- आलू-ऊ टमा-टर!
- ताज़े अमरुद! अलाबाद के पेड़े!
- दरियां ले लो चद्दर ले लो!
पर ज्यादातर मैदान साफ़ मिलता है. बुधवार को यहाँ बाज़ार लगता है उस वक़्त काफी चहल पहल हो जाती है. सामान नीचे जमीन पर या तिरपाल बिछा कर सजा दिया जाता है. या फिर भैंसा गाड़ी, घोड़ा बुग्गी में ही रखा रहता है. दो तीन दुकानें तो लोहे के सामान की होती हैं जिसमें खुरपे, दराती, फावड़े, तसले और टोकरियाँ बिकती हैं. दो तीन दुकानें मिट्टी के घड़े, हंडिया, गमले, चिलम वगैरा की होती हैं, दो एक सस्ती चप्पल जूते, कपड़ों और सस्ती प्लास्टिक की चीज़ों की होती है. एक दो जड़ी बूटी और मसालों की होती है. गाँव में जिन चीज़ों का प्रचलन है वो सभी यहाँ मिल जाती है. इन्हीं दुकानों में से एक लोहार वाली दूकान में शरबती भी बैठती है या कई बार उसका पिता बैठा होता है.
छोटा सा क़स्बा है और जनता जनार्दन कम है इसलिए ब्रांच भी छोटी है. अधिकारी, खजांची और क्लर्क तीनों फटफटिया पर शहर से आते हैं. केवल नरेश चपड़ासी लोकल है. पक्की नौकरी होने के कारण नरेश का यहाँ काफी मान सम्मान है. बैंक में लोगों के खाते खुलवाता रहता है और आस पास के लोन लेने वालों को ढूंढ निकालता है. नरेश ने ही शरबती का खाता खुलवाया था जो अब अपने पिता के साथ शिकायत लेकर आई है.
- मनीजर साब यो नरेस को म्हारी छोरी ने पिछले महीने एक एक हजार दिए दो बार जमा कराण को दिए. अब लो खाते में ना चढ़े. कई दिन हो गे नज़र भी ना आता, ना बैंक में ना गाँव में. परेसान हो लिए हम तो. आप तो म्हारे पैसे दे दो जी.
- कोई रसीद दी थी उसने?
- न जी, शरबती बोली.
- तुम खुद जमा करा दिया करो. तुम क्यूँ नहीं करती?
- ना जी मैं ना आती बैंक. सरम सी लगै.
- अभी छुट्टी पर है नरेश. सोमवार आएगा तो उससे पूछते हैं.
- ना जी हम तो बुध को आएँगे. बजार में तसले फावड़े की दूकान लगती है जी म्हारी. सुसरा कई सामान भी ले चुक्या है उधारी में. उसका भी हिसाब करणा है.
बुधवार को ब्रांच में शोर मच गया. शरबती, उसके पिता और नरेश की खूब गरमा गर्मी हो गई. इस बहस में नया राज़ भी खुल गया. शरबती का पिता गुस्से में नरेश को बोल रहा था,
- दो हजार नकद अर औजारन के पैसे तुरंतई दे दे या फेर सरबती से सादी की हाँ भर दे. नहीं तो मेरा फावड़ा अर तेरा सिर!
मुश्किल से बीच बचाव कर के छुड़वाया दोनों को. चार बजे नरेश को बुला कर डांट लगाई,
- तुम्हारी वजह से बैंक में शोर शराबा हो रहा है और बैंक का नाम बदनाम हो रहा है. बोलो ससपेंड करूँ या ट्रान्सफर?
- ना ना साब जी. दो हजार गुप्ता जी से लेकर उसे वापिस कर दिए हैं जी. बाकी भी कल परसों कर दूंगा जी. अब ना सरबती आएगी जी ना उसका बाप.
- और तुमने जो शादी की बात थी?
- सादी तो जी संतोस से तय हो गई.
- संतोष से? तुमने तो शरबती को वादा किया था? दो दो करनी हैं क्या?
- ना साब जी. एकी सादी करनी है जी. संतोस के पास तो मन लगै है जी.
- और शरबती को भी कह दिया शादी करूँगा ?
- सरबती तो ठीक है लड़की जी. उस के बाप के पास पैसे भी हैं जी पर आदमी ठीक ना है.
वाह गजब का लॉजिक! इस पर चाँद लाइनें याद आ गईं शायद निदा फज़ली की हैं,
कभी किसी को मुकम्मल जहां नहीं मिलता,
कहीं ज़मीं तो कहीं आसमां नहीं मिलता.
5 comments:
https://jogharshwardhan.blogspot.com/2020/07/blog-post_25.html
इंसाँ की चाहतों की कोई इंतहा नहीं।
दो गज जमीं भी चाहिये,दो गज कफन के साथ।।
दोनों हाथों मे लड्डू चाहिये एक में शरबती
और दूजे में सन्तोष - इस चक्कर में बिचारी शरबती
देहोश।। अच्छा प्रसंग है। धन्यवाद।
धन्यवाद Saxena जी. सही है की इन्सान की चाहतों की कोई इन्तेहाँ नहीं.
बहुत सुन्दर।
आप अन्य ब्लॉगों पर भी टिप्पणी किया करो।
तभी तो आपके ब्लॉग पर भी लोग कमेंट करने आयेंगे।
धन्यवाद डॉ रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'.
आपकी बात मैंने नोट कर ली.
दरअसल मैं अंग्रेजी में पूरा का पूरा लेख फेसबुक में डाल दिया करता था. सुझाव मिले की ब्लॉगर में डालें तो बिटिया की सहायता से ब्लॉगर बनाया. अब मैं ब्लॉगर का रूप रंग बदलना चाहता हूँ तो मुझ से हो नहीं पाता. अलग अलग वेबसाइट ढूंढना और ब्लॉग देखना पढना और कमेंट करना मेरे से हो नहीं पाता. Google+ जाने के बाद समझ में नहीं आया की कैसे ब्लॉग को आगे बढ़ाया जाए. फिर भी मैं यह तरीका भी अपनाऊंगा.
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