शायद आपने झिबल खाल गाँव का नाम सुना हो, नहीं ? मैंने भी नहीं सुना था. ये तो शादी के बाद पता लगा के ये गाँव मंगोलिया में नहीं बल्कि तहसील लैंसडाउन में है. और ये तहसील जिला पौड़ी गढ़वाल में है. और ये जिला उत्तराखंड में है. उत्तराखंड तो खैर आप जानते ही हैं की भारत में है.
गाँव जाने का रास्ता सीधा है बस आप कोटद्वार पहुंच जाएं. वहां आप को जीप वालों की आवाज़ सुनाई पड़ेगी "लैंसडौन लैंसडौन". मात्र 60-70 मिनट की हिचकोलेदार यात्रा के बाद जीप ऊपर भरोसा खाल पहुंचा देगी. वहां जीप वाले को पैसे देकर जीप से बाहर छलांग लगा कर थोड़ी एक्सरसाइज कर लें क्यूंकि गाँव पहुँचने के लिए 30-40 मिनट पैदल उतरना पड़ेगा.
शुरुआत में चीड़ का घना जंगल आता है. चीड़ के पेड़ ऊँचे और मोटे तने वाले होते है, ये सीधे सीधे खड़े रहते हैं और ऊपर ऊपर जाने की कोशिश में रहते हैं. शायद उनकी इच्छा होती है कि उड़ते बादलों को पकड़ लें. इनकी पत्तियां लम्बी लम्बी सुइयों जैसे होती हैं. इनमें से जब हवा बहती है तो हलकी सी सरसराहट की आवाज़ आती है. अब चूँकि जंगल है तो कई तरह के पेड़ पौधे,पक्षी, जंगली बेर और फल भी होते हैं. साथ ही जंगली जानवर भी दिख सकते हैं.
पहली बार गाँव पहुँच कर आसपास का नज़ारा देखा कि 5-7 मकान ही थे जो दूर दूर पहाड़ी ढलानों पर छितरे हुए थे. ढलानों पर सीढ़ीनुमा खेतों के साथ साथ आम, अमरुद, पपीते, केले वगैरा के हरेभरे बगीचे थे. ढलान से नीच की ओर घाटी में नदी नज़र आ रही थी. घाटी के उस पार भी ऊँची पहाड़ियां थी जिन पर सीढ़ीनुमा खेत और कुछ मकान थे. छोटे छोटे कद की गाय खूंटों से बंधी हुईं थीं. इधर उधर बकरियां चर रहीं थी. भोटिया नस्ल के तीन कुत्ते आसपास मंडराने लगे और पता लगाने लगे कि दिल्ली की खुशबू कैसी है. स्वागत में खटिया बिछा दी गई. चाय की चुस्की लेते लेते बच्चे, बूढ़े और जवान नया पंछी देखने के लिए इकठ्ठे हो गए.
- येल के जनण जंगलातम भी लोग बस्याँ छिन !
(ये नहीं जानते कि कैसे कैसे जंगलों में लोग बसे हुए हैं ).
- यख अपड़ा पहाड़ी त आंदाई नी छिन दिल्लीवल दमादल आणक हिम्मत कार !
(यहाँ अपने पहाड़ी तो आते नहीं पर दिल्ली वाले दमाद ने आने की हिम्मत की ).
पहाड़ में रात धीरे धीरे ना आकर एकदम छा जाती है. गाँव में उस ऐतिहासिक काल में लाइट भी नहीं थी इसलिए कैंडल लाइट डिनर सात बजे से पहले ही हो गया. मकान के ऊपर वाले भाग में दो कमरे, किचन और एक बड़ी बालकनी थी जिसमें खटिया बिछा दी गई और बिस्तर लग गए. हलकी ठंडक के साथ सन्नाटा भी पसर गया. काली अँधेरी रात में जानवरों तक की आवाज़ आनी बंद हो गई. पता चला कि गाय, बकरियां और कुत्ते बाड़े में बंद कर के दरवाज़े पर सांकल लगा दिया जाता है ताकि कोई बाघ ना ले जाए ! गाँव में तो तेंदुआ, चीता या बाघ सभी बाघ ही कहलाते हैं.
खैर थकावट थी, खुशनुमा ठंडक थी और सन्नाटा था इसलिए पता ही नहीं चला कब नींद आ गयी. अचानक शोर मच गया 'बाघ बाघ'. हड़बड़ा कर बिस्तर से उठा और पूछा क्या हुआ, क्या हुआ ?
- अरे कुछ नहीं. सामने वाले गाँव में बाघ आ गया है बकरी वकरी ले गया होगा. आप सो जाओ.
- कहाँ सो जाऊं? कैसे सो जाऊं ? बाघ यहाँ आ गया तो? OMG!
- अब नहीं आएगा. भगा तो दिया उसे.
- OMG! कमबख्त यहीं घूम रहा होगा. हनुमान चालीसा भी तो याद नहीं है !
सामने वाली पहाड़ी पर कुछ मशालें और टोर्चें चमक रहीं थी. घुप अँधेरे में लोग तो नहीं दिख रहे थे पर मशालों से पता लग रहा था की कुछ दौड़ भाग हो रही है. बाघ बाघ चिल्लाने और कनस्तर पीटने की आवाज़ घाटी में गूँज रही थी. बस पांच मिनट में शांति हो गई. एक एक कर के मशालें बुझ गईं और एक बार फिर गहरा सन्नाटा छा गया. पर सन्नाटे से दिल में घबराहट बढ़ गई. अमरुद का पेड़ हलके से हिला तो लगा - आ गया. सूखे पत्ते हवा से सरसराए तो लगा - आ गया. किसी ने गला खंखारा तो लगा - आ गया. बाप रे बाप! मैनें तो बिस्तर गोल किया, खटिया उठाई और कमरे के अंदर.
नींद कहाँ आनी थी साहब ? सुबह के 4.30 बजे हल्का सा उजाला हुआ तो जान में जान आई. थोड़ी देर में बच्चे, बूढ़े और जवान अपने दैनिक कार्यक्रम में ऐसे लग गए जैसे की कुछ हुआ ही नहीं था. पता लगा की तेंदुए ने एक बकरी दबोच ली थी. इससे पहले कि वो बकरी को ले भागता लोगों ने शोर मचा दिया वो बकरी छोड़ कर भाग गया. इसलिए कुछ लोगों की बिरयानी की दावत होने वाली थी. नाश्ते के समय बाघ और बाघ के डर से खटिया कमरे में ले जाने पर चर्चा हुई. खिलखिलाती हंसी और कुटिल मुस्कान के साथ कुछ टिप्पणियां हुईं :
- ये बुबा राती दामादजी डैर ज्ञा भीतर लुक ज्ञा !
(रे बाबा रात को दामाद जी डर गए और भीतर छुप गए ! )
- छुछा दी बाघ थै दिल्लिक गंध लग ज्ञा !
(अच्छा तो बाघ को दिल्ली वालों की गंध आ गई ? )
- राती भैर बाघल रैण और भितर भूतनिल भी आण तब कख छुपला?
(अगर रात को बाहर बाघ और भीतर भूतनी आ गई तो कहाँ छुपोगे ? )
गाँव जाने का रास्ता सीधा है बस आप कोटद्वार पहुंच जाएं. वहां आप को जीप वालों की आवाज़ सुनाई पड़ेगी "लैंसडौन लैंसडौन". मात्र 60-70 मिनट की हिचकोलेदार यात्रा के बाद जीप ऊपर भरोसा खाल पहुंचा देगी. वहां जीप वाले को पैसे देकर जीप से बाहर छलांग लगा कर थोड़ी एक्सरसाइज कर लें क्यूंकि गाँव पहुँचने के लिए 30-40 मिनट पैदल उतरना पड़ेगा.
शुरुआत में चीड़ का घना जंगल आता है. चीड़ के पेड़ ऊँचे और मोटे तने वाले होते है, ये सीधे सीधे खड़े रहते हैं और ऊपर ऊपर जाने की कोशिश में रहते हैं. शायद उनकी इच्छा होती है कि उड़ते बादलों को पकड़ लें. इनकी पत्तियां लम्बी लम्बी सुइयों जैसे होती हैं. इनमें से जब हवा बहती है तो हलकी सी सरसराहट की आवाज़ आती है. अब चूँकि जंगल है तो कई तरह के पेड़ पौधे,पक्षी, जंगली बेर और फल भी होते हैं. साथ ही जंगली जानवर भी दिख सकते हैं.
पहली बार गाँव पहुँच कर आसपास का नज़ारा देखा कि 5-7 मकान ही थे जो दूर दूर पहाड़ी ढलानों पर छितरे हुए थे. ढलानों पर सीढ़ीनुमा खेतों के साथ साथ आम, अमरुद, पपीते, केले वगैरा के हरेभरे बगीचे थे. ढलान से नीच की ओर घाटी में नदी नज़र आ रही थी. घाटी के उस पार भी ऊँची पहाड़ियां थी जिन पर सीढ़ीनुमा खेत और कुछ मकान थे. छोटे छोटे कद की गाय खूंटों से बंधी हुईं थीं. इधर उधर बकरियां चर रहीं थी. भोटिया नस्ल के तीन कुत्ते आसपास मंडराने लगे और पता लगाने लगे कि दिल्ली की खुशबू कैसी है. स्वागत में खटिया बिछा दी गई. चाय की चुस्की लेते लेते बच्चे, बूढ़े और जवान नया पंछी देखने के लिए इकठ्ठे हो गए.
- येल के जनण जंगलातम भी लोग बस्याँ छिन !
(ये नहीं जानते कि कैसे कैसे जंगलों में लोग बसे हुए हैं ).
- यख अपड़ा पहाड़ी त आंदाई नी छिन दिल्लीवल दमादल आणक हिम्मत कार !
(यहाँ अपने पहाड़ी तो आते नहीं पर दिल्ली वाले दमाद ने आने की हिम्मत की ).
पहाड़ में रात धीरे धीरे ना आकर एकदम छा जाती है. गाँव में उस ऐतिहासिक काल में लाइट भी नहीं थी इसलिए कैंडल लाइट डिनर सात बजे से पहले ही हो गया. मकान के ऊपर वाले भाग में दो कमरे, किचन और एक बड़ी बालकनी थी जिसमें खटिया बिछा दी गई और बिस्तर लग गए. हलकी ठंडक के साथ सन्नाटा भी पसर गया. काली अँधेरी रात में जानवरों तक की आवाज़ आनी बंद हो गई. पता चला कि गाय, बकरियां और कुत्ते बाड़े में बंद कर के दरवाज़े पर सांकल लगा दिया जाता है ताकि कोई बाघ ना ले जाए ! गाँव में तो तेंदुआ, चीता या बाघ सभी बाघ ही कहलाते हैं.
खैर थकावट थी, खुशनुमा ठंडक थी और सन्नाटा था इसलिए पता ही नहीं चला कब नींद आ गयी. अचानक शोर मच गया 'बाघ बाघ'. हड़बड़ा कर बिस्तर से उठा और पूछा क्या हुआ, क्या हुआ ?
- अरे कुछ नहीं. सामने वाले गाँव में बाघ आ गया है बकरी वकरी ले गया होगा. आप सो जाओ.
- कहाँ सो जाऊं? कैसे सो जाऊं ? बाघ यहाँ आ गया तो? OMG!
- अब नहीं आएगा. भगा तो दिया उसे.
- OMG! कमबख्त यहीं घूम रहा होगा. हनुमान चालीसा भी तो याद नहीं है !
सामने वाली पहाड़ी पर कुछ मशालें और टोर्चें चमक रहीं थी. घुप अँधेरे में लोग तो नहीं दिख रहे थे पर मशालों से पता लग रहा था की कुछ दौड़ भाग हो रही है. बाघ बाघ चिल्लाने और कनस्तर पीटने की आवाज़ घाटी में गूँज रही थी. बस पांच मिनट में शांति हो गई. एक एक कर के मशालें बुझ गईं और एक बार फिर गहरा सन्नाटा छा गया. पर सन्नाटे से दिल में घबराहट बढ़ गई. अमरुद का पेड़ हलके से हिला तो लगा - आ गया. सूखे पत्ते हवा से सरसराए तो लगा - आ गया. किसी ने गला खंखारा तो लगा - आ गया. बाप रे बाप! मैनें तो बिस्तर गोल किया, खटिया उठाई और कमरे के अंदर.
नींद कहाँ आनी थी साहब ? सुबह के 4.30 बजे हल्का सा उजाला हुआ तो जान में जान आई. थोड़ी देर में बच्चे, बूढ़े और जवान अपने दैनिक कार्यक्रम में ऐसे लग गए जैसे की कुछ हुआ ही नहीं था. पता लगा की तेंदुए ने एक बकरी दबोच ली थी. इससे पहले कि वो बकरी को ले भागता लोगों ने शोर मचा दिया वो बकरी छोड़ कर भाग गया. इसलिए कुछ लोगों की बिरयानी की दावत होने वाली थी. नाश्ते के समय बाघ और बाघ के डर से खटिया कमरे में ले जाने पर चर्चा हुई. खिलखिलाती हंसी और कुटिल मुस्कान के साथ कुछ टिप्पणियां हुईं :
- ये बुबा राती दामादजी डैर ज्ञा भीतर लुक ज्ञा !
(रे बाबा रात को दामाद जी डर गए और भीतर छुप गए ! )
- छुछा दी बाघ थै दिल्लिक गंध लग ज्ञा !
(अच्छा तो बाघ को दिल्ली वालों की गंध आ गई ? )
- राती भैर बाघल रैण और भितर भूतनिल भी आण तब कख छुपला?
(अगर रात को बाहर बाघ और भीतर भूतनी आ गई तो कहाँ छुपोगे ? )
म्यार गों म्यार देस |
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