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Friday, 8 September 2017

विपासना शिविर का पांचवां दिन

मैडिटेशन सीखने का पांचवां दिन आ गया. पद्मासन, या आलथी पालथी या चौकड़ी लगाकर, कमर गर्दन सीधी रखकर सांस पर ध्यान देना है और फिर अपनी काया पर हो रही संवेदनाओं को जानना है. सर से लेकर पैर तक और फिर पैर से लेकर सर तक. विभिन्न अंगों में विभिन्न तरह की संवेदनाएं हो सकती हैं जैसे कि अंगों पर दबाव, खिंचाव, गर्म होना, ठंडी हवा का लगना, कपड़े का स्पर्श, दर्द होना और कहीं किसी भाग में कुछ भी महसूस ना होना. पर अधिष्ठान में फिर बैठने से पहले क्यों ना पिछ्ले चार दिन के अनुभवों की समीक्षा कर ली जाए :

- लगातार आनापान करने से महसूस हुआ कि एकाग्रता बढ़ी है.
- जब तक सांस पर ध्यान रहता था तो विचार हट जाते थे और शरीर का कष्ट भी भूल जाता था. ऐसा लगा कि अगर लगातार अभ्यास किया जाए तो विचारों को देर तक रोका जा सकता है.
- जब जब सांस पर से ध्यान हटता था विचारों की विडियो चल पड़ती थी. ये विडियो या तो पुरानी घटनाओं पर आधारित थे या भविष्य की कामना पर. मतलब कि सांस पर ध्यान टिका रहना वर्तमान में रहना है.

फिर से आसन पर बिराजमान हो गए और शुरू कर दिया काम. कमर में, घुटनों में और गर्दन में दर्द होना ही था पर अब शरीर आदी हो गया था. दूसरे शब्दों में कहें तो शरीर ने मन को इस्तीफ़ा दे दिया था की अब मैं शिकायत नहीं करूँगा ! घंटे भर के अधिष्ठान के अलावा कभी कभी मामूली सा हिलना जुलना हो जाता था. पर वो भी बहुत ही धीरे से स्लो मोशन में ताकि पड़ोसी या फिर अपना ही मन बुरा ना मान जाए.

पहली बार के विपासना शिविर में इसी में उलझे रहे कि थकावट हो रही है या दर्द हो रहा है. दूसरे शिविर में ये सोच घट गई थी. वाणी तो अब शांत ही थी क्यूंकि चार दिन से किसी से बात नहीं हुई और ना ही किसी को आँख से आँख मिलाकर देखा, शरीर की क्रियाएं भी कम से कम हो गईं और शरीर स्थिर रहने लगा. मन भी एकाग्र होने लगा था. पहली बार में ये बातें बड़ी और भारी भरकम लगीं जबकि दूसरी बार में नहीं. ये सब तो आगे जाने का रास्ता ही था.

इसलिए अभ्यास करते ही जाना था. काया में होने वाली संवेदनाओं को देखना था. सिर से पैर तक और पैर से सिर तक. अब काया के भी दो भाग कर लीजिये ! याने बाहिरी काया और अंदरूनी काया. बाहर की संवेदनाएं देखते चलें और फिर अंदर की शुरू कर दें.

कहना आसान था पर करते हुए हंसी आ रही थी कि शरीर के अंदर मन को ले जाएं? मन अब ज्यादा भटक रहा था. बार बार सांस पर फोकस करना पड़ता था. पर धीरे धीरे मन इस प्रक्रिया में चल पड़ा.

सबका मंगल होए 





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