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Friday 25 September 2020

मीठी बोली

जनरल मैनेजर( रिटायर्ड ) गोयल साब ने शाम की तैयारी शुरू कर दी. नहा धो के चकाचक कुरता पायजामा पहन लिया. सिर पर जुल्फों के नाम पर गिनती के चार बाल बचे थे, उन पर प्यार से कंघी फेरी क्यूंकि बेशकीमती जो हैं. डाइनिंग टेबल पर दो बियर के गिलास, एक प्लेट में चखना और फ्रिज में से चिल्ड बोतल निकल कर रख ली. मोबाइल उठा कर नंबर लगाया,

- आजा भाई मन्नू!  आज की शाम तेरे नाम!

मन्नू उर्फ़ मनोहर आ गया और बोला - वाह वा! गोयल यार दिल खुश कर दिया. पर ये बताओ ये शाम मेरे नाम क्यूँ? और भाभी सा कहाँ हैं?

- भाभी गई है अपनी बहन के पास. मुझे तो लगता नहीं की वो वापिस आएगी अब तो सुबह ही आएगी. इशारा कर गई थी की फ्रिज में सब कुछ तैयार है भूख लगे तो माइक्रो कर लेना. ये लो अपना ग्लास चियर्स.

- चियर्स गोयल सा! पास में ही तो गई हैं कौन सा दूर है?

- अरे भई मुझे पता है दोनों बहनों में घंटों बातें चलेंगी. मतलब की कम और बेमतलब की ज्यादा बातें होंगी. कभी हँसेंगी, कभी फुसफुसाएंगी और कभी रोएंगी. मुझे आज तक ये समझ नहीं आया की ये बहनें जब इकट्ठी बैठती हैं तो कितनी बातें करती हैं? क्या बातें करती हैं? जाने किस बात पर तो हंसती हैं और ना जाने किस बात पर रोती हैं. मेरी समझ के बाहर है. अगर दोनों बतिया रहीं हों और मैं पहुँच जाऊं तो दोनों मिल कर मुझ पर ही टूट पड़ती हैं - लो आ गए पी के? ये पेट कहाँ जा रहा है? बोतल ख़तम कर दी होगी? चश्मा तो साफ़ कर लेते? अरे इनकी कथा वैसी है जैसे हरी अनन्त हरी कथा अनन्ता. ये लो खाते भी रहो साथ साथ.  

- आपने तो लम्बी हांक दी. हालांकि मेरी वाली तो अकेली बिटिया है अपने माँ बाप की पर आम तौर पर ऐसा ही होता है. जब कभी उसकी कोई कज़न वज़न आ जाती है तो बातें नॉन स्टॉप चलती हैं इनकी. पर गोयल सा ये तो आज की बात है ना जब हम और आप सठियाए हुए हैं हाहाहा. जब तीस पैंतीस के थे तब की बात करो ना आप!  

- और मैं क्या कह रहा हूँ भई. शुरू में जब ये बाइक के पीछे बैठती थी तो कुछ ना कुछ स्वीट स्वीट बोलती रहती थी और मुझे भी स्वीट स्वीट फीलिंग आती थी. कुछ दिनों बाद में इस मीठी मीठी बोली की मिठास कम हो गई. और कुछ दिन गुज़रने के बाद मीठी बोली फीकी हो गई और फीकी बोली कांय कांय में बदलने लग गई. और तब मैंने तो हेलमेट ले लिया, कान बंद. और फिर भी बोलती तो स्पीड बढ़ा देता फटफट-फुररर. अब बोलती रह.

- भाई जवानी तो जवानी थी. फटफटिया दौड़ाता था मैं. कितना पेट्रोल फूंक दिया कसम से इनकी सेवा में. सैकड़ों बार तो इंडिया गेट पर इन्हें आइस क्रीम खिला दी. इतनी खिला दी की बस उलटे मुझे ही शुगर हो गई कमबख्त! कभी कभी दोनों बहनों को बैठा कर भी घुमाया और कभी होली भी खूब खेली. फिर बस धीरे धीरे रस्ते अलग अलग हो गए. पता ही नहीं चला.

- वाह गोयल सा वाह! पुराने खिलाड़ी हो.

- अरे यार नौकरी लगने के बाद जिंदगी की चरखी ऐसी घूमी की कुछ पता ही नहीं चला. शादी, फिर बालक आ गए, कभी ट्रान्सफर और कभी प्रमोशन हो गई. अब मुड़ कर देखो तो और ही नज़ारा दिखता है.

 - घंटी बजी गोयल सा? किसी ने आना था?

- देखता हूँ कहीं वापिस तो नहीं आ गई? हाँ वापिस आ गई है शैतान को याद किया तो उसकी खाला आ गई. आप तो बैठो यार.  

- नमस्ते भाभी जी. बस अभी आपको याद कर रहे थे गोयल सा.

- नमस्ते जी. याद कर रहे थे? ये कहाँ याद करते हैं मुझे?

- ओहो मैं तो अभी इस को कह रहा था की जब तक भाभी की मधुर मधुर आवाज़ सुनाई ना दे तब तक यहीं बैठो. 

- गोयल सा अब आप मधुर मधुर आवाज़ सुनो और मैं चला अपनी बुलबुल की आवाज़ सुनने! 

बुलबुल 


Wednesday 23 September 2020

पेंशनर और बीमा

भारत में उन पेंशनर की संख्या कितनी है जो अपने पूर्व एम्प्लायर से पेंशन लेते हैं? कुल मिला के कितने लोग नौकरी के बाद पेंशन ले रहे हैं? ये आंकड़े इन्टरनेट में खोजने की कोशिश की पर पता नहीं लग पाया. यूरोपियन यूनियन की एक साईट में 2005 से 2050 तक के आंकड़े और भविष्य के ग्राफ वगैरह थे. ऐसा लगता है की यूरोप में जनता और ख़ास कर वरिष्ठ नागरिकों की सेहत पर ज्यादा ध्यान रखा जाता है. भारत में केन्द्रीय, प्रादेशिक और सार्वजानिक प्रतिष्ठानों में अंदाज़न ढाई तीन करोड़ से ज्यादा नहीं होंगे? पता नहीं. आपको पता लगे तो कृपया बताएं. 

इन पेंशनर का स्वास्थ्य सम्बन्धी क्या इंतज़ाम है? फौजी भाइयों के तो अपने अस्पताल हैं, केन्द्रीय सरकार से रिटायर्ड लोगों का अपना इंतज़ाम है. जहां तक रिटायर्ड बैंकर का सवाल है वो अस्पताल की सेवाओं के लिए मेडिक्लैम बीमा पर निर्भर हैं. ओ पी डी सेवा ज्यादातर अपने खर्चे पर ही है. बैंक मेडिकल कॉलेज या अस्पताल या क्लिनिक बनाने के लिए लोन तो दे सकते हैं पर अपने पेंशनर के लिए इनमें कोई व्यवस्था नहीं करते या कर पाते? 

रिटायर होने के बाद क्या सेहत खराब हो जाती है या फिर बेहतर हो जाती है?  इस विषय पर इन्टरनेट पर खोज बीन की पर कुछ पक्का नियम या सिद्धांत हाथ नहीं लगा. फिर ख़याल आया कि विश्व स्वस्थ संगठन की वेबसाइट देखी जाए. यहाँ भी कुछ ख़ास नहीं मिला. पता ये लगा की ये एक जटिल सवाल है की सेहत बनी रहेगी या बिगड़ेगी और इसके लिए बहुत बड़ा और बहुत देर तक चलने वाला सर्वे कराना पड़ेगा. मतलब इस काम पर डॉलर लगेंगे और वो उनके पास हैं नहीं फिलहाल. पेंशनर की जेब की तरह इनका खज़ाना भी खाली है. 

फिर भी कुछ मोटी मोटी बातें दी हुई थी. अगर रिटायर होने से पहले सेहत अच्छी थी तो वो ज्यादातर अच्छी ही बनी रहती है. हाँ उम्र का प्रभाव तो नकारा नहीं जा सकता. नौकरी में रोजाना की मेहनत, उतार-चढ़ाव और मानसिक तनाव झेलते रहे थे पर स्वस्थ रहे थे तो फिर रिटायर होने के बाद भी स्वास्थ्य ठीक ही रहता है. ऐसे में तो रिटायर होना एक घटना मात्र है. बल्कि ये बदलाव काफी हद तक सुकून भी देता है कि चलो रोजमर्रा की किचकिच और खडूस बॉस से छुट्टी मिली. इसलिए लोग स्वस्थ बने रहते हैं. मतलब की आप दो पेग लगाते थे तो लगाते रहें फिकरनॉट! 

सर्वे में कुछ उदाहरण इसके उलट भी मिले हैं. याने रिटायर होते ही बिस्तर पकड़ लिया. ऐसा ज्यादातर रिटायर होने के तुरंत बाद ही हो सकता है. पर फिर जैसे जैसे समय निकलता है तो इस तरह की घटनाएं नहीं देखी गईं. इसका मुख्य कारण खुद पर से विश्वास घट जाना बताया गया है.

रिटायर हो चुके बन्दे के लिए मानसिक दबाव मसलन पैसा या निजी मकान ना होना या विषम घरेलु स्थिति भी स्वस्थ रहने में बाधक हैं. विकसित देशों में बेहतर स्वास्थ्य सुविधाएं, ओल्ड ऐज होम जैसी सुविधाएँ हैं जो रिटायर होने वाले को आश्वस्त रखती है. हमारे यहाँ वृद्धाश्रम जैसा इंतज़ाम बहुत ही कम है और दूसरी ओर संयुक्त परिवार भी तेजी से घटते जा रहे हैं. वैसे संयुक्त परिवार में बुज़ुर्ग की पूरी देखभाल होती है या नहीं ये एक अलग सवाल है. इसके साथ ही अब औसत उम्र भी बढ़ती जा रही है. मतलब बुढ़ापा लम्बा चल सकता है तैय्यारी रखें.

तैय्यारी में एक तरफ तो सुबह शाम की सैर, दौड़, खेलकूद, योगाभ्यास, साइकिलिंग वगैरह है और दूसरी तरफ डाइट का भी ध्यान रखना है. साथ ही खाते में पैसे भी रखने हैं कम से कम बीमा तो चालू रहे. 

अक्टूबर का महीना आने वाला है और बैंक के पेंशनर को मेसेज आएँगे की मेडिक्लैम के प्रीमियम के लिए खाते में बैलेंस बनाए रखें वर्ना...! बैंक वाली स्कीम में पिछले सालों से प्रीमियम शैतान की आंत की तरह बढ़ता जा रहा है. लगता है एक महीने की पेंशन प्रीमियम की भेंट चढ़ जाएगी. इसी तरह प्रीमियम बढ़ता रहा तो कुछ बरसों बाद दो महीने, फिर तीन महीने की पेंशन ....!

मेडिक्लैमके इस प्रीमियम पर कुनैन जैसा कड़वा जी एस टी का लेप भी है. पता नहीं सरकार ने क्या सोच कर लगाया है? 

इस मेडीक्लैम बीमे में एक और लोचा है. मान लीजिये आप ने पिछले साल कोई क्लेम नहीं किया तो आपको कोई छूट मिल जाए ऐसा नहीं है. बेजान कार के बीमे में इस तरह की छूट मिल जाती है पर जिन्दा पेंशनर को नहीं! पर चलिए ये बात सोच के संतोष हो जाता है की हमें ना सही किसी को तो इस बीमे का फायदा मिला होगा. इस जमाने का यही दान पुन्य है. 

बीमा कम्पनी के अधिकारी जो प्रीमियम की कोटेशन देते हैं, बैंक के अधिकारी जो कोटेशन मान लेते हैं और हमारे यूनियन / एसोसिएशन के पदाधिकारी( मुझे इनके रोल की जानकारी नहीं है और ये भी नहीं मालूम कि ये कहाँ तक दबाव डाल सकते हैं ) भी जानते ही होंगे की उन्हें भी रिटायर होना है? प्रीमियम घटाने पर किसी का ध्यान नहीं जाता. या सब लाल फीता शाही से बंधे हैं जैसा की निचले चित्र में है. 

कुछ ऐसे भी 'नौजवान' पेंशनर हैं जो ये बीमा पालिसी लेते ही नहीं. इनकी बात सुन कर लगता है कि -  

कहते हैं उम्र-ए-रफ़्ता कभी लौटती नहीं, 

जा मय-कदे से मेरी जवानी उठा के ला!

                        - अब्दुल हमीद अदम

व्हाट्सएप्प से लिया चित्र  


Saturday 19 September 2020

प्राचीन विदेशी यात्री - इब्न बतूता

 इब्न बतूता 

प्राचीन काल में भारतीय उपमहाद्वीप में ज्ञान, विज्ञान, व्यापार, धर्म और अध्यात्म का बहुत विकास हुआ. इस विकास की ख़बरें मौखिक रूप में व्यापारियों के माध्यम से फारस,ग्रीस, रोम, चीन तक पहुँच जाती थी. इसकी वजह से व्यापारी, पर्यटक, बौद्ध भिक्खु तो आते ही थे बहुत से हमलावर भी आ जाते थे. इनमें से कुछ यात्रियों ने यात्रा संस्मरण, लेख, किताबें लिखीं या नक़्शे बनाए जो उस समय का इतिहास जानने के लिए बहुत ही महत्वपूर्ण सिद्ध हुए. 

इस श्रृंखला के  पहले भाग में ग्रीक यात्रियों, दूसरे भाग  में चीनी यात्रियों और तीसरे भाग  में अल बेरुनी का जिक्र है. यह लेख एक और यात्री इब्न बतूता के बारे में है जिसने भारत के विभिन्न भागों में कई साल गुज़ारे. 

Disclaimer - लेख के लिए सामग्री इन्टरनेट की फ्री वेबसाइट से एकत्र की है और अधिक जानकारी के लिए कृपया इतिहास की पुस्तकें पढ़ें.  

इब्न बतूता का पूरा नाम मोहम्मद बिन अब्दुल्ला इब्न बतूता था. बतूता का जन्म 1304 में मोरक्को के तान्जियर शहर में हुआ था. इक्कीस वर्ष की आयु में वह मक्का की हज यात्रा पर निकला. यह यात्रा लम्बी होती चली गई और तीस साल बाद वह वापिस मोरक्को पहुंचा. इस दौरान उसने पूर्वी अफ्रीका, दक्षिण अरब, क्रीमिया, ख्रीवा, बुखारा, अफगानिस्तान, दिल्ली, लंका, बंगाल, पश्चिम एशिया, स्पेन वगैरह की लगभग 121000 किमी की यात्रा की जो अपने आप में एक रिकॉर्ड है.   

इब्न बतूता ने वापिस पहुँच कर मोरक्को के सुलतान को अपनी यात्रा के किस्से सुनाए. सुलतान के कहने पर उसके एक सचिव ने ये यात्रा अरबी में कलमबंद की और किताब का नाम रखा गया - 'तुहफत अल नज़्ज़ार फ़ी गरायब अल अमसार अल अफ़सार'. ये किताब ज्यादातर 'इब्न बतूता का रेहला' के नाम से जानी जाती है. रेहला अर्थात यात्रा संस्मरण. इस किताब की अतिशोक्तियाँ छोड़ दें तो भी उस वक़्त के भारतीय उपमहाद्वीप के बारे में काफी कुछ जानकारी मिल जाती है. इब्न बतूता की मृत्यु 1377 में हुई. 

इब्न बतूता ने हिन्दुकुश, मुल्तान के रास्ते से भारत में प्रवेश किया. मुल्तान में उसने दिल्ली के सुलतान मोहम्मद तुगलक़ के लिए बहुत से उपहार खरीदे. दिल्ली का नाम इब्न बतूता के रेहला में देहली के नाम से दर्ज है. मुल्तान से ही बतूता ने एक हरकारे को एक चिट्ठी देकर सुलतान के पास पहले ही भेज दिया. 1333 में दिल्ली पहुँच कर सुलतान को उपहार दिए, सात बार उसका हाथ चूमा और फारसी बोल कर खुश कर दिया. सुलतान ने इब्न बतूता को दिल्ली का क़ाज़ी नियुक्त किया.
 
उन दिनों तुगलक़ अपनी सल्तनत जमाना चाहता था और उसे अपने दरबार में विश्वासपात्र कवि, लेखक, जज, मंत्री और नौकरशाह चाहिए थे. हिन्दुओं पर उसे शक रहता था की वे कोई षडयंत्र ना रच रहे हों. उसने अब लूटपाट के बजाए हिन्दुओं पर टैक्स लगाना शुरू कर दिया और उनकी जगह बाहर से आए हुए फ़ारसी या तुर्क लोगों को नौकरी देना शुरू कर दिया था. इस कारण से इब्न बतूता का काम बन गया. तुगलक के बारे में बतूता ने लिखा है की वह सनकी सुलतान था. एक सेकंड में वो किसी को मालामाल कर देता था और दूसरे ही क्षण किसी की गर्दन भी कटवा सकता था.
 
शाही दस्तरखान के बारे में इब्न बतूता ने कहा है की खाने से पहले मीठा शरबत और खाने के बाद जौ का पानी पीया जाता था. सुपारी के साथ पान का पत्ता भी कभी कभी चलता था. पतली रोटी के साथ भेड़ या बकरे का गोश्त होता था. गोश्त अदरक और प्याज के साथ घी में पकाया जाता था. चावल और चिकन भी घी में पकाए जाते थे. मोटी मीठी रोटी भी परोसी जाती थी जिसमें अखरोट, बादाम, पिस्ता वगैरह शहद के साथ मिला कर भरे होते थे. साथ में हरे आम का अचार और फल भी रखे जाते थे. एक और चीज़ जो बहुत पसंद की जाती थी वो था समोसा या सम्बुसक. इसे कीमा, प्याज, मेवे और मसाले भर के तला जाता था. 

खाने के साथ साथ शहरों और पेड़ पौधों का भी वर्णन है. अरबी से इंग्लिश में अनुवादित किताब से एक अंश:
We traveled from the city of Multan, and until our arrival in the country of Al Hind, our suite pursued the journey in the same order we have described. The first city that we entered was Abohar. It is the first of cities of Al Hind, it is small, handsome & thickly populated, & possess river & trees. Of the trees of our country there is none there except nabq. But the Al Hind nabq ( zizyphus lotus ) is very big, its stone is equal in volume to that of gall-nut, & is very sweet. The Indians have many trees none of which exists in our or any other country. One of them is amba ( mango ).
एक और रोचक किस्सा चीन से सम्बंधित है. चीन के राजा ने बहुत से गिफ्ट भेजे और एक 'मन्दिर' बनाने का निवेदन किया जो सुल्तान ने मना कर दिया. बदले में और ज्यादा उपहार दे कर सुलतान ने इब्न बतूता को चीन में राजदूत बना कर भेजने का आदेश जारी कर दिया. 
Cause of the despatch of presents to China (al-Sin)and the people who accompanied me and the presents:
The king of China had sent a hundred male & female slaves, five hundred velvet garments - out of which one hundred were made in Zaitan and one hundred in the city of Khansa - five maunds of musk, five garments studded with jewels, five quivers of gold brocade and five swords. He asked the sultan's permission to build an idol temple on the skirts of Qarajil mountain, which has been mentioned before, at a place called Samhal. The inhabitants of China go on pilgrimage to Samhal which the royal Muslim army of India had seized, destroyed and sacked.
When the said presents reached sultan he wrote to him a reply to this effect - Islam does not allow the furthering of such an aim and the permission to build a idol temple in a Muslim country can be accorded only to those who pay jizya....  
जिन जगहों के नाम ऊपर लिए गए हैं यथा सम्हल और क़राजिल पता ही नहीं लगते कहाँ हैं. चीनी से अरबी और अरबी से इंग्लिश के अनुवाद में ये नाम काफी बदल गए - कई अंग्रेजी की किताबों में सम्हल का नाम  सम्भल, सन्हिल, सनहल लिखा है इसी तरह से पहाड़ी का नाम क़रजिल, काराजिल, कारा या कोरा भी लिखा गया है. 
उपहार और लाव लश्कर ले कर बतूता कालीकट की ओर निकला पर रास्ते में डाकुओं ने लूटपाट कर दी. किसी तरह जान बचाते हुए ये लोग कालीकट पहुंचे. वहां से लंका, इंडोनेशिया के रास्ते इब्न बतूता चीन पहुंचा.    
अल बेरुनी और इब्न बतूता के अलावा और बहुत से मुस्लिम यात्री भारत आये और उन्होंने अपनी अपनी यात्राओं के बारे में लिखा भी. पर इनका जिक्र आम तौर पर कम है. इनके नाम हैं - फ़रिश्ता मोहम्मद कासिम( इरानी यात्री 1600 के आसपास ), सुलेमान, अल मसूदी( अरबी यात्री 896 - 956 ), अब्दुल रजाक हेरात, मुल्ला तकिया( अकबर के शासन काल में ), मुल्ला बहबहानी( 1807 में पटना ), तबरी( या अल टबरी ). इनके बारे में फिर कभी. 
इब्न बतूता (चित्र  indiatoday.in से साभार )



Sunday 13 September 2020

प्राचीन विदेशी यात्री - अल बेरुनी

अल बेरुनी 

प्राचीन काल में भारतीय उपमहाद्वीप में ज्ञान, विज्ञान, व्यापार, धर्म और अध्यात्म का बहुत विकास हुआ. इस विकास की ख़बरें मौखिक रूप में व्यापारियों के माध्यम से फारस, ग्रीस, रोम तक पहुँच जाती थी. इसकी वजह से व्यापारी, पर्यटक, बौद्ध भिक्खु तो आते ही थे बहुत से हमलावर भी आ जाते थे. इनमें से कुछ ने यात्रा संस्मरण, लेख, किताबें लिखीं या नक़्शे बनाए जो उस समय का इतिहास जानने के लिए बहुत ही महत्वपूर्ण सिद्ध हुए. 

इस श्रंखला के  पहले भाग में ग्रीक यात्रियों के बारे में लिखा था और दूसरे भाग  में चीनी यात्रियों के बारे में. इस लेख में यात्री अल बेरुनी का जिक्र है. ( Disclaimer - यह जानकारी इन्टरनेट से एकत्र की है और अधिक जानकारी के लिए कृपया इतिहास की पुस्तकें पढ़ें ). 

अल बरुनी ( Al Beruni ): अल बरुनी का जन्म सन 973 में ख्वारेज्म, खोरासन में हुआ था जो अब उज़बेकिस्तान में है. उसकी मृत्यु 1048 में गज़ना में हुई थी जिसे अब ग़ज़नी ( अफगानिस्तान ) कहते हैं. वैसे अल बरुनी इरानी ( फारसी ) नागरिक था और उसका पूरा नाम अबू रेहान मुहम्मद इब्न अहमद अल-बरूनी था. 

उसे तुर्की, फ़ारसी, हिब्रू, अरबी, अरमेन्याई भाषाओं का ज्ञान था. यहाँ आकर अल बेरुनी ने संस्कृत भी सीख ली थी. उसे ज्योतिष, दवाइयां, गणित और खगोल विद्या में रूचि थी और यहाँ आकर उसने यह जानकारी बढ़ाने की कोशिश की. दिल्ली आकर उसने दूर दूर तक यात्रा की और उस समय के भारत के वो पहला मुस्लिम भारतवेत्ता माना जाता है. उसकी लिखी किताबों में से चार प्रमुख हैं: 

1. किताब-उल-हिन्द 2. अल क़ानून अल मसूदी 3. क़ानून अल मसूदी अल हैयात और 4. अल नज़ूम.

अल बेरुनी का आना महमूद गज़नवी के साथ ही हुआ और वह तेरह साल भारत में रहा. उसकी लिखी 'किताब उल-हिन्द' काफी चर्चित है. इस पुस्तक में यहाँ के जीवन का विस्तार से वर्णन किया है. संस्कृत सीख लेने के कारण प्राचीन ग्रंथों जैसे की गीता, उपनिषद, पतंजलि, पुराण और वेद के कोटेशन बरुनी के लेखों में काफी मिलते हैं. दरअसल इस किताब का पूरा नाम था - तहकीक मा लि-ल-हिन्द मिन मक़ाला मक्बुला फी अल-अक्ल औ मर्दूला ( Verifying All That the Indians Recount, the Reasonable and the Unreasonable - किताब के नाम का अनुवाद इनसाइक्लोपीडिया ब्रिटेनिका से ). ये नाम बहुत कुछ ज़ाहिर कर देता है की लेखक की मन्शा क्या है. किताब का हिंदी अनुवाद 'अलबेरुनी का भारत' के नाम से 1960 में प्रकाशित हुआ और अनुवादक थे रजनी कान्त शर्मा. 466 पेज की ये किताब ऑनलाइन पढ़ने के लिए इन्टरनेट पर उपलब्ध है. किताब की शुरुआत में अल बेरुनी ने लिखा है की किसी भी हिन्दुस्तानी विषय पर लिखना हो तो निम्न तरह की परेशानियां आती हैं:

1. भाषा की विभिन्नता - 'हमारी ज़ुबान के लिए संस्कृत भाषा का उच्चारण अत्यन्त कठिन है'. 

'हिन्दू लोग यूनानियों की तरह बाएँ से दाएं लिखते हैं'. 

'पांडुलिपियों को बहुत लापरवाही से तैयार किया जाता है और पूर्ण शुद्ध तथा पूर्णत: क्रमबद्ध पाण्डुलिपि बनाने पर समुचित ध्यान नहीं दिया जाता'. 

2. धार्मिक पक्षपात - 'अन्य धर्मानुयायियों के लिए उनके द्वार सदा बंद रहते हैं क्योंकि उनका विश्वास है की ऐसा करने पर वे धर्म भ्रष्ट हो जाएंगे'.

3. आचार विचार तथा रीतियों का भेद - 'तीसरे वे अपने तौर तरीकों  व व्यवहार विधि में हमसे इतने अधिक भिन्न हैं की वे बच्चों को हमारे नाम से, हमारे वस्त्रों से और हमारी रीतियों और व्यवहार से डराते हैं, और हमें शैतान की औलाद बता कर हमारे कार्यों को उन सभी कामों के विरुद्ध बताते हैं जिन्हें ये अच्छा और उचित मानते हैं. परन्तु हमें स्वीकार कर लेने में कोई संकोच नहीं होना चाहिए की विदेशियों का यह हेय भाव केवल हमारे और हिन्दुओं के बीच नहीं है, सभी देशों में एक दूसरे के प्रति सामान रूप से व्याप्त है'. 

4. बौद्धों का पाश्चात्य देशों से निष्कासन - हिन्दुओं और विदेशियों के बीच आरम्भ से व्याप्त भेदभाव व प्रतिद्वंदिता की भावना को प्रोत्साहन देने का एक अन्य कारण है की ब्राह्मणों से घृणा रखते हुए भी शमन्नियां ( अरबी भाषा में बौद्ध  श्रमणों को शमन्नियाँ कहते हैं ) अन्य धर्मावलम्बियों की अपेक्षा उन्हीं के अधिक निकट हैं. पूर्ववर्ती समय में खुरासान, परसिस, इराक, मोसुल और सीरिया की सीमा तक के क्षेत्र में बौद्ध धर्म काफी जोरों पर था'.  

5. हिन्दुओं का आत्मगौरव तथा विदेशी वस्तुओं से घृणा -  'स्वभावतः वे जो कुछ जानते हैं, उसे व्यक्तिगत थाती बना कर रखने की प्रवृति रखते हैं, और विदेशियों की बात तो दूर अपने ही देश के किसी अन्य जाती के लोगों से भी उसके छुपा रखने का प्रत्येक संभव प्रयत्न करते हैं. उनके विश्वास के अनुसार पृथ्वी पर उनके सामान कोई अन्य  देश नहीं है, उनके सामान कोई अन्य जाति नहीं है, और उनके अतिरिक्त किसी अन्य देश या जाति के पास ना शास्त्र है ना ज्ञान. उनके गर्व की सीमा कहाँ तक है, इसे इस उदाहरण से भली भांति समझा जा सकता है - यदि उनसे खुरासान या परसिस के किसी विद्वान या शास्त्र का उल्लेख करें, तो वे ऐसी सूचना देने वाले को मूर्ख के साथ साथ झूठा कहने में भी संकोच नहीं करेंगे. यदि वे पर्यटन करते तथा अन्य राष्ट्रों के जन जीवन का परिचय प्राप्त करते तो उनके ह्रदय में इस मिथ्या आत्म गौरव की भावना निकल जाती. उनके पूर्वज वर्तमान पीढ़ी के सामान संकुचित मनोवृति वाले नहीं थे...' 

'अलबेरुनी  का  भारत ' से एक अंश 



Saturday 5 September 2020

साब की कार

प्रमोशन के साथ ही साथ ही गोयल साब की ट्रान्सफर भी हो गई. अब वो बैंक की झुमरी तलैय्या में सारी ब्रांचों के जनरल मैनेजर बन गए. धूमधाम से स्वागत होने के बाद कुर्सी सम्भाल ली. अगले दिन हेड ऑफिस से फ़ोन आया, 

- सार सुब्रामणियम सार! बहुत अच्चा पोस्टिंग मिला है सार. 

- थैंक्यू .

- एक खुशखबर है सार. मई सोचा पहले मई फोन करेगा सार को. आपको नया गाड़ी का सैंक्शन हो गया सार. नो लिमिट सार. कोई भी गाड़ी ले सकता सार. येनी ब्रांड सार.

- गुड.

- हम आएगा सार मिलने को. भाबी जी का हाथ का पराटा खाएगा सार. थैंक्यू सार.  

तुरंत फैक्स भी आ गया. पर गोयल सा को कार में ज्यादा रुचि नहीं थी. अगले साल ही तो रिटायर हो जाना है फिर बैंक गाड़ी वापिस ले लेगा. फिर भी श्रीमती को फोन पर सूचना दे दी की सुब्बू का फोन आया था. नई गाड़ी मिल सकती है और इस पर मैडम से मुबारक बाद ले ली. जितनी ख़ुशी साब को जी एम बनने पर हुई उस से ज्यादा मैडम को नई कार की बात सुन कर हुई.

फोन रख कर साब ने फिर पिछली जेब से कंघी निकाल कर बालों में घुमाई. अब बाल तो गिनती के ही बचे थे पर फिर भी. फिर टाई ठीक की. टाई भी माशाल्ला बड़े से पेट पर टिक जाती थी तो हिलती नहीं थी. अब आप से क्या छुपाना साब को बियर का बड़ा शौक है, और अगर साथ में कबाब हो तो सोने पर सुहागा. शाम को डिनर पर नई कार की चर्चा तो होनी ही थी. बिल्लू और बहु भी थे वो भी शामिल हो गए.

- मैं तो कहती हूँ नई कार ले ही लो. किट्टी और शौपिंग का मज़ा हम भी तो लें.

- पापा अगर पैसे की लिमिट नहीं है तो बी एम डब्ल्यू ले लो. कनाडा जाने से पहले हम भी मज़ा ले लें.

- यार ये गाड़ी पुरानी थोड़ी हुई है. चलने दो.

- पापा आप भी ! जब एम्बेसडर मिलनी थी तो आप कहते थे स्कूटर ही ठीक है, जब मारुती मिलनी थी तो आप कहते थे एम्बेसडर ही ठीक है और अब और बड़ी चॉइस मिल रही है तो वो ही पुरानी ही ठीक है.

- इनकी सोच तो ऐसे ही रही है बेटे बिल्लू. तू कहेगा तो शायद नई गाड़ी आ भी जाए मेरे कहने से तो नहीं आएगी. और इस बार प्लीज़ गाड़ी पर 'भारत सरकार' ना लिखवा देना. 

- पापा बी एम डब्ल्यू या फिर ऑडी या फिर मर्सडीज़ ? और हाँ इस बार सफ़ेद रंग नहीं चलेगा. 

- चल जो तू कहे!

- वाह वा! पर लखनऊ में ही मिलेगी यहाँ तो कोई शोरूम नज़र नहीं आता.\

- चलो कल मैं अर्रेंजमेंट करता हूँ. अगले दिन साब ने पी ए को बोला हज़रत गंज में सक्सेना से बात कराओ.

- सक्सेना क्या हाल है ? एक काम करो एक बी एम डब्लू कार की इनवॉइस भिजवाओ.

- जी सर जी सर. आप कहें तो मैं लेकर आ जाता हूँ सर. हें हें हें! एक घंटे की तो ड्राइव है बस. कौन सा कलर पसंद किया है भाभी जी ने सर? और सर बिल्लू तो कनाडा चला गया होगा? बहुत होनहार बच्चा है जी आपकी तरह. शादी में मिला था पर बहुत ही मिलनसार लगा सर. सर मेरी ब्रांच की विज़िट भी करनी है सर. 

- हाँ आना है आपके पास. 

- मेरी समझ से सर विज़िट का प्रोग्राम ऐसा रहे की गाड़ी की डिलीवरी भी उसी दिन हो जाए. फिर आप फॅमिली समेत नई गाड़ी में वापिस जाएं. होटल वोटल मैं देख लूँगा सर.

- हूँ. एक गाड़ी खाली आएगी?

- नहीं सर खाली क्यूँ? लखनऊ के चिकन वर्क के कुरते पाजामे भी तो जाएंगे. और सर पिछले दिनों एक बहुत बड़ी डेरी फाइनेंस की है सर. उसके दो एक कनस्तर घी के भी तो भेजने हैं सर. 

सारे काम ठीक हो गए. मैडम और बहु की शौपिंग हो गई, साब की ब्रांच इंस्पेक्शन भी हो गई और दोनों गाड़ियां सही सलामत वापिस घर पहुँच गईं. अगले दिन मैडम ने सुझाव दिया,

- आप आज पुरानी गाड़ी ऑफिस ले जाओ और नई गाड़ी बिल्लू चला लेगा और हम मन्दिर हो आएँगे. 

- हूँ.

मिठाई, नारियल, फूल पत्ते लेकर मैडम, बिल्लू और बहु मंदिर पहुंचे. गाड़ी का तिलक कराया और दान दक्षिणा दे दी. वापिस चल पड़े पार्किंग की तरफ. तीनों खुश थे और बिल्लू कार की तारीफें करता हुआ थोड़ा जोश में आ गया. बैक करते हुए भी बतियाये जा रहा था और पीछे देखा नहीं. गाड़ी धाड़ से रेलिंग पर जा लगी. नीचे उतर कर देखा और बोला,

- अरे कुछ नहीं कुछ नहीं. मामूली सी खरोंच है. नई कार का ब्यूटी स्पॉट है. हें हें हें. पर प्लीज़ आप पापा को नहीं बताना. 

- ओहो! ध्यान से चलानी थी तूने बिल्लू. पापा को पता लगा तो?

- मम्मी उन्हें कहाँ पता लगाता है इन सब चीज़ों का जब तक की ड्राईवर ना बता दे. सुबह ड्राईवर आएगा तो आप मुझे बुला लेना उसको सेट कर दूंगा. फिलहाल तो आप नई गाड़ी में नैनीताल का प्रोग्राम बना लो. 

साहब की नई कार