चलो काम पर चलें |
बनारस में दो अमीर व्यापारी रहा करते थे. दोनों में अच्छी मित्रता भी थी पर व्यापार की नज़र से देखें तो दोनों में मारकाट भी मची रहती थी और एक दूसरे से आगे निकलने की होड़ भी लगी रहती थी. दोनों अपने साथ 50 - 60 बैलगाड़ियों मैं सामान भर कर दूर दराज इलाकों में बेचने जाते और स्वर्ण मुद्राएँ बटोर कर लाते थे. कभी कभी वापसी में माल के बदले माल भी ले आते और उसे यहाँ बेच देते. दोनों का कारोबार अच्छा चलता था.
इस बार माल भरते समय उनका इरादा बना की रेगिस्तान के उस पार जाकर माल बेचा जाए. दोनों में बातचीत हुई. उन्हें लगा की अगर दोनों एक साथ सामान लाद कर अपनी अपनी बैलगाड़ियाँ लेकर निकले तो काफी भीड़ हो जाएगी. तो क्यूँ न अलग अलग समय पर निकला जाए?
एक ने पहले जाने की पेशकश की तो दूसरे ने मान ली. इस पर पहले वाले ने सोचा 'पहले जाएंगे तो रास्ता ज्यादा उबड़ खाबड़ नहीं होगा. बैलों के लिए काफी मात्रा में हरी घास भी मिल जाएगी. बढ़िया फल और सब्जियां भी मिल जाएंगी. पहले जाने से माल आसानी से ज्यादा मुनाफे में बिकेगा और मेरे कारिंदे भी खुश हो जाएंगे. मैंने दूसरे व्यापारी का कैसा उल्लू बना दिया.'
दूसरे व्यापारी ने स्थिति पर गौर किया. 'पहले व्यापारी की बैलगाड़ियाँ रास्ता बना देंगी तो हमारे बैलों को हांकने में परेशानी कम होगी. घास थोड़ी सूख तो जाएगी पर कम नहीं होगी. फल सब्जियां भी कुछ सस्ती हो जाएंगी. पहला व्यापारी जाकर माल का रेट भी तय कर देगा इसलिए दाम लगाने में ज्यादा झिक झिक नहीं करनी पड़ेगी. पहला व्यापारी सोचता होगा की मुझे उल्लू बना दिया पर मैं ही फायदे में रहूँगा.'
पहले व्यापारी ने माल बैलगाड़ियों पर लदवाया और काफिला चल पड़ा रेगिस्तान की ओर. रेगिस्तान के छोर पर जो गाँव था उस गाँव वालों ने समझाया की पानी खूब भर लो. आगे कोसों तक पानी नहीं मिलेगा. बीच रेगिस्तान में राक्षस भी मिलेंगे उनकी बातों में ना आना वरना खा जाएंगे तुम्हें. पहले व्यापारी ने हंस कर बात टाल दी.
बैलगाड़ियाँ बीच रेगिस्तान में पहुंची तब तक बैल और गाड़ीवान बुरी तरह थक चुके थे और तपते तपते झुलस चुके थे. कपड़ों और गाड़ियों में धूल भर गई थी. तभी सामने से कुछ लोग बैलगाड़ियों में नज़र आये. सब नहाए धोये लग रहे थे और उनकी गाड़ियों में कीचड़ लगा हुआ था. उनका प्रधान जोर से हंसा और बोला' अरे मूर्खो अपनी गाड़ियों से ये घड़े उतार फेंको. गाड़ी हलकी होगी तभी तो बैल चल पायेंगे. अधमरे हो गए हो तुम भी और तुम्हारे बैल भी. रात का डेरा यहीं लगा लो. पानी तो बस थोड़ा ही दूर है सुबह नहा धो लेना. तो हम तो चले अपने रस्ते.' रात का डेरा वहीं लग गया हालाँकि गाँव वालों ने मना भी किया था. अँधेरी रात में भयानक राक्षसों ने हमला बोल दिया.
दो महीने बाद दूसरे व्यापारी की बैलगाड़ियाँ रेगिस्तान की ओर निकलीं. व्यापारी ने गाड़ीवानों की पंचायत बुलाई और बोला 'देखो रास्ता कठिन है और मैंने सुना है की बीच रेगिस्तान में भयंकर राक्षस भी रहते हैं जो भेस बदल कर झांसा देकर मनुष्यों और पशुओं को खा जाते हैं. हमें पानी बचा कर रखना होगा और बहुत सावधान रहना होगा.'
बीच रास्ते में उन्हें वही राक्षस मिले 'अरे इस धूप और धूल में तुम और तुम्हारे बैल अधमरे हो गए हो. आज रात यहीं विश्राम कर लो और गाड़ियाँ हलकी कर लो. घड़े फेंक दो सुबह तो पानी मिल ही जाएगा. क्यूँ परेशान हो? हम तो जा रहे हैं अब अपने रस्ते'. व्यापारी ने जवाब दिया 'पानी तो नहीं फेंकेंगे और डेरा भी आगे ही डालेंगे यहाँ नहीं'.
पर कई गाड़ीवान बड़बड़ाने लगे की हमें इनकी बात मान लेनी चाहिए थी. बैल तो चल भी नहीं पा रहे. तेज धूप में बदन झुलस रहा है और गला सूख रहा है. हमें यहीं डेरा डाल देना चाहिए था. पर व्यापारी नहीं माना. फिर पंचायत बुलाई और कहा 'बस बढे चलो. एक भी बूँद पानी नहीं गिराना है, आज रात हमें मशालें भी तैयार रखनी हैं और चौकन्ना रहना भी जरूरी है'. ये लोग मुझे बहरूपिये लगते हैं'. लुढ़कते पुढ़कते वे आगे बढ़ते रहे. शाम को वे उस स्थान पर पहुंचे जहाँ पहले व्यापारी पर नरभक्षी राक्षसों ने हमला किया था.
चारों ओर बैलों और मनुष्यों की हड्डियाँ बिखरी पड़ी थी जबकि बैलगाड़ियों पर सामान वैसा का वैसा ही लदा हुआ था. दूसरे व्यापारी ने थोडा सा दूर डेरा डाल दिया. मशालें जला दी गईं और चौकसी कड़ी कर दी गई. सुबह का सूरज उगा तो सब कुछ सुरक्षित था. सभी ने डट कर जलपान किया और बैलों को भी चारा देकर तैयार कर दिया गया. पुराने कारवां से सामान निकाल कर अपनी गाड़ियों में भर लिया गया.
इस यात्रा में दूसरे व्यापारी ने अच्छा लाभ कमाया.
चलो घर चलें |
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