- कुछ नहीं ।
- मज़े हैं न दफ़्तर की चिंता न इतवार का इंतज़ार ।
- देखो सर तुम बिज़ी रहते हो मैं आराम करता हूँ, आप अपना काम करते हो और मैं अपना काम करता हूँ ! वग़ैरा ।
पर दोस्तों के बीच चलता है । कभी कभी जब हमारे जैसे आराम करने वालों की महफ़िल जमती है तो दूसरे पेग के बाद फुलझड़ियाँ शुरू होती हैं । हमारे गुप्ता जी को रिटायर हुए तीन साल हो चुके हैं । सर पर थोड़े से बाल बचे हैं जो तेल लगा कर बाँए कान से दाँए कान तक चिपका रक्खें हैं । उसी तरह से अभी भी गुप्ता जी दफ़्तर से चिपके हुए हैं । खिन्न हो कर कई बार बोल पड़ते हैं :
- यार 10 से 5 का दफ़्तर ही ठीक था । तुम्हें तो पता है मैं आडीटर रहा हूँ । ऐसी ऐसी रिपोर्ट दी हैं की पूरी ब्रांच ससपेंड हो गई यहाँ तक की टोप मैनेजमेंट की कुर्सियाँ हिल गईं । और आजकल आडिट बिलकुल डाइल्यूट हो गया है । भैया बैंक डूबेंगे अब तो भगवान ही बचाएँगे ।
भसीन साहब भी पुराने खुर्रांट हैं बोले:
- अरे यार अपना पेग ज़रा डाइल्यूट कर ले भाभी से बचना है या नहीं । बैंक बचे हुए हैं कहीं नहीं जा रहे । सारी उम्र आडिट ही करता रहा है तू कभी ब्रांच चलाई है ? चाँदनी चौक ब्रांच में मैं इतना डिपोसिट लाया था की आसपास के बैंक बंद होने की नौबत आ गई थी । बैंक पर ऐसा सिक्का जम गया कोई पाँच साल ट्रांसफ़र नहीं कर पाया ।
जैन साहब उर्फ़ नेता जी बीयर से आगे नहीं बढ़ते हैं । जब क्लर्क थे तब से नेतािगरी, राजनीति, कूटनीति से लैस हैं और जुगाड़बाज़ी से बख़ूबी परिचित हैं । अफ़सर बने तो लीडरी जारी रही । रिटायर हो गए तो रिटायर लोगों की युनीयन बना ली । मोहल्ला सभा में दख़ल रखते हैं । बोले :
- अरे भसीन ट्रांसफ़र रुकवाने तो मेरे पास ही आते थे अब क्या बड़बड़ा रहे हो ।
राणा जी तीन पेग आराम से खींच लेवे हैं कूद पड़े :
- जैन साहेब तमने तो सुसरी ऐसी ब्रांच दिलाई क़तई गुंडागर्दी वाली । पर खींच कर रख दिया एक एक को । यूँ कह दी मैंने की भई तुम गुंडे तो मैं सबसे बड़ा गुंडा । जिसका जी करे आ जावे सामणे । बस जब लो रहया तब लो शांती रही ।
गोयल साहब जो कोने में शांत बैठे रहते हैं, पेंशन के अच्छे जानकार हैं । आपके हर सवाल का जवाब जलेबी बनाकर वापिस कर देते हैं । आपने ऐसा क्यूँ किया वैसा करना था, ये शेयर किसने कहा लेने को वो लेने थे । बोले:
- अरे यार हमने तो हर तरह के अधिकारी देखें हैं अपने ज़माने में । चाहे बोस सख़्त हो या नरम, टेढ़ा हो या सीधा सबको लपेट रक्खा था । अरे यार जनरल मैनेजरों तक की पासबुक अपने बैग में रहती थी ।
अब बारी खुल्लर साहब की थी वो भी अंग्रेज़ों के ज़माने के मैनेजर हैं । मूंछ सफ़ेद हो गई है पर उनको प्यार से घुमाते रहते हैं । कहने लगे:
- कमबख्तों अच्छे टाईम पर रिटायर हो गए । मोदी के दफ़्तर में होते तो पिले रहते 9 बजे से 9 बजे तक और शायद सातों दिन ।
बहुत कठिन है डगर पनघट की |
No comments:
Post a Comment