विपासना शिविर की तीसरी शाम को गोयनका जी के एक घंटे के वीडियो प्रवचन में साधकों के मन में उठे सवालों की चर्चा की गई और समझाया गया. जैसा की रोज़ होता है उसी प्रवचन में अगले दिन की रूप रेखा भी बता दी गई. चौथे दिन की विशेष बात थी अधिष्ठान. शिविर में वैसे तो पूरे दिन कार्यक्रम एक से ही हैं. चार बजे उठना, साढ़े चार से लेकर साढ़े नौ बजे रात तक लगातार मैडिटेशन करना. हाँ बीच बीच में नाश्ते, खाने के अलावा छोटे छोटे ब्रेक थे और शाम को एक घंटे का प्रवचन जिसमें अधिष्ठान पर बैठने के लिए बताया गया.
अधिष्ठान का शाब्दिक अर्थ अगर इन्टरनेट में देखें तो कई पर्याय मिलेंगे : abode, establishment, installation, site, situation, fixed rule, वास स्थान, आधार, आश्रय और संस्थान. इनमें से मुझे installation शब्द ठीक लगा क्यूंकि अब हमें अपने आसन पर जम कर बैठना था. किसी भी सूरत में एक घंटे तक हिलना नहीं था. अपने को धरती में गड़े खम्बे की तरह install कर लेना था. अगर कान में मच्छर गाना गाने लगे, शरीर पर कोई मक्खी बैठने लगे, खुजली हो, पसीना आ जाए या घुटने में दर्द हो तो भी हिलना नहीं था. हिलना नहीं बस हिलना नहीं!
परीक्षा तो अब शुरू हुई. किस्से कहानियों में पढ़ते थे कि तप करते करते सन्यासी के शरीर पर लताएं चढ़ गईं, सांप बिच्छू चलने लग गए या चींटियों ने बाम्बी बना ली. कुछ ऐसा ही होने वाला था क्या? पर नहीं हम तो पार्ट टाइम संत बनने निकले हैं. केवल एक घंटे की तो क्लास थी. इस अधिष्टान का दूसरा भाग वही था सांस को देखते रहने का अभ्यास. अब तीसरा भाग भी आ गया था: ऊपर से नीचे तक शरीर के हरेक भाग पर ध्यान लगाते जाना याने शरीर की मानसिक यात्रा करना. इसका क्या मतलब? मतलब ये कि शरीर के अंगों में हो रही संवेदनाओं को महसूस करना या उन पर ध्यान देना. किसी अंग में दर्द है, किसी में गर्मी है, किसी भाग में खुजली है, किसी अंग में कम्पन है, किसी में पसीना है, किसी अंग को कपड़ा छू रहा है, किसी अंग पर दबाव है या फिर किसी अंग पर खिंचाव है उसको महसूस करना. हो सकता है किसी अंग में कुछ महसूस ही नहीं हो रहा हो. जो भी हो रहा है उसे महसूस करना. इस यात्रा को तरीके से करना है याने ऊपर से शुरू होकर हरेक अंग की संवेदना को देखते हुए धीरे धीरे नीचे की ओर जाना है. फिर पैर के अंगूठे से धीरे धीरे हरेक अंग की संवेदना को महसूस करते हुए ऊपर की ओर वापिस. सिंपल!?
पिछले तीन दिनों के आनापान के अभ्यास ने अब साथ दिया. अनापान लगातार करने से एकाग्रता बढ़ गई थी. ये भी जानकारी थी की कमर, गर्दन और घुटनों में दर्द होगा. ये भी जानकारी थी कि मन लगातार फोकस नहीं रह पाएगा भटकन भी होगी और लगातार बैठने से मन में उकताहट भी होगी. एक घंटा स्थिर न रह पाया तो? मैं करूँगा सोच कर डट कर बैठ गया. सहायता योगाभ्यास से भी मिली जो हम दोनों 20 सालों से करते आ रहे थे. योगासनों के बाद शव आसन कराया जाता था जिसमें आसन पर पीठ के बल लेट कर शरीर को पूरी तरह ढीला छोड़ना होता है. शवासन में भी शरीर की मानसिक यात्रा कराई जाती थी - सर के बाल,माथा, भोंहें, आँखें, पलकें, नासिका, होंठ, ठुड्डी, गला, छाती, भुजाएं, कलाई, हथेलियाँ, उँगलियाँ, उदर, जननेंद्रियाँ, जंघाएँ, घुटने, पिंडलियाँ, टखने, पैर, उंगलियाँ, नाख़ून और फिर इसी तरह ऊपर की ओर वापिस.
प्रयत्न के बावजूद मन भटका और कई ख़याल आए कि अन्य धर्मों और समाजों की तरह ये कोई रस्म है? अगर मैं ना करूँ तो क्या होगा? अगर मैं कर लूँगा तो क्या होगा? क्या गौतम बुद्ध ने भी इसी तरह किया था या केवल हम से करवाया जा रहा है? शरीर तो मेरा ही है इसमें संवेदनाएं भी आती जाती रहती हैं महसूस भी की हैं तो इनमें अब क्या देखना है? ऐसा भी लगा कि मैं एक थर्ड परसन हूँ दूर से अपने शरीर को देख रहा हूँ उस शरीर में आती जाती सांस को भी दूर से देख रहा हूँ! रोंगटे खड़े हो गए! बड़ा अजीब सा लगा तो झटके से सांस पर ध्यान लगाया और फिर मानसिक यात्रा जहां रुकी थी वहां से शुरू कर दी. एक घंटे की बैठक में आखिर के 15-20 मिनट असहनीय दर्द में गुज़रे. ध्यान हट कर एक ही बात पर केन्द्रित था - घंटी अब बजी के अब बजी. अंत में जब गोयनका जी की आवाज़ गूंजी तो आह कितना आनंद आया. जेल से छूटे! घुटने खोल दिए और आँखें भी खोल ली. आलथी पालथी से उठकर खड़े होने में भी वक़्त लगा. पर अस्संभव लगने वाला काम हो ही गया.
बाद के अध्ययन से पता लगा कि काया की संवेदनाओं को समझना विपश्यना का एक महत्वपूर्ण अंग है इसे कायानुपश्यना कहते हैं याने अपनी काया को जानना.
नोट: जिज्ञासा -वश गौतम बुद्ध का बताया मार्ग समझने की कोशिश कर रहा हूँ. भूल-चूक के लिए क्षमा
अधिष्ठान का शाब्दिक अर्थ अगर इन्टरनेट में देखें तो कई पर्याय मिलेंगे : abode, establishment, installation, site, situation, fixed rule, वास स्थान, आधार, आश्रय और संस्थान. इनमें से मुझे installation शब्द ठीक लगा क्यूंकि अब हमें अपने आसन पर जम कर बैठना था. किसी भी सूरत में एक घंटे तक हिलना नहीं था. अपने को धरती में गड़े खम्बे की तरह install कर लेना था. अगर कान में मच्छर गाना गाने लगे, शरीर पर कोई मक्खी बैठने लगे, खुजली हो, पसीना आ जाए या घुटने में दर्द हो तो भी हिलना नहीं था. हिलना नहीं बस हिलना नहीं!
परीक्षा तो अब शुरू हुई. किस्से कहानियों में पढ़ते थे कि तप करते करते सन्यासी के शरीर पर लताएं चढ़ गईं, सांप बिच्छू चलने लग गए या चींटियों ने बाम्बी बना ली. कुछ ऐसा ही होने वाला था क्या? पर नहीं हम तो पार्ट टाइम संत बनने निकले हैं. केवल एक घंटे की तो क्लास थी. इस अधिष्टान का दूसरा भाग वही था सांस को देखते रहने का अभ्यास. अब तीसरा भाग भी आ गया था: ऊपर से नीचे तक शरीर के हरेक भाग पर ध्यान लगाते जाना याने शरीर की मानसिक यात्रा करना. इसका क्या मतलब? मतलब ये कि शरीर के अंगों में हो रही संवेदनाओं को महसूस करना या उन पर ध्यान देना. किसी अंग में दर्द है, किसी में गर्मी है, किसी भाग में खुजली है, किसी अंग में कम्पन है, किसी में पसीना है, किसी अंग को कपड़ा छू रहा है, किसी अंग पर दबाव है या फिर किसी अंग पर खिंचाव है उसको महसूस करना. हो सकता है किसी अंग में कुछ महसूस ही नहीं हो रहा हो. जो भी हो रहा है उसे महसूस करना. इस यात्रा को तरीके से करना है याने ऊपर से शुरू होकर हरेक अंग की संवेदना को देखते हुए धीरे धीरे नीचे की ओर जाना है. फिर पैर के अंगूठे से धीरे धीरे हरेक अंग की संवेदना को महसूस करते हुए ऊपर की ओर वापिस. सिंपल!?
पिछले तीन दिनों के आनापान के अभ्यास ने अब साथ दिया. अनापान लगातार करने से एकाग्रता बढ़ गई थी. ये भी जानकारी थी की कमर, गर्दन और घुटनों में दर्द होगा. ये भी जानकारी थी कि मन लगातार फोकस नहीं रह पाएगा भटकन भी होगी और लगातार बैठने से मन में उकताहट भी होगी. एक घंटा स्थिर न रह पाया तो? मैं करूँगा सोच कर डट कर बैठ गया. सहायता योगाभ्यास से भी मिली जो हम दोनों 20 सालों से करते आ रहे थे. योगासनों के बाद शव आसन कराया जाता था जिसमें आसन पर पीठ के बल लेट कर शरीर को पूरी तरह ढीला छोड़ना होता है. शवासन में भी शरीर की मानसिक यात्रा कराई जाती थी - सर के बाल,माथा, भोंहें, आँखें, पलकें, नासिका, होंठ, ठुड्डी, गला, छाती, भुजाएं, कलाई, हथेलियाँ, उँगलियाँ, उदर, जननेंद्रियाँ, जंघाएँ, घुटने, पिंडलियाँ, टखने, पैर, उंगलियाँ, नाख़ून और फिर इसी तरह ऊपर की ओर वापिस.
प्रयत्न के बावजूद मन भटका और कई ख़याल आए कि अन्य धर्मों और समाजों की तरह ये कोई रस्म है? अगर मैं ना करूँ तो क्या होगा? अगर मैं कर लूँगा तो क्या होगा? क्या गौतम बुद्ध ने भी इसी तरह किया था या केवल हम से करवाया जा रहा है? शरीर तो मेरा ही है इसमें संवेदनाएं भी आती जाती रहती हैं महसूस भी की हैं तो इनमें अब क्या देखना है? ऐसा भी लगा कि मैं एक थर्ड परसन हूँ दूर से अपने शरीर को देख रहा हूँ उस शरीर में आती जाती सांस को भी दूर से देख रहा हूँ! रोंगटे खड़े हो गए! बड़ा अजीब सा लगा तो झटके से सांस पर ध्यान लगाया और फिर मानसिक यात्रा जहां रुकी थी वहां से शुरू कर दी. एक घंटे की बैठक में आखिर के 15-20 मिनट असहनीय दर्द में गुज़रे. ध्यान हट कर एक ही बात पर केन्द्रित था - घंटी अब बजी के अब बजी. अंत में जब गोयनका जी की आवाज़ गूंजी तो आह कितना आनंद आया. जेल से छूटे! घुटने खोल दिए और आँखें भी खोल ली. आलथी पालथी से उठकर खड़े होने में भी वक़्त लगा. पर अस्संभव लगने वाला काम हो ही गया.
बाद के अध्ययन से पता लगा कि काया की संवेदनाओं को समझना विपश्यना का एक महत्वपूर्ण अंग है इसे कायानुपश्यना कहते हैं याने अपनी काया को जानना.
सबका मंगल होए |
नोट: जिज्ञासा -वश गौतम बुद्ध का बताया मार्ग समझने की कोशिश कर रहा हूँ. भूल-चूक के लिए क्षमा
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