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Wednesday, 30 January 2019

साँची के स्तूप -2/2

गौतम बुद्ध का परिनिर्वाण अस्सी वर्ष की आयु में ईसा पूर्व सन 483 में हुआ था. गौतम बुद्द के अंतिम संस्कार के बाद उनके अवशेषों को आठ भागों में बाँट कर आठ स्तूपों में राजगृह, वैशाली, कपिलवस्तु, अल्लाकप्पा, पावानगर, कुशीनगर, रामग्राम और वेथापिडा में दबा दिया गया. दो अन्य स्तूपों में कलशों में भस्म दबा दी गई.

समय गुज़रा और मौर्य शासन की बागडोर सम्राट अशोक के हाथ आ गई. सम्राट अशोक ने ईसा पूर्व सन 273 से ईसा पूर्व सन 232 तक राज किया. अशोक ने इस दौरान कलिंगा राज्य पर बड़ी जीत हासिल की, पर युद्ध के भयानक विनाश से दुखी होकर गौतम बुद्ध के बताए मध्य मार्ग की शरण ली. बौद्ध धर्म के प्रचार के लिए चौरासी हज़ार स्तूप, स्तम्भ, विहार और छोटे बड़े शिलालेख बनवाए. बौद्ध संघों में सुधार करवाया और गौतम बुद्ध के अवशेषों को पुनर्स्थापित करवाया. रामग्राम के स्तूप को छोड़ बाकी स्थानों से बुद्ध के अवशेषों को नए शहरों और सुदूर स्थानों में बनाए गए नए स्तूपों में स्थापित करवाया.

अशोक के सम्राट बनने से पहले उनके पिता महाराजा बिन्दुसार ने अशोक को विदिशा का गवर्नर नियुक्त किया था. विदिशा उस समय का एक समृद्ध व्यापारिक केंद्र था. यहाँ के एक व्यापारी की बेटी विदिशा देवी से सम्राट अशोक की शादी भी हुई थी. दूसरी बात यह की विदिशा के पास साँची में बौद्ध संघ भी थे. इसलिए सम्राट अशोक ने साँची में मुख्य स्तूप बनवाकर गौतम बुद्ध के कुछ अवशेषों को यहाँ स्थापित करवाया.

गौतम बुद्ध के अवशेष इंटों से बने गोलाकार छोटे स्तूप में रखे गए थे. ईसा पूर्व दूसरी शताब्दी में पत्थर लगा कर विस्तार किया गया और ऊपर चपटा कर के छतरी रखी गई. लगभग बारहवीं शताब्दी तक यहाँ के स्तूपों में कुछ न कुछ विस्तार होता रहा. इसके बाद संभवत: यह जगह उपेक्षित रही और मूर्तियों वगैरा को नुक्सान हुआ. 

सन 1818 में ब्रिटिश जनरल टेलर ने पहली बार इन स्तूपों का वर्णन किया पर तब भी पुनर्स्थापना का काम नहीं हुआ. 1912 से 1919 तक इस जगह को पुरात्तव विभाग - ASI ने सर जॉन हुबर्ट मार्शल के नेतृत्व में फिर से विकसित करने का प्रयास किया. 1989 में इसे विश्व धरोहर या World Heritage Site का दर्जा मिला. 

भोपाल से साँची 46 किमी दूर है और विदिशा से 10 किमी. आने जाने के लिए बसें और टैक्सी उपलब्ध हैं. साँची और विदिशा में हर तरह के होटल उपलब्ध हैं. साँची का यह विश्व धरोहर सुबह से शाम तक खुला है और गाइड मिल जाते हैं. पार्किंग की जगह है और एक म्यूजियम और रेस्तरां भी है. रख रखाव सुंदर है. ढाई हजार साल पहले के जीवन की झलक जरूर देख कर आएं. 
साँची के स्तूप - 1/2 की फोटो देखने के लिए यहाँ क्लिक करें
प्रस्तुत हैं कुछ फोटो:

1. इस छोटे स्तूप के साथ एक ही तोरण है जिसे पहली शताब्दी में सातवाहन वंश के राज में बनाया गया. इस तोरण की ऊँचाई 17 फुट है और इस पर उकेरी गई आकृतियाँ दूसरे तोरणों से मिलती जुलती हैं 

2. तोरण को यक्षों ने उठाया हुआ है और मध्य पैनल में चैत्य बना हुआ है 

3. सींगों वाला बकरेनुमा काल्पनिक जानवर एक पर महिला और दूसरे पर पुरुष सवार 

4.पंख वाले शेर और तोरण के दाहिनी ओर यक्षिणी 

5. मौर्य या फिर शुंग के समय बनाए गए मंदिर पर दोबारा सातवीं सदी में बनाया गया मंदिर. दसवीं या ग्यारहवीं शताब्दी में भी इसमें और बदलाव किया गया था 

6. गुप्त कालीन पांचवीं सदी के मेहराबदार मंदिर के अवशेष. सातवीं सदी में राजा हर्ष वर्धन के समय पुनर्स्थापना हुई  

7. अशोक स्तम्भ का बचा हुआ भाग 

8. मुस्कुराता यक्ष. Sense of humour तब भी था ! 

9. सर पर एक सींग वाला काल्पनिक जंतु - unicorn

10. स्तूप नम्बर 1 का पूर्वी तोरण. सबसे ऊपर गोल चक्र बौद्ध चिन्ह है. उपरी दो पनेलों के बीच दायीं ओर यक्षणी है  

11. अशोक स्तम्भ के दो टुकड़े जो चुनार स्तम्भ कहलाते हैं. इनकी सतह बहुत ही चिकनी और चमकदार है   

12. तोरण के पैनल पर सुंदर कारीगरी. बीच में धम्म चक्र है और नीचे खाली आसान बुद्ध का स्थान है  



Saturday, 26 January 2019

दूल्हादेव मंदिर खजुराहो

मध्य प्रदेश का छोटा सा शहर खजुराहो अपने मंदिरों के कारण विश्व प्रसिद्द है. ये सभी मंदिर विश्व धरोहर - World Heritage Site में आते हैं. भोपाल से खजुराहो की दूरी 380 किमी है और यह छतरपुर जिले का हिस्सा है. खजुराहो की स्थापना करने वाले चन्देल राजा चंद्र्वर्मन थे जिन्होंने इसे अपने राज्य की राजधानी बनाया था. चन्देल राजवंश ने लगभग नौवीं शताब्दी से लेकर तेरहवीं शताब्दी तक बुंदेलखंड के कुछ हिस्सों और उसके आस पास राज किया था. इस दौरान पहले राजधानी खजुराहो में बनी और फिर महोबा में बना दी गई थी.

खजुराहो के ज्यादातर मंदिर सन 850 से सन 1150 के बीच चंदेल राजाओं द्वारा बनवाए गए थे. बीस वर्ग किमी में फैले क्षेत्र में पच्चासी मंदिरों का निर्माण हुआ था जिनमें से केवल पच्चीस मन्दिर ही बचे हैं. इनमें से पहला मंदिर चौंसठ योगिनी मंदिर माना जाता है जो 850 - 860 में बना और आखिरी मंदिर - दुलादेव मंदिर लगभग 1110 - 1125 में चंदेल राजा मदन वर्मन द्वारा बनवाया गया माना जाता है. दुलादेव मन्दिर को दुल्हादेव मंदिर या फिर कुंवरनाथ मठ भी कहा जाता है. मंदिर पांच फुट ऊँचे, 69 फुट लम्बे और 40 फुट चौड़े चबूतरे पर स्थापित है और भगवान शिव को समर्पित है. प्रस्तुत हैं कुछ फोटो:

1. दुलादेव मंदिर का प्रवेश मंडप. चंदेल वंश के राजा मदनवर्मन की दें है ये शिव मंदिर 

 2. दुलादेव मंदिर. मंदिर का काफी हिस्सा ढह गया है और पत्थर के बड़े बड़े ब्लाक एक दूसरे पर फंस कर टिके हुए हैं. मंदिर का मुख पूर्व की ओर है. निर्माण का समय सन 1000 से 1150 तक के मध्य माना जाता है 

3. पिछली ओर का भाग कुछ बचा हुआ है. नीचे के पांच शिखरों में से बांये हाथ वाला सीधे सपाट पत्थरों से पूरा किया गया है. पांच छोटे शिखरों पर तीन और उन के उपर तीन और उनके ऊपर एक शिखर खूबसूरत तरीके से बनाया गया है   

4. मंदिर के गर्भ गृह में मूर्ति ना होकर शिवलिंग है. इसे भी खंडित मूल शिवलिंग की जगह लगाया गया है. इसकी खासियत है के इस पर 999 छोटे छोटे शिवलिंग उकेरे गए हैं. अर्थात एक परिक्रमा 1000 परिक्रमाओं के बराबर हो जाती है 

5. खजुराहो के दूसरे मंदिरों की तरह दुलादेव मंदिर की बाहरी दीवार पर तीन श्रंखलाओं में मूर्तियाँ गढ़ी गई है. सबसे ऊपर उड़ते हुए मस्त युगल हैं. अप्सराएं हैं जो दो या तीन के ग्रुप में स्वछन्द उड़ रही हैं. दूसरी लाइन में नंदी, शिव और पार्वती हैं और तीसरी में कई राजा रानियाँ और शिव-पार्वती हैं. बीच बीच में कामुक मूर्तियाँ भी हैं 

6. बाहरी दीवार में शिव 

7. पूरा मंदिर एक सप्तरथ की तरह बना है और ऊँचे चबूतरे पर स्थित है जिस पर परिक्रमा की जा सकती है. इस दीवार की मूर्तियाँ क्षतिग्रस्त हैं   

8. मिथुन 

9. सभी मूर्तियों में सुंदर और बारीक भाव भंगिमा और तरह तरह के जेवर हैं. इस तरह के आभूषण खजुराहो के मंदिरों की खासियत है

10. बीच में कामुक जोड़े 

11. हर मूर्ति कुछ कहती है 


12. भारी भरकम पत्थर जरूर हैं पर उतनी ही महीन कारीगारी भी है. चाहे फूल पत्ते हों, जानवर हों, पुरुष हों या महिलाएं बहुत सुंदर, बारीक और शानदार काम किया गया है. पत्थरों के कोने, घुमाव, एक दूसरे में फासला बहुत ही नपा तुला और सटीक है. ये सब कुछ एक हजार साल पहले बिना मशीन के! जितनी तारीफ़ की जाए उतनी ही कम है 





Monday, 21 January 2019

चतुर्भुजा मंदिर, खजुराहो

मध्य प्रदेश का छोटा सा शहर खजुराहो अपने मंदिरों के कारण विश्व प्रसिद्द है. भोपाल से इसकी दूरी 380 किमी है और यह छतरपुर जिले का हिस्सा है. खजुराहो के संस्थापक चन्देल राजा चंद्र्वर्मन थे जिन्होंने इसे अपने राज्य की राजधानी बनाया था. चन्देल राजवंश ने लगभग नौवीं शताब्दी से लेकर तेरहवीं शताब्दी तक बुंदेलखंड के कुछ हिस्सों और उसके आस पास राज किया. इस दौरान पहले राजधानी खजुराहो में बनी और फिर महोबा में बना दी गई थी.

खजुराहो के ज्यादातर मंदिर सन 850 से सन 1150 के बीच चंदेल राजाओं द्वारा बनवाए गए थे. बीस वर्ग किमी में फैले क्षेत्र में पच्चासी मंदिरों का निर्माण हुआ था जिनमें से केवल पच्चीस मन्दिर ही बचे हैं. इनमें से पहला मंदिर चौंसठ योगिनी मंदिर माना जाता है जो 850 - 860 में बना और आखिरी मंदिर - दुलादेव मंदिर लगभग 1110 - 1125 में बना माना जाता है.

चतुर्भुजा मंदिर खजुराहो के दक्षिण में तीन किमी दूर गाँव जटकारा में है जिसके कारण इस मंदिर को जटकारी मंदिर भी कहा जाता है. इस मंदिर का निर्माण का श्रेय चंदेल राजा लक्षवर्मन को दिया जाता है. इन्टरनेट में कहीं कहीं मंदिर बनवाने वाले राजा का नाम यशोवर्मन भी लिखा हुआ है परन्तु यशोवर्मन का राज 925 से 950 तक रहा था. इस अंतर को इतिहासकार ही बता सकते हैं.

चतुर्भुजा मंदिर खजुराहो का अकेला ऐसा मंदिर है जिसमें मिथुन या कामुक मूर्तियों का अभाव है. दूसरे मंदिरों की तरह इस मंदिर की बाहरी दीवारों पर भी मूर्तियों की तीन श्रंखलाएं हैं जिसमें अप्सराएं, विद्याधर और भगवान् की मूर्तियाँ हैं. ये मूर्तियाँ भी उतनी ही खूबसूरत हैं जैसे की खजुराहो के अन्य मंदिरों में हैं. पर एक्सपर्ट्स का कहना है कि इन मूर्तियों में भाव भंगिमा कम हैं. इस मंदिर में गर्भगृह से पहले का मंडप या अर्ध मंडप और मुख्य मूर्ति की परिक्रमा नहीं बनी हुई है. चतुर्भुजा मूर्ति का रुख भी दक्षिण की ओर है. बाहरी दीवार पर कई मूर्तियाँ अधूरी भी रह गई हैं. सन 1125 के आसपास का ये समय चंदेल वंश के सूर्यास्त का दौर था.
प्रस्तुत हैं कुछ फोटो:

1. ऊँचे चबूतरे पर बना चतुर्भुजा मंदिर 


2. प्रवेश द्वार. आम तौर पर मंदिर पूर्वमुखी होते हैं पर इस मंदिर का प्रवेश दक्षिण की ओर है


3. नौ फुट ऊँची चतुर्भुजा विष्णु की मूर्ति. वहां के पुजारी के अनुसार ये त्रिदेव मूर्ति है और इसमें शिव, विष्णु और कृष्ण तीनों का समावेश है. मुकुट से ऊपर शिव की जटाएं हैं, चार भुजाएं विष्णु की हैं और दो टांगों पर खड़े होने का विशेष अंदाज़ बंसी बजाते कृष्ण का है   
4. मूर्ति का ऊपरी भाग. मुकुट के ऊपर जटाएं भी हैं  

5. मंदिर की बाहरी दीवार पर मूर्तियों की तीन श्रृंखलाएं 

6. इस मंदिर में खजुराहो के अन्य मंदिरों की तरह मिथुन या कामुक मूर्तियाँ नहीं हैं. पर पुरुष हो या महिला साज सज्जा, स्टाइल और जेवरों में कोई कमी नहीं है 

7. कुछ टूटे हुए हिस्से सादे सपाट पत्थर लगाकर दुरुस्त कर दिए गए हैं   

8.अर्धनारीश्वर 






Saturday, 19 January 2019

साँची के स्तूप -1/2

गौतम बुद्ध का परिनिर्वाण अस्सी वर्ष की आयु में ईसा पूर्व सन 483 में हुआ था. गौतम बुद्द के अंतिम संस्कार के बाद उनके अवशेषों को आठ भागों में बाँट कर आठ स्तूपों में राजगृह, वैशाली, कपिलवस्तु, अल्लाकप्पा, पावानगर, कुशीनगर, रामग्राम और वेथापिडा में दबा दिया गया. दो अन्य स्तूपों में कलशों में भस्म दबा दी गई.

समय गुज़रा और मौर्य शासन की बागडोर सम्राट अशोक के हाथ आ गई. सम्राट अशोक ने ईसा पूर्व सन 273 से ईसा पूर्व सन 232 तक राज किया. अशोक ने इस दौरान कलिंगा राज्य पर बड़ी जीत हासिल की, पर युद्ध के भयानक विनाश से दुखी होकर गौतम बुद्ध के बताए मध्य मार्ग की शरण ली.  बौद्ध धर्म के प्रचार के लिए चौरासी हज़ार स्तूप, स्तम्भ, विहार और शिलालेख बनवाए. बौद्ध संघों में सुधार करवाया और गौतम बुद्ध के अवशेषों को पुनर्स्थापित करवाया. रामग्राम के स्तूप को छोड़ बाकी स्थानों से बुद्ध के अवशेषों को नए शहरों और सुदूर स्थानों में बनाए गए नए स्तूपों में स्थापित करवाया.

अशोक के सम्राट बनने से पहले उनके पिता महाराजा बिन्दुसार ने अशोक को विदिशा का गवर्नर नियुक्त किया था. विदिशा उस समय का एक समृद्ध व्यापारिक केंद्र था. यहाँ के एक व्यापारी की बेटी विदिशा देवी से सम्राट अशोक की शादी भी हुई थी. दूसरी बात यह की विदिशा के पास साँची में बौद्ध संघ भी थे. इसलिए सम्राट अशोक ने साँची में मुख्य स्तूप बनवाकर गौतम बुद्ध के कुछ अवशेषों को यहाँ स्थापित करवाया.

मुख्य स्तूप जिसे स्तूप नम्बर 1 भी कहते हैं सम्राट अशोक द्वारा ईसा पूर्व तीसरी शताब्दी में बनाया गया था. गौतम बुद्ध के अवशेष इंटों से बने गोलाकार छोटे स्तूप में रखे गए थे. ईसा पूर्व दूसरी शताब्दी में इसका पत्थर लगा कर विस्तार किया गया और ऊपर चपटा कर के छतरी रखी गई. स्तूप की उंचाई 54 फुट है और व्यास 120 फुट. सातवाहन वंश के समय तोरण और परिक्रमा जोड़ी गईं. लगभग बारहवीं शताब्दी तक यहाँ के स्तूपों में कुछ न कुछ विस्तार होता रहा और मंदिर भी बने. इसके बाद संभवत: यह जगह उपेक्षित रही, मूर्तियों को नुक्सान हुआ और ये जगह जंगल में खो गई.

सन 1818 में ब्रिटिश जनरल टेलर ने पहली बार इन स्तूपों का वर्णन किया पर तब भी पुनर्स्थापना का काम नहीं हुआ. 1912 से 1919 तक इस जगह को पुरात्तव विभाग - ASI ने सर जॉन हुबर्ट मार्शल के नेतृत्व में फिर से विकसित करने का प्रयास किया. 1989 में इसे विश्व धरोहर या World Heritage Site का दर्जा मिला. अब यहाँ एक म्यूजियम भी है और इस स्थान का रख रखाव सुंदर है.

भोपाल से साँची 46 किमी दूर है और विदिशा से 10 किमी. आने जाने के लिए बसें और टैक्सी उपलब्ध हैं. साँची और विदिशा में हर तरह के होटल उपलब्ध हैं. साँची का यह विश्व धरोहर सुबह से शाम तक खुला है और गाइड मिल जाते हैं. पार्किंग की जगह है और एक छोटा सा रेस्तरां भी है. ढाई हजार साल पहले के जीवन की झलक जरूर देख कर आएं. प्रस्तुत हैं कुछ फोटो:

1. मुख्य स्तूप के चार दिशाओं में सुंदर नक्काशीदार चार तोरण या गेट हैं जो कि साँची स्मारकों की पहचान बन चुके हैं  

2. गौतम बुद्ध के अवशेषों का प्रमुख स्तूप. पाली में स्तूप को थुपा, संस्कृत में स्तूप, चीनी में शेलिता, जापानी में शरितो, कोरियाई में सोडोल्फा और मंगोलिन भाषा में सुवर्गा कहते हैं. सबसे ऊपर क्षत्रप या छतरी है. छत के बाएँ हिस्से में किया हुआ दो हज़ार साल से ज्यादा पुराना पलस्तर अभी भी कायम है   

3. तोरण चौकोर खम्बों पर टिके हुए हैं और पत्थरों को एक दुसरे में फंसा दिया गया है. खम्बों पर चारों  तरफ सुंदर नक्काशी हैं जिनमें उस समय की घटनाएं, जातक कथाएँ, पशु, पक्षी, पेड़ पौधे वगैरा उकेरे गए हैं. इनमें हाथियों पर सवार महावत महिलाएं भी हैं  

4. खम्बे पर उकेरा गया लुम्बिनी का एक दृश्य. कुछ लोग काम पर जा रहे हैं और कुछ खिड़कियों और झरोखों में बातचीत कर रहे हैं.  ऊपर बाएँ कोने में एक गर्भवती महिला लेटी हुई है. वह रानी महामाया है और प्रजा बच्चे के जन्म की सूचना आने की इंतज़ार में हैं.

5. ऊपर वाले चित्र नम्बर 4 का एडिट किया हुआ भाग. राजमहल में गर्भवती रानी महामाया सपने में ऐरावत हाथी देख रही हैं. सिद्धार्थ के जन्म लेने का समय आ गया है 

6. गौतम बुद्ध के प्रवचन सुनने के लिए साधक बैठे हैं. बीच में वट वृक्ष है और खाली स्थान बुद्ध का आसन है. पूरे परिसर में मूर्तियों की नक्काशी बहुत है पर बुद्ध का केवल आसन ही बनाया गया कोई मूर्ति नहीं बनाई गई है. और जैसा कि हर क्लास या गोष्ठी में होता है निचली लाइन में तीन साधक बैक-बेन्चर्स की तरह बतिया भी रहे हैं

7. महल से राजा की सवारी निकल रही है. माना जाता है की ये दृश्य राजा बिम्बिसार का है जो राजगृह से गिद्धकूट पर्वत की ओर जा रहा था जहां गौतम बुद्ध विराजमान थे   

8. कुछ विदेशी शायद ग्रीक संगीतकार हैं यहाँ. इनका पहनावा, जूते, चेहरे, सिर के कपड़े, ढोल और वाद्ययंत्र बिलकुल अलग हैं  

9. गाँव का एक सुंदर दृश्य. ऊपर बाएँ कोने में पति पत्नी बतिया रहे हैं. पास में एक महिला कूट रही है, दूसरी कुछ पीस रही है और तीसरी सूप से छटाई कर रही है. दाईं ओर दो महिलाएं बालकनी में बैठी बतिया रही हैं. एक खाली आसन गौतम बुद्ध का है जिसके पीछे दो पुरुष हाथ जोड़े खड़े हैं. नीचे दाहिनी ओर एक महिला पौधों में मटके से पानी डाल रही है  

10. फूल, पत्ते और लताओं का सुंदर चित्रण 

11. खम्बे पर नक्काशी. गौतम बुद्ध के चरण, उनमें चक्र और सुंदर फूल मालाएं 

12. अभिलेख 

13. छोटे साधकों के स्तूप 

14. शेर का एक सिर है पर शरीर दोनों तरफ हैं 

15. कुछ अन्य अरहंतों के स्तूप 

17. यहाँ एक बौद्ध विहार या मोनेस्ट्री थी. आप देख सकते हैं की ये जगह सुंदर और शांत है और पहाड़ियां बहुत ऊँची नहीं हैं. पास में ही नदी भी है और जमीन उपजाऊ है. साधकों के लिए बहुत अच्छी जगह रही होगी  



Tuesday, 15 January 2019

चौंसठ योगिनी मंदिर, खजुराहो

योग पुरुष करे तो योगी और महिला करे तो योगिनी! पर ये चौंसठ योगिनी का क्या अर्थ है ये नहीं समझ आया. ऐसी मान्यता है की ये चौंसठ योगिनियाँ पार्वती की सखियाँ थी और शिव भक्त थीं. इनके मन्दिर भी अलग तरह के हैं जिनके बारे में पूरी पूरी ऐतिहासिक जानकारी अभी तक नहीं मिली है.

बताया जाता है की चौंसठ योगिनियों का सम्बन्ध तंत्र विद्या से है. चौंसठ में से आठ मुख्य योगिनियाँ हैं : 1. सुर-सुंदरी 2. मनोहरा 3. कनकवती 4. कामेश्वरी 5. रति-सुंदरी 6. पद्मिनी 7. नतिनी और 8. मधुमती. वैसे सभी 64 योगिनियों के नाम और गुण अलग अलग हैं, उनके 64 अलग अलग मन्त्र हैं और 64 अलग अलग ही भजन भी हैं. आप गूगल करें तो इस विषय पर बहुत कुछ मिलेगा.

भारत में पिछले लगभग दो सौ सालों से इन मंदिरों का नाम आगे आया है. चौंसठ योगिनी मंदिर कई स्थानों पर मिले हैं जैसे कि मितावली जिला मोरेना, हीरापुर ओडिशा, रानीपुर ओडिशा, खजुराहो और भेड़ाघाट जबलपुर. खजुराहो के चौंसठ योगिनी मन्दिर को छोड़ कर बाकी सभी मंदिर गोलाकार हैं. बड़े गोले में चौसठ छोटे छोटे मंदिर या कोष्ठ - cell हैं और उनके दरवाज़े बीच में खुलते हैं. गोले के बीच में छोटा मंदिर है जिसमें या तो शिव की मूर्ति है या फिर शिवलिंग स्थापित है. गोलाकार मंदिर का प्रवेश द्वार पूर्व में है जैसा की आम मंदिरों में होता है. केवल खजुराहो का मंदिर आयताकार है और खजुराहो के सबसे पुराने मंदिरों में से एक है.

खजुराहो का चौंसठ योगिनी मंदिर शिव सागर के पास है. यह एक 5.4 मीटर ऊँची जगती या प्लेटफार्म पर बना हुआ है. 31.4 मीटर गुणा 18.3 मीटर के आयत में फैला हुआ है. बाहरी दीवार में 65 कोष्ठ बने हुए थे जिनमें से अब 35 ही बचे हैं. ये कोष्ठ केवल एक मीटर ऊँचे और एक ही मीटर गहरे हैं. इनमें से एक कोष्ठ बड़ा और उंचा है जो सम्भवत: दुर्गा मंदिर रहा होगा. पूरे मंदिर में बड़े बड़े चौरस और आयताकार अनघड़ या रफ़ पत्थरों को इस्तेमाल किया गया है.

खजुराहो के पश्चिमी मंदिरों से यहाँ पैदल भी जा सकते हैं. कोई टिकट नहीं है और कोई गाइड भी नहीं मिला हमें. कोई सज्जन वहां पूजा करवा रहे थे उन्होंने ही जानकारी दी. प्रस्तुत हैं कुछ फोटो:

1. छोटे छोटे 65 कोष्ठ या चैम्बर थे जिनमें से 35 बचे हैं 

2. इन छोटे कोष्ठों में फिलहाल कुछ भी नहीं है 

3. पीछे खजुराहो के पश्चिमी मंदिर नज़र आ रहे हैं 

4. एक उंचा मंदिर जो शायद दुर्गा मंदिर रहा होगा . इसी में पूजा हो रही थी 

5. बाहरी दीवार 

6. प्रवेश के लिए सीढियां 

7. मंदिर के सामने मैदान में भी कुछ है. संरक्षण की सख्त जरूरत है