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Tuesday 31 October 2023

कूरियर

आजकल बैंगलोर की एक हाउसिंग सोसायटी की नौ मंज़िला इमारत के सातवें माले में हमारा निवास है. राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र की बेरहम सर्दी और बेशरम प्रदूषण से बचने का आसान उपाय है बैंगलोर निवास. सुबह, दोपहर और शाम जब भी मन करे, नीचे सैर करने के लिए उतर जाते हैं. बैंगलोरी मौसम ना ज़्यादा ठंडा है ना ज़्यादा गरम, हवा भी चलती रहती है इसलिए सैर का लुत्फ़ किसी भी वक़्त लिया जा सकता है. 

सैर किसी भी वक़्त हो सोसाइटी में कूरीयर जरूर नज़र आते हैं. आप कूरियर, कोरीयर या करीयर जैसा भी आपको ठीक लगे कह सकते हैं पर अपनी सुविधा के लिए हमने इनका नाम 'कू' रख दिया है!  कोई खाना लेकर आता है, कोई घरेलू सामान लेकर, कोई चिट्ठी लेकर और कोई सब्ज़ियाँ लेकर दौड़ता नज़र आता है. सुबह पाँच बजे से लेकर रात दस ग्यारह बजे तक ये ‘कू’ लोग दौड़ते दिखाई देते हैं. इनका सिलसिला टूटता ही नहीं. सोसायटी ने तो गेट के पास एक कमरा बनवा दिया है जहाँ 'कू' कई बार सामान छोड़ जाते हैं और जिसका होता है वो बाद में उठा लेते हैं. 

उत्सुकता वश 'कू' की हिंदी ढूँढनी चाही तो कुछ वेबसाइट पर पाया: संदेश वाहक, धावक, दूत, डाकिया, पत्र वाहक. कुछेक साइट पर हरकारा, कासिद, तस्कर जैसे शब्द भी मिले. एक साइट ने कहा आप ही बता दें तो वे अपनी डिक्शनरी में शामिल कर लेंगे!

वैसे तो पहले डाकिया या पत्र वाहक ही हुआ करते थे जो पैदल या साइकल पर चिट्ठियाँ, तार और पार्सल बाँटा करते थे. डाकिया शब्द ज़्यादा प्रचलित था एकाध बार ‘हरकारा’ भी सुनाई पड़ जाता था. महिला डाकिया कभी नहीं दिखती थी. बैंगलोर में कई बार महिला ‘कू’ भी नज़र आती हैं पर बहुत कम. अब तो सभी शहरों में ‘कू’ चलते हैं पर बैंगलोर में बहुत ज्यादा नज़र आते हैं.

सुना है कबूतर भी किसी ज़माने में डाकिये का काम किया करते थे. एक रुक्का लिख कर पैर या पंख में बांध दिया जाता था और कहा जाता था - कबूतर जा जा जा! वो फ़ुर्र से उड़ कर ठिकाने पर पहुँच जाता था. ये कबूतर चिट्ठी सिर्फ़ दे कर ही नहीं आते थे बल्कि जवाब भी ले कर आते थे. अब ये तो पता नहीं कि ये ‘कू’ कबूतर पिनकोड कैसे ढूँढ लेते थे!

मैरथॉन के संदेश वाहक का क़िस्सा तो आपने सुना ही होगा. सेनापति ने एक ग्रीक सिपाही को मैरथॉन से ये संदेश दे कर एथेंस भेजा कि हम जीत गए हैं. संदेश वाहक लगातार क़रीब 26 मील ( लगभग 42 किमी ) दौड़ता हुआ राज दरबार में पहुँचा. राजा को बड़ी मुश्किल से हाँफते हुए सूचना दी, वहीं गिर पड़ा और प्राण त्याग दिए. शायद उसी की याद में ओलिम्पिक खेलों में 42,135 मीटर की मैरथॉन दौड़ होती है. 

एक और बहुत प्रसिद्ध संदेश वाहक हुए हैं - मेघदूत! इन्हें कवि कालिदास ने तैयार किया था. क़िस्सा यूँ है कि कुबेर ने यक्ष को अल्कापुरी से निकाल दिया. वो रामगिरि पर्वत के जंगल में रहने लग गया. जब वर्षा आई तो उसे प्रेमिका की याद भी आ गई. अब उसे संदेशा कैसे भेजे? जंगल में कोई ‘कू’ या संदेश वाहक नहीं मिला. उसने आषाढ़ के प्रथम मेघ को ही दूत बना कर अपनी व्याकुलता का संदेश भेज दिया. 

बहरहाल अब संदेश भेजने में क्या देर लगती है. एक क्लिक और तुरंत से पहले संदेश पहुँच जाते हैं. हाँ संदेश के साथ या फिर संदेश के जवाब में फ़लाँ चीज चाहिए तो बात और है. इस काम में 'कू' तैयार रहते हैं. आजकल हमारे 'कू' साइकल, मोटरसाइकल, कार और हवाई जहाज तक का प्रयोग कर सकते हैं और करते भी हैं. हवाई यंत्र याने ड्रोन भी सामान पहुँचाने में लगे हैं. ‘कू’ फल फूल से लेकर फर्नीचर तक भी ले जाते हैं और दे जाते हैं. चौबीस घण्टे 'कू' का काम चलता रहता है. रात बिरात हमारे काम भी आ जाते हैं.

पिछले शुक्रवार रात को ऐसा ही हुआ. मन्नू भाई उर्फ़ मनोहर नरूला नवें माले पर रहते हैं पीने खाने के शौक़ीन हैं. पत्नी मायके गई हुई थी तो बस महफ़िल जमा ली. प्याऊ में तीन दोस्त और आ गए. मैच देखा, हा हा हो हो करते करते रात का एक बज गया, बोतल खतम हो गई और चखना भी. सभी भूख लगी, भूख लगी चिल्लाने लगे. 
- पर यार रात के एक बज चुके हैं अब क्या मिलेगा?
- अरे ट्राय तो करने दो, कह कर मन्नू भई मोबाइल में जुट गए. दो बजे खाना आ ही गया. पीज़ा या बिरयानी तो नहीं मिली पर काम चल गया. अच्छी सी टिप देकर ‘कू’ को विदा किया. 

बैंगलोर, हैदराबाद, गुरुग्राम, पुणे वग़ैरा कई शहर चौबीस घंटे जागते ही रहते हैं. और जागते रहेंगे तो ‘कू’ भी कुछ कमा लेंगे!

कू-कक्ष के अंदर आना मना है 

कू ने अपना काम सुबह सुबह कर दिया है 

पैसे भरो और चलाओ!

बहुत कठिन है डगर जीवन की!

इंतज़ार में हैं खाना-वाहक 

इस तरह की ई-साइकिलें कोई भी मोबाइल से भुगतान करके चला सकता है. ये साइकिलें कू बहुत इस्तेमाल करते हैं 

खाना पैक हो गया है याने पार्सल तैयार है. बिल नत्थी कर दिया गया है. खाना-वाहक रवाना हो रहा है

तरह तरह के ‘कू’

महिलाएँ क्यों पीछे रहें 

Thursday 26 October 2023

बैंगलुरु

बैंगलुरू की स्थापना 1537 में केम्पे गौड़ा द्वारा की गई थी. केम्पे गौड़ा यहाँ के शासक थे जो विजयनगर साम्राज्य के अधीन थे. अभिहाल की खोज के अनुसार बेगुर क़िले में एक अभिलेख मिला है जिसके अनुसार यह ज़िला 1004 ई. में गंग राजवंश का एक भाग था. इसका प्राचीन नाम बेंगा-वलोरु था. अब इसे बंगलौर, या बैंगलोर या बंगलुरु भी कहा जाता है. बड़ा महानगर है ये जिसकी आबादी लगभग एक करोड़ या उससे ज़्यादा ही होगी. इसकी ऊँचाई 920 मीटर है जिसके कारण मौसम अच्छा बना रहता है. कुछ फ़ोटो प्रस्तुत हैं:



      वाह बैंगलुरु! ठंडी हवा के झोंकों का आनंद  24x7 लीजिए . 

बैंगलोर पर तक़रीबन नौ दस महीने बदल छाए रहते हैं इसलिए हवाई यात्रा में हिचकोले स्वाभाविक तौर पर महसूस होते हैं 


हवाई जहाज़ की खिड़की से बादलों का रूप बदलता हुआ देखने में मज़ा आता है 


हरा भरा जंगल घट रहा है और कंक्रीट का जंगल बढ़ रहा है 


ट्रैफिक तेज़ी से बढ़ रहा है और फ्लाई ओवर कम पड़ते जा रहे हैं. शायद सुरंगें बनानी पड़ेंगी!



डब्बे नुमा बिल्डिंग बढ़ती जा रही है 


हर साल दो साल में नक़्शा बदल जाता है 


जिधर तक नज़र जाएगी बिल्डिंग ही बिल्डिंग नज़र आएगी!


फ्लैट भी क़ुतुब मीनार की तरह ऊँचे होते जा रहे है 


बादलों का खेल 

मानसूनी बादल




                                  बड़े बड़े मॉल 

आगे कॉर्पोरेट ऑफिस और पिछवाड़े ….


सैर का मन तो करता है पर फुटपाथ नदारद हैं

रात के समय बाहर अकेले निकलना ख़तरनाक हो सकता है 


कुछ समय पहले ऐसा भी हुआ था 


     

         सोसाइटी में कुछ न कुछ रंगारंग कार्यक्रम होते रहते हैं