लखनऊ जाएं तो बड़े इमामबाड़े को जरूर देखें. ये ऐतिहासिक इमामबाड़ा अवध के नवाब आसफुद्दौला( 1748 - 1797 ) ने 1784 में बनवाना शुरू किया था जो लगभग दस साल में बन कर तैयार हुआ. इस इमामबाड़े को बनाने में अंदाज़न पांच लाख से दस लाख तक का खर्चा आया था. बन जाने के बाद भी साज सज्जा पर और पांच लाख खर्चे गए थे. उन दिनों लखनऊ और आसपास भयंकर अकाल पड़ा था और इमामबाड़ा बनाने का शिया मुस्लिम नवाब का एक उद्देश्य ये भी था कि जनता जनार्दन को रोज़गार मिले ताकि गुजर बसर होती रहे. इमामबाड़े के साथ साथ वहां एक बड़ी मस्जिद और बावली भी बनाई गई थी.
ऐसा किस्सा बताया जाता है कि काम कर रहे मजदूरों को सुबह नाश्ते या निहारी में रोटी, और भेड़ या बकरे का मांस परोसा जाता था जिसके बाद वो काम पर लग जाते थे. कुछ ऐसे लोग भी थे जो दिन में सबके सामने मजदूरी करने में झिझकते थे. ऐसे लोगों के लिए नवाब का आदेश था कि वे अँधेरे में काम करेंगे. और काम भी क्या था कि जो दिन में बनाया गया हो वो उसे गिरा दिया जाए ! जनता को इस बहाने मदद मिल जाती थी. नवाब की दरियादिली के चलते ये कहावत भी चल पड़ी - जिसे ना दे मौला उसे दे आसफुद्दौला!
वैसे इमामबाड़ा एक धार्मिक स्थल है. इमामबाड़े का अर्थ है इमाम का घर. इमामबाड़ा एक हॉल के साथ लगी ईमारत है जहाँ लोग इमाम हुसैन और कर्बला के शहीदों के लिए शोक सभा या मजलिस लगाते हैं. शिया मुस्लिम छोटे छोटे इमामबाड़े घर में भी बनाते हैं. भारत में बहुत से इमामबाड़े हैं जिनमें से यह बड़ा इमामबाड़ा सबसे ज्यादा मशहूर है.
इमामबाड़े की लम्बाई 50 मीटर, चौड़ाई 16 मीटर और ऊंचाई 15 मीटर है. गुम्बद बनाने के लिए कोई बीम या लोहा इस्तेमाल नहीं किया गया है बल्कि मेहराबों का सहारे गोल छतें बनाई गई हैं. अपने किस्म का दुनिया का एक अनोखा भवन है. इसके इर्द गिर्द आठ चैम्बर अलग अलग ऊंचाई के हैं जिसके कारण ऐसी जगह मिल गई कि जिसमें बने कमरे तीन तलों में बनाए जा सके. इन कमरों में बने आले, खिड़कियाँ और दरवाज़े सब का नाप एक जैसा ही है. इन कमरों में लकड़ी के पल्ले या दरवाज़े नहीं है. कुल मिला कर यही कमरे भूल भुल्लैय्या बन गए. आम तौर पर अब पूरी बिल्डिंग को भूल भुल्लैय्या ही कहा जाता है. वैसे ये भूल भुल्लैय्या गुम्बद और हॉल का सपोर्ट सिस्टम ही है. छत पर जाने के लिए 1024 रास्ते हैं पर नीचे गेट पर आने के लिए दो ही हैं. फिलहाल काफी रास्ते बंद कर दिए गए हैं.
इमारत का नक्शा दिल्ली निवासी किफायतुल्ला बनाया था. इत्तेफाक देखिये कि ईमारत बनवाने वाला नवाब आसफुद्दौला और किफायतुल्ला दोनों यहीं दफनाए गए थे. अन्दर जाने के लिए टिकट है जिसमें गाइड की फीस भी शामिल है. हॉल के ऊपर भूल भुल्लैय्या जाने के लिए गाइड जरूरी है. कुछ फोटो प्रस्तुत हैं:
बड़े इमामबाड़े का एक दृश्य |
ऊँचे मेहराबों पर बनी मछलियाँ नवाबी प्रतीक हैं |
हॉल में रखा ताज़िया. यह हर साल बदल दिया जाता है |
हॉल में लगी नवाब वाजिद अली शाह की पेंटिंग |
छत पर जाने के लिए 84 पायदान वाली सीढ़ियां |
भूल भुल्लैय्या का एक दृश्य. चूँकि ये प्रार्थना घर भी है इसलिए जूते अलग से बाहर जमा कर के ही अन्दर जा सकते हैं. |
भूल भुल्लैय्या के कमरों और खिड़कियों में दरवाज़े या पल्ले नहीं हैं. इसलिए सभी कमरे एक जैसे ही लगते हैं और रास्ता भूल जाने का खतरा रहता है |
छत का एक दृश्य |
छत पर बनी एक मीनार |
पुरानी ईमारत की छत से दिखती शहर की एक आधुनिक ईमारत |
इमामबाड़ा परिसर में बनी एक मस्जिद. इसे आसफ़ी मस्जिद भी कहा जाता है क्यूंकि ये नवाब आसफुद्दौला ने बनवाई थी |
बहुत लोकप्रिय जगह है ये इसलिए छुट्टी वाले दिन मेला लग जाता है |
बावली के पास बनी ईमारत |
बावली |
कहा जाता है की बावली गोमती नदी से जुड़ी हुई थी और इसका पानी गोमती से आता था. |
बावली के तहखानों में ठंडक रहती थी इसलिए गर्मी में यहाँ रहने का भी इन्तेजाम था |
गर्मी से बचने के लिए अच्छी जगह |
बावली की दीवारों पर सुंदर काम |
कुआँ तो अब बंद कर दिया गया है. गाइड ने बताया की जब अंग्रेज हमलावर महल में घुस आए तो खजांची चाबियां ले कर बावली में कूद गया. उसके बाद चाबियों का कभी पता नहीं चला. |
1 comment:
https://jogharshwardhan.blogspot.com/2022/12/blog-post_29.html
Post a Comment