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Sunday 20 November 2022

दिलकुशा कोठी, लखनऊ

लखनऊ की बहुत सी ऐतिहासिक इमारतों में से एक है दिलकुशा कोठी. बहुत बड़े पार्क में बनी हुई इमारत कभी बहुत खुबसूरत और दिलकश रही होगी तभी इसका नाम दिलकुशा कोठी रखा गया था. लखनऊ कैंट के पास और गोमती नदी के किनारे बनी दिलकुशा कोठी की सैर अब भी दिल खुश कर देती है. 

दिलकुशा 1800 - 1805 में बनी और इसे अवध के नवाब सआदत अली खान ने बनवाया था. शुरू में यह शिकारगाह या फिर गर्मी से बचने की आरामगाह की तरह इस्तेमाल हुई थी क्यूंकि ये गोमती के किनारे थी. बाद में नवाब नसीरुद्दीन हैदर ( 1827 - 1837 ) ने भी इमारत में फेरबदल की. ईमारत के अंदर आँगन नहीं हैं जैसा की आम तौर पर होता था लेकिन ईमारत की उंचाई आम घरों के मुकाबले ज्यादा थी. 

दिलकुशा की खूबसूरती से प्रभावित हो कर इंग्लिश मंच अभिनेत्री मैरी लिनले टेलर ( Mary Linley Taylor 1889 - 1982 ) ने  जब अपना घर सोल दक्षिण कोरिया में बनाया तो अपने घर का नाम भी दिलकुशा रख दिया. इस बात का जिक्र इस किताब में है - 'Dilkusha By Ginkgo Tree: Our Seoul Home Beside Our Historic Tree by Bruce Tickell Taylor. 

ई एम् फोरस्टर की किताब 'अ पैसेज टू इंडिया' ( E M Forster - A Passage to India ) में भी दिलकुशा का जिक्र है.

बम्बैय्या फिल्म 'उमराव जान' में 1857 के लखनऊ के विद्रोह की झलक है हालांकि बैक ग्राउंड में है.   

1857 के स्वतंत्रता संग्राम में दिलकुशा कोठी का अहम् रोल रहा है. 10 मई 1857 की सुबह मेरठ में विद्रोह का बिगुल बज गया और शाम होते होते दिल्ली चलो का नारा बुलंद हो गया. इसकी खबर लखनऊ भी पहुंची और वहां भी चिंगारी सुलगाने लगी. अवध के नवाब वाजिद अली शाह को ईस्ट इंडिया कंपनी काफी पहले ही गिरफ्तार कर के कोलकोता भेज चुकी थी और अवध कब्जाने की तैयारी में थी. लोगों में इस बात को ले कर बहुत रंजिश थी. दूसरी बात थी की कम्पनी ने एनफील्ड राइफल फौजियों को बांटी. इसके कारतूस को मुंह से काट कर राइफल में भरना होता था. ऐसी खबर फ़ैल गई थी की कारतूस में गाय और सूअर की चर्बी लगी हुई थी. फ़ौज में और आम जनता में इसका बहुत सख्त विरोध हो रहा था. 

23 मई को ईद वाले दिन कुछ सिपाहियों और स्थानीय जनता ने फिरंगियों पर हमला बोल दिया. रेजीडेंसी, दिलकुशा और उन सभी ईमारतों पर जहाँ ईस्ट इंडिया कम्पनी के लोग थे, तोपों के गोले दाग दिए गए और घमासान शुरू हो गई. चार जून को सीतापुर में विद्रोह हो गया और उसके बाद फैजाबाद, दरियाबाद, सुल्तानपुर और आसपास फ़ैल गया. दस बारह दिनों में ही कम्पनी राज हवा हो गया. पर विद्रोही असंगठित थे, उनका एक लीडर ना हो कर कई थे और हथियार गोला बारूद की कमी थी और लोग अनुशासित नहीं थे. मार्च 1858 तक अंग्रेजी सेना फिर से लामबंद हो कर लखनऊ पर काबिज हो गई. 

दिलकुशा और रेजीडेंसी के खँडहर इतिहास बताने के लिए बच गए हालांकि यह इतिहास एक तरफ़ा ही है याने अंग्रेजों का ज्यादा है और स्वतंत्रता सेनानियों का कम.

दिलकुशा कोठी में प्रवेश सुबह आठ बजे से पांच बजे तक है और निशुल्क है. गाइड की व्यवस्था नहीं है. 

प्रस्तुत हैं कुछ फोटो:  


कोठी का निर्माण सन 1800 से 1805 के बीच हुआ था. अवध के नवाब सआदत अली खान ( 1752 - 1814 ) के समय में यह इमारत बनाई गई थी. सआदत का शासन काल 1798 - 1814 था और ये कोठी या 'महल' सआदत के ब्रिटिश दोस्त मेजर गोर ओसेली ( Gore Ouseley ) की देखरेख में बनवाया गया था. 
 
कोठी इंग्लिश बरोक ( English Baroque style ) की तर्ज़ पर बनाई गई थी और ये इंग्लैंड की एक इमारत सीटन डेलावल हॉल ( Seaton Delaval Hall, Northumberland ) से काफी मेल खाती है. 
 
दिलकुशा का निर्माण एक ख़ास किस्म की पतली छोटी इंटों से किया गया था जिसे लखौरी ईंटें कहते हैं. इन पतली इंटों की मदद से गोलाकार मोल्डिंग बनाई गई जो दूर से बहुत सुंदर लगती हैं. सीढ़ी के पायदान भी सरल से हैं जिन पर फुर्ती से चढ़ा जा सकता है. 

 बताया जाता है कि अंदर यूरोपियन स्टाइल में गोल घुमावदार सीढ़ियाँ हुआ करती थीं 

 
पुरातत्व विभाग द्वारा इन इमारतों का रख रखाव किया जा रहा है 


इस तरह लोहे के कई बेंच बगीचे में हैं. पता नहीं लगा ये कितने पुराने हैं. अलग ही स्टाइल के हैं ये

बेंच में बनी आकृति अंग्रेजी स्टाइल में है


बेंच के पैर भी जानवर के खुर की तरह हैं !


बड़ी बड़ी खिड़कियाँ और दरवाज़े हैं पर अन्दर आँगन नहीं है


यूरोपियन स्टाइल 


तहखाने का रास्ता 


दिलकश दिलकुशा  



11 comments:

Harsh Wardhan Jog said...

https://jogharshwardhan.blogspot.com/2022/11/blog-post.html

Sunil said...

Excellent

Manish said...

thanks.....this is a new style to tell History.

Meena Bhardwaj said...

ऐतिहासिक जानकारी लिए सुन्दर पोस्ट ।

Kamini Sinha said...

सादर नमस्कार ,

आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल मंगलवार (22-11-22} को "कोई अब न रहे उदास"(चर्चा अंक-4618) पर भी होगी। आप भी सादर आमंत्रित है,आपकी उपस्थिति मंच की शोभा बढ़ायेगी।
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कामिनी सिन्हा

Abhilasha said...

ऐतिहासिक और ज्ञानवर्धक जानकारी के लिए आपका आभार

Harsh Wardhan Jog said...

धन्यवाद अभिलाषा

Harsh Wardhan Jog said...

धन्यवाद कामिनी सिन्हा. चर्चा अंक 4618 पर भी विजिट होगी.

Harsh Wardhan Jog said...

धन्यवाद Meena Bhardwaj.

Harsh Wardhan Jog said...

धन्यवाद Manish.

Harsh Wardhan Jog said...

धन्यवाद Sunil