राजकुमार सिद्धार्थ गौतम अब से ढाई हजार साल पहले अपना परिवार और महल छोड़ कर जंगलों की ओर सत्य की खोज में निकल पड़े थे. उनकी उम्र उस वक़्त 29 वर्ष की थी. उस समय के ज्ञानी साधुओं, सन्यासियों और विचारकों से मिले, विचारों का आदान प्रदान किया. पहले पहल मिलने वालों में से प्रमुख थे आलार कालाम और उद्दक रामपुत्र. इनसे उन्होंने योग ध्यान और समाधि में बैठना सीखा पर दुःख से मुक्ति पाने का संतोषजनक मार्ग ना पाने के कारण वे आगे बढ़ते गए.
उस समय वेद, पुराण और उपनिषद का प्रचलन था. उस समय के समाज में वर्ण व्यवस्था भी प्रचलित थी अर्थात समाज चार भागों में विभाजित था- ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शुद्र. राजकुमार सिद्धार्थ स्वयं क्षत्रिय थे. साथ ही उस समय जीवन को चार भागों या आश्रमों - ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ और सन्यास में बांटने का भी प्रचलन था जिसका जिक्र जातक कथाओं में आया है.
वेद, पुराण और जैन धर्म ग्रंथों का समय-क्रम पक्का नहीं है. इनका रचनाकाल सम्भवतः 1500 से 75000 वर्ष ईसापूर्व में कब रहा होगा कहना मुश्किल है क्यूंकि इस पर इतिहासकारों में मतभेद हैं. पर यह तो जाहिर है कि उस समय आत्मा, परमात्मा, दर्शन और धर्म की बहुत सी विचार धाराएं साथ साथ ही चल रहीं थीं. वैदिक साहित्य में उस समय के जीवन के मूल विषयों पर मन्त्रों और श्लोकों में जो चर्चा है वो किसी ना किसी रूप में आज भी हमें प्रभावित करती हैं. वैदिक साहित्य को चार मुख्य भागों में बांटा जा सकता है :
'संहिता' में मन्त्रों और स्तुतियों का संग्रह है जैसे कि ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद और अथर्ववेद.
'ब्राह्मण' ग्रंथों में यज्ञ करने की विभिन्न विधियाँ, उनके उद्देश्य और उनसे फल प्राप्ति की चर्चा है.
'आरण्यक' ग्रंथों में वानप्रस्थ और आध्यात्म की चर्चा है और
'उपनिषद' में आत्मा, ब्रह्म और आध्यात्म की चर्चा है.
वेदों पर आधारित 6 मुख्य दर्शन हैं जो सभी आस्तिक दर्शन कहलाते हैं. इनकी संक्षिप्त रूप रेखा इस प्रकार है:
* न्याय दर्शन जिसमें परमात्मा को सर्वव्यापी और निराकार कहा गया है. प्रकृति को अचेतन और आत्मा को शरीर से अलग कहा गया है. यह दर्शन महर्षि गौतम द्वारा रचित है.
* वैशेषिक दर्शन में वेदों को ईश्वर का वचन माना गया है. मनुष्य के कल्याण और उन्नति के लिए धर्म पर चलना आवश्यक बताया गया है. महर्षि कणाद के अनुसार जीव और ब्रह्म अलग अलग हैं और एक नहीं हो सकते.
* सांख्य दर्शन महर्षि कपिल द्वारा रचित है. इसमें कहा गया है कि प्रकृति अचेतन और शाश्वत है पर मनुष्य चेतन है और प्रकृति को भोगता है. असत्य से सत्य की उत्पति नहीं होती और सत्य कारणों से ही सत्य कार्य होते हैं.
* योग दर्शन में परमात्मा और आत्मा का मिलन यौगिक क्रियाओं द्वारा कराने की बात कही गई है. इन्द्रियों को अन्तर्मुखी कर ध्यान और समाधि लगाने से आत्मा और परमात्मा का 'योग' संभव है. अंतःकरण शुद्धि पर महर्षि पतंजलि ने ज्यादा जोर दिया है.
* महर्षि जैमिनी द्वारा रचित मीमांसा दर्शन वेद मन्त्र और वैदिक क्रियाओं को सत्य मानता है. यह दर्शन उन्नति के लिए पारिवारिक और सामाजिक कर्तव्यों पर ज्यादा जोर देता है.
* वेदांत दर्शन या उत्तर मीमांसा महर्षि व्यास द्वारा ब्रह्मसूत्र में रचित है. इसमें कहा गया है कि ब्रह्म सर्वज्ञ है पर निराकार है और जन्म-मरण से ऊपर है पर आत्मा से अलग है. मीमांसा में भी आगे चल कर कई धाराएं चल पड़ी - द्वैत, अद्वैत, विशिष्ठाद्वैत.
इन दर्शन शास्त्रों के अतिरिक्त नास्तिक विचार भी उस समय प्रचलित थे. ईश्वर और परलोक ना मानने के कारण इस दर्शन को लोकायत भी कहा जाता है. परलोक को ना मानने वाले, केवल प्रत्यक्ष को प्रमाण मानने वाले और वेदों से असहमति रखने वाले दर्शन हैं: चार्वाक, माध्यमिक, योगाचार, सौतांत्रिक, वैभाषिक और आर्हत.
जैन दर्शन में भी नास्तिकता का पुट है. जैन दर्शन में ऐसा माना गया है कि सृष्टि शाश्वत है और सृष्टि का कोई सृष्टिकर्ता नहीं है. जीव स्वयं अपने पिछले जन्मों के कर्मों से सुख-दुःख पाते हैं. जैन धर्म में अहिंसा परम धर्म है. साथ ही मन, वाणी और काया पर जीत करने वाला 'जिन' या अरहंत कहलाता है. इन्हीं जिन के मंदिर बनाए जाते हैं और किसी भगवान के नहीं.
कुल मिला के इस तरह की आस्तिक और नास्तिक वादों की 60-65 विचार धाराएं राजकुमार सिद्धार्थ के सन्यास लेने के समय में प्रचलित थीं. मोटे तौर पर इन्हें दो धाराओं में बांटा जा सकता है. पहली धारा वैदिक ज्ञान और मान्यताओं से जुड़ी थी. दूसरी धारा उन लोगों की थी जो वैदिक कर्मकांडों से अलग प्रकृति के नियमों में जीवन यापन करना चाहते थे. इन्हें श्रमण या श्रमन कहा जाता था और ये लोग मूलतः जिज्ञासु रहे होंगे. चूँकि श्रमणों का प्रकृति पर ज्यादा जोर था इसलिए वो ज्यादातर समाज से दूर जंगलों में ही विचरते रहते थे और अपने साथ कम से कम सुविधाएँ रखते थे. शायद जिज्ञासु राजकुमार सिद्धार्थ महल छोड़ने के लिए इनसे प्रभावित हुए हों.
नोट: मैं एक जिज्ञासु की तरह गौतम बुद्ध का मार्ग समझने की कोशिश में हूँ. भूल-चूक के लिए क्षमा.
उस समय वेद, पुराण और उपनिषद का प्रचलन था. उस समय के समाज में वर्ण व्यवस्था भी प्रचलित थी अर्थात समाज चार भागों में विभाजित था- ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शुद्र. राजकुमार सिद्धार्थ स्वयं क्षत्रिय थे. साथ ही उस समय जीवन को चार भागों या आश्रमों - ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ और सन्यास में बांटने का भी प्रचलन था जिसका जिक्र जातक कथाओं में आया है.
वेद, पुराण और जैन धर्म ग्रंथों का समय-क्रम पक्का नहीं है. इनका रचनाकाल सम्भवतः 1500 से 75000 वर्ष ईसापूर्व में कब रहा होगा कहना मुश्किल है क्यूंकि इस पर इतिहासकारों में मतभेद हैं. पर यह तो जाहिर है कि उस समय आत्मा, परमात्मा, दर्शन और धर्म की बहुत सी विचार धाराएं साथ साथ ही चल रहीं थीं. वैदिक साहित्य में उस समय के जीवन के मूल विषयों पर मन्त्रों और श्लोकों में जो चर्चा है वो किसी ना किसी रूप में आज भी हमें प्रभावित करती हैं. वैदिक साहित्य को चार मुख्य भागों में बांटा जा सकता है :
'संहिता' में मन्त्रों और स्तुतियों का संग्रह है जैसे कि ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद और अथर्ववेद.
'ब्राह्मण' ग्रंथों में यज्ञ करने की विभिन्न विधियाँ, उनके उद्देश्य और उनसे फल प्राप्ति की चर्चा है.
'आरण्यक' ग्रंथों में वानप्रस्थ और आध्यात्म की चर्चा है और
'उपनिषद' में आत्मा, ब्रह्म और आध्यात्म की चर्चा है.
वेदों पर आधारित 6 मुख्य दर्शन हैं जो सभी आस्तिक दर्शन कहलाते हैं. इनकी संक्षिप्त रूप रेखा इस प्रकार है:
* न्याय दर्शन जिसमें परमात्मा को सर्वव्यापी और निराकार कहा गया है. प्रकृति को अचेतन और आत्मा को शरीर से अलग कहा गया है. यह दर्शन महर्षि गौतम द्वारा रचित है.
* वैशेषिक दर्शन में वेदों को ईश्वर का वचन माना गया है. मनुष्य के कल्याण और उन्नति के लिए धर्म पर चलना आवश्यक बताया गया है. महर्षि कणाद के अनुसार जीव और ब्रह्म अलग अलग हैं और एक नहीं हो सकते.
* सांख्य दर्शन महर्षि कपिल द्वारा रचित है. इसमें कहा गया है कि प्रकृति अचेतन और शाश्वत है पर मनुष्य चेतन है और प्रकृति को भोगता है. असत्य से सत्य की उत्पति नहीं होती और सत्य कारणों से ही सत्य कार्य होते हैं.
* योग दर्शन में परमात्मा और आत्मा का मिलन यौगिक क्रियाओं द्वारा कराने की बात कही गई है. इन्द्रियों को अन्तर्मुखी कर ध्यान और समाधि लगाने से आत्मा और परमात्मा का 'योग' संभव है. अंतःकरण शुद्धि पर महर्षि पतंजलि ने ज्यादा जोर दिया है.
* महर्षि जैमिनी द्वारा रचित मीमांसा दर्शन वेद मन्त्र और वैदिक क्रियाओं को सत्य मानता है. यह दर्शन उन्नति के लिए पारिवारिक और सामाजिक कर्तव्यों पर ज्यादा जोर देता है.
* वेदांत दर्शन या उत्तर मीमांसा महर्षि व्यास द्वारा ब्रह्मसूत्र में रचित है. इसमें कहा गया है कि ब्रह्म सर्वज्ञ है पर निराकार है और जन्म-मरण से ऊपर है पर आत्मा से अलग है. मीमांसा में भी आगे चल कर कई धाराएं चल पड़ी - द्वैत, अद्वैत, विशिष्ठाद्वैत.
इन दर्शन शास्त्रों के अतिरिक्त नास्तिक विचार भी उस समय प्रचलित थे. ईश्वर और परलोक ना मानने के कारण इस दर्शन को लोकायत भी कहा जाता है. परलोक को ना मानने वाले, केवल प्रत्यक्ष को प्रमाण मानने वाले और वेदों से असहमति रखने वाले दर्शन हैं: चार्वाक, माध्यमिक, योगाचार, सौतांत्रिक, वैभाषिक और आर्हत.
जैन दर्शन में भी नास्तिकता का पुट है. जैन दर्शन में ऐसा माना गया है कि सृष्टि शाश्वत है और सृष्टि का कोई सृष्टिकर्ता नहीं है. जीव स्वयं अपने पिछले जन्मों के कर्मों से सुख-दुःख पाते हैं. जैन धर्म में अहिंसा परम धर्म है. साथ ही मन, वाणी और काया पर जीत करने वाला 'जिन' या अरहंत कहलाता है. इन्हीं जिन के मंदिर बनाए जाते हैं और किसी भगवान के नहीं.
कुल मिला के इस तरह की आस्तिक और नास्तिक वादों की 60-65 विचार धाराएं राजकुमार सिद्धार्थ के सन्यास लेने के समय में प्रचलित थीं. मोटे तौर पर इन्हें दो धाराओं में बांटा जा सकता है. पहली धारा वैदिक ज्ञान और मान्यताओं से जुड़ी थी. दूसरी धारा उन लोगों की थी जो वैदिक कर्मकांडों से अलग प्रकृति के नियमों में जीवन यापन करना चाहते थे. इन्हें श्रमण या श्रमन कहा जाता था और ये लोग मूलतः जिज्ञासु रहे होंगे. चूँकि श्रमणों का प्रकृति पर ज्यादा जोर था इसलिए वो ज्यादातर समाज से दूर जंगलों में ही विचरते रहते थे और अपने साथ कम से कम सुविधाएँ रखते थे. शायद जिज्ञासु राजकुमार सिद्धार्थ महल छोड़ने के लिए इनसे प्रभावित हुए हों.
जैन मंदिर, कमल बस्ती, बेलगाम, कर्नाटक |
नोट: मैं एक जिज्ञासु की तरह गौतम बुद्ध का मार्ग समझने की कोशिश में हूँ. भूल-चूक के लिए क्षमा.
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