कम बीमा तो चालू रहे. 

अक्टूबर का महीना आने वाला है और बैंक के पेंशनर को मेसेज आएँगे की मेडिक्लैम के प्रीमियम के लिए खाते में बैलेंस बनाए रखें वर्ना...! बैंक वाली स्कीम में पिछले सालों से प्रीमियम शैतान की आंत की तरह बढ़ता जा रहा है. लगता है एक महीने की पेंशन प्रीमियम की भेंट चढ़ जाएगी. इसी तरह प्रीमियम बढ़ता रहा तो कुछ बरसों बाद दो महीने, फिर तीन महीने की पेंशन ....!

मेडिक्लैमके इस प्रीमियम पर कुनैन जैसा कड़वा जी एस टी का लेप भी है. पता नहीं सरकार ने क्या सोच कर लगाया है? 

इस मेडीक्लैम बीमे में एक और लोचा है. मान लीजिये आप ने पिछले साल कोई क्लेम नहीं किया तो आपको कोई छूट मिल जाए ऐसा नहीं है. बेजान कार के बीमे में इस तरह की छूट मिल जाती है पर जिन्दा पेंशनर को नहीं! पर चलिए ये बात सोच के संतोष हो जाता है की हमें ना सही किसी को तो इस बीमे का फायदा मिला होगा. इस जमाने का यही दान पुन्य है. 

बीमा कम्पनी के अधिकारी जो प्रीमियम की कोटेशन देते हैं, बैंक के अधिकारी जो कोटेशन मान लेते हैं और हमारे यूनियन / एसोसिएशन के पदाधिकारी( मुझे इनके रोल की जानकारी नहीं है और ये भी नहीं मालूम कि ये कहाँ तक दबाव डाल सकते हैं ) भी जानते ही होंगे की उन्हें भी रिटायर होना है? प्रीमियम घटाने पर किसी का ध्यान नहीं जाता. या सब लाल फीता शाही से बंधे हैं जैसा की निचले चित्र में है. 

कुछ ऐसे भी 'नौजवान' पेंशनर हैं जो ये बीमा पालिसी लेते ही नहीं. इनकी बात सुन कर लगता है कि -  

कहते हैं उम्र-ए-रफ़्ता कभी लौटती नहीं, 

जा मय-कदे से मेरी जवानी उठा के ला!

                        - अब्दुल हमीद अदम

व्हाट्सएप्प से लिया चित्र  


Saturday, 19 September 2020

प्राचीन विदेशी यात्री - इब्न बतूता

 इब्न बतूता 

प्राचीन काल में भारतीय उपमहाद्वीप में ज्ञान, विज्ञान, व्यापार, धर्म और अध्यात्म का बहुत विकास हुआ. इस विकास की ख़बरें मौखिक रूप में व्यापारियों के माध्यम से फारस,ग्रीस, रोम, चीन तक पहुँच जाती थी. इसकी वजह से व्यापारी, पर्यटक, बौद्ध भिक्खु तो आते ही थे बहुत से हमलावर भी आ जाते थे. इनमें से कुछ यात्रियों ने यात्रा संस्मरण, लेख, किताबें लिखीं या नक़्शे बनाए जो उस समय का इतिहास जानने के लिए बहुत ही महत्वपूर्ण सिद्ध हुए. 

इस श्रृंखला के  पहले भाग में ग्रीक यात्रियों, दूसरे भाग  में चीनी यात्रियों और तीसरे भाग  में अल बेरुनी का जिक्र है. यह लेख एक और यात्री इब्न बतूता के बारे में है जिसने भारत के विभिन्न भागों में कई साल गुज़ारे. 

Disclaimer - लेख के लिए सामग्री इन्टरनेट की फ्री वेबसाइट से एकत्र की है और अधिक जानकारी के लिए कृपया इतिहास की पुस्तकें पढ़ें.  

इब्न बतूता का पूरा नाम मोहम्मद बिन अब्दुल्ला इब्न बतूता था. बतूता का जन्म 1304 में मोरक्को के तान्जियर शहर में हुआ था. इक्कीस वर्ष की आयु में वह मक्का की हज यात्रा पर निकला. यह यात्रा लम्बी होती चली गई और तीस साल बाद वह वापिस मोरक्को पहुंचा. इस दौरान उसने पूर्वी अफ्रीका, दक्षिण अरब, क्रीमिया, ख्रीवा, बुखारा, अफगानिस्तान, दिल्ली, लंका, बंगाल, पश्चिम एशिया, स्पेन वगैरह की लगभग 121000 किमी की यात्रा की जो अपने आप में एक रिकॉर्ड है.   

इब्न बतूता ने वापिस पहुँच कर मोरक्को के सुलतान को अपनी यात्रा के किस्से सुनाए. सुलतान के कहने पर उसके एक सचिव ने ये यात्रा अरबी में कलमबंद की और किताब का नाम रखा गया - 'तुहफत अल नज़्ज़ार फ़ी गरायब अल अमसार अल अफ़सार'. ये किताब ज्यादातर 'इब्न बतूता का रेहला' के नाम से जानी जाती है. रेहला अर्थात यात्रा संस्मरण. इस किताब की अतिशोक्तियाँ छोड़ दें तो भी उस वक़्त के भारतीय उपमहाद्वीप के बारे में काफी कुछ जानकारी मिल जाती है. इब्न बतूता की मृत्यु 1377 में हुई. 

इब्न बतूता ने हिन्दुकुश, मुल्तान के रास्ते से भारत में प्रवेश किया. मुल्तान में उसने दिल्ली के सुलतान मोहम्मद तुगलक़ के लिए बहुत से उपहार खरीदे. दिल्ली का नाम इब्न बतूता के रेहला में देहली के नाम से दर्ज है. मुल्तान से ही बतूता ने एक हरकारे को एक चिट्ठी देकर सुलतान के पास पहले ही भेज दिया. 1333 में दिल्ली पहुँच कर सुलतान को उपहार दिए, सात बार उसका हाथ चूमा और फारसी बोल कर खुश कर दिया. सुलतान ने इब्न बतूता को दिल्ली का क़ाज़ी नियुक्त किया.
 
उन दिनों तुगलक़ अपनी सल्तनत जमाना चाहता था और उसे अपने दरबार में विश्वासपात्र कवि, लेखक, जज, मंत्री और नौकरशाह चाहिए थे. हिन्दुओं पर उसे शक रहता था की वे कोई षडयंत्र ना रच रहे हों. उसने अब लूटपाट के बजाए हिन्दुओं पर टैक्स लगाना शुरू कर दिया और उनकी जगह बाहर से आए हुए फ़ारसी या तुर्क लोगों को नौकरी देना शुरू कर दिया था. इस कारण से इब्न बतूता का काम बन गया. तुगलक के बारे में बतूता ने लिखा है की वह सनकी सुलतान था. एक सेकंड में वो किसी को मालामाल कर देता था और दूसरे ही क्षण किसी की गर्दन भी कटवा सकता था.
 
शाही दस्तरखान के बारे में इब्न बतूता ने कहा है की खाने से पहले मीठा शरबत और खाने के बाद जौ का पानी पीया जाता था. सुपारी के साथ पान का पत्ता भी कभी कभी चलता था. पतली रोटी के साथ भेड़ या बकरे का गोश्त होता था. गोश्त अदरक और प्याज के साथ घी में पकाया जाता था. चावल और चिकन भी घी में पकाए जाते थे. मोटी मीठी रोटी भी परोसी जाती थी जिसमें अखरोट, बादाम, पिस्ता वगैरह शहद के साथ मिला कर भरे होते थे. साथ में हरे आम का अचार और फल भी रखे जाते थे. एक और चीज़ जो बहुत पसंद की जाती थी वो था समोसा या सम्बुसक. इसे कीमा, प्याज, मेवे और मसाले भर के तला जाता था. 

खाने के साथ साथ शहरों और पेड़ पौधों का भी वर्णन है. अरबी से इंग्लिश में अनुवादित किताब से एक अंश:
We traveled from the city of Multan, and until our arrival in the country of Al Hind, our suite pursued the journey in the same order we have described. The first city that we entered was Abohar. It is the first of cities of Al Hind, it is small, handsome & thickly populated, & possess river & trees. Of the trees of our country there is none there except nabq. But the Al Hind nabq ( zizyphus lotus ) is very big, its stone is equal in volume to that of gall-nut, & is very sweet. The Indians have many trees none of which exists in our or any other country. One of them is amba ( mango ).
एक और रोचक किस्सा चीन से सम्बंधित है. चीन के राजा ने बहुत से गिफ्ट भेजे और एक 'मन्दिर' बनाने का निवेदन किया जो सुल्तान ने मना कर दिया. बदले में और ज्यादा उपहार दे कर सुलतान ने इब्न बतूता को चीन में राजदूत बना कर भेजने का आदेश जारी कर दिया. 
Cause of the despatch of presents to China (al-Sin)and the people who accompanied me and the presents:
The king of China had sent a hundred male & female slaves, five hundred velvet garments - out of which one hundred were made in Zaitan and one hundred in the city of Khansa - five maunds of musk, five garments studded with jewels, five quivers of gold brocade and five swords. He asked the sultan's permission to build an idol temple on the skirts of Qarajil mountain, which has been mentioned before, at a place called Samhal. The inhabitants of China go on pilgrimage to Samhal which the royal Muslim army of India had seized, destroyed and sacked.
When the said presents reached sultan he wrote to him a reply to this effect - Islam does not allow the furthering of such an aim and the permission to build a idol temple in a Muslim country can be accorded only to those who pay jizya....  
जिन जगहों के नाम ऊपर लिए गए हैं यथा सम्हल और क़राजिल पता ही नहीं लगते कहाँ हैं. चीनी से अरबी और अरबी से इंग्लिश के अनुवाद में ये नाम काफी बदल गए - कई अंग्रेजी की किताबों में सम्हल का नाम  सम्भल, सन्हिल, सनहल लिखा है इसी तरह से पहाड़ी का नाम क़रजिल, काराजिल, कारा या कोरा भी लिखा गया है. 
उपहार और लाव लश्कर ले कर बतूता कालीकट की ओर निकला पर रास्ते में डाकुओं ने लूटपाट कर दी. किसी तरह जान बचाते हुए ये लोग कालीकट पहुंचे. वहां से लंका, इंडोनेशिया के रास्ते इब्न बतूता चीन पहुंचा.    
अल बेरुनी और इब्न बतूता के अलावा और बहुत से मुस्लिम यात्री भारत आये और उन्होंने अपनी अपनी यात्राओं के बारे में लिखा भी. पर इनका जिक्र आम तौर पर कम है. इनके नाम हैं - फ़रिश्ता मोहम्मद कासिम( इरानी यात्री 1600 के आसपास ), सुलेमान, अल मसूदी( अरबी यात्री 896 - 956 ), अब्दुल रजाक हेरात, मुल्ला तकिया( अकबर के शासन काल में ), मुल्ला बहबहानी( 1807 में पटना ), तबरी( या अल टबरी ). इनके बारे में फिर कभी. 
इब्न बतूता (चित्र  indiatoday.in से साभार )



Sunday, 13 September 2020

प्राचीन विदेशी यात्री - अल बेरुनी

अल बेरुनी 

प्राचीन काल में भारतीय उपमहाद्वीप में ज्ञान, विज्ञान, व्यापार, धर्म और अध्यात्म का बहुत विकास हुआ. इस विकास की ख़बरें मौखिक रूप में व्यापारियों के माध्यम से फारस, ग्रीस, रोम तक पहुँच जाती थी. इसकी वजह से व्यापारी, पर्यटक, बौद्ध भिक्खु तो आते ही थे बहुत से हमलावर भी आ जाते थे. इनमें से कुछ ने यात्रा संस्मरण, लेख, किताबें लिखीं या नक़्शे बनाए जो उस समय का इतिहास जानने के लिए बहुत ही महत्वपूर्ण सिद्ध हुए. 

इस श्रंखला के  पहले भाग में ग्रीक यात्रियों के बारे में लिखा था और दूसरे भाग  में चीनी यात्रियों के बारे में. इस लेख में यात्री अल बेरुनी का जिक्र है. ( Disclaimer - यह जानकारी इन्टरनेट से एकत्र की है और अधिक जानकारी के लिए कृपया इतिहास की पुस्तकें पढ़ें ). 

अल बरुनी ( Al Beruni ): अल बरुनी का जन्म सन 973 में ख्वारेज्म, खोरासन में हुआ था जो अब उज़बेकिस्तान में है. उसकी मृत्यु 1048 में गज़ना में हुई थी जिसे अब ग़ज़नी ( अफगानिस्तान ) कहते हैं. वैसे अल बरुनी इरानी ( फारसी ) नागरिक था और उसका पूरा नाम अबू रेहान मुहम्मद इब्न अहमद अल-बरूनी था. 

उसे तुर्की, फ़ारसी, हिब्रू, अरबी, अरमेन्याई भाषाओं का ज्ञान था. यहाँ आकर अल बेरुनी ने संस्कृत भी सीख ली थी. उसे ज्योतिष, दवाइयां, गणित और खगोल विद्या में रूचि थी और यहाँ आकर उसने यह जानकारी बढ़ाने की कोशिश की. दिल्ली आकर उसने दूर दूर तक यात्रा की और उस समय के भारत के वो पहला मुस्लिम भारतवेत्ता माना जाता है. उसकी लिखी किताबों में से चार प्रमुख हैं: 

1. किताब-उल-हिन्द 2. अल क़ानून अल मसूदी 3. क़ानून अल मसूदी अल हैयात और 4. अल नज़ूम.

अल बेरुनी का आना महमूद गज़नवी के साथ ही हुआ और वह तेरह साल भारत में रहा. उसकी लिखी 'किताब उल-हिन्द' काफी चर्चित है. इस पुस्तक में यहाँ के जीवन का विस्तार से वर्णन किया है. संस्कृत सीख लेने के कारण प्राचीन ग्रंथों जैसे की गीता, उपनिषद, पतंजलि, पुराण और वेद के कोटेशन बरुनी के लेखों में काफी मिलते हैं. दरअसल इस किताब का पूरा नाम था - तहकीक मा लि-ल-हिन्द मिन मक़ाला मक्बुला फी अल-अक्ल औ मर्दूला ( Verifying All That the Indians Recount, the Reasonable and the Unreasonable - किताब के नाम का अनुवाद इनसाइक्लोपीडिया ब्रिटेनिका से ). ये नाम बहुत कुछ ज़ाहिर कर देता है की लेखक की मन्शा क्या है. किताब का हिंदी अनुवाद 'अलबेरुनी का भारत' के नाम से 1960 में प्रकाशित हुआ और अनुवादक थे रजनी कान्त शर्मा. 466 पेज की ये किताब ऑनलाइन पढ़ने के लिए इन्टरनेट पर उपलब्ध है. किताब की शुरुआत में अल बेरुनी ने लिखा है की किसी भी हिन्दुस्तानी विषय पर लिखना हो तो निम्न तरह की परेशानियां आती हैं:

1. भाषा की विभिन्नता - 'हमारी ज़ुबान के लिए संस्कृत भाषा का उच्चारण अत्यन्त कठिन है'. 

'हिन्दू लोग यूनानियों की तरह बाएँ से दाएं लिखते हैं'. 

'पांडुलिपियों को बहुत लापरवाही से तैयार किया जाता है और पूर्ण शुद्ध तथा पूर्णत: क्रमबद्ध पाण्डुलिपि बनाने पर समुचित ध्यान नहीं दिया जाता'. 

2. धार्मिक पक्षपात - 'अन्य धर्मानुयायियों के लिए उनके द्वार सदा बंद रहते हैं क्योंकि उनका विश्वास है की ऐसा करने पर वे धर्म भ्रष्ट हो जाएंगे'.

3. आचार विचार तथा रीतियों का भेद - 'तीसरे वे अपने तौर तरीकों  व व्यवहार विधि में हमसे इतने अधिक भिन्न हैं की वे बच्चों को हमारे नाम से, हमारे वस्त्रों से और हमारी रीतियों और व्यवहार से डराते हैं, और हमें शैतान की औलाद बता कर हमारे कार्यों को उन सभी कामों के विरुद्ध बताते हैं जिन्हें ये अच्छा और उचित मानते हैं. परन्तु हमें स्वीकार कर लेने में कोई संकोच नहीं होना चाहिए की विदेशियों का यह हेय भाव केवल हमारे और हिन्दुओं के बीच नहीं है, सभी देशों में एक दूसरे के प्रति सामान रूप से व्याप्त है'. 

4. बौद्धों का पाश्चात्य देशों से निष्कासन - हिन्दुओं और विदेशियों के बीच आरम्भ से व्याप्त भेदभाव व प्रतिद्वंदिता की भावना को प्रोत्साहन देने का एक अन्य कारण है की ब्राह्मणों से घृणा रखते हुए भी शमन्नियां ( अरबी भाषा में बौद्ध  श्रमणों को शमन्नियाँ कहते हैं ) अन्य धर्मावलम्बियों की अपेक्षा उन्हीं के अधिक निकट हैं. पूर्ववर्ती समय में खुरासान, परसिस, इराक, मोसुल और सीरिया की सीमा तक के क्षेत्र में बौद्ध धर्म काफी जोरों पर था'.  

5. हिन्दुओं का आत्मगौरव तथा विदेशी वस्तुओं से घृणा -  'स्वभावतः वे जो कुछ जानते हैं, उसे व्यक्तिगत थाती बना कर रखने की प्रवृति रखते हैं, और विदेशियों की बात तो दूर अपने ही देश के किसी अन्य जाती के लोगों से भी उसके छुपा रखने का प्रत्येक संभव प्रयत्न करते हैं. उनके विश्वास के अनुसार पृथ्वी पर उनके सामान कोई अन्य  देश नहीं है, उनके सामान कोई अन्य जाति नहीं है, और उनके अतिरिक्त किसी अन्य देश या जाति के पास ना शास्त्र है ना ज्ञान. उनके गर्व की सीमा कहाँ तक है, इसे इस उदाहरण से भली भांति समझा जा सकता है - यदि उनसे खुरासान या परसिस के किसी विद्वान या शास्त्र का उल्लेख करें, तो वे ऐसी सूचना देने वाले को मूर्ख के साथ साथ झूठा कहने में भी संकोच नहीं करेंगे. यदि वे पर्यटन करते तथा अन्य राष्ट्रों के जन जीवन का परिचय प्राप्त करते तो उनके ह्रदय में इस मिथ्या आत्म गौरव की भावना निकल जाती. उनके पूर्वज वर्तमान पीढ़ी के सामान संकुचित मनोवृति वाले नहीं थे...' 

'अलबेरुनी  का  भारत ' से एक अंश 



Saturday, 5 September 2020

साब की कार

प्रमोशन के साथ ही साथ ही गोयल साब की ट्रान्सफर भी हो गई. अब वो बैंक की झुमरी तलैय्या में सारी ब्रांचों के जनरल मैनेजर बन गए. धूमधाम से स्वागत होने के बाद कुर्सी सम्भाल ली. अगले दिन हेड ऑफिस से फ़ोन आया, 

- सार सुब्रामणियम सार! बहुत अच्चा पोस्टिंग मिला है सार. 

- थैंक्यू .

- एक खुशखबर है सार. मई सोचा पहले मई फोन करेगा सार को. आपको नया गाड़ी का सैंक्शन हो गया सार. नो लिमिट सार. कोई भी गाड़ी ले सकता सार. येनी ब्रांड सार.

- गुड.

- हम आएगा सार मिलने को. भाबी जी का हाथ का पराटा खाएगा सार. थैंक्यू सार.  

तुरंत फैक्स भी आ गया. पर गोयल सा को कार में ज्यादा रुचि नहीं थी. अगले साल ही तो रिटायर हो जाना है फिर बैंक गाड़ी वापिस ले लेगा. फिर भी श्रीमती को फोन पर सूचना दे दी की सुब्बू का फोन आया था. नई गाड़ी मिल सकती है और इस पर मैडम से मुबारक बाद ले ली. जितनी ख़ुशी साब को जी एम बनने पर हुई उस से ज्यादा मैडम को नई कार की बात सुन कर हुई.

फोन रख कर साब ने फिर पिछली जेब से कंघी निकाल कर बालों में घुमाई. अब बाल तो गिनती के ही बचे थे पर फिर भी. फिर टाई ठीक की. टाई भी माशाल्ला बड़े से पेट पर टिक जाती थी तो हिलती नहीं थी. अब आप से क्या छुपाना साब को बियर का बड़ा शौक है, और अगर साथ में कबाब हो तो सोने पर सुहागा. शाम को डिनर पर नई कार की चर्चा तो होनी ही थी. बिल्लू और बहु भी थे वो भी शामिल हो गए.

- मैं तो कहती हूँ नई कार ले ही लो. किट्टी और शौपिंग का मज़ा हम भी तो लें.

- पापा अगर पैसे की लिमिट नहीं है तो बी एम डब्ल्यू ले लो. कनाडा जाने से पहले हम भी मज़ा ले लें.

- यार ये गाड़ी पुरानी थोड़ी हुई है. चलने दो.

- पापा आप भी ! जब एम्बेसडर मिलनी थी तो आप कहते थे स्कूटर ही ठीक है, जब मारुती मिलनी थी तो आप कहते थे एम्बेसडर ही ठीक है और अब और बड़ी चॉइस मिल रही है तो वो ही पुरानी ही ठीक है.

- इनकी सोच तो ऐसे ही रही है बेटे बिल्लू. तू कहेगा तो शायद नई गाड़ी आ भी जाए मेरे कहने से तो नहीं आएगी. और इस बार प्लीज़ गाड़ी पर 'भारत सरकार' ना लिखवा देना. 

- पापा बी एम डब्ल्यू या फिर ऑडी या फिर मर्सडीज़ ? और हाँ इस बार सफ़ेद रंग नहीं चलेगा. 

- चल जो तू कहे!

- वाह वा! पर लखनऊ में ही मिलेगी यहाँ तो कोई शोरूम नज़र नहीं आता.\

- चलो कल मैं अर्रेंजमेंट करता हूँ. अगले दिन साब ने पी ए को बोला हज़रत गंज में सक्सेना से बात कराओ.

- सक्सेना क्या हाल है ? एक काम करो एक बी एम डब्लू कार की इनवॉइस भिजवाओ.

- जी सर जी सर. आप कहें तो मैं लेकर आ जाता हूँ सर. हें हें हें! एक घंटे की तो ड्राइव है बस. कौन सा कलर पसंद किया है भाभी जी ने सर? और सर बिल्लू तो कनाडा चला गया होगा? बहुत होनहार बच्चा है जी आपकी तरह. शादी में मिला था पर बहुत ही मिलनसार लगा सर. सर मेरी ब्रांच की विज़िट भी करनी है सर. 

- हाँ आना है आपके पास. 

- मेरी समझ से सर विज़िट का प्रोग्राम ऐसा रहे की गाड़ी की डिलीवरी भी उसी दिन हो जाए. फिर आप फॅमिली समेत नई गाड़ी में वापिस जाएं. होटल वोटल मैं देख लूँगा सर.

- हूँ. एक गाड़ी खाली आएगी?

- नहीं सर खाली क्यूँ? लखनऊ के चिकन वर्क के कुरते पाजामे भी तो जाएंगे. और सर पिछले दिनों एक बहुत बड़ी डेरी फाइनेंस की है सर. उसके दो एक कनस्तर घी के भी तो भेजने हैं सर. 

सारे काम ठीक हो गए. मैडम और बहु की शौपिंग हो गई, साब की ब्रांच इंस्पेक्शन भी हो गई और दोनों गाड़ियां सही सलामत वापिस घर पहुँच गईं. अगले दिन मैडम ने सुझाव दिया,

- आप आज पुरानी गाड़ी ऑफिस ले जाओ और नई गाड़ी बिल्लू चला लेगा और हम मन्दिर हो आएँगे. 

- हूँ.

मिठाई, नारियल, फूल पत्ते लेकर मैडम, बिल्लू और बहु मंदिर पहुंचे. गाड़ी का तिलक कराया और दान दक्षिणा दे दी. वापिस चल पड़े पार्किंग की तरफ. तीनों खुश थे और बिल्लू कार की तारीफें करता हुआ थोड़ा जोश में आ गया. बैक करते हुए भी बतियाये जा रहा था और पीछे देखा नहीं. गाड़ी धाड़ से रेलिंग पर जा लगी. नीचे उतर कर देखा और बोला,

- अरे कुछ नहीं कुछ नहीं. मामूली सी खरोंच है. नई कार का ब्यूटी स्पॉट है. हें हें हें. पर प्लीज़ आप पापा को नहीं बताना. 

- ओहो! ध्यान से चलानी थी तूने बिल्लू. पापा को पता लगा तो?

- मम्मी उन्हें कहाँ पता लगाता है इन सब चीज़ों का जब तक की ड्राईवर ना बता दे. सुबह ड्राईवर आएगा तो आप मुझे बुला लेना उसको सेट कर दूंगा. फिलहाल तो आप नई गाड़ी में नैनीताल का प्रोग्राम बना लो. 

साहब की नई कार 



Saturday, 29 August 2020

नकली फूल

बैंक में नौकरी लग गई तो अब और क्या चाहिए? एक तो जो जूते घिस गए थे उन्हें बदलना चाहिए? लेकिन मम्मी की नज़र में इक श्रीमति चाहिए. ना ना ना मनोहर उर्फ़ मन्नू के विचार में नौकरी के बाद और श्रीमती से पहले एक दुपहिया होना चाहिए जिस पर बैठ कर लम्बी लम्बी सड़कों पर फर्राटे लगाने चाहिए. क्या पता आने वाली दुपहिया पसंद ही ना करे. और अभी तो तनखा इतनी ही है की दुपहिया ही आएगा. दुपहिया में दो पहिये और जोड़ने के लिए समय चाहिए. अब सवाल है की कौन सा दुपहिया लिया जाए? चलो ज़रा दोस्तों यारों से पूछताछ कर लेते हैं. मन्नू को कई तरह के सुझाव मिले पर उसने सोचा क्यूँ ना कपूर साब से भी पूछ लिया जाए.

- कपूर सा आप तो बुलेट पे सवारी करते हो. मैं भी ले लूँ क्या? या स्कूटर ले लूँ कुछ सलाह तो दो.

- अरे तू मुझ से क्या पूछ रहा है? अपन तो माचो गाड़ी पसंद करते हैं. 

- माचो मतलब?

- अबे दमदार मरदाना गड्डी. देखा कैसे धक् धक् दौड़ती है? 

- वो तो देखी है जी. अपना चचेरा भाई है जी कन्नू वो रोज यही फटफटिया चलावे है. तड़के बुलेट पे बीस बीस किलो की दूध की कैनी दोनों साइड बाँध के हलवाई के पहुंचा दे है. सवारी बैठा ले है वो अलग. 

- तूने क्यूँ नौकरी कर ली बैंक में? गाँव में रह जाता. दूध सप्लाई करता और हलवाई की लड़की से शादी कर लेता. 

- देखो जी कपूर सा ब्याह में तो दिल्ली वाली चाहिए. जीन वीन पहन के जब अंग्रेजी बोले तो कसम से भौत जी लगै.

- बस तेरा तो काम हो गया मन्नू. लोन सेक्शन में संध्या बैठी है जीन वीन पहनती है और अंग्रेजी भी बोलती है. जा बुलेट का लोन ले ले उस से. जब गाड़ी आ जाए तो उसे बिठा कर अपना गाँव भी घुमा देना. क्या पता तेरी पत्री मिल जाए?

- अच्छा जी गुरु जी ?!

- पर पहले ज़रा हुलिया भी बदल ले. जीन और टी शर्ट पहन ले,  परफ्यूम लगा ले फिर जाना उसके पास. 

- जी गुरु जी! मन्नू ने पर्स खोल दिया. जीन और टी खरीदी, परफ्यूम खरीदा, नए जूते खरीदे और कागज़ पत्तर लेकर संध्या के सामने बैठ गया. कारवाई पूरी हो गई और बुलेट आ गई. बाकायदा पूरी सजावट के साथ. मन्नू ने लोन सेक्शन में खबर दे दी.

- लो जी संध्या जी गाडी आ गई है. बाहर खड़ी है नजर भी मार लो और गाडी की टेस्टिंग भी करा देता हूँ. 

- ठीक है, ठीक है. देख ली. बहुत काम पड़ा है सीट पर.

- ना जी ना. एक बार तो देख ही लो. ख़ास आप के लिए तो सजाई है. असली फूल भी लगवाए हैं जी. बस एकाध नकली है पीछे. 

- अच्छा चलो. वाओ! हाहाहा अमेज़िंग!

- चलो जी कनाट प्लेस का एक चक्कर लगवा दूं जी. 

- ओके ओके चलो. विल हैव फन!

मन्नू ने फटफटिया स्टार्ट की और संध्या पीछे बैठ गई. बाइक जहां जहां से निकले लोग भी कौतुहल से देख रहे थे. मन्नू मस्त हो रहा था. रोज जीन पहनने वाली संध्या इत्तेफाकन सलवार कमीज़ पहने हुए थी. बाइक ने स्पीड पकड़ी तो चुनरी लहराई और नकली फूलों में उलझ गई. फिर फूल समेत चेन में जा घुसी. इधर चुन्नी चेन में फंसी और उधर फटफटिया की चेन जाम हो गई. चीं करती हुई बुलेट रुक गई. सड़क पर टायर घिसने का काला निशान पड़ गया. वो तो मन्नू ने जैसे तैसे सम्भाल ली वरना दोनों सड़क पर होते. पर तब तक कई तमाशाई भी इकट्ठे हो गए थे. चुन्नी और प्लास्टिक के फूल ग्रीज़ से काले हो गए थे. जब तक मन्नू चेन में से फूल और काली हुई चुन्नी चिंदी चिंदी करके छुड़ाता तब तक संध्या ऑटो में बैठ कर घर चली गई. 

लोन की गाड़ी

Wednesday, 26 August 2020

प्राचीन विदेशी यात्री - चीनी यात्री

चीनी यात्री 

प्राचीन काल में भारतीय उपमहाद्वीप में ज्ञान, विज्ञान, व्यापार, धर्म और अध्यात्म का बहुत विकास हुआ. इस विकास की ख़बरें मौखिक रूप में व्यापारियों के माध्यम से फारस, ग्रीस, रोम तक पहुँच जाती थी. इसकी वजह से व्यापारी, पर्यटक, बौद्ध भिक्खु, और बहुत से हमलावर भी आते रहते थे. इनमें से कुछ ने संस्मरण लिखे. कुछ हमलावर जैसे सिकन्दर, बाबर या गज़नवी अपने साथ कवि और लेखक भी लाए जिन्होंने उस समय के उत्तरी भारत पर लेख लिखे. इस तरह के लेख, किताबें और नक़्शे इतिहास जानने के लिए बहुत ही महत्वपूर्ण सिद्ध हुए हैं. इस लेख के पहले भाग में ग्रीक यात्रियों के बारे में लिखा था अब इस लेख में चीनी यात्रियों का जिक्र है. यह जानकारी इन्टरनेट से एकत्र की है. और अधिक जानकारी के लिए कृपया इतिहास की पुस्तकें पढ़ें.


चीनी यात्रीयों में मुख्यतः बौद्ध भिक्खु ही थे जिन के आने का मुख्य कारण बौद्ध धर्म की जानकारी और गहन अध्ययन था. पर उनका उस समय के रास्ते, गाँव, शहरों और शासन तंत्र के बारे में लिखना इतिहास जानने का अच्छा साधन है. 

फा हियान ( Fa Hien or Faxian ): ये भारत में आने वाला प्रथम चीनी यात्री था. उसका जन्म सन 337 में और मृत्यु सन 422 में हुई थी. फा हियान कम उम्र में ही बौद्ध भिक्खु बन गया था. उसकी बड़ी इच्छा थी की बौद्ध ग्रन्थ 'त्रिपिटक' को मूल भाषा में पढ़ा जाए. इसके लिए अपने साथियों हुई-चिंग, ताओचेंग, हुई-मिंग और हुईवेई के साथ गोबी रेगिस्तान और बर्फीले दर्रे पार करता हुआ पाटलिपुत्र पहुंचा. फा हियान जब पाटलिपुत्र पहुंचा उस समय चन्द्रगुप्त (द्वितीय ) विक्रमादित्य का राज था. ये राज ईस्वी 380 - 412 तक चला था.

हमारे सीनियर सिटीज़न साथी नोट करें की फा हियान 65 बरस की उम्र में चीन से चला था और जब वापिस पहुंचा तो उसकी उम्र 77 साल की हो चुकी थी. फा हियान का रास्ता बड़ा ही दुर्गम था और कैसे उसने यात्रा की होगी इसकी कल्पना करना भी मुश्किल है. उसने अपनी यात्रा शेनशेन, दुनहुआंग, खोटान, कंधार और पेशावर के रास्ते की. वह उत्तरी भारत के बहुत से बौद्ध मठों में रहा और संस्कृत भी सीखी. वापसी में श्रीलंका से समुद्री यात्रा की. रास्ते में तूफ़ान आ गया और लगभग सौ दिनों के बाद जहाज़ जावा ( इंडोनेशिया ) में जा लगा. वहां से चीन पहुँच कर बहुत से बौद्ध ग्रंथों का अनुवाद किया. साथ ही फा हियान ने काफी विस्तार से प्राचीन सिल्क रूट, धर्म, समाज, रीति रिवाजों की चर्चा अपनी पुस्तक 'फा हियान की यात्रा' में की है. इस पुस्तक को 'बौद्ध देशों का अभिलेख' के नाम से भी जाना जाता है. ये पुस्तकें सन 414 में प्रकाशित हुईं. 

चन्द्रगुप्त ( द्वितीय ) विक्रमादित्य के शासन के बारे में उसने लिखा है कि जनता सुखी थी, टैक्स कम थे, शारीरिक या मृत्यु दण्ड नहीं दिया जाता था केवल आर्थिक सजा ही दी जाती थी. 

संयुगन: ये 518 ईस्वी में भारत आया था. इसने तीन वर्ष उत्तरी भारत में स्थित बौद्ध मठों की यात्रा की.  

हूएन त्सांग ( HuenTsang or Xuanzang ): हुएन त्सांग या यवन चांग एक और महत्वपूर्ण चीनी बौद्ध भिक्खु यात्री था जिसके लेखन में उस समय के भारत, धर्म, समाज और रिवाजों की चर्चा मिलती है. अंदाजा लगाया जाता है की इसका जन्म सन 600 के आस पास चीन में हुआ था और लगभग 664 में मृत्यु हुई. मात्र बीस साल की आयु में बौद्ध भिक्खु बन गया था. 

हुएन त्सांग बौद्ध स्थलों की तीर्थ यात्रा के उद्देश्य से 29 साल की आयु में भारत की ओर निकला. हुएन त्सांग का रूट थोड़ा अलग था. वो तुरफान, कूचा, ताशकंद, समरकंद और वहां से हिन्दुकुश होते हुए उत्तर भारत में आया. वो 629 से 645 तक भारत के विभिन्न भागों - कश्मीर, पंजाब, मगध में रहने के बाद दक्षिण भारत में भी गया. हुएन ने नालंदा में संस्कृत और  बौद्ध धर्म का अध्ययन किया. इस कारण हुएन त्सांग का नाम राजा हर्ष वर्धन ( जन्म ईस्वी 590, राजा बना 606 में और मृत्यु 647 ) तक पहुंचा और राजा के निमंत्रण पर उसने काफी समय कन्नौज में बिताया. 

राजकीय पहचान मिलने के कारण हुएन त्सांग का आगे का सफ़र आसान हो गया. वापिस जाते हुए अपने साथ 657 लेख, पुस्तकें और ग्रन्थ ले गया. सन 645 के आसपास हुएन त्सांग ने अपनी 442 पेज की किताब 'हुएनत्सांग की भारत यात्रा' प्रकाशित की. सम्राट हर्ष वर्धन के बारे में उसने लिखा है की उस के राज में अपराध कम थे और अपराधियों को दण्ड में सामाजिक बहिष्कार या आर्थिक दण्ड ही दिए जाते थे. सम्राट की सेना में पचास हजार सैनिक, एक लाख घुड़सवार और साठ हज़ार हाथी थे. वर्ष में कई बार राजा निरीक्षण यात्रा करता था. दिन के पहले भाग में राज कार्य और दूसरे भाग में धार्मिक कार्य करता था. हुएन त्सांग की किताब के हिंदी अनुवाद से एक अंश -

 " टचाशिलो ( तक्षशिला ): तक्षशिला का राज्य 2000 मी विस्तृत है और राजधानी का क्षेत्रफल 10 मी है. राज्यवंश नष्ट हो गया है. बड़े बड़े लोग बलपूर्वक अपनी सत्ता स्थापन करने में लगे रहते हैं. पहले ये राज्य कपीसा के आधीन था परन्तु थोड़े दिन हुए जब से कश्मीर के अधिकार में हुआ है. यह देश उत्तम पैदावार के लिए प्रसिद्द है. फसलें अच्छी होती हैं. नदियाँ और सोते बहुत हैं. मनुष्य बली और साहसी हैं तथा रत्नत्रयी को मानने वाले हैं. यद्यपि संघ बहुत हैं परन्तु सबके सब उजड़े और टूटे फूटे हैं जिनमें साधुओं की संख्या भी नाम मात्र को है. ये लोग महायान सम्प्रदाय के अनुयायी हैं."

इत्सिंग ( I Ching ):

इत्सिंग एक चीनी बौद्ध भिक्खु था जो सन 675 ईस्वी में भारत आया था. उसने अपनी यात्रा पहाड़ों के रास्ते ना करके सुमात्रा से समुद्री यात्रा से की. चीन से यात्रा की शुरुआत तो उसने 37 भिक्खुओं के साथ की थी परन्तु समुद्री यात्रा के समय इत्सिंग अकेला रह गया. इत्सिंग दस वर्षों तक नालंदा विश्विद्यालय में रहा जहां उसने संस्कृत सीखी और बौद्ध धर्म का अध्ययन किया. वापसी में वह अपने साथ सुत्त पीटक, विनय पीटक और अभिधम्म पीटक की 400 प्रतियां ले गया.  सन 700 से 712 ईस्वी तक इत्सिंग ने 56 ग्रंथों का अनुवाद प्रकाशित किया. उसकी एक प्रमुख पुस्तक थी 'भारत और मलय द्वीप पुंज में प्रचलित बौद्ध धर्म का विवरण'. 

पहले चीनी यात्रियों की तरह उसने उत्तर भारत का राजनैतिक और शासन तंत्र का वर्णन नहीं किया लेकिन बौद्ध धर्म और उस समय के संस्कृत साहित्य पर महत्वपूर्ण चर्चा की. उसने लिखा की नालंदा से कुछ दूर नदी तट पर राजा श्रीगुप्त ने एक चीनी मंदिर बनवाया था. राजा हर्ष वर्धन की दानशीलता और धर्म प्रेम की प्रशंसा की है.  

हुएन त्सांग ( चित्र सधन्यवाद khabar.ndtv.com  के सौजन्य से ) 


Sunday, 23 August 2020

प्राचीन विदेशी यात्री - ग्रीक यात्री

भारतीय इतिहास को क्रोनोलॉजी याने कालक्रम के अनुसार मोटे तौर पर चार भागों में बांटा गया है - प्राचीन काल, मध्य काल, आधुनिक काल और 1947 के बाद स्वतंत्र भारत का इतिहास. प्राचीन इतिहास लगभग सात हज़ार ईसापूर्व से सात सौ ईसवी तक माना जाता है. इतने पुराने समय के हालात जानने के लिए खुदाई में मिले बर्तन-भांडे, हथियार, औजार, दबे हुए कंकाल का डीएनए वगैरह की सहायता ली जाती है. इसके अलावा उस समय के यात्रियों के लिखे वर्णन उस समय को समझाने के काम आते हैं.   

भारत में प्राचीन काल में ज्ञान, विज्ञान, धर्म और अध्यात्म बहुत आगे था पर ज्यादातर मौखिक रूप में प्रचलित था. लिपिबद्ध काफी बाद में हुआ. इसके विपरीत पश्चिम की ओर से आने वाले हमलावर जैसे की फारस का दारा ( Darius the great ), ग्रीस का सिकंदर, समरकंद का बाबर और ग़ज़नी का महमूद अपने साथ कवि और लेखक भी लाए. इन लोगों के वर्णन से उस वक़्त के हालात की जानकारी मिलती है.

इसी तरह से यूरोप और मध्य एशिया से विदेशी व्यापारी, पर्यटक, और धार्मिक यात्री आए उन्होंने भी जो नक़्शे बनाए और किताबें लिखीं वो इतिहास जानने में मदद करती हैं. 

सिकंदर से भी पहले के दो ग्रीक-रोमन यात्री काफी मशहूर हैं: पहला है हेरोडोटस: जिसने किताब लिखी 'हिस्टोरिका' जिसमें कई देशों का वर्णन है - ग्रीस, फारस, लीबिया वगैरह. कहा जाता है की वर्णन ज्यादातर लोक कथाओं और कहावतों पर आधारित है. पर इतिहास लिखने की नज़र से यह पहली पुस्तक मानी जाती है. दूसरा है टेसीयस: ये एक राजवैद थे जो उस वक्त के लीबिया और सीरिया के राजा ज़ेरेक्सेस की हाजिरी बजाते थे. इन्होनें भी भारत फारस सम्बन्ध और व्यापार पर काफी कुछ लिखा है. ये दोनों भारत तो नहीं आये पर भारतीय व्यापार पर आधारित जो छवि वहां पेश की वो आकर्षक थी. नतीजतन ईसापूर्व 515 में फ़ारस के राजा दारा प्रथम ( Dariyus the Great ) ने हमला बोल दिया और सिन्धु नदी के पश्चिमी तट तक कंधार से कराची वाला भूभाग कब्जा लिया. ये पहला 'विदेशी' हमला था. 

सम्पन्नता की ख़बरें और आगे फैलीं तो ग्रीक राजा सिकंदर ने लगभग दो सौ साल बाद इस ओर रूख किया. उसने दारा तृतीय को बुरी तरह से हराया. सिकंदर के साथ भी तीन वरिष्ठ सैन्य अधिकारी थे - निर्याकस, अनेसीक्रटस और आस्टिबुलस. इनकी लिखी रिपोर्टें भी उस समय की महत्वपूर्ण जानकारियाँ देती हैं. सिकंदर और पुरु का युद्ध झेलम नदी के किनारे ईसापूर्व मई 326 में हुआ था. 

मैगस्थनीज़ ( Megasthenes ): सिकन्दर के मरने के बाद जनरल सेल्कयुस प्रथम को सीरिया और ईरान का जनरल बनाया गया. पर जल्दी ही उसने खुद को राजा याने निकेटर घोषित कर दिया. उसके 'सेल्युकिड' साम्राज्य में सीरिया, ईरान और झेलम नदी के पश्चिम तक का बड़ा भूभाग शामिल था. सेल्यूकस ने मैगस्थनीज़ नामक ग्रीक को राजदूत नियुक्त कर के भेजा. मैगस्थनीज़ ईसापूर्व 302 से लेकर ईसापूर्व 298 तक चन्द्रगुप्त मौर्य के दरबार में रहा. सम्भवतः उत्तरी भारत पधारने वाला ये पहला विदेशी 'सरकारी' यात्री था. उसने उस समय के भारत के बारे में अपने अनुभव 'इंडिका' नामक किताब में कलम बंद किये. इसमें उस वक़्त का भूगोल, समाज, धर्म और शासन तंत्र का वर्णन किया गया है. इस पुस्तक के कुछ ही अवशेष बचे हैं पर इस पुस्तक के कुछ कुछ अंशों को कई अन्य जगहों पर कोटेशन के तौर पर भी पाया गया है. जोड़ तोड़ करके किताब को पुनर्जीवित कर दिया गया है. नीचे लिखा पैरा मैगास्थनीज़ का है जो डायाडोरस ने अपनी किताब में कोट किया है -    

India which is in shape quadrilateral has its eastern as well western side bounded by great sea, but on the northern side it is divided by Mount Ilemodos while fourth or western is bound by the river called Indus

डाईमेकस ( Deimachos ): सीरिया और पश्चिम एशिया के राजा एन्टीयोकस प्रथम ने ( जो सेल्यूकस प्रथम का बेटा था ), डाईमेकस या डायमेचस को राजदूत बना कर राजा बिन्दुसार के दरबार में पाटलिपुत्र भेजा. यह ईसापूर्व तीसरी सदी की बात है.

डायनोसियस: इसके बाद एन्टीयोकस द्वितीय ने डायनोसियस नामक ग्रीक राजदूत को सम्राट अशोक के दरबार में भेजा. अशोक के शिलालेख - 13 में अन्तियोक नाम से यवन राजा का नाम अंकित किया हुआ है. यह शिलालेख अब शाहबाज़गढ़ी, मानसेहरा, पकिस्तान में है. 

हेलिओडोरस: ईसापूर्व 200 के आसपास तक्षशिला के ग्रीक राजा अन्तियलसिदास ने हेलिओडोरस को अपना राजदूत बना कर विदिशा ( मध्य प्रदेश ) भेजा. उस समय उत्तर भारत में शुंग वंश के पांचवें राजा भागभद्र का राज था. हेलिओडोरस भारत में रहते हुए विष्णु भक्त हो गया. कहा जाता है की वह वापिस ही नहीं गया. विदिशा में उसने एक मंदिर भी बनवाया जिसका अब केवल एक खम्बा या दीप स्तम्भ ही बचा है. ये स्थान भोपाल से 62 किमी दूर है. 

इन राजदूतों की वजह से व्यापार और सामाजिक संपर्क फ़ारस, रोम और ग्रीस तक पहुंचा. दूसरी ओर जब सम्पन्नता की खबर फैली तो हमले भी हुए. 

अगले अंक में कुछ और यात्रियों की चर्चा करेंगे.

साँची का स्तूप. कपड़े, टोपियाँ और वाद्य यंत्र बिलकुल अलग हैं संभवत: ग्रीक हैं