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Sunday 29 December 2019

बुद्ध का मार्ग - दस प्रश्न

दस प्रश्न  

गौतम बुद्ध अपने उपदेशों के दौरान उठाए गए सवालों का जवाब भी देते थे. सवाल किसी के भी हों शिष्य के, साधू-संत के, व्यापारी के, यात्री के या फिर किसी राजा के. वे सभी को यथा योग्य उत्तर देते थे. फिर भी कुछ प्रश्न ऐसे थे जिनका बुद्ध ने उत्तर नहीं दिया. इन दस प्रश्नों को अव्याकृत ( अकथनीय ), प्रतिक्षिप्त ( जिनका उत्तर देना अस्वीकृत हो गया ) या अनुत्तर प्रश्न कहा जाता है. गौतम बुद्ध ने कहा की ये सवाल सार्थक नहीं हैं, उपयोगी नहीं हैं, तथा शांति, ज्ञान और निर्वाण के लिए आवश्यक भी नहीं हैं. 

इन सभी बातों का जिक्र 'सुत्त पिटक' के 'मज्झिम निकाय' में 63वें सुत्त में आता है जिसका शीर्षक है - चूलमालुंक्या-सुत्त. यहाँ चूल का मतलब है छोटा या short सुत्त और 'मालुंक्य' शिष्य का नाम है ( पूरा नाम मालुंक्य-पुत्त है ). 

एक समय में गौतम बुद्ध श्रावस्ती में अनाथपिण्डीक के आश्रम जेतवन में रह रहे थे. वहीं एक शिष्य मालुंक्य-पुत्त भी था जो कुछ सवालों को लेकर बहुत बेचैन था. काफी सोच विचार के बाद उसने फैसला किया की गौतम बुद्ध से ये दस सवाल पूछेगा और अगर सही जवाब नहीं मिला तो गृहस्थ आश्रम में वापिस चला जाएगा. सांयकाल की सभा के बाद उसने भगवान् बुद्ध को अभिवादन किया और इन दस सवालों के जवाब पूछे और साथ ही कह दिया कि अगर उचित जवाब ना मिले तो वह वापिस चला जाएगा. ये सवाल थे :
1. लोक शाश्वत है ?, 
2. लोक अ-शाश्वत्व है ?,
3. लोक का अंत है ?,
4. लोक अनंत है ?,
5. जीव और शरीर एक हैं ?,
6. जीव अलग है और शरीर अलग है ?, 
7. मरने के बाद तथागत विद्यमान रहते हैं ?,
8. मरने के बाद तथागत विद्यमान नहीं रहते ?,
9. मरने के बाद तथागत होते भी हैं और नहीं भी ? और
10. मरने के बाद तथागत न-होते हैं और न-नहीं-होते हैं ?.

भगवान् गौतम बुद्ध ने जवाब में कहा,
- हे मालुंक्या-पुत्त क्या मैंने तुम्हें बुलाया था और कहा था कि मैं इन दस सवालों के उत्तर दूंगा ?
- नहीं भन्ते.
- क्या तुमने ऐसा कहा था कि तुम यहाँ तब रहोगे जब मैं इन सवालों का उत्तर दूंगा ?
- नहीं भन्ते.
- तो सुनो मूर्ख पुरुष. यहाँ आकर इन सवालों के जवाब के लिए कोई रहेगा तो जीवन ही समाप्त हो जाएगा पर उत्तर नहीं मिल पाएगा. इन प्रश्नों पर तर्क वितर्क अंतहीन है. उदाहरण के लिए बाण से घायल एक व्यक्ति को उसके नाते रिश्तेदार वैद्य के पास लाए. क्या घायल व्यक्ति पहले बाण चलाने वाले का नाम, पता और जात पूछेगा फिर उपचार करवाएगा ? या कहेगा की पहले बताओ की बाण मारने वाला लम्बा था या नाटा था फिर उपचार करो ? या कहेगा की पहले बताओ कि बाण मारने वाला काला था या गोरा और किस गाँव का था फिर उपचार करना ? अर्थात जब तक इन सवालों का जवाब मिले तब तक तो घायल व्यक्ति स्वर्ग सिधार जाएगा !

- मालुंक्य-पुत्त तुम्हारे सवाल सार्थक और उपयोगी नहीं हैं.  ज्ञान, मन की शांति और निर्वाण के लिए यह प्रश्न व्यर्थ हैं. इसीलिए इन्हें अव्याकृत कहा है. जो व्याकृत हैं वही मैं कहता हूँ - 
1. जीवन में दुःख है, 
2. दुःख का कोई ना कोई कारण है, 
3. दुःख का अंत है और 
4. दुःख अंत करने का एक मार्ग है. मैं यही मार्ग समझाता हूँ. इस मार्ग पर चलने के लिए दस सवाल जरूरी नहीं हैं और इसीलिए अव्याकृत हैं. जिसे मैं व्याकृत कहूँ उसे ही व्याकृत के तौर पर धारण कर.


बुद्धम शरणम् गच्छामि 
सन्दर्भ :
1. मज्झिम निकाय - अनुवादक महापंडित राहुल सांकृत्यायन
2. Cula-Malunkyovada Sutta translated from Pali by Thanissaro Bhikhu

Wednesday 18 December 2019

Pensioners' Day


Every year 17th day of December is celeberated as Pensioners' Day since 1983.

The word 'Pension' is said to have its origin in Latin word pensio meaning payment. As per Wikipedia earliest form of compensation or pension was that of Roman King Ceaser. He used to pay some amount from his military treasury to keep the retired & wounded soldiers quiet. 

Pension in different forms to widows, old aged, orphans & disabled was granted by Arab Khalifas also out of Zakat or charity contributed by general society. Different countries have own systems of pension most popular being social insurance system. Following chart from Wiki shows pension systems by country.

Chart on Pension Systems in world - downloaded with thanks from Wikipedia. This chart however, needs updation 

History of pension in India is more than 150 years old. This pension system in India was introduced by the British in colonial India after the Indian independence struggle in 1857. This was a reflection of the pension system then prevelant in Britain. The then British government decided to provide money cover to retired employees for their post retirement life. 

The system was formalised by the Indian Pension Act of 1871. However the final authority of granting of pension was vested with Viceroy and Governors. Thus the pension was at the mercy of authorities rather than by default.

British government ocassionally allowed increase in amount of pension keeping in view the increase in costs, that is inflation. 

Even though the retirement benefits were being given by the government, they were not incorporated in Fundamental Rules made effective from 1-1-1922. 

Shri D.S.Nakara, Financial Advisor to Ministry of Defence who was an officer from Defence Service Audit & Accounts faced problems in getting pension when he retired in 1972. He lodged a petition in the Supreme Court. 

Chief Justice Yashwantrao Chandrchud heard the petitioner as well as the government pleas and ruled that pension is neither a gift nor a reward or bounty. Pension is the right of a retired government servant who had served nation for a long time. Government is bound to ensure that her emploees lead a peaceful and honourable life after retirement. 

This historical judgment was issued on 17 Dec 1982. Hence The Pensioners' Day.

In India Provident Fund based pension was in vogue till 2003 as is shown in the above chart. This Pension Scheme was scraped By Vajpayee govt & in its place new pension scheme NPS was launched in January 2004 for govt employees. Subsequently in 2009 it was extended to all sections of society. Broadly a subscriber may contribute in his pension account during working life. Subsciber could withdraw the amount later in parts - a part in lumpsum & other part in annuity to get regular income. This Scheme has recieved mixed reactions. Modifications of NPS is likely and may follow.

P.S. Wanted to publish this on 17th December but could not as internet was cut off by the govt. in Meerut due to agitation against CAA. Governments whether present one or earlier ones are unfortunartely less interested in welfare schemes for the seniors, elderly, widows & disabled. By & large such schemes are considered burden on exchequer.


Thursday 12 December 2019

चप्पल

हमारी कालोनी के तीन तरफ ऊँची दीवार है और दीवार के पीछे काफी बड़ा और घना जंगल है. इस दीवार की वजह से आप जंगल में नहीं जा सकते हैं, और न ही जंगलवासी इस तरफ आ सकते हैं. दीवार के कारण जंगल वासी समझते हैं कि वो सेफ हैं और कॉलोनी वाले समझते हैं कि वो सेफ हैं ! कभी कभी एकाध कॉलोनीवासी चिकेन मटन का स्वाद ले कर बची हुई हड्डियां दीवार के पार फेंक देते हैं. उस शाम सियारों की हुआँ हुआँ की आवाज़ आ जाती है. यदा कदा अगर सब्जियां या फलों के छिलके फेंक देते हैं तो नील गाय आ जाती है. सुना है की एक दो बार उच्चकों ने भी दीवार फांदने की नाकाम कोशिश की है. 

दीवार के पीछे जंगल 
बहरहाल दीवार के पास धूप अच्छी आती है तो कुछ बुज़ुर्ग वहां अड्डा जमा लेते हैं. गपशप चलती है और बहस होती है जिसका कोई ओर छोर नहीं होता और न ही कभी समापन होता है. सोमवार को ग्रोवर जी ने सूचना दी कि ये चप्पलें इसी तरह से कई दिनों से पड़ी हैं. किसकी हो सकती हैं? पता नहीं कोई काम वाली छोड़ गई है शायद.
- ग्रोवर जी, सिंह साब बोल पड़े, आप काम वालियों पर बड़ी नज़र रखते हैं?
- शटअप अवतार सिंह हर वक्त मज़ाक अच्छा नहीं होता.
तब तक गोयल साब ने गणेश जी को उठाकर और साफ़ कर के फिर से चबूतरे पर विराजमान कर दिया.
- देखो भई, राणा जी बोले, अगर ये कई दिनों से चप्पल पड़ी हैं और उठाई नहीं गई तो ये अच्छी बात नहीं है. कहीं कोई दीवार फांदने की तैयारी में यहीं छोड़ गया हो. सीरियस मामला है समझा करो. 
हवाई चप्पल 

- कमाल है राणा जी ! दूर की कौड़ी लाए हो. 
- अरे भई देख नहीं रहे गिरी हुई चप्पल ? दीवार पर पैर जमा नहीं पा रहा होगा चप्पल फैंक कर भाग लिया होगा जंगल में ! ये देखो इंटों के बीच जगह में पैर जमाने की कोशिश की होगी पर जमा नहीं होगा. सुसरे की चप्पल अटक रही होगी. चौकीदार से पूछताछ करनी पड़ेगी.  
- पूरे करमचंद जासूस हो यार आप. 
- भई छोटी छोटी भूल बाद में भयंकर नतीजे ले कर आती है. आप गाड़ी का ताला लगाना भूल जाओ तो बस गई गाड़ी आपकी. आपको पता है फिरंगियों ने थोड़ी थोड़ी जगह ली थी व्यापार करने के लिए. फिर व्यापारिक बँगले  बनाए, फिर एक राजा को कब्जे में ले लिया फिर दूसरे राजा को और फिर इतिहास ही बदल गया. समझा करो. हिटलर ने क्या किया ? पोलैंड में रेडियो प्रोग्राम करने के लिए कलाकार भेजे. उन कलाकारों ने पोलिश रेडियो स्टेशन पर ही कब्जा कर लिया ! देख लो फिर इतिहास बदल गया. महाभारत में तो ऐसे छोटी छोटी गलतियां भरी पड़ी हैं जिसके कारण इतिहास बदल गया. समझा करो ! 
- राणा जी की यही तो खासियत है की काम कृषि मंत्रालय में करते थे और बातें इतिहास की करते हैं.
- अरे भई अपनी सेफ्टी तो ज़रूरी है की नहीं ? अखबार में आये दिन बुजुर्गों की लूटपाट और मर्डर के किस्से पढ़ते हो की नहीं. चप्पल पड़ी है दीवार के पास तो ध्यान नहीं जाएगा क्या ? चोर उचक्का हो सकता है ? हो सकता है मर्डर के इरादे से कूदा हो ? इतने सीनियर जोड़े यहाँ रहते हैं कुछ भी हो सकता है. 
- राणा जी फिलहाल तो वो मेड आपकी तरफ ही आ रही है. इसे इतिहास समझाओ.
मेड ने आकर झेंपते हुए चप्पल उठा ली और पहन कर चल दी. 



Sunday 8 December 2019

बॉल पॉइंट पेन

बैंक में प्रमोशन मिली तो उसके बाद दो साल के लिए किसी गाँव में जा कर नौकरी करनी जरूरी थी. चिट्ठी ले कर दिल्ली से पहुंचे मेरठ रीजनल ऑफिस. बॉस से मुलाकात हुई, 
- दिल्ली के नज़दीक ब्रांच दे रहा हूँ क्यूंकि दिल्ली वालों की नाक दिल्ली की तरफ ही रहती है. दिल्ली मत भागते रहना कुछ काम कर के भी दिखाना है.
- जी सर ! बिलकुल सर ! ( चिलम तो आप की ही भरनी है सरकार !). 

बॉस ने भुड़बराल शाखा में भेज दिया. शाखा की लोकेशन तो बढ़िया थी. मोदीनगर से मेरठ की तरफ जाएं तो दस बारह किमी आगे गाँव था. मेन रोड से दो तीन किमी अंदर गाँव में शाखा थी. शाखा पहुंचे तो देखा के गेट पर डीज़ल का जनरेटर भड़भड़ की आवाज़ के साथ स्वागत में धुंआ फेंक रहा था. अंदर काउंटर पर भीड़ थी जिसमें अंगूठा टेक ज्यादा नज़र आ रहे थे. याने इस प्रदेश की एक नार्मल ब्रांच थी. 

बैठ कर हिसाब लगाया कि फटफटिया से दिल्ली तक डेली अप-डाउन किया जा सकता है या नहीं. पर बारिश या ठण्ड में दिक्कत हो सकती है. और फिर बॉस को भी खुश रखना था इसलिए गाँव में आपातकालीन व्यवस्था कर लेना ही ठीक था. बड़ी मुश्किल से एक चौधरी साब के हाते में कोने वाले कमरे में जगह मिली. बाथरूम तो अटैच कहाँ से होना था वो तो हाते से भी डिटैच था. साल में 10-15 दिन की बात है चलो यही सही.

हमारे मकान मालिक चौ'साब के दो बेटे फ़ौज में थे. तीन बेटियों में से बड़ी शायद 14-15 साल की थी और दो छोटी स्कूल जाती थीं. बड़ी वाली आठ पास कर चुकी थी इसलिए आगे क्या पढ़ाई करवानी थी. उसने कोई नौकरी थोड़े ही करनी है. आगे चल कर घर परिवार संभालना है, रोटीयां बेलनी हैं. सो वो कर भी रही थी. दो भैंसों का चारा भूसा डालना, दूध निकालना, घर की साफ़ सफाई और परिवार की रोटी टिक्कड़ सब ख़ुशी ख़ुशी अकेले संभाल लेती थी. उसे भी पता था कि आगे भी ज़िन्दगी ऐसे ही चलती है. 

एक शनिवार दोपहर को काली घटा के साथ जोरदार बारिश शुरू हो गई. फटफटिया पर दिल्ली जाने का मतलब नहीं था. तो वहीं रुकने का फैसला कर लिया. इतवार को कहीं आसपास घूम लेंगे. सुबह देखा तो अहाते में सफाई अभियान चल रहा था और पूरे घर में पकवान बनने की खुशबू फैली हुई थी. 
चौ'साब ने दरवाजा खटखटाया और पूछा,
- मनीजर साब पेन है जी आपके धोरे?
- हाँ हाँ. मैंने एक बॉल पॉइंट पेन पकड़ा दिया और पूछा,
- चौ'साब बड़ी तैयारी हो रही है?
- ना ना बस जी आज मेहमान आ रए.
- ठीक ठीक. मैं तो ज़रा निकलूंगा शहर की तरफ.
- हाँ जी हाँ घूम लो जी आप. 
आधे घंटे बाद जब तैयार होकर बाहर निकला तो बड़ी लड़की शर्माती हुई मिली. अच्छे से कपड़े पहन कर सुंदर लग रही थी. पर गले में वही पेन धागे में पिरो कर पहना हुआ था. जल्दी में मैंने पूछा नहीं ऐसा क्यूँ किया. शाम को वापिस आया तो चौ'साब से बातचीत हुई,
- मेहमान चले गए?
- जी वे तो दोपहर को ही जा लिए. मनीजर साब बड़ी बिटिया सयानी हो गई जी उसी का रिश्ता लेकर आये थे जी. 
- अभी तो छोटी लगती है चौ'साब. और वो बिटिया ने पेन गले में टांग रखा था तो मैंने सोचा फिर से पढ़ने जाएगी. 
- ना जी अब क्या पढेगी. पेन तो नूं टांग राख्या था जी की लड़के वालन को भी पता लग जा के लड़की पढी लिखी है.

मन ही मन बिटिया को आशीर्वाद दे दिया.
  
पेन 



Saturday 30 November 2019

क्लीन चिट

क्लीन चिट का मिलना हमारे यहाँ काफी महत्वपूर्ण माना जाता है. इस क्लीन चिट का चलन राजनीति, पुलिस, मीडिया, खेलकूद याने सभी तरह के क्षेत्रों में हो रहा है. क्लीन चिट मिली और लड्डू बाँटने का समय आ गया. मसलन ताज़ा ख़बरों के अनुसार महाराष्ट्र में अजित पवार को क्लीन चिट मिली है. कहाँ तो सत्तर हज़ार करोड़ के घपले में नौ मुकदमे चल रहे थे और कहाँ सफ़ेद कोरे कागज़ की तरह सब साफ़.

एक खबर थी कि गाज़ियाबाद पुलिस ने टीवी एक्टर अंश अरोड़ा को क्लीन चिट दी. अंश अरोड़ा पर क़त्ल का इलज़ाम लगा हुआ था. अब क्लीन चिट के बाद आरोप खारिज हो गया.

और देखिये कृषि मंत्री हरयाणा सरकार ने चावल मिल वालों को क्लीन चिट दी अर्थात मिल मालिक कोई गड़बड़ नहीं कर रहे हैं याने बेदाग़ हैं.

पिछले दिनों इनफ़ोसिस कम्पनी के खातों में हेराफेरी की सीटी बजी थी. पर इनफ़ोसिस के ऑडिटर ने इस मामले में क्लीन चिट दे दी. किस्सा ख़तम.

ऐसी ही एक पुरानी खबर थी की भारतीय क्रिकेट बोर्ड के एथिक्स ऑफिसर Ethics Officer ने सौरव गांगुली को क्लीन चिट दी. शायद दो जगह से पगार लेने का मामला था वो समाप्त हो गया. 

तो ये क्लीन चिट का क्या मतलब है? इस विषय पर थोड़ी खोजबीन की तो पता लगा कि चिट का अंग्रेजी शाब्दिक अनुवाद है - scrap, tatter. हार्पर कोल्लिन्स की ऑनलाइन डिक्शनरी में देखा तो 'चिट' इस तरह से परिभाषित है -
chit is a short official note, such as a receipt, an order, or a memo, usually signed by someone in authority.
और आगे देखिये की यह शब्द 'चिट' आया कहाँ से - 
 C18: from earlier chitty, from Hindi cittha note, from Sanskrit citra brightly-coloured

कमाल है संस्कृत से हिंदी और हिंदी से इंग्लिश डिक्शनरी में आ गया ये शब्द ! चिट शब्द की यात्रा ऐसे हुई -
- 'चिट' शब्द आया चिट्ठी से जिसे शायद फिरंगी चिट्टी कहते होंगे. चिट्ठी लम्बी होती है तो चिट छोटी.
- 'चिट्ठी' शब्द आया चिट्ठा से. अब ये कच्चा चिट्ठा था या पक्का ये तो नहीं पता और 
- 'चिट्ठा' शब्द आया संस्कृत के शब्द 'चित्रा' से ! 

क्या जानें इस तरह की चिट प्राचीन काल में भी चलती हो ? घपले और षड़यंत्र तो राज दरबारों में भी खूब चलते थे.  महाभारत में भी भगवान् कृष्ण ने अर्जुन को कहा के ये धर्मयुद्ध है और तेरा धर्म है युद्ध करना. तीर चलाओ और वध कर दो. मेरी तरफ से क्लीन चिट है.

बहरहाल जैसे चिट छोटी सी होती है वैसे ही ये चिट्ठा भी छोटा ही रखना चाहिए. अगर चिट्ठा पसंद आया हो तो कृपया एक क्लीन चिट मुझे भी भेज दें! 
  

क्लीन चिट



Wednesday 27 November 2019

इतिहास के पन्ने - सिन्धु घाटी सभ्यता

आदि मानव पत्थरों के हथियार इस्तेमाल करते थे. शिकार करते और जड़ी बूटियाँ और फल खाते थे और एक जगह ना टिक कर ये घूमते रहते थे. धीरे धीरे खेती और पशु पालन की जानकारी बढ़ने के साथ बस्तियां बसनी शुरू हो गईं जो ज्यादातर घाटियों में नदी किनारे थीं. छोटे छोटे ग्रुप या समूह या कबीले एक जगह पर रहने लगे और इस तरह से शहरी सभ्यता की ओर बढ़ने लगे.

इसी तरह की सभ्यता का विकास सिन्धु घाटी के आस पास भी हुआ. इस सभ्यता के चिन्ह सर्वप्रथम हड़प्पा में पाए गए. इस कारण से इसे हड़प्पा सभ्यता कहते हैं. इस सभ्यता के दूसरे नाम सिन्धु घाटी सभ्यता और सिन्धु-सरस्वती सभ्यता भी हैं. चूँकि इस युग में कांसे का प्रयोग किया जाता था इसलिए इसे कांस्य युग भी कहा जाता है. ये सभ्यता 3300 ईसा पूर्व से 1300 ईसा पूर्व तक मानी जाती है. 

इस सभ्यता की खोज का किस्सा भी बड़ा रोचक है. इस सभ्यता का जिक्र चार्ल्स मेसन ने सर्व प्रथम अपनी किताब Narratives of Journeys में 1826 में किया था. चार्ल्स मेसन ईस्ट इंडिया कंपनी का फौजी भगोड़ा था जो बाद में जासूसी करने में लगा दिया गया था और जगह जगह घूम कर अपनी रिपोर्ट देता रहता था.  

1856 में लाहौर - मुल्तान रेलवे लाइन बिछाने का काम किया जा रहा था जिसके ठेकेदार थे बर्टन ब्रदर्स. जब खुदाई का काम हड़प्पा में शुरू हुआ तो वहां मिट्टी में दबी बहुत सी ईंटें मिलीं जो ठेकेदार ने अपने काम में इस्तेमाल कर लीं. हड़प्पा अब जिला साहिवाल, पाकिस्तान में है और रावी नदी के किनारे है. यह भी पता लगा की आस पास के घरों में भी इन्हीं ईंटों का इस्तेमाल किया जा रहा था. ASI के पहले डायरेक्टर जनरल अलेक्ज़न्डर कन्निन्घम ने भी यहाँ उन दिनों जांच पड़ताल की परन्तु बात आगे नहीं बढ़ पाई. शायद 1857 की क्रांति के कारण काम रुक गया होगा.

1921 में ASI के डायरेक्टर जॉन मार्शल ने यहाँ आगे कारवाई करवानी शुरू की. पुरातत्व  विभाग के अधिकारी राय बहादुर दया राम साहनी के नेतृत्व में यहाँ हड़प्पा में खुदाई शुरू हुई. जॉन मार्शल के विचार में हड़प्पा सभ्यता का समय 3250 ईसा पूर्व से लेकर 2750 ईसा पूर्व के बीच रहा होगा. 

1921 में ही मोहनजोदड़ो में ASI के अधिकारी राखल दास बनर्जी के नेतृत्व में खुदाई शुरू हुई. यह जगह सिन्धु नदी के किनारे थी और सिन्धी में 'मोएँ-जा-डेरो' या 'मरे हुओं का डेरा / ढेर' कहलाती थी. वहां 1964 - 65 में आखिरी खुदाई हुई थी. कहा जाता है की पैसे के अभाव में और पाक सरकार की रूचि कम होने के कारण आजकल इस स्थल का रख रखाव बहुत अच्छा नहीं है हालांकि यह स्थान विश्व धरोहर में शामिल है.   

1947 के बटवारे के कारण खुदाई का काम ढीला पड़ गया. उसके एक दशक बाद खुदाई के काम में फिर से तेज़ी आई. अब तक सिन्धु घाटी से सम्बंधित लगभग 1500 स्थान ढूंढे जा चुके हैं. इनमें से 2 अफगानिस्तान ( शोर्तुगोई और मुंडीगाक ) में, 900 से ज्यादा भारत में और बाकी पकिस्तान के सिंध, पंजाब और बलूचिस्तान प्रान्तों में पाए गए हैं. 
भारत के मुख्य स्थल हैं संघोल ( पंजाब ), कालीबंगा ( राजस्थान ), राखीगढ़ी ( हरयाणा ), और आलमगीरपुर ( उत्तर प्रदेश ). ये सभी स्थान किसी ना किसी नदी के किनारे हैं. 

मोटे तौर पर अगर निम्नलिखित स्थानों को एक लाइन से जोड़ कर एक बाहरी सीमा रेखा बना ली जाए तो इस सीमा के अंदर सिन्धु-सरस्वती घाटी सभ्यता का फैलाव रहा है :-
1. मांडा जो चेनाब नदी के किनारे जम्मू में है, 
2. सुत्कागन डोर जो दाश्त नदी के किनारे बलोचिस्तान में है, 
3. आलमगीरपुर जो हिंडन नदी के किनारे मेरठ,  उत्तर प्रदेश में है और
4. दाईमाबाद जो प्रवर नदी के किनारे महाराष्ट्र में है.


सिन्धु - सरस्वती सभ्यता का फैलाव ( अंदाज़े से बनाया गया स्केल के मुताबिक नहीं है )

इन स्थानों की सभ्यता शहरी सभ्यता थी और शहर मुख्यत: दो भागों में बटे हुए थे. एक भाग में बड़े मकान और दूसरे भाग में छोटे. मकान पक्की ईंटों के बने हुए हैं और सड़कें कच्ची ईंटों की. शहर में सीधी सीधी चौड़ी सड़कें, ढकी हुई नालियां और पानी के लिए घरों में कुँए यहाँ की खासियत है. मकानों के दरवाज़े और खिड़कियाँ सड़कों की तरफ नहीं खुलते थे. शायद धूल से बचने के लिए या फिर सुरक्षा के लिए. कोई बड़ा मंदिर या किसी किस्म का किला यहाँ नहीं पाया गया परन्तु अनाज के भण्डार होने का संकेत है. एक बड़ा खुला स्नानागार भी मिला है जिसमें शायद धार्मिक या सामाजिक अनुष्ठान किए जाते होंगे. वजन नापने के बाँट भी पाए गए हैं. मिट्टी के खिलोने, कांसे और पत्थर की मूर्तियाँ भी यहाँ मिली हैं. अस्त्र शस्त्र का अभाव है इसलिए लगता है कि ये लोग शांतिपूर्वक रहते होंगे. व्यापार दूर दूर तक होता था जिसका प्रमाण हैं सील. ये छोटी छोटी चौकौर सीलें जो लगभग 1" x 1" या थोड़ी सी बड़ी हैं जो दूसरे देशों में भी पाई गईं हैं. इन सीलों पर जानवर, फूल पत्ते या कुछ मार्के बने हैं जिन्हीं अभी तक पढ़ा नहीं जा सका है. 
सिन्धु -सरस्वती सभ्यता के दस अक्षर / वर्ण जो धोलावीरा के एक गेट पर सन 2000 में खोजे गए वो इस प्रकार हैं :
 ( कॉमन्स.विकिमेडिया.ओर्ग से साभार - Siyajkak - siyajkak drew this picture by pencil and recopy ) 

ये लोग कांसे का इस्तेमाल जानते थे याने ताम्बे और टिन के अयस्कों को मिला कर और भट्टी में गला कर कांसा बना लिया करते थे. इसलिए इसे कांस्य युग भी कहा जाता है. पर टिन का अयस्क कहाँ से लाते थे? अभी ये राज़ खुलना बाकी है. राज़ तो और भी बहुत से खुलने बाकी हैं मसलन ये लोग क्या बाहर से आये थे, या फिर यहीं के आदिवासी थे या फिर दक्षिण भारतीय थे? इतिहासकार भी इस बारे में अभी एकमत नहीं हैं. खोज जारी है.

1700 ईसा पूर्व के आसपास ये सभ्यता कैसे लुप्त हुई और लोग कहाँ चले गए ये नहीं मालूम हो सका है. हो सकता है बाढ़ आई हो, भूचाल आया हो या सूखा पड़ गया हो जिसके कारण लोग पलायन कर गए हों ? निश्चित तौर पर कुछ कहा नहीं जा सकता.    

फिलहाल हम तो कांस्य युग के बाद पीतल युग और स्टेनलेस स्टील युग को भी पार कर चुके हैं और अब कंप्यूटर देवता के आशीर्वाद से  'चिप युग' में आ गए हैं.  

क्रमशः जारी रहेगा. 

'इतिहास के पन्ने - प्राचीन काल' इस लिंक पर पढ़ सकते हैं -

http://jogharshwardhan.blogspot.com/2019/11/blog-post_20.html


'इतिहास के पन्ने - मध्य काल' इस लिंक पर पढ़ सकते हैं -


https://jogharshwardhan.blogspot.com/2019/11/blog-post_24.html



Sunday 24 November 2019

इतिहास के पन्ने - मध्य काल

भारतीय इतिहास का मध्य काल 700 ईस्वी से 1857 ईस्वी तक माना जाता है. इस युग को भी प्रारंभिक और उत्तर मध्य काल में बांटा जा सकता है. ये विभाजन आम तौर पर सभी इतिहासकारों को मान्य है पर कुछ 900 ईस्वी से मध्य युग का आरम्भ मानते हैं. फिलहाल हमारे सामान्य ज्ञान के लिए विभाजन सही रहेगा. 

प्रारम्भिक मध्य काल लगभग 7वीं से 11वीं शताब्दी तक चला. असल में सम्राट हर्षवर्धन ( शासन काल 606 - 647 ) के गुजरने के बाद उत्तराधिकारी कमज़ोर निकले और हर्षवर्धन का साम्राज्य बिखरने लगा. उत्तर भारत में दसियों राजा रजवाड़े पैदा हो गए. ये आपस में लड़ते भिड़ते रहते थे. उस समय के कुछ प्रमुख वंश थे
गुर्जर-प्रतिहार बुंदेलखंड और मध्य भारत में राज करते थे ( 733 - 1036 ), 
पाल जो बंगाल के बौद्ध शासक थे ( 750 - 1174 ) और राष्ट्रकूट जो कन्नड़ शाही राजवंश था ( 736 - 973 ). इनके अलावा चोल ( तमिलनाडु ), चालुक्य ( तेलगु प्रदेश ) भी प्रमुख राजवंश रहे हैं.

छोटे छोटे कमज़ोर राज्यों के चलते और तत्कालीन भारत की समृद्धि की चर्चा सुन कर पेशावर के उस पार के सुल्तानों को निमंत्रण मिल गया ! 11वीं -12वीं सदियों में भारत के पश्चिम से तुर्क, अफगान और इरानी हमले होने लगे. सबसे बड़ा झटका लगा 1192 में जब मोहम्मद गौरी ने दिल्ली के राजा पृथ्वीराज चौहान को हराया. इस हार के बाद इतिहास में बड़ा मोड़ आ गया. दिल्ली पर सुलतान काबिज़ हो गए. दिल्ली एक सल्तनत बन गई जो लगभग 300 बरसों तक चली. इन सुल्तानों के क्रमानुसार वंश थे -
- गुलाम वंश 1206 से 1290 तक. इनमें मुख्य नाम हैं क़ुतुबुद्दीन ऐबक, इल्तुतमिश, रज़िया बेग़म और बलबन. 
- खिलजी वंश 1290 से 1320 तक. इनमें प्रमुख नाम है अल्लाउद्दीन खिलजी, 
- तुग़लक वंश 1320 से 1412 तक. इनमें प्रमुख है फिरोज़शाह तुगलक, 
- सैय्यद तुगलक वंश 1414 से 1450 तक इनमें चार सुल्तान हुए और  
- लोदी वंश 1451 से 1526 तक. इनमें प्रमुख नाम हैं सिकंदर लोदी और इब्राहीम लोदी. 

इन सुल्तानों की सल्तनत 1526 में तैमूरी वंशज बाबर ने तोड़ दी. इब्राहीम लोदी बाबर से युद्ध हार गया और उसके बाद लगभग अगले तीन सौ सालों तक मुग़लिया हुकूमत चलती रही. प्रमुख मुग़ल बादशाह थे - 
बाबर 1526 - 1530,
हुमांयू 1530 - 1540,
यहाँ एक ब्रेक लग गई क्यूंकि हुमांयू पश्तून शेरशाह सूरी से युद्ध हार गया. शेरशाह सूरी और उसका बेटा इस्लाम शाह सूरी 1540 से 1554 तक तख़्त पर काबिज रहे. पर एक युद्ध में फिर से हुमांयू ने इस्लामशाह सूरी को हराया और दोबारा मुग़ल छा गए.
हुमांयू दूसरी बार 1555 - 1556, 
अकबर 1556 - 1605, 
जहांगीर 1605 - 1627,
शाहजहाँ 1627 - 1658 और 
औरंगज़ेब 1658 - 1701,
इसके बाद मुग़ल खानदान की आपसी कलह और षड़यंत्र  ने शासन को कमज़ोर कर दिया. 1705 से 1857 के दौरान 14 मुग़ल शासक गद्दीनशीन रहे पर साम्राज्य लगातार टूटता ही चला गया. 

हिन्दू राजाओं की फूट का फायदा मुस्लिम आक्रमणकारियों ने उठाया था और अब मुस्लिम बादशाहों की कलह का फायदा उठाने के लिए अंग्रेज़ आ गए !

एक मुग़ल बादशाह फारूखसीयर ने 1717 में अंग्रेजों को व्यापार करने की छूट दी थी. धीरे धीरे अंग्रेजों ने पैर पसारने शुरू कर दिए. मुगल शासन के दौरान 1739 में ईरान के नादिर शाह का बड़ा और लूटपाट वाला हमला हुआ और 1761 में अफगानिस्तान के अहमद शाह अब्दाली ( या दुर्रानी ) का बड़ा हमला हुआ. इस कारण भी मुग़ल कमज़ोर पड़ गए थे. मुग़ल साम्राज्य की खस्ता हालत देख कर अंग्रेजों ने राजनैतिक फायदा उठाना शुरू कर दिया.

इसी मध्य काल में दक्षिण में एक दमदार और वैभवशाली राज्य उभरा जिसे विजयनगर साम्राज्य कहा जाता है. इसकी नींव हरिहर और बुक्का नामक दो भाइयों ने 1336 में रखी थी जो लगभग 1646 तक चला. इसे कर्णाटक साम्राज्य भी कहा जाता है. इस के अवशेष कर्णाटक के हम्पी शहर में देखे जा सकते हैं जो युनेस्को की विश्व विरासत लिस्ट में शामिल हैं.


पत्थर का रथ, हम्पी कर्नाटक 

1614 में शिवाजी के राज्याभिषेक के साथ ही पश्चिमी भारत में एक शक्तिशाली राज्य का उदय हुआ मराठा साम्राज्य ( 1614 - 1818 ). मराठों ने मुग़ल साम्राज्य को कड़ी टक्कर दी. अपने चरम पर यह साम्राज्य तमिलनाडु से पेशावर तक और बंगाल तट से सूरत तट तक फैला हुआ था. बहुत ही रोचक है मराठा इतिहास जिसके लिए अलग से लेख लिखना होगा.

15वीं शताब्दी में यूरोपियन लोगों का आना शुरू हुआ था. सोलहवीं शताब्दी के शुरू में यूरोप में ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कम्पनी, फ्रेंच ईस्ट इंडिया कम्पनी, डच ईस्ट इंडिया कम्पनी आदि जैसी कई कम्पनियां बन गईं थी. सोने की चिड़िया के पर काटने की तैयारी चल रही थी.

1498 में वास्को डी गामा कालीकट पहुंचा. जल्द ही पुर्तगालियों ने 1506 में गोवा को अपने आधीन कर लिया. उन्हीं दिनों 1598 में डच जहाज़ भारत पहुंचा. सूरत में इनकी पहली व्यापारिक कोठी बनी 1616 में.  कोचीन में दूसरी डच कोठी बनी 1653 में. पर ये डच लोग केवल व्यापार में ही दिलचस्पी रखते थे राजनीति में नहीं. बल्कि ये लोग यहाँ से व्यापार करने के लिए और आगे इंडोनेशिया की और निकल गए.
  
1601-03 के दौरान अंग्रेज पहुंचे और इन्होंने 1633 में मद्रास में और 1688 में बम्बई में व्यापारिक कोठियां बनाई. फ्रांसीसियों ने 1668 में सूरत में और 1674 में पांडिचेरी में कोठियां बनाईं. इन यूरोपियन व्यापारियों में से अंग्रेज ज्यादा स्याने निकले. राजाओं की लड़ाई में कभी एक राजा के साथ और कभी दूसरे के साथ हो जाते थे. इस तरह बंदरबाट कर कर के धीरे धीरे अपने पैर जमा लिए और ईस्ट इंडिया कंपनी से 'कम्पनी बहादुर' बनकर राज भी करने लगे. 1857 के असफल स्वतंत्रता संग्राम के बाद भारतीय उपमहाद्वीप ब्रिटिश कॉलोनी बन गई. 

1857 स्वतंत्रता संग्राम का स्मारक, काली पलटन मंदिर, मेरठ 

आगे क्रमशः जारी रहेगा .....


Wednesday 20 November 2019

इतिहास के पन्ने - प्राचीन काल

इतिहास अगर क्लास में सब्जेक्ट के तौर पर  पढ़ना हो तो भारी लगता है सन और तारीखें भूल जाती हैं. पर फुर्सत में पढ़ें तो किस्से कहानी जैसा मज़ा आता है. रिटायर होने के बाद आजकल फुर्सत है और भारतीय इतिहास के पन्ने पलटने में आनंद आ रहा है. भारतीय उपमहाद्वीप का इतिहास बहुत बड़ा है, फैलाव वाला है पर उतना ही रोचक भी है. राजा रजवाड़े, धर्म और अध्यात्म, विदेशी हमले, छोटे बड़े युद्ध, राजा रानियों की प्यार मोहब्बत के किस्से इत्यादि सभी कुछ है.

काल क्रम से चलें तो भारतीय इतिहास को मोटे तौर पर चार भागों में बांटा गया है - प्राचीन काल, मध्य काल, आधुनिक काल और 1947 के बाद स्वतंत्र भारत का इतिहास. 
कई इतिहासकार इस विभाजन का समय अलग अलग लेकर चलते हैं. वैसे भी इस विभाजन का सही समय बताना आसान नहीं है पर हमारे जैसे नौसिखियों के लिए इतना ही काफी है. इस लेख में पहले भाग अर्थात प्राचीन काल के इतिहास की रूपरेखा है.


एक गुफा में आदि मानव के रहन सहन का मॉडल , भीमबेटका मध्य प्रदेश में 

प्राचीन काल का इतिहास तो कई हजार साल पहले शुरू हो जाता है और लगभग सन 700 ईस्वी तक माना जाता है. प्राचीन काल के इतिहास का और आगे विभाजन करें तो पहले आता है पत्थरों का युग. इस युग में इंसान पत्थर के हथियार इस्तेमाल करता था, गुफाओं में रहता था और मूल रूप से घुमंतू था. शिकार, कन्द मूल और फल पर निर्वाह करता था. इस युग को पूर्व पाषाण, मध्य पाषाण, उत्तर पाषाण और ताम्र पाषाण काल में बांटा जा सकता है. फिर धीरे धीरे मानव ने खेती करना सीखा, आग की भट्टी में अयस्क डाल कर ताम्बा, कांसा और लोहा बनाना सीखा. फिर घुमंतू से शहरी सभ्यता की और बढ़ने लगा. इसका उदाहरण है सिन्धु घाटी सभ्यता जो लगभग 2700 से 1900 ईसा पूर्व तक मानी जाती है. कुछ लोग इस सभ्यता की शुरुआत 4200 ईसा पूर्व मानते हैं. इस सभ्यता को हड़प्पा या अब सिन्धु-सरस्वती सभ्यता का नाम दिया गया है. 1900 ईसा पूर्व के बाद अनजान प्राकृतिक कारणों से ये सभ्यता लुप्त हो गई. 

कुछ समय बाद ग्रामीण सभ्यता आ गई जो लगभग 1600 से 600 ईसा पूर्व तक मानी गई है. यह सभ्यता गंगा जमुना के मैदान में फैली हुई थी जहाँ खेती आसान थी, मौसम अच्छा था और पानी उपलब्ध था. इसे वैदिक काल कहा जाता है क्यूंकि इसी दौरान वेदों की रचना हुई मानी जाती है. पूर्व वैदिक काल में ऋग्वेद और उत्तर वैदिक काल में सामवेद, अथर्ववेद और यजुर्वेद की रचना हुई. 

 इस ग्रामीण सभ्यता में 'कुल' याने परिवार एक यूनिट था और बहुत से कुलों को मिला कर गाँव बने, बहुत से गाँव मिला कर जनपद बने और बहुत से जनपदों को मिला कर महाजनपद बने. इसलिए ये महाजनपद काल कहलाया. इस काल में मुख्यतः उत्तर भारत के 16 महाजनपदों का इतिहास है. उस काल में मगध, काशी, कौशाम्बी वगैरह प्रमुख महाजनपद थे.

पूर्व वैदिक काल अर्थात ऋग्वेद काल में वर्ण का जिक्र है जो काम या कर्म के आधार पर है. उत्तर वैदिक काल में वर्ण को जन्म से जोड़ कर माना जाने लगा. रीति रिवाजों और कर्मकाण्ड का जोर बढ़ गया. इसी दौरान भगवान् महावीर( जन्म 599 ईसा पूर्व - निर्वाण 527 ईसा पूर्व ) और गौतम बुद्द्ध( जन्म 563 ईसा पूर्व - निर्वाण 483 ईसा पूर्व ) ने जैन और बौद्ध धर्म का प्रवर्तन किया. दोनों ने वर्ण व्यवस्था को नकार दिया. धार्मिक प्रचार के कारण इसे धार्मिक आन्दोलन काल या युग भी कहा जाता है. 

ईसा पूर्व 326 के आसपास ग्रीक राजा सिकंदर ने गांधार और तक्षशिला जीत लिया और सिन्धु नदी पार कर के राजा पुरु को ललकारा. पुरु का राज झेलम और चेनाब नदियों के बीच था. सिकंदर जीता तो सही पर और आगे नहीं बढ़ा. एक तो उसकी फौजें थक चुकी थी और दूसरे उसे पता लगा की मगध महाजनपद के नन्द राजाओं के पास घोड़ों और हाथियों से लैस पांच गुनी बड़ी शक्तिशाली सेना थी. इसी मगध महाजनपद से चन्द्रगुप्त मौर्या ने कौटिल्य की सहायता से मौर्या साम्राज्य की नींव डाली जो 322 ईसा पूर्व से 185 ईसा पूर्व तक चला. इस वंश के प्रमुख राजा थे बिन्दुसार, अशोक और कुणाल. सम्राट अशोक का विशाल राज्य आज तक का भारतीय उपमहाद्वीप का सबसे बड़ा राज्य है. सम्राट अशोक के बाद के 200 - 250 साल बटवारे, बिखराव और लड़ाई झगड़ों के रहे.

319 ईस्वी से 550 ईस्वी तक एक बार फिर एक वैभवशाली और शक्तिशाली साम्राज्य आया. इस काल का इतिहास गुप्त साम्राज्य का इतिहास है. इसकी नींव रखी श्री गुप्त ने और मुख्य रूप से आगे बढ़ाया चन्द्रगुप्त-1, समुद्रगुप्त, चन्द्रगुप्त-2( विक्रमादित्य ) ने. 
405 ईस्वी में चीनी बौद्ध यात्री फा हियान का आगमन हुआ और वो 411 ईस्वी तक बौद्ध सम्बंधित स्थानों का भ्रमण करता रहा. उसने विस्तार से उस स्वर्णिम युग का वर्णन लिखा है. 550 के आसपास विदेशी हूणों के आक्रमण, मालवा के राजा यशोधर्मन और वाकाटक( मध्य भारत और आन्ध्र ) से रस्साकशी में गुप्तकाल का अंत हो गया.  

इसके साथ ही बंगाल की ओर गौड़ राज्य की स्थापना हुई, कन्नौज में मौखरी वंश, कामरूप में वर्मन और दिल्ली के नज़दीक थानेसर में वर्धन शासक रहे. वर्धन वंश का सम्राट हर्षवर्धन सोलह साल की उम्र में गद्दी पर बैठा. वह एक महान शासक रहा. उसने 606 से 647 तक राज किया और उत्तर भारत को एक सूत्र में बांधे रखा. सम्राट हर्षवर्धन के जाने के बाद राज्य छिन्न भिन्न हो गया. इसके साथ ही 700 ईस्वी के आसपास उपमहाद्वीप के गौरवशाली 'क्लासिक' भारत का बड़ा अध्याय समाप्त हो गया.  


सम्राट अशोक द्वारा ईसा पूर्व तीसरी सदी में साँची मध्य प्रदेश में बनवाया गया बौद्ध स्तूप  

क्रमशः जारी रहेगा. अगले भाग में चर्चा करेंगे मध्य काल की.

Thursday 7 November 2019

ताड़केश्वर मन्दिर उत्तराखंड

दिल्ली से लैंसडाउन की दूरी लगभग 270 किमी है. दिल्ली से मेरठ - कोटद्वार - दुगड्डा होते हुए 6 - 7 घंटे में पहुँच जा सकता है.  कोटद्वार तक सड़क मैदानी है उसके बाद दुगड्डा आता है जहां से आगे ऊँची पहाड़ी घुमावदार सुन्दर नज़ारों वाली सड़क शुरू हो जाती है जो लैंसडाउन / ताड़केश्वर मन्दिर की ओर जाती है.

लैंसडाउन की समुद्र तल से ऊँचाई 1706 मीटर है और ये खूबसूरत और ठंडा इलाका है. यहाँ से 35 किमी दूर ताड़केश्वर महादेव का पुराना मंदिर है. पूरा रास्ता हरे भरे पहाड़ी जंगल में से गुज़रता है. रास्ता संकरा है और लगातार घूम, ढलान और उंचाई आती रहती है. अपनी गाड़ी से जा सकते हैं थोड़ी सावधानी रखनी होगी और थोड़ी मशक्कत भी करनी होगी. रास्ते में रेस्टोरेंट कैफ़े और चायखाने भी हैं जहां कमर सीधी की जा सकती है.

मंदिर घने जंगल के बीच घाटी है और चारों तरफ ऊँचे ऊँचे देवदार के पेड़ हैं. कार से उतर कर 500 - 600 मीटर नीचे घाटी में उतरना पड़ता है. उतरने चढ़ने के लिए कंक्रीट का रास्ता और रेलिंग है. यहाँ कैफ़े या ढाबा नहीं है, लाउडस्पीकर नहीं है, साफ़ सफाई है और प्लास्टिक का इस्तेमाल मना है. 

मान्यता है की यह सिद्ध पीठ 1500 साल पुरानी है. यहाँ एक आजन्म संत ताड़केश्वर रहा करते थे. एक हाथ में त्रिशूल और दूसरे में डमरू लेकर आस पास के  गाँव में जाते थे. कोई गलत काम कर रहा हो या जानवरों को मार रहा हो या पेड़ों को नुकसान पहुंचा रहा हो तो प्रताड़ित करते थे. इस ताड़ना के कारण उनका नाम ताड़केश्वर पड़ गया और मंदिर भी ताड़केश्वर मंदिर कहलाने लगा. प्रस्तुत हैं कुछ फोटो :


प्रवेश द्वार से पैदल यात्रा शुरू 

यात्रीगण

भक्तों द्वारा बांधी गई लाल चुन्नियाँ 
भक्तों के धागे 

भक्तों द्वारा दान दी गईं घंटियाँ 

ऊँचे ऊँचे देवदार के पेड़ों के बीच ताड़केश्वर महादेव मंदिर. नीचे तक धूप मुश्किल ही पहुँचती है और वो भी थोड़ी से देर के लिए  

ताड़केश्वर महादेव मंदिर 

मुख्य मंदिर के पास एक देवी मंदिर भी है 

मंदिर परिसर का चार मिनट का एक विडियो यूट्यूब के इस लिंक पर देखा जा सकता है :

Wednesday 30 October 2019

अलेक्सा आ गई

अलेक्सा का नाम टीवी विज्ञापनों में देखा था पर अलेक्सा की शक्ल सूरत पर या कैसे काम करती है इस पर ध्यान नहीं दिया. विज्ञापनों के अनुसार बड़ी जल्दी बात सुनती है और काम कर के दिखाती है. टीवी के विज्ञापन में दिखाते हैं कि जैसे ही बोला जाए 'अलेक्सा गाना सुनाओ' तो गाना बजने लग जाता है. लता, रफ़ी या मुकेश का नाम लो तो फ़ौरन गाना हाज़िर. जैसे ही अलेक्सा से मौसम का हाल पूछो तो तापमान कितना है, बादल हैं या नहीं सब बता देती है. क्रिकेट मैच का स्कोर पूछो ते फट से बता देती है. कमाल का जादू !

एक दिन बेटे का फोन आया की कुछ सामान भेजा है कल कूरियर लेकर आएगा आप ले लेना कोई पैसे देने की ज़रुरत नहीं है. अगले दिन एक गत्ते का डिब्बा आ गया. परत दर परत पैकिंग खोली तो उसमें से अलेक्सा निकली! गोल गोल काली काली डिबिया की तरह जिसका नाम अलेक्सा डॉट था. एनर्जी के लिए काली लम्बी तार और प्लग. बस ये डिबिया और तार ? बड़ा आश्चर्य हुआ कि ये गाने और ख़बरें कैसे सुनाएगी ? अलेक्सा के ऊपर मात्र चार निशान बने थे एक तो + और दूसरा - तीसरा था और चौथा ⦽ याने पॉवर ऑफ. तो फिर ये गाने कैसे सुनाएगी ?

अलेक्सा अपने साथ नन्हीं सी किताब भी लाई थी जिसे पढ़ कर समझ आया कि इसे इन्टरनेट भी चाहिए. जैसे जैसे इस छोटी सी किताब में आदेश लिखे थे वैसे वैसे पालन करते गए और अलेक्सा तैयार हो गई. कमाल कर दिया अलेक्सा ने पूछने लगी आप मुझे कहाँ बिठाओगे लॉबी में, बेडरूम में या किचन में ? चलो तुम लॉबी में ही बैठो. अब एक नई दिक्कत आ गई. यो अलेक्सा तो अंग्रेजी बोले थी हिंदी ना सुणती ! दुबारा किताब पढ़ी तो समझ आया की हिंदी भी सुण लेगी पर सेटिंग करनी पड़ेगी. सेटिंग करणी तो घणी आसान है चाहे धन्नो हो या छमिया, तो यो अलेक्सा क्या चीज़ है ! पर वो बाद में भी हो जाएगी पहले चलाया तो जाए.

अब टेस्टिंग की बारी थी. उद्घाटन में तो भजन ही होना चाहिए इसलिए श्रीमती बोली, 
- अलेक्सा प्ले अ भजन बाई कबीर. 
जवाब में अलेक्सा ने कबीर सिंह फिल्म में से 'कैसे हुआ ?कैसे हुआ ?' गाना सुनाना शुरू कर दिया. श्रीमती तुरंत बोली
- ये क्या ? स्टॉप अलेक्सा स्टॉप. 

अब बारी थी तलत महबूब की ग़ज़ल की. श्रीमती ने अलेक्सा को बोला कि तलत का गाना ' बेरहम आसमां मेरी मंजिल बता है कहाँ' सुना दे. 
अलेक्सा ने सुनाया 'हो के मजबूर मुझे उसने भुलाया होगा'. खैर इस गाने में एक अंतरा तो तलत ने भी गाया है चाहे पूरा गाना ना गाया हो. 

एक सुबह किचन से श्रीमती ने आवाज़ लगाई 'अलेक्सा प्ले अ भजन बाई प्रह्लाद टिप्पणिया' . अलेक्सा ने कुछ सोच कर जवाब दिया 
- आई डोंट अंडरस्टैंड प्रहलाद टिप्पणिया !
जवाब पसंद नहीं आया. किचन से निकल कर श्रीमती ने अलेक्सा के पास आकर डांटा - अलेक्सा स्टॉप. इसे तो कुछ पता ही नहीं है. वापिस जाकर देखा तो चाय उबल कर गैस के चूल्हे पर गिर चुकी थी. तब से श्रीमती और अलेक्सा की दोस्ती ख़तम सी हो गई है. अलेक्सा अब ज्यादातर शांत बैठी रहती है.  

अलेक्सा आदेश के इंतज़ार में 



Saturday 26 October 2019

कण्व ऋषि आश्रम कोटद्वार

दिल्ली से कोटद्वार लगभग 220 किमी की दूरी पर है. इसे गढ़वाल का एक प्रवेशद्वार भी कहा जा सकता है और इस द्वार से पौड़ी, लैंसडाउन और श्रीनगर पहुंचा जा सकता है. खोह नदी के किनारे हिमालय की तलहटी में बसा शहर है कोटद्वार. यहाँ का रेलवे स्टेशन 1890 में बनाया गया था जहां आकर रेलवे लाइन खत्म हो जाती है.

यहाँ के मुख्य बस अड्डे से 14 किमी दूर कण्व ऋषि आश्रम है चलिए घूमने चलते हैं. यह आश्रम एक गैर सरकारी संस्था ने बनाया है जिसे जंगल में से  0.364 हेक्टेयर जमीन दी गयी थी. आश्रम मालिनी नदी के बाएँ तट पर घने जंगल के बीच है. बहुत सुंदर हरी भरी जगह है जहाँ कलकल करती मालिनी नदी की आवाज़ सुनाई देती रहती है.

मान्यता है की हस्तिनापुर के राजा दुष्यंत शिकार करते हुए भटक गए और कण्वाश्रम जा पहुंचे. कण्व ऋषि तीर्थ यात्रा पर थे. शकुन्तला ने जिसे ऋषि ने बेटी की तरह पाला था, दुष्यंत की आवभगत की. उनका गन्धर्व विवाह हुआ. दुष्यंत ने वापिस जाते हुए शकुन्तला को अंगूठी पहनाई और कहा की हस्तिनापुर आकर मिले. पर अंगूठी एक दिन नदी में गिर गई और उसे मछली निगल गई. जब शकुन्तला राजा से मिली तो उसने पहचाना ही नहीं. उधर मछली वाले ने अंगूठी बेचने की कोशिश की तो पुलिस ने पकड़ कर राजा के सामने पेश किया. राजा ने अंगूठी देखी तो सब याद आ गया. शकुन्तला की खोज की गई और राजा दुष्यंत ने उसे अपनी रानी बना लिया. बालक भरत पैदा हुआ जो बाद में चक्रवर्ती राजा बना और उसी के नाम पर भारतवर्ष बना. 

कालीदास ने इस पर सात अंकों का नाटक लिखा जिसकी वजह से किस्सा और लोकप्रिय हो गया. कालिदास का जन्म कहाँ हुआ था ये तो तय नहीं है पर वे चन्द्रगुप्त द्वितीय के दरबार में रहे अर्थात चौथी शताब्दी के आसपास ही जन्मे थे. पुरातत्व विभाग याने ASI की तरफ से यहाँ कोई बोर्ड या नोटिस नहीं लगा है की कण्व ऋषि, शकुन्तला या भरत का जन्म यहीं हुआ था या वे यहीं रहा करते थे. 

बहरहाल सुंदर स्थान है पर कोई पब्लिक टॉयलेट या रेस्टोरेंट की सुविधा नहीं है. सैलानी कम आते हैं. पास में नदी के दूसरी तरफ एक सरकारी और एक प्राइवेट होटल हैं जहां रुका जा सकता है. कुछ फोटो प्रस्तुत हैं:

घने पहाड़ी जंगल के बीच बना हुआ है कण्व आश्रम. बहुत सुंदर जगह है   

कण्व आश्रम के बीच बड़ा चबूतरा है जिस पर इन पांच की मूर्तियाँ बनी हुई हैं - कण्व ऋषि, कश्यप ऋषि, राजा दुष्यंत, शकुन्तला और बालक भरत 

ये परिसर सरकारी ना होकर एक NGO कण्वाश्रम विकास समिति द्वारा बनाया हुआ है. बोर्ड पे लिखे नोटिस के अनुसार 0.364 हेक्टेयर जमीन इस काम के लिए उन्हें दी गई थी. समिति की वेबसाइट का पता है - www.kanvashramsamiti.org 

कण्व ऋषि. बताया जाता है कि यहाँ ऋषि द्वारा  बहुत बड़ा गुरुकुल चलाया जाता था

कश्यप ऋषि भी यहाँ गुरुकुल में शिक्षा देते थे

राजा दुष्यंत और रानी शकुन्तला

बालक भरत शेर के दांत गिनते हुए 

मालिनी नदी पर बना पुल 

नोटिस बोर्ड 

रामानंद जी पिछले पच्चीस सालों से यहीं आश्रम में रहते हैं और ऋषि - मुनियों, दुष्यन्त - शकुंतला के बारे में काफी जानकारी देते हैं