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Saturday, 18 July 2015

एप्पल जूस

अपन के पास प्राचीन काल में एक बुलेट 350 सीसी मोटर साइकिल हुआ करती थी. दरअसल बैंक में अफसर बनने की ख़ुशी में खरीदी थी याने अपने आप को ही गिफ्ट दे दी थी ! नई दिल्ली की सड़कों पर बुलेट चलाने में बड़ा मज़ा आता था. तीन मूर्ति, लोदी रोड, कनाट प्लेस और इंडिया गेट के बड़े बड़े गोल चक्कर और हरियाली देख कर दिल खुश हो जाता था. अब भी होता है पर अब ट्रैफिक बहुत ज्यादा है. बुलेट बांये चलायें या बीच में समझ ही नहीं आता. पहले गाड़ियाँ कम थी और मज़ा ज्यादा था. गोल चक्करों के इर्द गिर्द फर्राटे से भागती बाइक, धग-धग धग-धग करता इंजन, हवा में फड़फड़ाते शर्ट के कालर और जुल्फें लहराती हुई बस इसका आनन्द कुछ अलग ही था ! धाकड़ सवारी और शानदार सवारी ! आजकल की सौ सौ सीसी की फटफटिया पर हेलमेट लगाए बैठे लोग तो बस चिड़ीमार लगते हैं.

मालिश पोलिश से चमकती रहती थी अपन की बुलेट और सात रुपये कुछ पैसे के पेट्रोल से टंकी पूरी टुन्न रहती थी पर कमबखत पिछली सीट खाली.

एक दिन शाम को ब्रांच से काम ख़तम करके निकले, बाइक पर किक मारी और चल दिए डेरे की ओर. पर संसद मार्ग थाने के आगे से निकले तो देखा - अरे वो तो बस स्टॉप पर मिस बी खड़ी है. 15-20 लोग और भी खड़े थे लगता था की काफी देर से बस नहीं आई थी. बादल भी छाए हुए थे. ओ हो तो अपन किस लिए हैं और अपन की फटफटिया किसके लिए है? फ़ौरन यू टर्न मारा और मिस बी के ठीक सामने चीं करके ब्रेक मार दी - 'आइये बैठिये मैं छोड़ देता हूँ'.

मिस बी कुछ मुस्कराईं कुछ शर्माईं. दांये देखा बाएं देखा. मन ही मन पहले ना की, फिर हाँ की, फिर ना की परन्तु फिर बैठ ही गयीं. हाँ में ना थी या ना में हाँ थी ? इन्तेज़ार कर रहे लोगों में से कुछ लोग सारी कारवाई पर गौर कर रहे थे मुस्कराए. बुलेट विजय चौक की तरफ चल दी. विजय चौक पहुंचे ही थे की बारिश की बूंदें पड़ने लगीं. जल्दी से फव्वारे के नीचे रेस्तरां में घुस गए. रेस्त्राँ तो खाली पड़ा हुआ था. हाथ मुंह पोंछ कर बैठ गए और आर्डर दे दिया- 'एप्पल जूस'.

याद नहीं क्या क्या बातें हुई होंगी शायद मौसम की, शायद नौकरी की, शायद गंजे बॉस की या शायद उस वक़्त की किसी फिल्म की. आधे घंटे बाद बारिश रुकी तो वेटर को बिल लाने को कहा. उसने तुरंत पकड़ा दिया 11.75 रुपये. झट से पर्स निकाला - ओ तेरे की चार रूपये? दूसरी जेब - ओ तेरे की निल बटा निल, तीसरी जेब - ओ तेरे की निल बटा निल, शर्ट की जेब - एक एक रूपये के दो सिक्के.

सांस रुक गई, पसीने छुट गए, महसूस हुआ की इज्ज़त मिट्टी में मिल गयी, बैंक की अफसरी धराशाई हो गई, बुलेट के दोनों टायर पंक्चर हो गए. वेटर की तिरछी मुस्कराहट दिल को चीर गई.

खैर छोड़िये साहब इस तरह की घटनाएँ कभी-कभी हो जाती हैं. फिर भी आपको साफ़-साफ़ बता दूं की अब भी मेरा पर्स मेरे पास ही होता है पर नोट अब भी मिस बी के पर्स में ही होते हैं.

तब की मिस बी या अब की मिसेज़ बी, एक ही तो बात है.





1 comment:

Harsh Wardhan Jog said...

https://jogharshwardhan.blogspot.com/2015/07/blog-post_18.html