अखबार में कुछ दिनों पहले खबर छपी थी कि जापान एयरलाइन्स भविष्य में अपने हवाई जहाज़ में इस तरह से घोषणा नहीं करेंगे - गुड मोर्निंग लेडीज़ & जेंटलमेन. अब जापानी एयर होस्टेस दूसरी तरह से घोषणा करेगी - 'गुड मोर्निंग एवरीवन' या फिर 'गुड मोर्निंग पैस्सेंजर्स'. ब्रिटेन में भी 'हेलो एवरीवन' शुरू कर दिया गया है. इसका एक कारण तो यह बताया गया की सब बराबर हैं और लिंग भेद नहीं होना चाहिए. ये पुरुष प्रधान समाज को बदलने की लम्बी कोशिश की एक कड़ी है. दूसरा कारण यह की समाज में किन्नर भी हैं तो उन्हें भी गुड मोर्निंग पहुंचनी चाहिए. तीसरा इशारा यह भी था की अब लड़की-लड़की और लड़के-लड़के जैसी शादियाँ भी हो रही हैं तो जेंटलमैन और जेंटलवीमेन शब्द छोड़ ही दिए जाएं.
बैठे ठाले इन्टरनेट पर खोजबीन शुरू की तो पता लगा की सोलहवीं सदी में जेंटलमैन और जेंटलवीमेन दोनों शब्द चला करते थे. जेंटलमेन वो थे जो निकम्मे थे याने बड़े ज़मींदार या अमीर जो खुद कभी काम नहीं करते थे बल्कि लोग उनके लिए काम करते थे! लोग कमा कर देते थे और वो बैठ कर खाते थे! कैसे इस शब्द ने मतलब बदला की सभी आम-ओ-खास जेंटलमैन / जेंटलवीमेन हो गए! हालांकि आम जनता की जेब खाली की खाली ही रही. जनता जनार्दन को भाषण देते समय ये संबोधन 'लेडीज़ & जेंटलमैन' कहना कब और किसने शुरू किया ये कहीं भी लिखा नहीं पाया. पता लगा कि इस तरह का कोई रिकॉर्ड नहीं है.
कुछ समय पहले ऑक्सफ़ोर्ड विश्विद्यालय ने एक प्रयोग शुरू किया था कि छात्र छात्राएं 'ही' या 'शी' शब्द के बजाए ज़ी शब्द इस्तेमाल करें. कैसा चल रहा है ये प्रयोग? इस पर कोई जानकारी नहीं मिल पाई.
हमारे यहाँ मीटिंग या चुनावी रैली में 'लेडीज़ & जेंटलमेन' कहना हो तो 'महिलाओं और पुरुषों' ना कह कर 'देवियों और सज्जनों' कहा जाता है अर्थात मान सम्मान बढ़ा दिया जाता है. ये अलग बात है की असल में मान सम्मान बढ़ता है या नहीं. नेताओं के भाषणों में ज्यादातर संबोधन 'भाइयों और बहनों' का है. वोट लेने के लिए रिश्तेदारी गांठने की कोशिश रहती है! नेता जी जीतने के बाद में शक्ल दिखाएंगे या नहीं कह नहीं सकते.
मीटिंग या चुनावी रैली में मित्रों, साथियों, कॉमरेड, भारतवासियो जैसे संबोधन भी इस्तेमाल होते हैं. इन शब्दों में स्त्री, पुरुष और किन्नर सभी शामिल हैं कोई भेदभाव नहीं है. परन्तु इन संबोधनों का प्रचलन कम है.
पश्चिमी देशों के विपरीत आम तौर पर यहाँ पर किसी अनजान राहगीर से बात करनी हो तो 'सुनिए भाईसाहब, बहनजी, माताजी, अम्माजी' जैसा रिश्तेदारी वाला संबोधन ही करते हैं सुनिए श्रीमान या महाशय या साहब नहीं बोलते या काफी कम बोलते हैं. ज्यादातर पश्चिमी देशों में टीचर, बॉस या पड़ोसी को नाम से ही पुकारते हैं. नाम के साथ में सर, मैडम, जी, जनाब या साहब लगाने की जरूरत नहीं समझते हैं. हमारे यहाँ ऐसा होना मुश्किल ही लगता है की बच्चे अपनी टीचर गायत्री भट्ट को गायत्री कह कर पुकारें. चलती प्रथा का बदलना आसान नहीं है. और पुरुष प्रधानता को बदलना और भी मुश्किल है.
वैसे बराबरी का संबोधन तो राजस्थान में खूब चलता है जैसे राम राम भाई सा, भाभी सा, ससुर सा, सासू सा. हो सकता है ये 'सा' साहब या साहिबा या दोनों का संक्षिप्त संस्करण हो. जो भी हो इस 'सा' ने साहब और साहिबा का भेद समाप्त कर दिया. सा लगा कर सब बराबर! इसी सा को आगे भी बढ़ाया जा सकता है. हवाई जहाज वाली होस्टेस बोले - सभी यात्रियाँ ने राम राम सा. अपणा अपणा सामान संभालणा सा. संबोधन में तो बराबरी अच्छी है पर आम जीवन में तो वैसी बराबरी नहीं है.
वैदिक इतिहास में गार्गी और मैत्रेयि जैसी विदुशियाँ ज्ञानी पुरुषों से शास्त्रार्थ के लिए जानी जाती हैं. इससे लगता है की लिंग भेद नहीं रहा होगा या होगा तो बहुत कम रहा होगा. इसी तरह बौद्ध ग्रन्थ 'संयुक्त निकाय' में भिक्खु संघ के प्रमुख का नाम सारिपुत्त और मोगल्लना आता है तो भिक्खुनी संघ के प्रमुख का नाम खेम्मा( क्षेमा ) और उप्पल्वन्ना( उत्पलवर्णा ) लिखा मिलता है. ये सभी महिलाएं और पुरुष समान रूप से बिना भेद भाव के अरहंत बने या निर्वाण को प्राप्त हुए. पर भारतीय इतिहास में महिला राजा का नाम सुना नहीं.
लगभग तीन साल के लिए 1986 से 88 तक असम में पोस्टिंग हुई थी. आसपास के छोटे छोटे राज्यों में घूमने का मौका मिला. वहां बहुत से कबीले हैं - खासी, गारो, कूकी, बोडो, नागा, मिज़ो वगैरा. बहुत से कबीलों में प्रथा है की जमीन जायदाद लड़कियों को ही मिलती है. बेटियों में से भी सबसे छोटी बेटी को सबसे ज्यादा मिलती है. बूढ़े माँ बाप छोटी बेटी के साथ ही रहते हैं. इसी तरह कुछ आदिवासियों में शादी के बाद लड़का लड़की के घर चला जाता है. शादी भी स्वयम्वर की तरह ही हो जाती है. इन कारणों से वहां लड़की या महिला के प्रति पुरुषों का दृष्टिकोण अलग है. पैत्रक व्यवस्था या patriarchy का जोर कम है. पुरुष प्रधानता ज्यादातर मधुशाला में दिखती है!
हमारे पेंशनर मित्र हैं जिनके पास एक कीमती फ्लैट है और गाँव में एक आम का बाग़ और एक बड़ा पुश्तैनी मकान भी है. उनका कहना है की जमीन जायदाद तो मैं बेटे को ही दूंगा. हाँ सोना, चांदी, कैश और बैंक बैलेंस बेटी को दे जाऊँगा. जब उन्हें बताया कि अब तो बेटे बेटी का जमीन जायदाद पर बराबर का हक है तो वो बोले की जितने मर्ज़ी क़ानून बना लो पर मेरा वंश तो बेटे ने ही चलाना है. जैसे स्वर्गीय पिता जी से मुझे जायदाद मिली थी वैसे ही मैं भी बेटे को ही दे कर जाउंगा. जो प्रथा चल रही है वही चलेगी.
पिछले तीस पैंतीस साल के दौरान घूँघट की प्रथा का समाप्त होना, शादी ब्याह तय होने से पहले लड़का-लड़की का आपस में मिलना और महिलाओं का नौकरी पर जाना भी बहुत बड़े बदलाव हैं. फिर भी संसद और विधान सभाओं में महिलाएं काफी कम हैं. ऊँचे ओहदों पर भी महिलाएं कम हैं. पर आजकल के अखबार तो बलात्कार और महिलाओं पर अत्याचार की ख़बरों से रंगे रहते हैं. इन्हें पढ़ कर तो लगता है पुरुष प्रधानता कभी घटने वाली नहीं है. अर्थात हम पुरुषों की ऊँची गद्दी सुरक्षित है!
सागरिका घटगे 'मानसून फुटबॉल' का उद्घाटन करते हुए ( filmytown.com से साभार ). फुटबॉल कितनी दूर जाएगी? सागरिका क्रिकेट के खिलाड़ी ज़हीर खान की पत्नी हैं. |
Patriarchy / पितृतंत्र / पुरुष प्रधानता की परिभाषाएँ :
* ऐसी सामाजिक व्यवस्था जिसमें सत्ता तथा नियंत्रण पुरुषों को प्राप्त होता है न कि महिलाओं को.
* Patriarchy is a social system in which men hold primary power and predominate in roles of political leadership, moral authority, social privilege and control of property. Some patriarchal societies are also patrilineal, meaning that property and title are inherited by the male lineage - Wikipedia.
* (i) Social organization marked by the supremacy of the father in the clan or family, the legal dependence of wives and children, and the reckoning of descent and inheritance in the male line. (ii) A society or institution organized according to the principles or practices of patriarchy - Merriam-Webster.
* A society in which the oldest male is the leader of the family, or a society controlled by men in which they use their power to their own advantage - Cambridge Dictionary.
10 comments:
https://jogharshwardhan.blogspot.com/2020/10/blog-post_18.html
जी सब कुछ समय के साथ बदलता है। धीरे धीरे बदलाव आ रहा है। हाँ, इस बदलाव से पारंपरिक ढाँचों में दरार आएगी जिससे उथल पुथल तो होगी लेकिन जब इन ढाँचों के भरभराभर गिरने से उपजा धुँआ हटेगा तब तक काफी कुछ साफ हो जाएगा। अभी तो उथल पुथल होनी भी शुरू नहीं हुई है। दो तीन दशकों में यह और अधिक देखने को मिलेगी।
धन्यवाद विकास नैनवाल 'अंजान'. अपने आप तो शायद ही बदले कहीं ना कहीं से चिंगारी की जरूरत पड़ती है. पारिवारिक ढांचे और साथ ही extended रिश्तेदारी में भी बदलाव आ रहा है. मेरे ख़याल से दूरी बढ़ जाएगी. इसमें कोरोना ने नीम चढ़े करेले का काम किया है. दो तीन दशकों में काफी बदलाव आने की उम्मीद है.
बहुत सुन्दर।
धन्यवाद डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
Very informative.. Thanx for such information..👍👌💐
Nice information.
धन्यवाद Unknown
बहुत अच्छा लेख लिखा है हर्ष वर्धन जी आपने - अत्यंत सूचनाप्रद भी एवं रोचक भी । आशा करते हैं कि समाज में समानता को आत्मसात् करने वाला परिवर्तन अब शीघ्र ही आएगा ।
शुक्रिया जितेन्द्र माथुर. मुझे तो ऐसा नहीं लगता की समानता शीग्र आने वाली है. आ जाए तो अच्छा है.
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