तनोट एक छोटा सा रेगिस्तानी गाँव है जो जैसलमेर शहर से लगभग 150 किमी दूर है. यहाँ से अंतर्राष्ट्रीय सीमा लगभग 25 किमी है. यहीं एक विख्यात मंदिर है श्री तनोट माता मंदिर. कहा जाता है कि हिंगलाज माता का ही रूप तनोट माता हैं और तनोट माता का दूसरा रूप करनी माता हैं. हिंगलाज माता का मंदिर कराची से 250 किमी दूर बलोचिस्तान में हिंगोल नदी के किनारे है और करनी माता का मंदिर बीकानेर जिले में है.
भाटी राजपूत राजा केहर के पुत्र तन्नू राव तनोट माता के भक्त थे और उन्होंने विक्रमी सम्वत 828 याने सन 771 में मंदिर की स्थापना की थी. मंदिर का नाम और मान्यता 1965 और 1971 के भारत-पाक युद्ध के बाद बहुत बढ़ गई. तब से तनोट मंदिर हर जैसलमेर आने वाले पर्यटक की लिस्ट में शामिल हो गया है.
इस मान्यता की कहानी कुछ इस प्रकार है कि 1965 में तनोट के तीन ओर से पाक सेना ने भारी आक्रमण किया. तनोट की सुरक्षा के लिए 13 ग्रेनेडियर की एक कंपनी और BSF की दो कम्पनियाँ थी जिसके मुकाबले दुश्मन की ब्रिगेड थी ( एक कम्पनी में आम तौर पर 100 से 300 जवान हो सकते हैं और एक ब्रिगेड में 1000 से 3000 तक ). कहा जाता है कि तनोट और उसके आसपास 3000 बम गिराए गए जिनमें से 20% तो फटे ही नहीं और ज्यादातर सुनसान रेगिस्तान की रेत में फटे जिससे जान माल का कोई नुक्सान नहीं हुआ. 450 गोले मंदिर परिसर में या आसपास गिरे पर फिर भी मंदिर का कोई नुकसान नहीं हुआ. इससे सैनिकों में और जोश भर गया और मनोबल ऊँचा हो गया. तीसरे दिन पस्त दुश्मन की बैरंग वापसी हो गई. 1965 के इस युद्ध के बाद मंदिर का इंतज़ाम BSF ने ले लिया.
1971 में तनोट से लगभग 50 किमी दूर लोंगेवाला में पकिस्तान ने टैंकों, बख्तर बंद गाड़ियों और एक पैदल ब्रिगेड लेकर दुबारा हमला किया. वहां भी मुकाबले पंजाब रेजिमेंट की 23 वीं बटालियन की केवल 120 जवानों की कम्पनी थी. इस कम्पनी और चार हंटर विमानों ने 36 टैंक और सैकड़ों गाड़ियां को तहस नहस कर दिया और दुश्मन तीसरे दिन वापसी पर मजबूर हो गया. लोंगोवाला स्मारक में दुश्मन के रेत में धंसे बर्बाद टैंक और गाड़ियाँ जस की तस देखी जा सकती हैं.
जैसलमेर से तनोट > लोंगेवाला > जैसलमेर सड़कें बढ़िया है और ट्रैफिक बहुत ही कम. अपनी गाड़ी हमने 100 से ऊपर खूब दौड़ाई हालांकि भेड़ बकरियों का ध्यान रखना पड़ता है. सुबह तनोट मंदिर जाकर लोंगेवाला स्मारक देखते हुए शाम तक जैसलमेर वापिस आया जा सकता है. बसें, जीपें और टैक्सी जैसलमेर में उपलब्ध हैं. मंदिर परिसर में चाय पानी की सुविधा भी है. पर रास्ते के लिए पानी जरूर रख लें. रेगिस्तानी धूप बड़ी तीखी होती है और वहां हवा भी बहुत तेज़ चलती है इसलिए धूप का चश्मा और सर ढके रखना जरूरी है. पूरे रास्ते में पीली रेत के टीले और छोटी छोटी झाड़ियाँ ही नज़र आती हैं. कहीं कहीं कोई चरवाहा भेड़ बकरियों के साथ दिख जाता है. हो सकता है की हिरन या सांभर दिख जाए पर ज्यादातर इलाका सुनसान बियाबान है.
प्रस्तुत हैं कुछ फोटो:
भाटी राजपूत राजा केहर के पुत्र तन्नू राव तनोट माता के भक्त थे और उन्होंने विक्रमी सम्वत 828 याने सन 771 में मंदिर की स्थापना की थी. मंदिर का नाम और मान्यता 1965 और 1971 के भारत-पाक युद्ध के बाद बहुत बढ़ गई. तब से तनोट मंदिर हर जैसलमेर आने वाले पर्यटक की लिस्ट में शामिल हो गया है.
इस मान्यता की कहानी कुछ इस प्रकार है कि 1965 में तनोट के तीन ओर से पाक सेना ने भारी आक्रमण किया. तनोट की सुरक्षा के लिए 13 ग्रेनेडियर की एक कंपनी और BSF की दो कम्पनियाँ थी जिसके मुकाबले दुश्मन की ब्रिगेड थी ( एक कम्पनी में आम तौर पर 100 से 300 जवान हो सकते हैं और एक ब्रिगेड में 1000 से 3000 तक ). कहा जाता है कि तनोट और उसके आसपास 3000 बम गिराए गए जिनमें से 20% तो फटे ही नहीं और ज्यादातर सुनसान रेगिस्तान की रेत में फटे जिससे जान माल का कोई नुक्सान नहीं हुआ. 450 गोले मंदिर परिसर में या आसपास गिरे पर फिर भी मंदिर का कोई नुकसान नहीं हुआ. इससे सैनिकों में और जोश भर गया और मनोबल ऊँचा हो गया. तीसरे दिन पस्त दुश्मन की बैरंग वापसी हो गई. 1965 के इस युद्ध के बाद मंदिर का इंतज़ाम BSF ने ले लिया.
1971 में तनोट से लगभग 50 किमी दूर लोंगेवाला में पकिस्तान ने टैंकों, बख्तर बंद गाड़ियों और एक पैदल ब्रिगेड लेकर दुबारा हमला किया. वहां भी मुकाबले पंजाब रेजिमेंट की 23 वीं बटालियन की केवल 120 जवानों की कम्पनी थी. इस कम्पनी और चार हंटर विमानों ने 36 टैंक और सैकड़ों गाड़ियां को तहस नहस कर दिया और दुश्मन तीसरे दिन वापसी पर मजबूर हो गया. लोंगोवाला स्मारक में दुश्मन के रेत में धंसे बर्बाद टैंक और गाड़ियाँ जस की तस देखी जा सकती हैं.
जैसलमेर से तनोट > लोंगेवाला > जैसलमेर सड़कें बढ़िया है और ट्रैफिक बहुत ही कम. अपनी गाड़ी हमने 100 से ऊपर खूब दौड़ाई हालांकि भेड़ बकरियों का ध्यान रखना पड़ता है. सुबह तनोट मंदिर जाकर लोंगेवाला स्मारक देखते हुए शाम तक जैसलमेर वापिस आया जा सकता है. बसें, जीपें और टैक्सी जैसलमेर में उपलब्ध हैं. मंदिर परिसर में चाय पानी की सुविधा भी है. पर रास्ते के लिए पानी जरूर रख लें. रेगिस्तानी धूप बड़ी तीखी होती है और वहां हवा भी बहुत तेज़ चलती है इसलिए धूप का चश्मा और सर ढके रखना जरूरी है. पूरे रास्ते में पीली रेत के टीले और छोटी छोटी झाड़ियाँ ही नज़र आती हैं. कहीं कहीं कोई चरवाहा भेड़ बकरियों के साथ दिख जाता है. हो सकता है की हिरन या सांभर दिख जाए पर ज्यादातर इलाका सुनसान बियाबान है.
प्रस्तुत हैं कुछ फोटो:
सुनसान बियाबान रेगिस्तान के बीच श्री मातेश्वरी तनोट माता मंदिर |
अंतर्राष्ट्रीय सीमा से लगभग 25 किमी दूर |
मंदिर की स्थापना विक्रमी संवत 828 ( सन् 771 ) में हुई |
मंदिर का बाहरी हॉल |
अंदरूनी हॉल |
शिव - पार्वती |
तनोट माता |
मंदिर में रखे हुए पाक बमों के खोल जो उस वक्त फटे नहीं थे |
मंदिर से जुड़े हुए पीर बाबा |
मन्नत के धागे और रुमाल |
मंदिर का रख रखाव BSF के पास है |
प्रतीक्षालय |
तनोट की ओर जाती सुनसान सड़क |
तनोट के चारों तरफ है सुनहरी नरम रेत और छोटी छोटी झाड़ियाँ |
दर्शनार्थी |
पत्थर पर लिखा मंदिर का इतिहास |
स्थानीय पीले पत्थर से बना युद्ध स्मारक - तनोट विजय स्तम्भ |
1 comment:
वाव बहुत अच्छा लिखा है जी।
लाजवाब अंकल जी।।
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