सावन का महीना आने के साथ ही कांवड़ यात्रा की तैयारी शुरू हो जाती है. लाखों की संख्या में कांवड़िये हरिद्वार से गंगाजल ला कर अपने अपने गाँव के शिव मंदिरों में जल चढ़ाते हैं. पर ज्यादातर कांवड़िये जल चढ़ाने के लिए पुरामहादेव मंदिर पहुँचते हैं. इसे परशुरामेश्वर मंदिर भी कहा जाता है. यह मंदिर बागपत जिले के बालैनी क्षेत्र में है और मेरठ से लगभग 25 किमी की दूरी पर है. मंदिर तक अपने स्कूटर या कार से भी आसानी से पहुँचा जा सकता है. मंदिर में साल में दो बार सावन और फाल्गुन में मेले लगते हैं.
संक्षेप में इस मंदिर की स्थापना की कथा इस प्रकार है. हिंडन नदी के किनारे बने इस मंदिर का इलाका कजरी वन के नाम से जाना जाता था. यहाँ ऋषि जमदाग्नि अपनी पत्नी रेणुका तथा परिवार के साथ रहते थे. एक दिन ऋषि की अनुपस्थिति में राजा सहस्त्रबाहू शिकार पर आये और रेणुका को उठवा कर ले गए. पर रानी ने जो रेणुका की बहन थी, मौक़ा पाते ही रेणुका को वापिस आश्रम भिजवा दिया.
ऋषिवर ने रेणुका को आश्रम में रखने से इंकार कर दिया. क्रोध में पुत्रों को आदेश दिया की रेणुका का सर धड़ से अलग कर दिया जाए. तीन पुत्रों ने मना कर दिया जिस पर ऋषिवर ने उन्हें पत्थर बना दिया. चौथे ने जिसका नाम राम था, आज्ञा मान ली और माँ का वध कर दिया. पर इस कर्म से राम को बड़ी पीड़ा और ग्लानि हुई. प्रायश्चित करने के लिए राम ने शिवलिंग की स्थापना की और तपस्या शुरू कर दी. घोर तपस्या के बाद भगवान् प्रकट हुए. राम ने माँ को जीवित करने का आग्रह किया जो पूरा हुआ. भगवान ने दुष्टों का नाश करने के लिया एक परशु या फरसा प्रदान किया और उसकी वजह से राम का नाम परशुराम पड़ गया. परशुराम ने इस फरसे से राजा सहस्त्रबाहू और अन्य दुष्टों का सफाया कर दिया. माना जाता है की परशुराम ने गंगा जल से शिवलिंग का अभिषेक किया इसलिए वे पहले कांवड़िये कहलाये.
पर कालान्तर में यह मंदिर जंगल में विलुप्त हो गया. एक दिन लंढौरा की रानी हाथी पर सवार हो कर घुमने निकली तो रानी का हाथी यहाँ पहुँच कर अड़ गया. बहुत कोशिशों के बाद भी वह टस से मस ना हुआ. रानी ने खुदाई शुरू कराई तो शिवलिंग प्रकट हुआ और फिर रानी ने इस स्थान पर मंदिर बनवा दिया जो अब परशुरामेश्वर मंदिर के नाम से प्रसिद्ध है. मंदिर परिसर में इस बारे में छपी पुस्तिका उपलब्ध है हालाँकि रानी के आने का दिन या वर्ष की जानकारी नहीं दी गई है. प्रस्तुत हैं कुछ चित्र :
संक्षेप में इस मंदिर की स्थापना की कथा इस प्रकार है. हिंडन नदी के किनारे बने इस मंदिर का इलाका कजरी वन के नाम से जाना जाता था. यहाँ ऋषि जमदाग्नि अपनी पत्नी रेणुका तथा परिवार के साथ रहते थे. एक दिन ऋषि की अनुपस्थिति में राजा सहस्त्रबाहू शिकार पर आये और रेणुका को उठवा कर ले गए. पर रानी ने जो रेणुका की बहन थी, मौक़ा पाते ही रेणुका को वापिस आश्रम भिजवा दिया.
ऋषिवर ने रेणुका को आश्रम में रखने से इंकार कर दिया. क्रोध में पुत्रों को आदेश दिया की रेणुका का सर धड़ से अलग कर दिया जाए. तीन पुत्रों ने मना कर दिया जिस पर ऋषिवर ने उन्हें पत्थर बना दिया. चौथे ने जिसका नाम राम था, आज्ञा मान ली और माँ का वध कर दिया. पर इस कर्म से राम को बड़ी पीड़ा और ग्लानि हुई. प्रायश्चित करने के लिए राम ने शिवलिंग की स्थापना की और तपस्या शुरू कर दी. घोर तपस्या के बाद भगवान् प्रकट हुए. राम ने माँ को जीवित करने का आग्रह किया जो पूरा हुआ. भगवान ने दुष्टों का नाश करने के लिया एक परशु या फरसा प्रदान किया और उसकी वजह से राम का नाम परशुराम पड़ गया. परशुराम ने इस फरसे से राजा सहस्त्रबाहू और अन्य दुष्टों का सफाया कर दिया. माना जाता है की परशुराम ने गंगा जल से शिवलिंग का अभिषेक किया इसलिए वे पहले कांवड़िये कहलाये.
पर कालान्तर में यह मंदिर जंगल में विलुप्त हो गया. एक दिन लंढौरा की रानी हाथी पर सवार हो कर घुमने निकली तो रानी का हाथी यहाँ पहुँच कर अड़ गया. बहुत कोशिशों के बाद भी वह टस से मस ना हुआ. रानी ने खुदाई शुरू कराई तो शिवलिंग प्रकट हुआ और फिर रानी ने इस स्थान पर मंदिर बनवा दिया जो अब परशुरामेश्वर मंदिर के नाम से प्रसिद्ध है. मंदिर परिसर में इस बारे में छपी पुस्तिका उपलब्ध है हालाँकि रानी के आने का दिन या वर्ष की जानकारी नहीं दी गई है. प्रस्तुत हैं कुछ चित्र :
परशुरामेश्वर मंदिर |
पीपल और नंदी |
नंदी की जोड़ी |
शिवलिंग |
मंदिर का पिछला आँगन |
मंदिर के पिछले आँगन में पाठशाला भी है |
मुस्कान भरा स्वागत |
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