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Wednesday, 16 August 2017

गौतम का गृह त्याग

गौतम बुद्ध का जन्म ईसापूर्व 563 में लुम्बिनि में हुआ था. उनका नाम सिद्धार्थ रखा गया था और चूँकि गोत्र गौतम था इसलिए सिद्धार्थ गौतम कहलाए. सिद्धार्थ कपिलवस्तु राज्य के राजकुमार थे जो शाक्य वंश का राज्य था और राजकुमार सिद्धार्थ गौतम के पिता शुद्धोधन वहां के राजा थे. सिद्धार्थ को बचपन में राजकुमारों जैसी शिक्षा दीक्षा दी गई. उन्हें अस्त्र शास्त्र का ज्ञान दिया गया और अभ्यास भी कराया गया. राजकुमार की शादी 18 वर्ष की आयु में एक स्वयंवर में यशोधरा से हुई जो 16 वर्ष की थी. राजकुमार सिद्धार्थ गौतम के लिए पिता शुद्धोधन ने तीन महल बनवा दिए थे एक सर्दी के लिए, दूसरा गर्मी के लिए और तीसरा वर्षा ऋतु के लिए. स्वस्थ, सुंदर और नौजवान दास दासियाँ उनकी सेवा में रहती ताकि राजकुमार को किसी भी तरह का कष्ट ना हो ना ही कोई कष्ट से पीड़ित इंसान देखने को मिले. उनके बारे में भविष्यवाणी की गई थी कि या तो वे चक्रवर्ती राजा बनेंगे या फिर बहुत बड़े संत.

गौतम बुद्ध के जीवन के बारे में इस तरह के लेख स्कूलों और अन्य किताबों में आम हैं. कुछ ऐसी घटनाओं का भी वर्णन है जिनके कारण सिद्धार्थ के मन में विरक्ति जागी और वो राज पाट, महल और परिवार छोड़ कर सत्य की खोज में निकल पड़े. यूँ तो सिद्धार्थ विलासिता में रहते थे पर जब अपने रथ पर सवार होकर महल से बाहर निकले तो चार ऐसे दृश्य उन्हें देखने को मिले जिन्हें देख कर सिद्धार्थ को लगा की शरीर और जीवन नश्वर ही है और दुःख से पूर्ण है.

* पहली घटना में राजकुमार सिद्धार्थ को एक बूढ़ा व्यक्ति दिखाई पड़ा जिसकी कमर झुकी हुई थी और चेहरे पर झुर्रियां पड़ी हुई थीं. राजकुमार को आश्चर्य हुआ और उन्होंने अपने रथवान चन्ना से पूछा कि ये मनुष्य ऐसा क्यूँ है? चन्ना ने बताया कि सभी मनुष्य बूढ़े होते हैं और ऐसा सभी के साथ होता. राजकुमार का मन ये सोच कर खिन्न हो गया की मैं भी ऐसा हो जाउंगा?

* दूसरे दृश्य में उन्हें एक बीमार व्यक्ति दिखा जो पीड़ा से कराह रहा था. राजकुमार ने दुखी मन से रथवान से पुछा तो चन्ना ने बताया बीमारी तो किसी भी मनुष्य को लग सकती है और इसी तरह पीड़ा दे सकती है.

* तीसरी यात्रा में राजकुमार को एक शव दिखा. इस बार भी चन्ना ने जवाब दिया कि मृत्यु तो एक ना एक दिन सभी की होती है और मृत शरीर ऐसा ही हो जाता है. इन तीन अप्रिय घटनाओं को देखकर राजकुमार का मन बड़ा दुखी हुआ.

* चौथी बार उन्हें एक संतुष्ट सन्यासी दिखा. राजकुमार को लगा की सन्यासी दुःख तकलीफों से छुटकारा पा चुका है और खुश है. अगर वह स्वयं भी इसी तरह सन्यास धारण कर लें तो अप्रिय दुखों से बच जाएगें.

इन घटनाओं के अतिरिक्त एक और घटना का जिक्र डॉ भीम राव अंबेडकर की पुस्तक 'भगवान् बुद्ध और उनका धम्म' में है जो काफी हद तक तर्क संगत लगती है. इस घटना का संक्षिप्त वर्णन इस प्रकार है. बौद्ध कालीन उत्तरी भारत में राजनीति और शासन कैसे चलता था इसके बारे में जानकारी कम है. इतिहासकारों के अनुसार कुछ राज्य बड़े थे और जनपद कहलाते थे जैसे की काशी, कौशल, मगध इत्यादि. वहां राजा थे और वंश के आधार पर राज करते थे. कुछ संघ या गण कहलाते थे जो छोटे थे और शायद वहां कुलीन घराने राज करते थे. ये संघ या गण किसी न किसी जनपद के राजा के आधीन हुआ करते थे.

शाक्यों का संघ कपिलवस्तु भी कुछ ऐसा ही छोटा संघ रहा होगा. कपिलवस्तु की सीमा से लगा हुआ एक और संघ कोलियों का था. इस कोलियों का संघ रामगाम कहलाता था. ये दोनों संघ कौशल राजा के आधीन कहे जाते थे. इन दोनों राज्यों  के बीच रोहिणी नदी थी जो एक सीमा रेखा थी. नदी का पानी शाक्य और कोली दोनों ही खेती के लिए इस्तेमाल करते थे पर यदा कदा पानी के उपयोग को लेकर दोनों पक्ष आपस में झगड़ भी पड़ते थे. आरोप प्रत्यरोप लगाते की पानी का ज्यादा उपयोग दूसरे पक्ष ने कर लिया.

ऐसे ही एक झगड़े की सूचना एक दिन कपिलवस्तु के दरबार में पहुंची कि नदी के पानी को लेकर दोनों ओर के लोग झगड़ पड़े हैं और हताहत भी हुए हैं. इस पर शाक्य सेनापति ने शाक्य संघ की मीटिंग बुलाई जिसमें सिद्धार्थ गौतम भी शामिल हुए. सेनापति ने घटना के बारे में सूचना दी और कोलियों पर आक्रमण करने का प्रस्ताव किया. इस पर राजकुमार सिद्धार्थ ने युद्ध का विरोध किया और कहा,

- युद्ध से समस्या का हल नहीं होगा. इससे एक नए युद्ध का बीजारोपण हो जाएगा. जो किसी की हत्या कर देता है उसकी हत्या करने कोई और आ जाता है, जो किसी को लूटता है उसे लूटने कोई और आ जाता है. अवैर से ही वैर शांत हो सकता है.

परन्तु सेनापति का आक्रमण का प्रस्ताव बहुमत से मान लिया गया जबकि सिद्धार्थ का फलसफा भरा प्रस्ताव नहीं माना गया. युद्ध की घोषणा हो जाने के बाद युद्ध का विरोध करना दण्डनीय अपराध था. अब युद्ध के विरोधी होने के कारण सिद्धार्थ के लिए कठिन स्थिति पैदा हो गई. अब तो सामने तीन रास्ते थे,
- युद्ध में भाग लेना अन्यथा,
- फांसी पर लटकना या देश निकाला स्वीकार करना या फिर
- परिवार का बहिष्कार सहना और खेत खलिहान से भी हाथ धोना.

राजकुमार सिद्धार्थ ने संघ को सूचित किया की वे युद्ध में भाग नहीं लेंगे चाहे जो भी सजा दे दी जाए - फांसी या देश निकाला. साथ ही राजकुमार सिद्धार्थ का ये निर्णय अपना है इसलिए परिवार को इसमें कोई दोष नहीं दिया जाए. परिवार को जीवन निर्वाह के लिए खेती बाड़ी जरूरी है उसे ना कब्जाया जाए.

सेनापति को फांसी या देश निकाला ही ठीक लगा पर इस सज़ा पर अमल करना बड़ा मुश्किल काम था. कौशल नरेश को भी अपनी कारवाई के बारे में जवाब देना होगा. फिर सिद्धार्थ साधारण व्यक्ति नहीं थे और उनके जनता जनार्दन से मधुर सम्बन्ध थे और वे सभी सिद्धार्थ का साथ दे सकते थे. इतने लोगों के साथ होने से कोई अप्रिय घटना भी हो सकती थी. सिद्धार्थ ने स्थिति को भांपते हुए सेनापति से कहा,
- इस पर भी अगर कठिनाई है तो मैं संन्यास ले लेता हूँ और परिव्राजक बन जाता हूँ और देश के बाहर चला जाता हूँ. यह भी तो देश निकाला ही है.
सेनापति को संदेह था की बिना माता, पिता और पत्नी की अनुमति के ये भी नहीं हो पाएगा. सिद्धार्थ ने विश्वास दिलाया की अनुमति मिले या ना मिले देश छोड़ दूंगा. इस आश्वासन पर सेनापति और संघ ने सिद्धार्थ की बात मान ली.

लेकिन सिद्धार्थ के माता पिता सिद्धार्थ के सन्यास के प्रस्ताव के लिए बिलकुल तैयार नहीं थे. उनका कहना था कि इससे तो अच्छा है कि पूरा परिवार शाक्य देश छोड़कर कौशल जनपद में चला जाए. सिद्धार्थ ने ये बात नहीं मानी क्यूंकि ऐसी स्थिति लाने के लिए वे स्वयं को जिम्मेवार मानते थे. उधर पत्नी यशोधरा ने सिद्धार्थ के निर्णय का समर्थन तो किया परन्तु नवजात पुत्र राहुल के कारण साथ जाने के लिए तैयार नहीं हुई. सिद्धार्थ अपने फैसले पर अडिग रहे.

सिद्धार्थ अपने रथवान चन्ना के साथ भारद्वाज ऋषि के आश्रम पहुंचे जहां पर तब तक भारी भीड़ जमा हो चुकी थी. वहां उन्होंने सिर मुंडवाया क्यूंकि संन्यास के लिए आवश्यक था. पुराने वस्त्र उतार कर चन्ना को दिए और भिक्खुओं जैसे वस्त्र पहन लिए. एक भिक्षा पात्र हाथ में ले लिया. भारद्वाज ने संस्कार पूरे करके सिद्धार्थ को सन्यासी घोषित कर दिया.
सजा का पहला भाग पूरा हो गया अब दूसरे भाग में सन्यासी सिद्धार्थ को देश छोड़कर बाहर जाना था. राजकुमार ने माता, पिता, पत्नी और कपिलवस्तु की जनता से विदा ली और अनोमा नदी की ओर प्रस्थान किया. पीछे पीछे जनता भी चली तो उन्हें देख कर सिद्धार्थ ने उनसे कहा,

- भाइयों और बहनों मेरे पीछे आने से क्या लाभ? मैं शाक्यों और कोलियों के बीच झगड़ा ना निपटा सका. लेकिन यदि तुम समझौते के लिए जनमत तैयार कर लो तो तुम सफल हो सकते हो. कृपा कर के वापिस लौट जाओ.

गृह त्यागने के समय राजकुमार सिद्धार्थ गौतम की आयु 29 वर्ष थी.  

शाक्यमुनि 

  

1 comment:

Harsh Wardhan Jog said...

https://jogharshwardhan.blogspot.com/2017/08/blog-post_16.html