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Thursday, 15 December 2022

मुस्कुराइये कि आप लखनऊ में हैं

भारत में बहुत से पुराने शहर हैं अलग अलग तरह के, अनोखे और बहुत सारी यादें समेटे हुए. उनमें से एक है लखनऊ. कहा जाता है कि लखनऊ प्राचीन कोसल या कौशल राज्य ( सातवीं से तीसरी शताब्दी ईसा पूर्व ) का एक हिस्सा था और इसे लक्ष्मणपुर या लखनपुर कहा जाता था जो कालान्तर में लखनऊ कहलाने लगा. यह लखनऊ अवध की राजधानी बना 1775 में जब नवाब आसफुद्दौला ने अवध की राजधानी फैज़ाबाद के बजाए लखनऊ बना दी. छोटा सा शहर रहा होगा लखनऊ गोमती के किनारे जिसकी चार-दिवारी में दाखिल होने के लिए बड़े बड़े गेट थे. अन्दर महल, कोठियां और बाज़ार वगैरह थे. अपने वक़्त में हिंदुस्तान का सबसे समृद्ध शहर था लखनऊ और इसे शिराज़-ए-हिन्द कहा जाता था. फिर फिरंगी आ गए और नवाबी ज़िन्दगी में दखल देने लगे. जनता जनार्दन में रंजिश बढ़ी तो अंग्रेजों के खिलाफ 1857 में संग्राम छिड़ गया. लखनऊ की घेराबंदी हो गई और बहुत कुछ तहस नहस हो गया कुछ खँडहर बचे हैं जिनमें फ़क़त यादे हैं. 

जैसे लखनऊ का इतिहास बदला वैसे ही थोड़ी बहुत भाषा भी बदली. कुछ लोग अभी भी इसे नखलऊ कह देते हैं. यहाँ पान खाया नहीं जाता बल्कि- अमाँ यार हम तो गिलौरी का मज़ा ले रहे हैं! यहाँ 'मैं' की जगह 'हम' ज्यादा इस्तेमाल होता है. नवाबी दौर भोग विलासिता का दौर था इसलिए उस समय तरह तरह के पकवान, गाना बजाना, शेरो-शायरी, अच्छे अच्छे कपड़े, दिलकश इमारतें और इतर फुलेल खूब चलते थे. नवाब वाजिद अली शाह के बारे में मशहूर है कि जब अंग्रेजों ने महल पर हमला किया तो नौकरों ने कहा - हुजूर भागिए गोरे महल में घुस आए हैं. नवाब ने कहा - अच्छा तो पहले तू जूता पहना दे. पर तब तक तो नौकर भाग गया और अंग्रेज दाखिल हो गए. अंग्रेज अधिकारी ने पूछा की आप भागे क्यूँ नहीं? महल तो खाली हो गया है. नवाब बोले कि किसी ने जूता ही नहीं पहनाया! 

आप लखनऊ के अमौसी एअरपोर्ट पर उतरें या किसी रेलवे स्टेशन पर आपको एक बोर्ड दिखाई पड़ जाएगा 'मुस्कुराइये की आप लखनऊ में हैं!'  

कुछ दिनों पहले ही मेरठ से कार में जाना हुआ था. लगभग आठ घंटे का सफ़र था : मेरठ एक्सप्रेस वे > नॉएडा > दिल्ली - आगरा एक्सप्रेस वे > आगरा-लखनऊ एक्सप्रेस वे. कुछ रास्ते की और कुछ नखलऊ - ओह मुआफ़ कीजिए लखनऊ की फोटो पेश हैं:      

टाँगे की सैर अपने लखनऊ में. कभी यहाँ 'इक्के' भी चलते थे पर इस बार कहीं दिखे नहीं 


नवाब, बेगम और साहिबज़ादे दिल्ली -आगरा एक्सप्रेस वे के एक रेस्टोरेंट में 



                     आगरा-लखनऊ महामार्ग का एक दृश्य इस मार्ग से आने जाने में बड़ी सुविधा रही  


                                               आगरा-लखनऊ महामार्ग पर बना रनवे 

आगरा-लखनऊ एक्सप्रेस वे की एक खासियत है ये रनवे. लखनऊ से 80-85 किमी दूर है और इसे जरूरत पड़ने पर वायु सेना के लड़ाकू जेट इस्तेमाल कर सकते हैं. बीच में रखे कंक्रीट ब्लाक की पार्टीशन हटाई जा सकती है. ये रनवे का एक सिरा है दूसरा लगभग 8-9 किमी दूर है. ये रनवे भारत में अपने किस्म का पहला था अब कई और भी बन रहे हैं 


लखनऊ में अपना तीन दिन का ठिकाना 

 
बस अब तो मुस्करा दीजिए कि अब आप बार में हैं! 


रूमी दरवाज़ा 1784 में बना था और बनवाने वाले थे अवध के नवाब आसफुद्दौला. इस रूमी दरवाज़े पर एक फोटो ब्लॉग इस लिंक पर देख सकते हैं : 

                                   https://jogharshwardhan.blogspot.com/2022/11/blog-post_26.html

  

नौबतखाना या नक्कारखाना. बड़े इमामबाड़े के ठीक सामने. अगर आप या हम नवाब होते और तशरीफ़ का टोकरा इस तरफ लाते तो इस नौबतखाने में आपके सम्मान में शहनाई, सारंगी, तानपुरा, तबला और नगाड़े बजते! 


नौबतखाने में फूल, पत्तों और मछलियों की सुन्दर नक्काशी 


पिक्चर गैलरी. बहुत से नवाबों, उनके दरबारों के बड़े बड़े चित्र यहाँ देखे जा सकते हैं 

 
सतखंडा. ये सतखंडा टावर सन 1848 में  नवाब मोहम्मद अली शाह ने बनवाना शुरू किया था जिसमें सात मंजिलें - सतखंडा- बननी थी ताकि ऊपर चढ़ कर चाँद और पूरा लखनऊ देखा जा सके. पर इमारत इतनी ही बनी थी कि नवाब का देहांत हो गया. बाद में किसी ने इसे पूरा करने की कोशिश नहीं की. इसलिए ये 'मनहूस' ईमारत भी कहलाती है.

हुसैनाबाद का तालाब 1837-1842 में बना था. इसकी सीढ़ियों पर शाम को बेगमें बैठा करती थी. बीच का तालाब 35-40 फुट गहरा बताया जाता है


घंटाघर. इमामबाड़े के सामने है और इसे 1887 में नवाब नसीरुद्दीन ने जॉर्ज कूपर के स्वागत में बनवाया था जो यूनाइटेड प्रोविंस का पहला लेफ्टीनेंट गवर्नर था. यह टावर 221 फीट या 67 मीटर ऊँचा है और शायद भारत का सबसे ऊँचा घंटाघर है. 


घंटाघर का उपरी भाग. ऑटो वाले ने बताया की ऊपर बैठी चिड़िया सोने की थी जो अंग्रेज जाते हुए उखाड़ कर ले गए ! 

बड़े इमामबाड़े का एक दृश्य  


बड़े इमामबाड़े का एक दृश्य 


बड़े इमामबाड़े के परिसर में बनी आसिफी मस्जिद 

बावली. बड़े इमामबाड़े के परिसर में नवाब आसफुद्दौला द्वारा बनवाई गई थी. कहावत है की यह गोमती नदी से जुड़ी हुई है 

बावली अब बंद कर दी गई है. कहा जाता है की इस बावली में नवाबी खजाने की चाबियाँ ले कर खजांची रस्तोगी कूद गया और चाबियाँ फिर कभी नहीं मिली. शायद खजाना अब भी वहीँ कहीं दबा हुआ हो? ट्राई करें?   

बावली की सीढियाँ. कुछ कमरे भी बने हुए हैं यहाँ जिनमें ऐसा कहा जाता है की किसी वक़्त मेहमान रुका करते थे खास तौर से गर्मियों में  

बड़े इमामबाड़े की छत से दिखता नज़ारा 


बड़ा इमामबाड़ा 


भूल भुलैय्या की एक एंट्री पर 


दिलकुशा कोठी. इस कोठी की ज्यादा जानकारी के लिए इस लिंक पर क्लिक करें: 

                            https://jogharshwardhan.blogspot.com/2022/11/blog-post.html

 

रेजीडेंसी. इस रेजीडेंसी की अधिक जानकारी के लिए इस लिंक पर क्लिक करें: 

            https://jogharshwardhan.blogspot.com/2022/11/blog-post_24.html




4 comments:

Harsh Wardhan Jog said...

https://jogharshwardhan.blogspot.com/2022/12/blog-post.html


Anonymous said...

Nice photos ...

Surjeet said...

आपने इस विषय को एक अद्वितीय दृष्टिकोण से प्रस्तुत किया है। मुझे यह बहुत प्रभावित करने वाला लगा है। मेरा यह लेख भी पढ़ें लखनऊ में घूमने की जगह

Harsh Wardhan Jog said...

Thank you Surjeet
I visited your site and find it very useful for travellers like me.
Wish you good luck.