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Thursday, 1 November 2018

गुरुद्वारा श्री दाता बंदी छोड़ साहिब, ग्वालियर

ग्वालियर के किले में एक गुरुद्वारा है जिसकी एक रोचक और ऐतिहासिक कहानी है. इस गुरूद्वारे का नाम है - गुरुद्वारा श्री दाता बंदी छोड़ साहिब और इसी नाम से जुड़ी कहानी भी है. ये कहानी एक उदाहरण भी है की सिखों के छठे गुरु हर गोबिंद जी कितने विशाल और उदार ह्रदय के थे.

गुरु हर गोबिंद जी ने गद्दी ( छेवीं पातशाही ) सँभालने के बाद अमृतसर में अकाल तख़्त की स्थापना की. साथ ही उन्होंने लोहागढ़ किले अमृतसर में संत सिपाहियों की फ़ौज तैयार करनी शुरू कर दी. धीरे धीरे खबर में बादशाह जहाँगीर के दरबार में भी पहुच गई जिसके कारण जहांगीर को चिंता हो गई. गुरु साहिब को दरबार में बुलाया गया जहां गुरु साहिब की जहाँगीर से मुलाकातें हुईं. जहाँगीर की तबियत खराब हुई तो कुछ दरबारियों और हाकिम ने सलाह दी कि अगर ग्वालियर किले में कोई साधू संत प्रार्थना करे तो जहाँगीर की सेहत बेहतर हो सकती है. गुरु साहिब का नाम सुझाया गया और उन्हें ग्वालियर के किले में भेज दिया गया. किले में पहुँचने पर उन्हें बंदी बना दिया गया.

किले के जेल में बावन और लोग भी बंदी थे. ये आसपास की छोटी रियासतों और छोटे मोटे राज्यों के राजपूत राजा थे जिन्होनें जहांगीर के शाही खज़ाने में लगान और टैक्स नहीं जमा किये थे. गुरु साहिब जेल में नियमित पाठ करते और जरूरत होती तो साथी कैदियों की सेवा भी करते. खबर नूरजहाँ तक पहुंची की कोई संत महात्मा ग्वालियर किले में कैद हैं जो नियम से पाठ करते हैं और बीमार कैदियों की मदद भी करते हैं. इधर जहांगीर की तबियत खराब होती जा रही थी. फैसला हुआ की जेल में जो संत बंदी हैं उन्हें छोड़ दिया जाए. जवाब में गुरु साहिब ने सन्देश भेजा कि मैं अकेला बाहर नहीं जाऊँगा बल्कि मेरे साथ सभी बावन कैदी छोड़े जाएं.

ये शर्त टेढ़ी थी कि सबको छोड़ दिया जाए. काफी दिन बाद जवाब में अनोखा आदेश आया की जो भी गुरु साहिब का पल्ला पकड़ कर बाहर आएगा उसे छोड़ दिया जाएगा. अब ये शाही शर्त ये सोच कर लगाई गई की राजपूत राजाओं को पल्ला पकड़ कर चलना बेज्ज़ती का कारण होगा और वो ऐसा नहीं करेंगे. परन्तु गुरु साहिब ने अपने अंगरखे में बावन रिब्बन बाँध लिए और बावन के बावन कैदी एक एक रिब्बन पकड़ कर गुरु साहिब के साथ बाहर आ गए. ये अक्टूबर 1619 की बात है. तब से गुरु साहिब को दाता बंदी छोड़ साहिब कहा जाने लगा. किले में एक छोटा सा संगमरमर का चबूतरा स्मारक के रूप में बना दिया गया जिसकी देख रेख मुस्लिम करते थे.

1947 के बाद से यहाँ छोटा गुरुद्वारा शुरू हुआ, 1970 - 80 के दौरान छे एकड़ में गुरुद्वारा विकसित हुआ. अब यहाँ दो सरोवर, लंगर हॉल और एक छोटा म्यूजियम भी है. अक्टूबर में दाता बंदी छोड़ दिवस भी मनाया जाता है.

गुरुद्वारा श्री दाता बंदी छोड़ का गेट .यहाँ एक म्यूजियम भी है  

किले के अंदर जेल जहाँ कैदी बंद थे 

जेल के तहखाने का रास्ता 

यह कहानी तीन या चार तरह से कही गई है. और अधिक जानकारी के लिए गूगल में खोज करें या देखें :
 sikhiwiki.org
 historicalgurudwaras.com



3 comments:

Harsh Wardhan Jog said...

https://jogharshwardhan.blogspot.com/2018/11/blog-post.html

Singhnps92@gmail.com said...

Nice description

Harsh Wardhan Jog said...

Thank you Singh Saab.