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Thursday, 31 August 2017

विपासना शिविर में तीसरा दिन

तीसरे दिन सुबह चार बजे दरवाज़े के पास फिर घंटी बजने लग गई. पर इस बार देर नहीं की और तुरंत बिस्तर छोड़ दिया. ठन्डे पानी में गोता भी मार लिया और साढ़े चार बजे की घंटी से पहले ही मैडिटेशन हाल में अपने आसन पर विराजमान हो गए. आज मन बना लिया था कि साढ़े चार से साढ़े छे बजे तक के( पांच मिनट का ब्रेक है बीच में ) जो दो सेशन होते हैं वो दोनों सीरियसली करने हैं. पहला सेशन बेहतर रहा काफी देर तक मन को सांस पर जमाए रखने में सफलता मिली. पर मन की भटकन बीच बीच में आती रही. पर अब ऐसा आभास हुआ कि लगातार अभ्यास अगर किया जाए तो मैडिटेशन किया जा सकता है. ब्रेक के बाद दूसरा सेशन ज़रा ढीला चला. जो भी कारण रहा हो ध्यान बार बार हट रहा था और मन को खींच कर सांस पर लाना पड़ रहा था.

साढ़े छे के बाद एक घंटे का अवकाश नाश्ते वगैरा का था. जल्दी से पहले कपड़े धो लिए और फिर डाइनिंग हॉल में पहुंचे. आज नाश्ता ज्यादा नहीं लिया ताकि बाद में लगातार बैठने में असुविधा ना हो. नाश्ते के समय भी किसी से बात नहीं करनी थी इसलिए अपनी थाली लेकर दीवार की तरफ मुंह करके चुपचाप खा लिया. प्लेट, कटोरी, चम्मच और गिलास खुद ही धोने होते हैं सो धोकर रख दिए और बाहर आकर दस मिनट की चहलकदमी की.

ये सैर भी परिसर के अंदर ही करनी होती है इसलिए शांतिपूर्वक हरी हरी घास देखते हुए की. इस सैर में ख़याल आया कि यहाँ का खाना सादा सा है मिर्च मसाले हैं नहीं और तला हुआ कुछ भी नहीं है पर फिर भी अच्छा लग रहा है. घर में मिर्च्च ज्यादा डल जाए या मनपसन्द चीज़ ना बने तो कैसे बवाल होता है. घर में कभी बर्तन धोये नहीं यहाँ बर्तन भी अच्छी तरह चमका के धो दिए. बर्तन धोकर रखे भी इस तरह की आवाज़ ना हो. आश्रम में लगभग सौ से ज्यादा लोग थे पर कोई आवाज़ नहीं थी. केवल बीच बीच में चिड़ियों की आवाजें आती थी. अपने आप से बात करने का अच्छा मौका था. कभी इस तरह से स्वयं से बात की भी नहीं थी याने अपने आप से ही अनजान?

शायद हर धर्म में कहा गया है कि अपने को पहचानो पर पढ़ कर या सुनकर ये बात वहीं ख़तम हो जाती है. फुर्सत कहाँ है और कौन कोशिश करता है अपने को पहचानने की ?  यहाँ तो अखबार भी नहीं था, टीवी या रेडियो भी नहीं था तो पूरी शान्ति थी. मैच कौन जीता या मैच हुआ भी या नहीं ये भी नहीं पता. किसी से बहस नहीं, बात नहीं तो और ज्यादा शांति. मन में आया कि इस तरह से भी तो शान्ति के साथ घर में भी तो रहा जा सकता है. पर हम चाहें और निश्चय कर लें तभी ना! बच्चों का फोन नहीं आया और ना ही आ सकता था. हमने भी फोन नहीं किया ना ही कर सकते थे. मतलब की यहाँ मेरी दुनिया में मैं हूँ और बच्चे अपनी दुनिया में हैं. ये भी भ्रम टूटने लगा की उन्हें हमारी जरूरत है या हमें उनकी जरूरत है. फिर भी मन में उथल पुथल तो जारी रही.

दस मिनट के लिए कमरे में जाकर कमर सीधी की तो देखा कि दूसरे सज्जन जो मेरे साथ पार्टनर थे सामान समेत जा चुके हैं. अब पूछें किससे और बताएं किसको? 50-55 की उमर रही होगे रात को गोली खाकर सोते थे और उनकी खिड़की में तीन तरह की दवाई की शीशियाँ रखी हुई थी जो अब नहीं थी. बहरहाल यहाँ के नियमानुसार हमारी वार्तालाप भी नहीं हुई थे. उसके बाद कभी मुलाकात भी नहीं हुई. कोर्स की समाप्ति के बाद जानकारी मिली कि कुछ लोग कोर्स बीच में ही छोड़ कर चले भी जाते हैं. तीसरा और चौथा दिन महत्वपूर्ण दिन है और कहा जाए की साधक के परीक्षा के दिन हैं तो ठीक रहेगा.

पर हमने तो ठान लिया था की पूरे दस दिन लगाने हैं और बिना घबराए अच्छे से लगाने हैं. अपने को कुछ तो नए वातावरण में ढाल लिया था और आगे भी ढाल लेंगे. तीनों दिन असुविधा भी हो रही थी और जो होनी ही थी. और ऐसा भी लगा कि तीन दिन में ऐसी कोई क्लास नहीं हुई जिसमें बुद्ध और उनके मार्ग के बारे में कुछ बताया गया हो. दिन के अभ्यास के अंत में गोयनका जी का वीडियो भाषण होता है उसी में दिन की कारवाई पर चर्चा होती  है और अगले दिन के लिए इशारा कर दिया जाता है.  लेकिन बाद में जो जब दूसरा शिविर किया और बीच में पढ़ाई भी की तो समझ में आया की हमने यहाँ आकर क्या किया. ये भी विचार आया की अपने कपड़े, खाने, और रहने के तौर तरीके बदल कर खुद को भी बदला है. ये कदम मन की शांति की ओर ले जाने वाले कदम हैं, सरल जीवन की ओर जाने वाले कदम हैं.

सबका मंगल होए 



Tuesday, 29 August 2017

विपासना शिविर में दूसरा दिन

घंटी की आवाज़ से पता लगा की सुबह के चार बज गए हैं और अब उठ जाना ही ठीक है. अगर बिस्तर छोड़ कर लाइट नहीं जलाई तो दरवाज़े के बाहर घंटी बजाने वाला सेवादार घंटी बजाना बन्द नहीं करेगा. इसके बाद साढ़े चार बजे घंटी फिर बजेगी और कहेगी 'पधारो मैडिटेशन हॉल में' ! अगर तो आप स्वेच्छा से और स्वाभाविक रूप से पहली घंटी की आवाज़ से उठ जाते हैं तो बहुत ही अच्छी बात है और अगर नहीं तो शायद आपको थोड़ा बहुत लगाव है नींद से. ये लगाव या राग आगे जाने में रुकावट है और इसे त्यागना होगा. मुझे लगता है कि धीरे धीरे त्यागा भी नहीं जाता एक झटके में ही त्यागना ठीक रहता है.

असल में शिविर में आने से पहले रहने-सहने, खाने-पीने और सोने का एक स्टाइल था. ये स्टाइल गलत था या सही वो तो अलग बात है पर जो भी था हम तो उसी के ही गुण गाते थे और उसे ही सही बताने का यतन भी करते थे. भाई मैं तो ग्यारह बजे से पहले सो नहीं सकता और सात बजे से पहले उठ नहीं सकता. मैं सही हूँ और नहीं बदल सकता बस यही अटल सत्य है ! बहरहाल यहाँ आकर अटल सत्य का भ्रम या नींद का लगाव टूट गया और नींद से प्रेम में कमी हो गई है.

वैसे तो दिन भर का काम तो हल्का ही था कौन से हल चलाने थे. मैडिटेशन हॉल में अपने आसन पर बैठना और बैठकर फिर से सांस को देखना है. पर जब करने बैठे तो कमर और घुटने में फिर से दर्द होने लग गया. लगातार बैठा नहीं जा रहा था पर बैठना ही था. कुछ क्षणों के लिए साँस देखते फिर मन सांस से हटकर दाएं बाएं भाग जाता. फिर भटकते मन को खींच कर बार बार सांस पर लाना पड़ता. बीच बीच में उकताहट होने लगती और मन बैचैन हो जाता. दर्द से कराह भी नहीं सकते थे. आचार्य जी से भी कहा की घुटने बुरी तरह से दर्द कर रहे हैं. जवाब में उन्होंने संक्षिप्त उत्तर दिया कि अभ्यास करते रहिये ठीक हो जाएगा. उस वक़्त तो ये जवाब सुनकर तसल्ली नहीं हुई.

वैसे तो कहा हुआ था कि आँखें बंद रखनी है पर चोरी चोरी कनखियों से हॉल में नज़र मारी. इक्का दुक्का को छोड़कर सभी महिलाएं हिल जुल रही थीं और बैचेन लग रही थीं. पुरुष वर्ग का भी वही हाल था. लेकिन कुछ मानुस अपने स्थान पर पूरी गंभीरता से डटे हुए थे. दो एक ऊँघ भी रहे थे. मन थोड़ा आश्वस्त हुआ कि ज्यादातर साधक लोग हमारी तरह हिचकोले ही खा रहे हैं! गौर फरमाइए चूँकि दूसरे लोग डांवांडोल हैं तो हमें कुछ संतोष हुआ.

एक और समस्या खड़ी हो गई थी. खड़ी क्या हो गई बल्कि खुद ही खड़ी कर ली थी. रात सात बजे के बाद कोई डिनर विनर तो होता नहीं इसलिए मन में ये ख़याल आया की नाश्ता थोड़ा ज्यादा कर लिया जाए. नाश्ते में फल, दूध,चाय, के अलावा अंकुरित दालें और पोहा भी था. पोहा ज्यादा खाया ये सोच कर की पिछली शाम भी डिनर नहीं था और आज शाम भी नहीं होगा. इस भारी नाश्ते के बाद की बैठकों में ढंग से बैठा नहीं गया. पर उस दिन के बाद फिर दोबारा ऐसी गलती नहीं की.

यह  सोच कर ही अजीब लग रहा था की हम बैठे सांस को देखे जा रहे हैं जबकि पूरा दूसरा दिन भी गुज़र गया और बुद्ध के उपदेशों के बारे में कुछ बताया ही नहीं जा रहा? ये सांस को देखने का काम तो घर में ही कर लेते? पर फिर ये भी समझ आने लगा कि सिद्धार्थ गौतम की साधना कितनी कठिन रही होगी. हम तो ए सी कमरे में बढ़िया से गद्दे पर बैठे आधा अधूरा ध्यान लगाते हैं तब तक हमारे लिए कोई खाने पीने का इन्तेजाम करता है पर सिद्धार्थ गौतम के लिए ऐसा कुछ भी नहीं था.

शाम के गोयनका जी के वीडियो में यही सब सवालों पर चर्चा हुई और तीसरे दिन के लिए फिर से ज्यादा मेहनत करने के लिए कहा गया.

सबका मंगल होए 


नोट: बतौर जिज्ञासु गौतम बुद्ध का बताया मार्ग समझने की कोशिश कर रहा हूँ. भूल-चूक के लिए क्षमा 




Saturday, 26 August 2017

विपासना की शुरुआत

विपासना शिविर में हर तरह के लोग मसलन देशी और फिरंगी, अलग अलग धर्म के और अलग अलग आयु वर्ग के नज़र आये. कुछ को अंग्रेजी नहीं आती और कुछ को हिंदी. खैर एक दूसरे की मदद से फॉर्म भरकर पंजीकरण की कारवाई हो जाती है. पंजीकरण के बाद कमरा नंबर बता दिए गए. पर रुकिए सबसे जरूरी काम तो अब करना है. एक पोटली में अपना पर्स, मोबाइल, चाबियाँ, कैश जमा करने हैं और उस पोटली पर नाम की पर्ची चिपकानी है. पोटली जमा और आप खाली जेब याने निहत्थे! यूँ समझिये कि आपने दस दिन के लिए गृह त्याग दिया.

आश्रम में साधकों के लिए कोई मूर्ती, मंदिर, टीवी, अखबार या इन्टरनेट की सुविधा नहीं है. कमरों के बल्ब जीरो वाट के हैं तो आप कुछ पढ़ भी नहीं सकते. पहली मीटिंग में सभी को बता दिया जाता है कि आपस में बात ना करें, एक दूसरे को देखें नहीं. चार बजे सुबह की घंटी बजेगी तो बिस्तर छोड़ दें और साढ़े चार बजे मैडिटेशन हॉल में अपना स्थान ग्रहण करें. पद्मासन, या आलथी पालथी या चौकड़ी लगाकर आसन पर बैठें और सांस को देखने का प्रयास करें अभ्यास करें.

इससे आसान क्या बात हो सकती है कि आप आराम से बैठकर सांस को देख रहे हैं बहुत सिंपल - ना सांस को घटाना है, ना सांस को बढ़ाना है बस केवल देखना है. सांस चल रही है और आप देख रहे हैं. आप कितनी देर तक ये कारवाई कर सकेंगे? मुझे तो शायद दो तीन मिनट सांस पर ध्यान रहा होगा और फिर ध्यान हट कर दूसरी बातों में लग गया. माथे पर लगातार एक विचारों की विडियो चलती रहती है और ध्यान उसमें चला गया. मन को खींच कर फिर वापिस सांस पर लाया तो दो चार मिनट सांस पर रहा और फिर भटक गया! ये सिलसिला पूरा दिन ही जारी रहा. इतनी सरल सी बात पर काम करना कितना कठिन है.

ध्यान पर इन्टरनेट और किताबों में बहुत सामग्री मिलेगी. ध्यान लगाने के लिए प्राचीन काल से ही श्वास या सांस का एक महत्वपूर्ण आधार रहा है. तन, मन और श्वास का सामंजस्य या synchronisation जरूरी है. वैसे भी श्वास है तो जीवन है और श्वास रुका तो छुट्टी! सांस पर देर तक नियंत्रण पा लेना या सांस पर देर तक नज़र रख पाना एक तरह से प्रारम्भिक कदम है जो आगे ध्यान और समाधि लगाने में सहायक है. ध्यान देने वाली बात है कि ध्यान शब्द के माने attention और meditation दोनों ही तरीके से लिए जाते हैं सन्दर्भ को ध्यान में रखना होगा. दूसरी बात यहाँ मन शब्द का अर्थ है चित्त या mind या दिमाग.

प्राचीन काल में सांस पर ध्यान लगाने की तीन विधियाँ प्रचलित थीं - प्राणायाम, आनापान सति और समाधि. प्राणायाम अष्टांग योग का एक महत्वपूर्ण अंग है. अष्टांग योग के आठ अंग हैं - यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान और समाधि. योगाभ्यास में प्राणायाम कई प्रकार से किया जाता है जैसे की अनुलोम विलोम, कपाल भाति, भस्त्रिका, भ्रामरी गुंजन आदि. प्राणायाम की इन क्रियाओं से सांस को स्थगित करना और नियंत्रण में लाना आसान हो जाता है. फलस्वरूप ध्यान लगाने में आसानी हो जाती है. योग में ध्यान का मतलब इस तरह से कहा गया है की शरीर स्थिर और मन शांत होने के बाद मन के विचारों का शून्य हो जाना.

आनापान सति विधि में सांस पर नियंत्रण की बात नहीं कही गई है. स्वाभाविक रूप से जो सांस आ रहा है या जा रहा है उसके प्रति जागरूक रहना है. सांस को बढ़ाने या घटाने की कोशिश नहीं करनी है. हो सकता है कि सांस एक नासिका से आए या दोनों नासिकाओं से, सांस छोटी हो या लम्बी, ठंडी आए या गर्म पर हमें किसी भी दशा में सांस से छेड़ छाड़ नहीं करनी है बल्कि उसे केवल जानना है, उसके प्रति जागरूक रहना है या यूँ कहिये कि सांस के प्रति चैतन्य रहना है. आनापान सति की ये विधि गौतम बुद्ध के बताए मार्ग का प्रारम्भिक पर बहुत ही महत्वपूर्ण कदम है.

सांस को खींच कर अंदर भर लेना और देर तक रोके रखना( आतंरिक कुम्भक ) या फिर सांस को बाहर निकाल कर देर तक सांस ना लेना( बाहरी कुम्भक ) बहुत ही कठिन है पर इस विधि से भी ध्यान और समाधि लगाने का जिक्र कई ग्रंथों में हुआ है.

विपासना का पहला दिन सांस को देखने में ही गुज़रा. बीच बीच में नाश्ते या खाने या शाम की चाय के लिए छुट्टी मिली पर उसके अलावा एक ही काम था बैठना और सांस पर ध्यान देना. शाम सात बजे के बाद खाना नहीं मिलता है. शाम को लगभग एक घंटे का गोयनका जी का विडियो चलाया जाता है जिसमें आज की गई कारवाई से उठे प्रश्न और विचारों की समीक्षा की जाती है और अगले दिन की कारवाई की जानकारी भी दी जाती है. दिन में कोई अलग से लेक्चर नहीं होता है. पर आचार्य हॉल में मौजूद रहते हैं उनसे ब्रेक के दौरान अलग से बात की जा सकती है.

सारा दिन एक ही तरीके से बैठने से कमर, कंधे, गर्दन, एड़ियां और घुटने दुखने लगे. थोड़ा बहुत हिलने से कुछ मिनटों के लिए आराम मिलता पर फिर थकावट और दर्द शुरू हो जाता. इस दौरान एक बात जरूर नोटिस की कि अगर ध्यान सांसों पर रहता है तो दर्द भूल जाता है. जैसे ही सांसों से ध्यान हटता है तुरंत दर्द याद आ जाता है और ऐसा लगता है कि दर्द बढ़ गया है. दर्द से मन को खींच कर अगर वापिस सांस पर ले आएं तो दर्द घटा हुआ महसूस होता है या गायब ही हो जाता है. मन की इस स्थिति पर विचार करें कि ऐसा क्यूँ होता है? ये आगे चलकर बहुत काम आएगा.

नोट: जिज्ञासा -वश गौतम बुद्ध का बताया मार्ग समझने की कोशिश कर रहा हूँ. भूल-चूक के लिए क्षमा 


सबका मंगल होए 



Wednesday, 23 August 2017

मकड़ी का जाल

घर के बाहर बच्चों का शोर हो रहा था. जाकर देखा तो वो सब एक मकड़ी के जाल को देख रहे थे और उस मोटी मकड़ी को डंडा मारने की तैयारी में थी. किसी का कहना था कि जहरीली है किसी का कहना था नहीं कुछ नहीं कहेगी. लगभग 8 फीट की उंचाई पर दो पेड़ों के बीच में काफी बड़ा जाल था. और मकड़ी क्या थी काफी बड़ा मकड़ा था जो पहले कभी नहीं देखा. मकड़े का जाल सुबह हुई हलकी बूंदा बांदी भी झेल गया था.

इन्टरनेट की जानकारी के अनुसार बर्फीले इलाकों के अलावा ये सभी जगह पाई जाती है. मकड़ियां लगभग 46000 प्रकार की पाई गई हैं और पिछले 20 करोड़ साल से चली आ रही हैं. इनके अवशेष पुरानी चट्टानों में अक्सर पाए जाते हैं. इनमें से कुछ प्रजातियों की आयु दो साल से लेकर 20 साल तक भी पाई गई है. 2008 में एक शाकाहारी प्रजाति भी रिकॉर्ड की गई है. अन्यथा तो ये कीट पतंगे का शिकार करती हैं. ऑस्ट्रेलिया की एक मादा मकड़ी ऐसी भी है जो मिलन के दौरान अपने नर पार्टनर का भी शिकार कर डालती है!
हमारी इस नई पड़ोसन की कुछ फोटो:


बड़ी मेहनत से जाल में अलग से चार खुबसूरत भुजाएं बनाई हुई हैं . इस फोटो में मकड़ी का निचला हिस्सा दिखाई पड़ रहा है 

जाल की लम्बाई कहीं तीन फुट कहीं चार और कहीं पांच फुट है. इसी तरह चौड़ाई भी अलग अलग है. कुर्सी पर खड़े होकर सामने से लिया हुआ फोटो 

बैकग्राउंड में प्लेन काला कागज़ रख कर ये फोटो खींची ताकि जाल के बारीक ताने बाने दिखाई पड़ सकें 

मकड़ी की उंचाई लगभग साढ़े सात आठ फुट होगी इसलिए कुर्सी का इस्तेमाल करना पड़ा

पैरों के बीच 5 - 6 सेंटीमीटर का फासला है चार पैर छोटे हैं और चार लम्बे 




मकड़ी याने Spider के बारे में वैज्ञानिक सूचना:

Kingdom - Animalia
Phylum - Arthropoda
Sub phylum - Chelicerata
Class - Arachnida
Order - Araneae
113 families
46000 species




Sunday, 20 August 2017

हम चले विपासना करने

पेंशन मिल जाने के बाद बैंक की रोज़मर्रा की व्यस्तता ख़त्म हो गई. अब नाश्ते का समय 8 बजे से खिसक कर 9 बजे पहुँच गया. अखबार जो कभी दस मिनट में निपट जाता था अब दो तीन घंटों तक खींचता चला जाता है. दफ्तर जाना नहीं तो क्या जूते चमकाने और क्या टाई लगानी. अब लोगों को जल्दी जल्दी दफ्तर जाने की तैयारी करते देख कर मुस्कराहट आ जाती थी - बच्चू और तेज़, और जल्दी कर, और भाग और कमा ले. कभी हम भी तेरी तरह दफ्तर की तरफ दौड़ते थे, बच्चों के स्कूल में रिजल्ट लेने जाते थे और श्रीमती को शौपिंग कराते थे. अब आराम करते हैं, घूमते रहते हैं और दोस्तों यारों से गप्पें मारते हैं. किसी का पुराना शेर है,
तुम काम करते हो मैं आराम करता हूँ,
तुम अपना काम करते हो मैं अपना काम करता हूँ !

गप्पों की महफ़िल में कभी कभी सीरियस धार्मिक मुद्दे भी आ जाते हैं. धर्म की बहस अगर शुरू हो जाए तो बहुत लम्बी और टेढ़ी मेढ़ी चलती है. नास्तिकवाद से लेकर कट्टरवाद, स्वर्ग से लेकर नर्क और योगासन से लेकर जिम तक याने सब कुछ ही शुरू हो जाता है. और मजे की बात है की ज्यादातर दोस्त यारों ने धार्मिक ग्रन्थ पूरी तरह पढ़े भी नहीं. और अगर पढ़े तो मनन नहीं किया. कुछ ज्ञान तो टीवी धारावाहिक को सच मान कर ही ले लिया. मेरे से पूछें तो मुझे पता नहीं भगवान है या नहीं. ग्रन्थ कभी पढ़े नहीं क्यूंकि भारी भरकम हैं और चलते फिरते नहीं पढ़े जा सकते. पूजा पाठ कभी किया नहीं कभी कभार दिवाली में या किसी हवन जागरण में हाथ जोड़ दिए और कुछ पैसे डाल दिए कथा समाप्त. कभी किसी को गुरु बनाने या समझने की कोशिश भी नहीं की. भगवान से कभी ना लगाव हुआ और ना ही डर लगा. ना नास्तिक ना आस्तिक अर्थात जैसा चल रहा है सब ठीक है. मन शांत है तो सब ठीक है.

ऐसी ही एक गप्प गोष्ठी में मैडिटेशन की बात चल पड़ी. किसी ने कहा ध्यान लगाने से बहुत शांति मिलती है, एक सज्जन ने बताया कि कुंडलिनी जाग जाएगी, दूसरे ने कहा ईश्वर के नज़दीक पहुँच जाएंगे वगैरा वगैरा. किसी दोस्त ने किसी बाबा का कार्यक्रम बताया और किसी ने दूसरे, तीसरे और चौथे बाबा का नाम बताया. ध्यान के बारे में थोड़ी सी ही जानकारी थी जो योगाभ्यास सीखने के समय बताई गई थी. 1995 में जब दिल्ली में भारतीय योग संस्थान से योग सीखा तो उसमें प्राणायाम भी सीखा. योगासन और प्राणायाम करने के बाद चौकड़ी मार कर बैठने के लिए कहा जाता था. फिर कमर गर्दन सीधी, आँखें कोमलता से बंद करके दोनों आँखों के बीच माथे पर आज्ञा चक्र पर ध्यान देने को कहा जाता था. वैसा ही करते भी थे. पर फिर नौकरी में इधर उधर ट्रांसफर होती रही तो योगासन और प्राणायाम तो जारी रहा पर ध्यान बंद हो गया.

घर आकर श्रीमती से जिक्र हुआ तो उन्हें एक सहेली की याद आई जो दिल्ली विश्वविद्यालय में प्रोफेसर थी और जिसने दस दिन का विपासना मैडिटेशन कोर्स किया था. और प्रोफेसर ने दस दिन का कोर्स बहुत मुश्किल कोर्स बताया था. ये भी पता लगा कि तिहाड़ जेल में भी विपासना कराई जाती है. यहाँ ज़रा सा खटका लगा की शायद अपराधियों के लिए कोई मनोवैज्ञानिक कार्यक्रम चलाया जाता होगा? ऐसे शिविर में जाना ठीक रहेगा क्या ?

और जानकारी के लिए गूगल बाबा की सहायता ली तो हजारों पेज हाजिर हो गए. मालूम हुआ कि सत्य नारायण गोयनका जी के दस दस दिन के कोर्स दुनिया भर में जगह जगह होते हैं. भारत में भी 40 - 45 केंद्र हैं. हमने देहरादून चुना और दोनों ने एप्लाई कर दिया. शर्तें कठिन थी. दस दिन मौन रखना होगा. चलिए मान लिया. किसी से इशारे से या आँखों से भी बात नहीं करनी है याने आर्य मौन. इसका तो पालन कर लेंगे. श्रीमती दस दिन चुप रहेंगी ये तो वाकई देखने वाली बात है! पुरुष और महिलाएं अलग अलग रहेंगे. ये भी साधारण सी शर्त है जो मान्य है. शरीर ढका रहेगा और परफ्यूम नहीं लगाएंगे. कोई दिक्कत नहीं. सात बजे के बाद डिनर नहीं होगा. चलिए ये भी मान लिया. तो बस फिर रेडी? बाकी जो होगा वहीँ जाकर देखा जाएगा. जो विपासना में अनुभव हुए वो आपसे शेयर करते चलेंगे.

गौतम बुद्ध के समय पाली भाषा प्रचलित थी जिसमें पस्सना शब्द का अर्थ है देखना और विपस्सना का अर्थ है अच्छी तरह देखना याने reality check. यह विपासना एक ध्यान या मैडिटेशन की पद्धति है जिसे गौतम बुद्ध ने ढाई हज़ार साल पहले पुनः जीवित कर दिया था. संस्कृत में इन शब्दों का पर्याय है पश्यना और विपश्यना और अब आम तौर पर कहा जाता है विपासना. गौतम बुद्ध स्वयं कहते थे,
'इहि पस्सिको!' अर्थात
'आओ और ( स्वयं ) देखो!'

शाक्यमुनि गौतम बुद्ध 



   

Wednesday, 16 August 2017

गौतम का गृह त्याग

गौतम बुद्ध का जन्म ईसापूर्व 563 में लुम्बिनि में हुआ था. उनका नाम सिद्धार्थ रखा गया था और चूँकि गोत्र गौतम था इसलिए सिद्धार्थ गौतम कहलाए. सिद्धार्थ कपिलवस्तु राज्य के राजकुमार थे जो शाक्य वंश का राज्य था और राजकुमार सिद्धार्थ गौतम के पिता शुद्धोधन वहां के राजा थे. सिद्धार्थ को बचपन में राजकुमारों जैसी शिक्षा दीक्षा दी गई. उन्हें अस्त्र शास्त्र का ज्ञान दिया गया और अभ्यास भी कराया गया. राजकुमार की शादी 18 वर्ष की आयु में एक स्वयंवर में यशोधरा से हुई जो 16 वर्ष की थी. राजकुमार सिद्धार्थ गौतम के लिए पिता शुद्धोधन ने तीन महल बनवा दिए थे एक सर्दी के लिए, दूसरा गर्मी के लिए और तीसरा वर्षा ऋतु के लिए. स्वस्थ, सुंदर और नौजवान दास दासियाँ उनकी सेवा में रहती ताकि राजकुमार को किसी भी तरह का कष्ट ना हो ना ही कोई कष्ट से पीड़ित इंसान देखने को मिले. उनके बारे में भविष्यवाणी की गई थी कि या तो वे चक्रवर्ती राजा बनेंगे या फिर बहुत बड़े संत.

गौतम बुद्ध के जीवन के बारे में इस तरह के लेख स्कूलों और अन्य किताबों में आम हैं. कुछ ऐसी घटनाओं का भी वर्णन है जिनके कारण सिद्धार्थ के मन में विरक्ति जागी और वो राज पाट, महल और परिवार छोड़ कर सत्य की खोज में निकल पड़े. यूँ तो सिद्धार्थ विलासिता में रहते थे पर जब अपने रथ पर सवार होकर महल से बाहर निकले तो चार ऐसे दृश्य उन्हें देखने को मिले जिन्हें देख कर सिद्धार्थ को लगा की शरीर और जीवन नश्वर ही है और दुःख से पूर्ण है.

* पहली घटना में राजकुमार सिद्धार्थ को एक बूढ़ा व्यक्ति दिखाई पड़ा जिसकी कमर झुकी हुई थी और चेहरे पर झुर्रियां पड़ी हुई थीं. राजकुमार को आश्चर्य हुआ और उन्होंने अपने रथवान चन्ना से पूछा कि ये मनुष्य ऐसा क्यूँ है? चन्ना ने बताया कि सभी मनुष्य बूढ़े होते हैं और ऐसा सभी के साथ होता. राजकुमार का मन ये सोच कर खिन्न हो गया की मैं भी ऐसा हो जाउंगा?

* दूसरे दृश्य में उन्हें एक बीमार व्यक्ति दिखा जो पीड़ा से कराह रहा था. राजकुमार ने दुखी मन से रथवान से पुछा तो चन्ना ने बताया बीमारी तो किसी भी मनुष्य को लग सकती है और इसी तरह पीड़ा दे सकती है.

* तीसरी यात्रा में राजकुमार को एक शव दिखा. इस बार भी चन्ना ने जवाब दिया कि मृत्यु तो एक ना एक दिन सभी की होती है और मृत शरीर ऐसा ही हो जाता है. इन तीन अप्रिय घटनाओं को देखकर राजकुमार का मन बड़ा दुखी हुआ.

* चौथी बार उन्हें एक संतुष्ट सन्यासी दिखा. राजकुमार को लगा की सन्यासी दुःख तकलीफों से छुटकारा पा चुका है और खुश है. अगर वह स्वयं भी इसी तरह सन्यास धारण कर लें तो अप्रिय दुखों से बच जाएगें.

इन घटनाओं के अतिरिक्त एक और घटना का जिक्र डॉ भीम राव अंबेडकर की पुस्तक 'भगवान् बुद्ध और उनका धम्म' में है जो काफी हद तक तर्क संगत लगती है. इस घटना का संक्षिप्त वर्णन इस प्रकार है. बौद्ध कालीन उत्तरी भारत में राजनीति और शासन कैसे चलता था इसके बारे में जानकारी कम है. इतिहासकारों के अनुसार कुछ राज्य बड़े थे और जनपद कहलाते थे जैसे की काशी, कौशल, मगध इत्यादि. वहां राजा थे और वंश के आधार पर राज करते थे. कुछ संघ या गण कहलाते थे जो छोटे थे और शायद वहां कुलीन घराने राज करते थे. ये संघ या गण किसी न किसी जनपद के राजा के आधीन हुआ करते थे.

शाक्यों का संघ कपिलवस्तु भी कुछ ऐसा ही छोटा संघ रहा होगा. कपिलवस्तु की सीमा से लगा हुआ एक और संघ कोलियों का था. इस कोलियों का संघ रामगाम कहलाता था. ये दोनों संघ कौशल राजा के आधीन कहे जाते थे. इन दोनों राज्यों  के बीच रोहिणी नदी थी जो एक सीमा रेखा थी. नदी का पानी शाक्य और कोली दोनों ही खेती के लिए इस्तेमाल करते थे पर यदा कदा पानी के उपयोग को लेकर दोनों पक्ष आपस में झगड़ भी पड़ते थे. आरोप प्रत्यरोप लगाते की पानी का ज्यादा उपयोग दूसरे पक्ष ने कर लिया.

ऐसे ही एक झगड़े की सूचना एक दिन कपिलवस्तु के दरबार में पहुंची कि नदी के पानी को लेकर दोनों ओर के लोग झगड़ पड़े हैं और हताहत भी हुए हैं. इस पर शाक्य सेनापति ने शाक्य संघ की मीटिंग बुलाई जिसमें सिद्धार्थ गौतम भी शामिल हुए. सेनापति ने घटना के बारे में सूचना दी और कोलियों पर आक्रमण करने का प्रस्ताव किया. इस पर राजकुमार सिद्धार्थ ने युद्ध का विरोध किया और कहा,

- युद्ध से समस्या का हल नहीं होगा. इससे एक नए युद्ध का बीजारोपण हो जाएगा. जो किसी की हत्या कर देता है उसकी हत्या करने कोई और आ जाता है, जो किसी को लूटता है उसे लूटने कोई और आ जाता है. अवैर से ही वैर शांत हो सकता है.

परन्तु सेनापति का आक्रमण का प्रस्ताव बहुमत से मान लिया गया जबकि सिद्धार्थ का फलसफा भरा प्रस्ताव नहीं माना गया. युद्ध की घोषणा हो जाने के बाद युद्ध का विरोध करना दण्डनीय अपराध था. अब युद्ध के विरोधी होने के कारण सिद्धार्थ के लिए कठिन स्थिति पैदा हो गई. अब तो सामने तीन रास्ते थे,
- युद्ध में भाग लेना अन्यथा,
- फांसी पर लटकना या देश निकाला स्वीकार करना या फिर
- परिवार का बहिष्कार सहना और खेत खलिहान से भी हाथ धोना.

राजकुमार सिद्धार्थ ने संघ को सूचित किया की वे युद्ध में भाग नहीं लेंगे चाहे जो भी सजा दे दी जाए - फांसी या देश निकाला. साथ ही राजकुमार सिद्धार्थ का ये निर्णय अपना है इसलिए परिवार को इसमें कोई दोष नहीं दिया जाए. परिवार को जीवन निर्वाह के लिए खेती बाड़ी जरूरी है उसे ना कब्जाया जाए.

सेनापति को फांसी या देश निकाला ही ठीक लगा पर इस सज़ा पर अमल करना बड़ा मुश्किल काम था. कौशल नरेश को भी अपनी कारवाई के बारे में जवाब देना होगा. फिर सिद्धार्थ साधारण व्यक्ति नहीं थे और उनके जनता जनार्दन से मधुर सम्बन्ध थे और वे सभी सिद्धार्थ का साथ दे सकते थे. इतने लोगों के साथ होने से कोई अप्रिय घटना भी हो सकती थी. सिद्धार्थ ने स्थिति को भांपते हुए सेनापति से कहा,
- इस पर भी अगर कठिनाई है तो मैं संन्यास ले लेता हूँ और परिव्राजक बन जाता हूँ और देश के बाहर चला जाता हूँ. यह भी तो देश निकाला ही है.
सेनापति को संदेह था की बिना माता, पिता और पत्नी की अनुमति के ये भी नहीं हो पाएगा. सिद्धार्थ ने विश्वास दिलाया की अनुमति मिले या ना मिले देश छोड़ दूंगा. इस आश्वासन पर सेनापति और संघ ने सिद्धार्थ की बात मान ली.

लेकिन सिद्धार्थ के माता पिता सिद्धार्थ के सन्यास के प्रस्ताव के लिए बिलकुल तैयार नहीं थे. उनका कहना था कि इससे तो अच्छा है कि पूरा परिवार शाक्य देश छोड़कर कौशल जनपद में चला जाए. सिद्धार्थ ने ये बात नहीं मानी क्यूंकि ऐसी स्थिति लाने के लिए वे स्वयं को जिम्मेवार मानते थे. उधर पत्नी यशोधरा ने सिद्धार्थ के निर्णय का समर्थन तो किया परन्तु नवजात पुत्र राहुल के कारण साथ जाने के लिए तैयार नहीं हुई. सिद्धार्थ अपने फैसले पर अडिग रहे.

सिद्धार्थ अपने रथवान चन्ना के साथ भारद्वाज ऋषि के आश्रम पहुंचे जहां पर तब तक भारी भीड़ जमा हो चुकी थी. वहां उन्होंने सिर मुंडवाया क्यूंकि संन्यास के लिए आवश्यक था. पुराने वस्त्र उतार कर चन्ना को दिए और भिक्खुओं जैसे वस्त्र पहन लिए. एक भिक्षा पात्र हाथ में ले लिया. भारद्वाज ने संस्कार पूरे करके सिद्धार्थ को सन्यासी घोषित कर दिया.
सजा का पहला भाग पूरा हो गया अब दूसरे भाग में सन्यासी सिद्धार्थ को देश छोड़कर बाहर जाना था. राजकुमार ने माता, पिता, पत्नी और कपिलवस्तु की जनता से विदा ली और अनोमा नदी की ओर प्रस्थान किया. पीछे पीछे जनता भी चली तो उन्हें देख कर सिद्धार्थ ने उनसे कहा,

- भाइयों और बहनों मेरे पीछे आने से क्या लाभ? मैं शाक्यों और कोलियों के बीच झगड़ा ना निपटा सका. लेकिन यदि तुम समझौते के लिए जनमत तैयार कर लो तो तुम सफल हो सकते हो. कृपा कर के वापिस लौट जाओ.

गृह त्यागने के समय राजकुमार सिद्धार्थ गौतम की आयु 29 वर्ष थी.  

शाक्यमुनि 

  

Sunday, 13 August 2017

Nandi Hills, Karnataka

Bangaluru & nearby towns are situated on hilly plateau called Deccan Plateau. Average elevation of the Plateau is 3020 feet above mean sea level. Bangaluru has Arabian Sea on one side & Bay of Bengal on the other side both roughly 350 km away. Due to elevation & proximity to seas Deccan Plateau enjoys breezy & equable climate throughout the year. Temperature rarely goes below 12 or over 30 degrees. Several small & large hills dot the Plateau & Nandi Hills are one such example.

Nandi Hills - 4851 feet high, are located in Chikkaballarpur district approx 60 km from Bangaluru. It is 20 km off NH 7 near new Bangaluru airport.   These hills are source of rivers like Penner, Ponnaiyar, Palar & Arkavathy. Mornings are misty & cold here & you might need a jacket to ward off cold breeze. As you drive up there are a few sharp curves therefore cautious driving is suggested. Some photos:

Dense morning fog engulfs the hills
Morning mist begins to rise 

As you go up the mist thickens 

Entrance to  the Nandi Fort 

Road disappears in fog

Mystery morning mist 

Fog thickens as you go up 
Tail lights flicker in fog
On the top of the hill 
Tourists

Morning mist all around






Tuesday, 8 August 2017

नया कामरेड

रुसी भाषा के साहित्य में मेरी काफी रूचि थी और अब भी है. रुसी भाषा के पुराने लेखक जैसे की टॉलस्टॉय, दोस्तोयेव्स्की, गोर्की, चेखोव और तुर्गनेव की कहानियां और नावेल बड़े शौक से पढ़े हैं. पुराने स्टॉक में से यदा-कदा कोई किताब निकाल कर पढ़ता हूँ तो अब भी आनंद आता है.

बैंक में नौकरी लगने के बाद संसद मार्ग ब्रांच में पोस्टिंग मिली. वहां से हाउस ऑफ़ सोवियत कल्चर नजदीक ही था. पैदल ही फ़िरोज़ शाह रोड तक 10 - 12 मिनट में पहुँच जाते थे. पता लगा की वहां एक अच्छी लाइब्रेरी है और रुसी भाषा भी पढ़ाई जाती है तो मैंने जून 1977 में सर्टिफिकेट कोर्स ज्वाइन कर लिया. हफ्ते में दो या तीन लेक्चर शाम को होते थे जो आराम से अटेंड किया जा सकते थे.

लाइब्रेरी में रुसी साहित्य के अलावा थोड़ा बहुत मार्क्स और एंगल्स की किताबों का भी अध्ययन किया. रुसी किताबें बड़ी सस्ती हुआ करती थीं. छपाई और सिलाई भी बहुत उम्दा होती थी. रुसी भाषा पढ़ने वालों को बहुत सी किताबें मुफ्त दे दी जाती थी जो अब तक भी पड़ी हुई हैं. अब ये सब पढ़ने के बाद दोस्तों यारों से बहस होना भी स्वाभाविक था. उधर बैंक में यूनियन भी कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ़ इंडिया से सम्बंधित थी तो वहां भी किसी न किसी से मार्क्सवाद को लेकर अक्सर भिड़ंत हो जाती थी. खास तौर से जनसंघियों से.

संसद मार्ग में उन दिनों कामरेड विरवानी या 'दादा' विरवानी से भी अक्सर बातचीत होती रहती थी. कामरेड विरवानी सी पी आई के कार्ड होल्डर याने पक्के सदस्य थे. उन्होंने और लोगों से याने और वामपंथियों से भी मिलवाया. इस दौरान जुलाई 1979 में सोवियत यूनियन जाने का मौका मिला. ताशकंद, लेनिनग्राद और मास्को की 45 दिन की यात्रा की. और इसके बाद नवम्बर 1979 में ऑफिसर की प्रमोशन हो गयी.

कामरेड विरवानी ने सितम्बर 1979 में कम्युनिस्ट पार्टी में शामिल होने का निमंत्रण दिया. सदस्य बनने की बहुत ज्यादा इच्छा तो नहीं थी पर मैं पार्टी वालों से मिलने को तैयार था. कार्ड होल्डर बनने का अगला कदम उसके बाद देखा जाएगा. पार्टी कार्ड कौन सा जल्दी मिलता था दो साल के प्रोबेशन के बाद मिलता था. प्रमोशन ली जाए या की पॉलिटिक्स की जाए ये भी एक सवाल विचारणीय था.

एक शाम बैंक से निकल कर हम दोनों ने बस पकड़ी और दरयागंज उतरे. वहां से उर्दू बाज़ार पैदल पहुंचे और सीढियाँ चढ़ कर पहले माले के एक कमरे में दाखिल हुए. कुछ लोग बैठे हुए थे जिनमे कामरेड एस पी नंदा भी थे जो बैंक से ही थे और जिन्हें मैं पहले मिल चुका था. बाकी सभी मेरे लिए नए थे - कामरेड फारुकी, कामरेड प्रेम सागर गुप्ता, कामरेड मन्ना और कुछ अन्य. सभी 55 - 60 से ऊपर और केवल मैं 30 के नीचे.

कुछ महीनों  बाद महसूस हुआ कि भारत की सभी पार्टियों, यूनियन, क्लब वगैरा का यही हाल है. बूढ़े खूसट अपनी सीट छोड़ने को तैयार ही नहीं होते ना ही नए विचार सुनने को तैयार होते हैं. पता नहीं कब 45 - 50 साल का प्रधान मंत्री देखने को मिलेगा. राजीव गाँधी शायद 40 के थे जब प्रधान मंत्री बने पर उनका आना और जाना कुछ विशेष परिस्थितियों में हुआ. बदलाव की बात तो की, कंप्यूटर भी लाए और 5-डे वीक शुरू करवा दिया पर ज्यादा बदलाव नहीं आया.

खैर, परिचय होने के बाद कामरेड फारुकी ने कामरेड विरवानी को कहा की नए आदमी को आप बिना सूचना दिए मीटिंग में ले आये. मैंने कहा की मैं बाहर बैठता हूँ आप लोग इस मुद्दे पर बात करके मुझे बता दें. पर कामरेड विरवानी और नंदा के ये कहने पर की नए रंगरूट की वे दोनों गारंटी लेते हैं, मामला शांत हो गया.

और इस तरह कम्युनिस्ट पार्टी की किसी मीटिंग में पहली बार भाग लिया जो फीकी सी रही.
 
नया सबक 
 

Sunday, 6 August 2017

जूनागढ़, बीकानेर - 2 / 2

थार रेगिस्तान में बसा बीकानेर शहर जयपुर से 330 किमी और दिल्ली से 435 किमी दूर है. शहर की समुद्र तल से उंचाई लगभग 242 मीटर है. शहर में एयर पोर्ट भी हैऔर रेल भी और कई राजमार्ग भी यहाँ मिलते हैं इसलिए यात्रा करने में कठिनाई नहीं है. शहर में हर बजट के होटल उपलब्ध हैं. बीकानेर जिले की सीमा पंजाब, हरयाणा के अलावा पाकिस्तान से भी मिली हुई है.

रेगिस्तान में बसा होने के कारण वार्षिक सामान्य तापमान में काफी फर्क रहता है. गर्मी में पारा 50 तक और सर्दी में 4 डिग्री तक नीचे आ सकता है. बारिश कम होती है इसलिए खेती भी कम है. पर फिर भी इतने बड़े किले, महल और विलासिता थी. इस बारे में काफी पूछताछ की तो पता लगा की थार रेगिस्तान का ये शहर 'सिल्क रूट' पर था. ऊँटों के कारवाँ मध्य एशिया और खाड़ी के देशों से व्यापार करने आते और यहाँ टैक्स देते थे. व्यापार में सिल्क, सोने चाँदी के जेवर और अफीम भी शामिल थी. अफीम अब भी सरकारी दुकानों में यहाँ मिलती है. ऐसा सुना कि पार्टी शार्टी में थोड़ी बहुत आजकल भी चलती है. अफीम के बारे में राजस्थानी कहावत है,

ले रत्ती तो देस मत्ती,
ले मासो तो टाळे पासो,
ले तोलो तो घर घर डोलो!

याने रत्ती भर लोगे तो दिमाग ठीक रहेगा, मासे जितनी लोगे तो बदन दर्द ठीक हो जाएगा और अगर तोले जितनी किसी ने ली तो गलियों में भटकता फिरेगा!

बीकानेर शहर की स्थापना राठोड़ वंशी राजा राव बीका ने 1488 में की थी. उस से पहले यह इलाका जांगलदेश या जांगलू कहलाता था और आबादी नाम मात्र की थी. धीरे धीरे राव बिका ने आसपास का इलाका जीत कर बीकानेर राज की स्थापना की. शहर का स्थापना दिवस अक्षय तृतीय के दिन मनाया जाता है. बीकानेर राज के छठे राजा राव राय सिंह( 1571 - 1611) के समय बीकानेर का नाम ज्यादा प्रसिद्द हुआ. राव राय सिंह अकबर और जहाँगीर के दरबार में ऊँचे ओहदे पर रहे और उन्हें बहुत सी जागीरें इनाम में मिली. इन जागीरों की आमदनी से जूनागढ़ किले का निर्माण 17 फरवरी 1589 के दिन शुरू कराया गया जो 17 जनवरी 1594 को समाप्त हुआ.

किला 5.28 हेक्टेयर में फैला हुआ है और किसी पहाड़ी पर ना होकर जमीन पर ही है. ज्यादातर लाल बालू पत्थर और संगमरमर का बना हुआ है. किले की दीवारों की लम्बाई लगभग 1078 गज है. दीवारें 40 फीट ऊँची और करीब 15 फीट चौड़ी हैं. किले की बाहरी दीवारों के साथ साथ 30 फीट चौड़ी झील भी हुआ करती थी जो अब नहीं नज़र आती. किले में समय समय पर आने वाले राजाओं द्वारा कुछ ना कुछ बनता रहा. ये राजा हैं:
करन सिंह का राज 1631 - 1639 तक रहा और उन्होंने करन महल बनवाया.
अनूप सिंह का राज 1669 - 1698 तक रहा और उन्होंने ज़नानखाना और दीवाने आम 'अनूप महल' बनवाया.
गज सिंह ने 1746 - 1787 तक राज किया और चन्द्र महल बनवाया.
सूरत सिंह ने 1787 - 1828 ने कांच और पेंटिंग के काम करवाए.
डूंगर सिंह ने 1872 - 1887 के दौरान राज किया और बादल महल बनवाया.
गंगा सिंह ने 1887 - 1943 तक राज किया और गंगा निवास महल बनवाया.

राव गंगा सिंह ब्रिटिश राज में नाईट कमांडर रहे और जिस हॉल में अपने राजकाल की स्वर्ण जयंती मनाई उसमें अब संग्रहालय है. उन्होंने एक लालगढ़ महल भी बनवाया जिसमें वे 1902 में शिफ्ट हो गए. उनके पुत्र सदूल सिंह के समय बीकानेर राज का 1949 में भारत में विलय हो गया.

किला और अंदर के महल बहुत सुंदर है और संग्रहालय पुराने हथियार, पालकियों और शाही कपड़ों से भरा हुआ है. आप चाहें तो घंटों बिता सकते हैं. कुछ चित्र पहले भाग में प्रकाशित किये गए थे उन्हें इस लिंक पर देखा जा सकता है:

http://jogharshwardhan.blogspot.com/2017/08/1-2.html

प्रस्तुत हैं कुछ और फोटो :

लाल पत्थर के सुंदर खम्बे और मेहराबें 

राव बीकाजी की पेंटिंग 

किले के अंदर महल 

पत्थरों का शानदार उपयोग 

तोप और तोरण 

मैं तुलसी तेरे आँगन की 
थार रेगिस्तान में बीकानेर 

जालियों का सुंदर काम 

कमाल का वास्तु शिल्प












Friday, 4 August 2017

हवन करेंगे

- हेल्लो कौन?
- नमस्ते भाईसाहब आप ठीक हैं? मैं कह रहा था सन्डे सुबह नौ बजे घर पर हवन करा रहे हैं भाभी जी को लेते आना.
- कोई खुशखबरी?
- नहीं भाईसाहब ये आपका चहेता भतीजा मानता ही नहीं वरना खुशखबरी में देर नहीं है. अच्छी नौकरी लगी हुई है, पन्द्रा लाख का पैकेज है, तीस साल की उम्र हो गई है पर दिमाग में क्या फितूर है पता नहीं. हम बोलें तो शादी के लिए मना कर देता है और वैसे शनिवार को कोई ऑफिस की लड़की को लेकर आ गया. सुधा बड़ी खुश हो गई पर गिरीश कहने लगा कोई चक्कर नहीं है वो तो इसे बाज़ार से मोबाइल खरीदवाने के लिए साथ गया था. पिछले महीने किसी दूसरी को इसने मोबाइल दिलवाया था. इस बार तो सुधा जनम पत्री लेकर पंडित जी के पास चली गई बस पंडित जी ने कुछ मशवरा दिया और इसीलिए कल हवन है.

- हाहाहा! याने हवन का धुआं जैसे ही गिरीश के दिमाग में जाएगा वो शादी के लिए 'हाँ हाँ' करने लगेगा. बोलेगा  'जल्दी मेरी शादी करो!' अरे यार किस चक्कर में उलझे हो? पत्रा पत्री अब कौन देख रहा है? आजकल शादी की उमर 35 तक जा पहुंची है और तुम अभी पंडितों के चक्कर में पड़े हो. एनी-वे हम लोग पहुँच जाएंगे.

जब हम भाई के घर पहुंचे तो पंडित जी हवन का सामान सजा रहे थे. मेहमान आने थे 15 पहुंचे थे केवल दो. नौ बजे का कार्यक्रम पौने दस बजे शुरू हुआ. मेहमान आते, गंभीरता से हाथ जोड़ कर नमस्ते करते और महिलाएं एक तरफ और पुरुष एक तरफ बैठते जाते. महिलाएं बेहतर कपड़ों और जेवरों से सजी हुई और पुरुष लापरवाही से पहनी हुई जीन और कुरते पाजामों में. इन दोनों वर्गों के बीच दरी पर एक पगडण्डी बन गई थी. यूँ लग रहा था की महिलाएं सत्ता पक्ष में हैं और पुरुष पगडण्डी के दूसरी तरफ कमजोर विरोधी पक्ष में.

इधर पंडित जी ने गिरीश और उसके मम्मी डैडी के हाथों में पानी डाला और उच्चारण शुरू कर दिया - ॐ केशवाय नम:, ॐ नारायणाय नम: ... उधर बड़ी मामी ने छोटी मामी के कान में धीरे से पूछा,
- बड़ा सुंदर पेंडल है पहले नहीं देखा? कब लिया?
- अभी दिवाली में तो लिया था. अच्छा लगा? इन्होंने कुछ शेयर बेचे थे मेरे अकाउंट में बस मैं अड़ गई की कुछ लेना है.
- हाँ ऐसे ही चीज़ बनती है वरना आदमियों को तो अपने आप ख़याल आता ही नहीं है. बहुत अच्छा किया.

जब हवन कुंड में से धुंआ निकलने लगा तो आँखों में लगने लगा. लोग थोड़ा बहुत कसमसाने लगे. चाचाजी ने ताऊजी को इशारा किया और दोनों बाहर निकल लिए. चाचाजी बोले,
- यार ये धुआं ना आँखों को तंग करता है. बाई द वे ये हवन है किसलिए?
- अरे यार हवन है इसमें तो बैठ जाया कर बेचैन आत्मा. दो अक्खर कान में पड़ गए तो कोई हर्ज नहीं. खैर कोई मन्नत शन्नत मांगी होगी इन्होंने मुझे नहीं पता. तू बता तेरा शेयर बाज़ार कैसा रहा? दिवाली में कुछ प्राप्ति हुई के नहीं?
- दिवाली ठीक रही भाईसाहब कमाई हो गई थी.

हवन के धुंए से छोटी मौसी की आँखों में पानी आने लगा तो उन्होंने बड़ी मौसी को हिलाकर बताया की मैं बाहर जा रही हूँ. बड़ी मौसी भी पीछे पीछे बाहर आ गई और बोली,
- तेरे बच्चे भी नहीं आये?
- कहाँ आते हैं बच्चे ऐसे कामों में? किसी को पढ़ने जाना है तो किसी ने खेलने जाना है. दोनों को बोल आई हूँ कि खाने के वक़्त जरूर आ जाना और पिज़्ज़ा विज्ज़ा मत मंगवाना.
- सच ज़रा सा खाना मनपसंद ना हो बाज़ार से मंगाने के लिए तैयार रहते हैं. अमरीका में ये सब घट रहा है और यहाँ बढ़ रहा है. और सब ठीक है ना?

खाना शुरू हो गया तो हमने भी अपनी प्लेट लगाई और गिरीश को पकड़ा,
- अरे तुझे अक्कल दिलाने के लिए हवन हो रहा है क्या?
- हाहाहा! अंकल ये मम्मी के काम हैं. आप उन्हीं से पूछो.
- अरे तू मुझे बता तेरा चक्कर क्या है.
- अंकल मम्मी की कज़न की एक लड़की है पर वो मुझे पसंद नहीं है. जब मम्मी ज्यादा शोर मचाती है तो मैं कोई ऑफिस की लड़की पकड़ कर ले आता हूँ थोड़े दिन शांति हो जाती है. पर अब तो शान्ति के लिए हवन भी शुरू हो गया है!
- तो तेरी पसंद कौन सी है? वो बता दे मम्मी को? पापा को पता है?
- अंकल जी ज़रा सी सांवली है साउथ की है ना और चश्मिश है मम्मी को बताने से से डर लगता है.
- तो पापा को बोल. चश्मा लगाती है तो क्या हुआ अब तो तेरे मम्मी पापा दोनों चश्मिश हैं.
- पापा को क्या बोलूं उन्हें भी तो मम्मी से डर लगता है! शोर मचेगा और मम्मी अपनी चॉइस की घंटों तारीफ़ करती रहेंगी.
- अरे तेरी मम्मी को समझाता हूँ मैं कि साउथ की शादियों में सौ दो सौ ग्राम सोना नहीं मिलता बल्कि किलो दो किलो मिलता है. फिर देख मज़ा!
- अंकल मरवा दोगे आप.
- ओ तू फिकरनॉट. अब वहां से मिले ना मिले तू तो इकठ्ठा करना शुरू कर दे. तेरा पन्द्रा लाख का पैकेज कब काम आएगा?  हैं?  किसी सन्डे को लड़की और उसके मम्मी पापा और तू और तेरे मम्मी पापा सब को लेकर आजा हमारे घर. अब हम हवन करेंगे!

हवन की तैयारी 



Tuesday, 1 August 2017

जूनागढ़, बीकानेर - 1 / 2

थार रेगिस्तान में बसा बीकानेर शहर जयपुर से 330 किमी और दिल्ली से 435 किमी दूर है. रेगिस्तान में बसा होने के कारण वार्षिक सामान्य तापमान में काफी फर्क रहता है. गर्मी में पारा 50 तक और सर्दी में 4 डिग्री तक नीचे आ सकता है. शहर की समुद्र तल से उंचाई लगभग 242 मीटर है. शहर में एयर पोर्ट भी हैऔर रेल भी और कई राजमार्ग भी यहाँ मिलते हैं इसलिए यात्रा करने में कठिनाई नहीं है. बीकानेर जिले की सीमा पाकिस्तान से मिली हुई है.

बीकानेर शहर की स्थापना राठोड़ वंशी राजा राव बिका ने 1488 में की थी. उस से पहले यह इलाका जांगलदेश या जांगलू कहलाता था और आबादी नाम मात्र की थी. धीरे धीरे राव बिका ने आसपास का इलाका जीत कर बीकानेर राज की स्थापना की. शहर का स्थापना दिवस अक्षय तृतीय के दिन मनाया जाता है.  बीकानेर राज के छठे राजा राव राय सिंह( 1571 - 1611) के समय बीकानेर का नाम ज्यादा प्रसिद्द हुआ. राव राय सिंह अकबर और जहाँगीर के दरबार में ऊँचे ओहदे पर रहे और उन्हें बहुत सी जागीरें इनाम में मिली. इन जागीरों की आमदनी से जूनागढ़ किले का निर्माण 17 फरवरी 1589 के दिन शुरू कराया गया जो 17 जनवरी 1594 को समाप्त हुआ.

किला 5.28 हेक्टेयर में फैला हुआ है और किसी पहाड़ी पर ना होकर जमीन पर ही है. ज्यादातर लाल बालू पत्थर और संगमरमर का बना हुआ है. किले की दीवारों की लम्बाई लगभग 1078 गज है. दीवारें 40 फीट ऊँची और करीब 15 फीट चौड़ी हैं. किले की बाहरी दीवारों के साथ साथ 30 फीट चौड़ी झील भी हुआ करती थी जो अब नहीं नज़र आती. किले में समय समय पर आने वाले राजाओं द्वारा कुछ ना कुछ बनता रहा. ये राजा राव हैं:
करन सिंह का राज 1631 - 1639 तक रहा और उन्होंने करन महल बनवाया.
अनूप सिंह का राज 1669 - 1698 तक रहा और उन्होंने ज़नानखाना और दीवाने आम 'अनूप महल' बनवाया.
गज सिंह ने 1746 - 1787 तक राज किया और चन्द्र महल बनवाया.
सूरत सिंह ने 1787 - 1828 ने कांच और पेंटिंग के काम करवाए.
डूंगर सिंह ने 1872 - 1887 के दौरान राज किया और बादल महल बनवाया.
गंगा सिंह ने 1887 - 1943 तक राज किया और गंगा निवास महल बनवाया.

राव गंगा सिंह ब्रिटिश राज में नाईट कमांडर रहे और जिस हॉल में अपने राजकाल की स्वर्ण जयंती मनाई उसमें अब संग्रहालय है. उन्होंने एक लालगढ़ महल भी बनवाया जिसमें वे 1902 में शिफ्ट हो गए. उनके पुत्र सदूल सिंह के समय बीकानेर राज का 1949 में भारत में विलय हो गया.

किला और अंदर के महल बहुत सुंदर है और संग्रहालय पुराने हथियार, पालकियों और शाही कपड़ों से भरा हुआ है. आप चाहें तो घंटों बिता सकते हैं. प्रस्तुत हैं कुछ फोटो :

1. किले के अन्दर का एक बड़ा आँगन. सफ़ेद और लाल पत्थर का सुंदर संगम 


2. मीनार 

3.  ठंडक रखने के लिए पानी का तालाब 

4.  किले की बाहरी दिवार 

5. किले का एक प्रवेश द्वार 

6. सुरक्षा के लिए तीन दरवाज़े 

7. महल की ओर जाने के लिए पतली गली 

8. सुंदर टाईलों का फर्श, मेहराब, झरोखे और खिड़कियाँ 

9. इस आँगन में रंग कुछ अलग हैं, खम्बे और झरोखे भी अलग तरह के हैं  

10. बाहर के बाग़ बगीचे 

11. ठंडी हवा का आनंद भी और बाहर एक नज़र भी 

12. बेहतरीन कारीगरी 

13. सबसे बड़ा हाल जो काफी बाद में बना 

14. पर्यटक