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Tuesday, 15 December 2015

लगाव

हमारे पेंशनर ग्रुप में श्री वीरवानी भी हैं जो की दादा के नाम से जाने जाते हैं. कुछ लोग प्यार से दादा को 'मॉडल वीरवानी' भी पुकारते हैं. 'मॉडल' का ख़िताब दादा को इसलिए दिया गया है की हमारी मीटिंग में चाहे सुबह की हो, दोपहर की या शाम की, दादा के कपड़े टिपटॉप और जूते चमकते मिलेंगे, चाल में एक अंदाज़ मिलेगा और हल्की सी परफ्यूम भी महसूस हो जाएगी.

उमर 68 साल, कद 5 फुट 6 इन्च, रंग गोरा, सर पर सात आठ बाल खड़े लहराते हुए. बालों की बाकी फसल ख़तम हो चुकी थी बस किनारे किनारे एक सफ़ेद झालर रह गई थी. आँखों पर मोटा चश्मा लगा रहता था जो धूप में काला हो जाता था. रेलवे के बड़े अफसर रह चुके थे दादा. 

दादा की एक बिटिया बाम्बे में ब्याही थी और दूसरी हांगकांग में. नतीजा ये की दादा हर दूसरे महीने हवाई जहाज में 'दादी' को लेकर उड़ जाते थे. हम आपस में तो श्रीमती वीरवानी को दादी ही कहते थे पर उनके सामने नहीं वर्ना दादी हमारा हुक्का पानी बंद कर देती. 

हमें ऐसा लगता था की दादी और उनकी बेटियां दादा का बहुत ख़याल रखती थीं. दादा कभी पुराने या मैले कपड़ों में नहीं दिखाई पड़े. बताते रहते थे की ये शू 8000 का हांगकांग से लिया, ये (मोबाइल) फून सिंगापुर से लिया, ये ट्रैक सूट बॉम्बे से आया और ये बोतल ड्यूटी फ्री खरीदी वगैरा. इन सब चीज़ों से ग्रुप में उनका रुतबा था. 

इधर कुछ दिनों से दादी की तबियत खराब चल रही थी. दादा कभी एक स्पेशलिस्ट के पास ले जाते कभी दूसरे के पास. कभी हांगकांग या कभी बोम्बे में अच्छे डॉक्टर को दिखाने की बात करते. पर दादी एक दिन बिना दादा से पूछे भगवान के पास चली गई. अंतिम विदाई के बाद दादा अकेले रह गए. बैंक के लाकर में सामान था वो निकल कर बेटियों को दे दिया. खातों और मकान का हिसाब किताब भी तो करना था. पर फिलहाल दोनों बेटियां के पास टाइम नहीं था इसलिए जल्दी वापिस जाना चाहती थीं. दादा को छोड़ कर अपने अपने घरों को प्रस्थान कर गईं. फिर कभी आ जाएंगी हिसाब किताब करने.

कुछ दिन बाद दादा हमारी पेंशनर मीटिंग में पधारे. इस बार परफ्यूम की महक नहीं थी. कपड़ों की चमक में भी कमी थी और जूतों पर पोलिश भी नहीं थी. गमगीन माहौल में हाल चाल बताया. जाते जाते मुझ से मुखातिब हो कर बोले 'कल आप मेरे साथ बैंक चलना'.

पर 11 बजे तक नहीं आए तो जाकर दादा के दरवाज़े की घंटी बजा दी. देखा दादा तैयार नहीं हैं बल्कि अस्त व्यस्त हैं. बोले 'बस तैयार हो रहा हूँ. पैन्ट के साथ की मैचिंग शर्ट नहीं मिल रही है कम्बखत. जूते भी पोलिश नहीं हैं. वो ही ख़याल रखती थी. घड़ी भी जाने कहाँ रख बैठा हूँ. पास बुक तो मिल गई है पर फिक्स डिपाजिट नहीं मिली. वो ही सब कुछ सँभालती थी'. 

घर से बैंक और बैंक से घर आने तक दादा ने लगातार अपनी कथा व्यथा बताई. जाहिर था की अब दादा 'मॉडल दादा' की तरह टिपटॉप तो नहीं रह पाएंगे. मुझे महसूस हुआ की दादा को इसी बात को लेकर ज्यादा दुःख है और दादी के ना रहने का अफ़सोस कम है.

पता नहीं दादा के इस लगाव के बारे में मेरा विचार कहाँ तक ठीक है?

जीवन की राहें   


5 comments:

Harsh Wardhan Jog said...

https://jogharshwardhan.blogspot.com/2015/12/blog-post_15.html

Gulshan Hemnani said...

Interesting with nice presentation. Great 👌

Gayatri said...

यही सच्चाई है !

Harsh Wardhan Jog said...

Thank you Gulshan Hemnani

Harsh Wardhan Jog said...

Thank you Gayatri