रुसी भाषा के साहित्य में मेरी काफी रूचि थी और अब भी है. रुसी भाषा के पुराने लेखक जैसे की टॉलस्टॉय, दोस्तोयेव्स्की, गोर्की, चेखोव और तुर्गनेव की कहानियां और नावेल बड़े शौक से पढ़े हैं. पुराने स्टॉक में से यदा-कदा कोई किताब निकाल कर पढ़ता हूँ तो अब भी आनंद आता है.
बैंक में नौकरी लगने के बाद संसद मार्ग ब्रांच में पोस्टिंग मिली. वहां से हाउस ऑफ़ सोवियत कल्चर नजदीक ही था. पैदल ही फ़िरोज़ शाह रोड तक 10 - 12 मिनट में पहुँच जाते थे. पता लगा की वहां एक अच्छी लाइब्रेरी है और रुसी भाषा भी पढ़ाई जाती है तो मैंने जून 1977 में सर्टिफिकेट कोर्स ज्वाइन कर लिया. हफ्ते में दो या तीन लेक्चर शाम को होते थे जो आराम से अटेंड किया जा सकते थे.
लाइब्रेरी में रुसी साहित्य के अलावा थोड़ा बहुत मार्क्स और एंगल्स की किताबों का भी अध्ययन किया. रुसी किताबें बड़ी सस्ती हुआ करती थीं. छपाई और सिलाई भी बहुत उम्दा होती थी. रुसी भाषा पढ़ने वालों को बहुत सी किताबें मुफ्त दे दी जाती थी जो अब तक भी पड़ी हुई हैं. अब ये सब पढ़ने के बाद दोस्तों यारों से बहस होना भी स्वाभाविक था. उधर बैंक में यूनियन भी कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ़ इंडिया से सम्बंधित थी तो वहां भी किसी न किसी से मार्क्सवाद को लेकर अक्सर भिड़ंत हो जाती थी. खास तौर से जनसंघियों से.
संसद मार्ग में उन दिनों कामरेड विरवानी या 'दादा' विरवानी से भी अक्सर बातचीत होती रहती थी. कामरेड विरवानी सी पी आई के कार्ड होल्डर याने पक्के सदस्य थे. उन्होंने और लोगों से याने और वामपंथियों से भी मिलवाया. इस दौरान जुलाई 1979 में सोवियत यूनियन जाने का मौका मिला. ताशकंद, लेनिनग्राद और मास्को की 45 दिन की यात्रा की. और इसके बाद नवम्बर 1979 में ऑफिसर की प्रमोशन हो गयी.
कामरेड विरवानी ने सितम्बर 1979 में कम्युनिस्ट पार्टी में शामिल होने का निमंत्रण दिया. सदस्य बनने की बहुत ज्यादा इच्छा तो नहीं थी पर मैं पार्टी वालों से मिलने को तैयार था. कार्ड होल्डर बनने का अगला कदम उसके बाद देखा जाएगा. पार्टी कार्ड कौन सा जल्दी मिलता था दो साल के प्रोबेशन के बाद मिलता था. प्रमोशन ली जाए या की पॉलिटिक्स की जाए ये भी एक सवाल विचारणीय था.
एक शाम बैंक से निकल कर हम दोनों ने बस पकड़ी और दरयागंज उतरे. वहां से उर्दू बाज़ार पैदल पहुंचे और सीढियाँ चढ़ कर पहले माले के एक कमरे में दाखिल हुए. कुछ लोग बैठे हुए थे जिनमे कामरेड एस पी नंदा भी थे जो बैंक से ही थे और जिन्हें मैं पहले मिल चुका था. बाकी सभी मेरे लिए नए थे - कामरेड फारुकी, कामरेड प्रेम सागर गुप्ता, कामरेड मन्ना और कुछ अन्य. सभी 55 - 60 से ऊपर और केवल मैं 30 के नीचे.
कुछ महीनों बाद महसूस हुआ कि भारत की सभी पार्टियों, यूनियन, क्लब वगैरा का यही हाल है. बूढ़े खूसट अपनी सीट छोड़ने को तैयार ही नहीं होते ना ही नए विचार सुनने को तैयार होते हैं. पता नहीं कब 45 - 50 साल का प्रधान मंत्री देखने को मिलेगा. राजीव गाँधी शायद 40 के थे जब प्रधान मंत्री बने पर उनका आना और जाना कुछ विशेष परिस्थितियों में हुआ. बदलाव की बात तो की, कंप्यूटर भी लाए और 5-डे वीक शुरू करवा दिया पर ज्यादा बदलाव नहीं आया.
खैर, परिचय होने के बाद कामरेड फारुकी ने कामरेड विरवानी को कहा की नए आदमी को आप बिना सूचना दिए मीटिंग में ले आये. मैंने कहा की मैं बाहर बैठता हूँ आप लोग इस मुद्दे पर बात करके मुझे बता दें. पर कामरेड विरवानी और नंदा के ये कहने पर की नए रंगरूट की वे दोनों गारंटी लेते हैं, मामला शांत हो गया.
और इस तरह कम्युनिस्ट पार्टी की किसी मीटिंग में पहली बार भाग लिया जो फीकी सी रही.
बैंक में नौकरी लगने के बाद संसद मार्ग ब्रांच में पोस्टिंग मिली. वहां से हाउस ऑफ़ सोवियत कल्चर नजदीक ही था. पैदल ही फ़िरोज़ शाह रोड तक 10 - 12 मिनट में पहुँच जाते थे. पता लगा की वहां एक अच्छी लाइब्रेरी है और रुसी भाषा भी पढ़ाई जाती है तो मैंने जून 1977 में सर्टिफिकेट कोर्स ज्वाइन कर लिया. हफ्ते में दो या तीन लेक्चर शाम को होते थे जो आराम से अटेंड किया जा सकते थे.
लाइब्रेरी में रुसी साहित्य के अलावा थोड़ा बहुत मार्क्स और एंगल्स की किताबों का भी अध्ययन किया. रुसी किताबें बड़ी सस्ती हुआ करती थीं. छपाई और सिलाई भी बहुत उम्दा होती थी. रुसी भाषा पढ़ने वालों को बहुत सी किताबें मुफ्त दे दी जाती थी जो अब तक भी पड़ी हुई हैं. अब ये सब पढ़ने के बाद दोस्तों यारों से बहस होना भी स्वाभाविक था. उधर बैंक में यूनियन भी कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ़ इंडिया से सम्बंधित थी तो वहां भी किसी न किसी से मार्क्सवाद को लेकर अक्सर भिड़ंत हो जाती थी. खास तौर से जनसंघियों से.
संसद मार्ग में उन दिनों कामरेड विरवानी या 'दादा' विरवानी से भी अक्सर बातचीत होती रहती थी. कामरेड विरवानी सी पी आई के कार्ड होल्डर याने पक्के सदस्य थे. उन्होंने और लोगों से याने और वामपंथियों से भी मिलवाया. इस दौरान जुलाई 1979 में सोवियत यूनियन जाने का मौका मिला. ताशकंद, लेनिनग्राद और मास्को की 45 दिन की यात्रा की. और इसके बाद नवम्बर 1979 में ऑफिसर की प्रमोशन हो गयी.
कामरेड विरवानी ने सितम्बर 1979 में कम्युनिस्ट पार्टी में शामिल होने का निमंत्रण दिया. सदस्य बनने की बहुत ज्यादा इच्छा तो नहीं थी पर मैं पार्टी वालों से मिलने को तैयार था. कार्ड होल्डर बनने का अगला कदम उसके बाद देखा जाएगा. पार्टी कार्ड कौन सा जल्दी मिलता था दो साल के प्रोबेशन के बाद मिलता था. प्रमोशन ली जाए या की पॉलिटिक्स की जाए ये भी एक सवाल विचारणीय था.
एक शाम बैंक से निकल कर हम दोनों ने बस पकड़ी और दरयागंज उतरे. वहां से उर्दू बाज़ार पैदल पहुंचे और सीढियाँ चढ़ कर पहले माले के एक कमरे में दाखिल हुए. कुछ लोग बैठे हुए थे जिनमे कामरेड एस पी नंदा भी थे जो बैंक से ही थे और जिन्हें मैं पहले मिल चुका था. बाकी सभी मेरे लिए नए थे - कामरेड फारुकी, कामरेड प्रेम सागर गुप्ता, कामरेड मन्ना और कुछ अन्य. सभी 55 - 60 से ऊपर और केवल मैं 30 के नीचे.
कुछ महीनों बाद महसूस हुआ कि भारत की सभी पार्टियों, यूनियन, क्लब वगैरा का यही हाल है. बूढ़े खूसट अपनी सीट छोड़ने को तैयार ही नहीं होते ना ही नए विचार सुनने को तैयार होते हैं. पता नहीं कब 45 - 50 साल का प्रधान मंत्री देखने को मिलेगा. राजीव गाँधी शायद 40 के थे जब प्रधान मंत्री बने पर उनका आना और जाना कुछ विशेष परिस्थितियों में हुआ. बदलाव की बात तो की, कंप्यूटर भी लाए और 5-डे वीक शुरू करवा दिया पर ज्यादा बदलाव नहीं आया.
खैर, परिचय होने के बाद कामरेड फारुकी ने कामरेड विरवानी को कहा की नए आदमी को आप बिना सूचना दिए मीटिंग में ले आये. मैंने कहा की मैं बाहर बैठता हूँ आप लोग इस मुद्दे पर बात करके मुझे बता दें. पर कामरेड विरवानी और नंदा के ये कहने पर की नए रंगरूट की वे दोनों गारंटी लेते हैं, मामला शांत हो गया.
और इस तरह कम्युनिस्ट पार्टी की किसी मीटिंग में पहली बार भाग लिया जो फीकी सी रही.
नया सबक |
1 comment:
https://jogharshwardhan.blogspot.com/2015/08/blog-post_5.html
Post a Comment