इत्मीनान से अखबार की तस्वीरों पर नज़र मार रहा था कि फ़ोन बजा. इधर फ़ोन बंद हुआ तो उधर हमारे लिए आदेश जारी हो गया:
- ज़रा ढंग के कपड़े पहन लो गोयल साहब और उनकी मास्टरनी आ रहे हैं.
- निक्कर बदलूँ ?
सवाल बेकार ही पूछ लिया जबकि पता था कि आदेश नहीं अध्यादेश है जो टाला नहीं जा सकता. पर इस तरह का झन्झट पहले नहीं हुआ करता था. पहले मतलब साइकिल युग में. भई हम तो साइकिल युग की संतान हैं. उस वक़्त घरों में आना जाना बिंदास होता था क्यूंकि पहले बताने का कोई रिवाज नहीं था न ही कोई साधन. ये फॉर्मेलिटी का चक्कर तो कुछ 10-15 सालों से बढ़ गया है जब से हम साइकिल युग से मोटर युग में आ गए हैं.
गोयल साहब पधारे. साठ बासठ की उमर, सांवला रंग और मटके नुमा पेट. सिर पर पांच सात बाल खड़े खड़े पंखे की हवा में लहरा रहे थे पर बाकी मैदान सफाचट हो चूका था. लाला जी के मुकाबले मास्टरनी ज्यादा एक्टिव थी. नमस्ते और हाल चाल वगैरा के बाद पूछा:
- चाय लेंगे या ठंडा?
अब लीजिये साहब घड़ा युग तो रहा नहीं बल्कि अब रेफ्रीजिरेटर युग आ गया है. पहले कौन पूछता था ठंडा या गरम? या चाय? घड़े का पानी पियो और आनंद लो, छाछ लस्सी पियो बस हो गई खातिरदारी. अब तो चाय चाहिए या ठंडा चाहिए पूछना जरूरी है. चाय या ठंडा तो कोई बात नहीं पर एक अंदाज़ है जो बदल गया. फॉर्मेलिटी है जो बढ़ गई और जो नकली सी लगती है. जिसकी जरूरत नहीं है पर मिडिल क्लास में घर कर गई है.
साइकिल युग में दो क्लासें थी - अमीर और गरीब. ये तो फिरंगियों ने एक शब्द फेंक दिया दोनों के बीच का - मिडिल क्लास. अब आप गरीब से ऊपर हो गए. परन्तु आप जल्द से जल्द अपनी साइकिल छोड़ दो और कार खरीद लो. अगर न ले पाए तो आप निचली क्लास में सरक जाओगे बेईज्ज़ती होगी ज़रा बच के रहो.
कुछ देर की गपशप के बाद गोयल साहब ने मास्टरनी की ओर देखा:
- तो चलें जी?
सभी खड़े हो गए. सज्जनों ने आपस में हाथ मिलाया और महिलाएं आधे गले लगीं ताकि बालों की सेटिंग खराब ना हो. घर आने जाने के न्योते का आदान प्रदान हुआ. नकली हंसी में 'जरूर जरूर' कहा गया और कहते कहते दरवाजे तक आ गये.
दरवाज़े पर गोयल साहब ने घोषणा कर दी की आज वो बेटे की नई कार पर आये हैं. दुबारा सज्जनों ने हाथ मिलाये और मुबारक बांटी गई और देवियों ने आधा मिलन किया और बधाई दी.
गेट पर पहुँच कर गोयल साहब ने तिबारा हाथ मिलाया;
- तो चलें जी?
पर नई कार थी तो देखना तो बनता था. सभी बाहर आ गए. नई कार का विस्तार से मुआयना किया गया और कार के रंग रूप का गुणगान हुआ.
चौथी बार हाथ मिलाया गया और मुस्कान के साथ मुबारकबाद और बधाई का लेन देन हुआ.
गोयल साहब ने रिमोट दबाया 'पुक पुक' की आवाज़ हुई. दरवाज़ा खोला और कार के अंदर के दर्शन कराए. एक बार फिर कार के अंदरूनी रूप रंग का गुणगान हुआ, अंदर लगे हुए गाजे बाजे का व्याख्यान किया गया.
सज्जनों द्वारा पांचवी बार हाथ मिलाया गया और बधाई और मुबारक दी गई. महिलाओं ने एक दुसरे को थपथपाया. सज्जनों द्वारा महिलाओं को थपकी नहीं दी गई जिसका कारण आपको पता ही है.
गोयल साहब कार में बिराजे. साड़ी समेट कर मास्टरनी भी पधारीं. गोयल साहब ने कार स्टार्ट करी, दरवाज़े बंद किये और शीशा डाउन किया. इस दौरान हमने अपनी मुस्कराहट बरकरार रक्खी.
गोयल साहब ने छठी बार हाथ मिलाया और बोले:
- तो चलें जी?
- ज़रा ढंग के कपड़े पहन लो गोयल साहब और उनकी मास्टरनी आ रहे हैं.
- निक्कर बदलूँ ?
सवाल बेकार ही पूछ लिया जबकि पता था कि आदेश नहीं अध्यादेश है जो टाला नहीं जा सकता. पर इस तरह का झन्झट पहले नहीं हुआ करता था. पहले मतलब साइकिल युग में. भई हम तो साइकिल युग की संतान हैं. उस वक़्त घरों में आना जाना बिंदास होता था क्यूंकि पहले बताने का कोई रिवाज नहीं था न ही कोई साधन. ये फॉर्मेलिटी का चक्कर तो कुछ 10-15 सालों से बढ़ गया है जब से हम साइकिल युग से मोटर युग में आ गए हैं.
गोयल साहब पधारे. साठ बासठ की उमर, सांवला रंग और मटके नुमा पेट. सिर पर पांच सात बाल खड़े खड़े पंखे की हवा में लहरा रहे थे पर बाकी मैदान सफाचट हो चूका था. लाला जी के मुकाबले मास्टरनी ज्यादा एक्टिव थी. नमस्ते और हाल चाल वगैरा के बाद पूछा:
- चाय लेंगे या ठंडा?
अब लीजिये साहब घड़ा युग तो रहा नहीं बल्कि अब रेफ्रीजिरेटर युग आ गया है. पहले कौन पूछता था ठंडा या गरम? या चाय? घड़े का पानी पियो और आनंद लो, छाछ लस्सी पियो बस हो गई खातिरदारी. अब तो चाय चाहिए या ठंडा चाहिए पूछना जरूरी है. चाय या ठंडा तो कोई बात नहीं पर एक अंदाज़ है जो बदल गया. फॉर्मेलिटी है जो बढ़ गई और जो नकली सी लगती है. जिसकी जरूरत नहीं है पर मिडिल क्लास में घर कर गई है.
साइकिल युग में दो क्लासें थी - अमीर और गरीब. ये तो फिरंगियों ने एक शब्द फेंक दिया दोनों के बीच का - मिडिल क्लास. अब आप गरीब से ऊपर हो गए. परन्तु आप जल्द से जल्द अपनी साइकिल छोड़ दो और कार खरीद लो. अगर न ले पाए तो आप निचली क्लास में सरक जाओगे बेईज्ज़ती होगी ज़रा बच के रहो.
कुछ देर की गपशप के बाद गोयल साहब ने मास्टरनी की ओर देखा:
- तो चलें जी?
सभी खड़े हो गए. सज्जनों ने आपस में हाथ मिलाया और महिलाएं आधे गले लगीं ताकि बालों की सेटिंग खराब ना हो. घर आने जाने के न्योते का आदान प्रदान हुआ. नकली हंसी में 'जरूर जरूर' कहा गया और कहते कहते दरवाजे तक आ गये.
दरवाज़े पर गोयल साहब ने घोषणा कर दी की आज वो बेटे की नई कार पर आये हैं. दुबारा सज्जनों ने हाथ मिलाये और मुबारक बांटी गई और देवियों ने आधा मिलन किया और बधाई दी.
गेट पर पहुँच कर गोयल साहब ने तिबारा हाथ मिलाया;
- तो चलें जी?
पर नई कार थी तो देखना तो बनता था. सभी बाहर आ गए. नई कार का विस्तार से मुआयना किया गया और कार के रंग रूप का गुणगान हुआ.
चौथी बार हाथ मिलाया गया और मुस्कान के साथ मुबारकबाद और बधाई का लेन देन हुआ.
गोयल साहब ने रिमोट दबाया 'पुक पुक' की आवाज़ हुई. दरवाज़ा खोला और कार के अंदर के दर्शन कराए. एक बार फिर कार के अंदरूनी रूप रंग का गुणगान हुआ, अंदर लगे हुए गाजे बाजे का व्याख्यान किया गया.
सज्जनों द्वारा पांचवी बार हाथ मिलाया गया और बधाई और मुबारक दी गई. महिलाओं ने एक दुसरे को थपथपाया. सज्जनों द्वारा महिलाओं को थपकी नहीं दी गई जिसका कारण आपको पता ही है.
गोयल साहब कार में बिराजे. साड़ी समेट कर मास्टरनी भी पधारीं. गोयल साहब ने कार स्टार्ट करी, दरवाज़े बंद किये और शीशा डाउन किया. इस दौरान हमने अपनी मुस्कराहट बरकरार रक्खी.
गोयल साहब ने छठी बार हाथ मिलाया और बोले:
- तो चलें जी?
हमारे गोयल साहब |
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