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Wednesday, 28 October 2020

लॉकर में बंद

बैंकों में आजकल लोन के अलावा सोने के सिक्के, इन्शोरेन्स, मेडिक्लैम, म्यूच्यूअल फण्ड भी मिलने लगे हैं. पहले ये सब झमेला नहीं था. अब इसे झमेला ना कह कर  'फाइनेंशियल लिटरेसी' कहा जाने लगा है. याने पैसे कहाँ लगाने हैं और ब्याज ज्यादा कहाँ मिलेगा ये बताया जाता है. 

चालीस बरस बैंक की नौकरी कर ली, मकान बना लिया, बच्चे सेटल कर दिए और बुढ़ापे का भी इंतज़ाम कर लिया पर आज भी अगर ब्रांच में जाएं तो कोई ना कोई 'फाइनेंशियल लिटरेसी' का ज्ञान देने लग जाता है. लच्छेदार लेक्चर सुनने को मिलता है. सुन कर लगता है हम तो 'फाइनेंशियल इल-लिटरेट ही रह गए. जो भी हो अब रिटायरमेंट के बाद तो फिक्स डिपाज़िट ही अच्छी लगती है. और एक चीज़ जो अच्छी लगती है वो है 'माल' जो कभी लॉकर में डाला था. पर उसकी भी चाबी अपनी जेब में नहीं बल्कि श्रीमती के पर्स में होती है. हम तो बॉडीगार्ड की तरह पीछे पीछे चले जाते हैं और ड्राईवर की तरह गाड़ी में बिठा कर वापिस ले आते हैं.  

इसी पर लॉकर का एक किस्सा याद आ गया. कनॉट प्लेस के एक बैंक की शाखा में बहुत से लॉकर थे. कुछ छोटे, कुछ मझोले और कुछ बड़े साइज़ के थे. गिनती में शायद चार हज़ार से कुछ ज्यादा ही होंगे. ये लॉकर एक बहुत बड़े तहखाने में थे. लॉकर की दो भारी केबिनेट पीठ से पीठ मिला कर कतारों में रखी हुई थीं. इन कतारों के बीच में कस्टमर के लिए जगह छोड़ दी गई थी. तहखाने के एक कोने में लकड़ी की पार्टीशन बनी हुई थी जिसमें बैंक की अपनी भारी भरकम तिजोरियां खड़ी थीं. इनमें दिन भर का जमा कैश रखा जाता था. 

ग्राहकों के लिए लॉकर शनिवार को डेढ़ बजे तक बंद कर दिए जाते थे. लगभग उसी समय ब्रांच का कैश मैनेजर और हैड केशियर दोनों एक साथ चाबियाँ लगा कर बंद कर देते थे. उसके बाद लोहे की ग्रिल और लोहे का भारी दरवाज़ा बंद होता था. इस तरह तहखाना बंद करके अंदर की लाइट्स बाहर से बंद कर दी जाती थी. 

शनिवार को लगभग सवा एक बजे एक मेजर साब अपनी पत्नी के साथ पधारे और लॉकर रजिस्टर साइन किया. मेजर साब श्रीमती से बोले - मैं सामने पोस्ट ऑफिस होकर आता हूँ तुम लॉकर देख लो. मैडम और उनके साथ लॉकर अधिकारी अंदर गए, लाकर खोला और अधिकारी बाहर आ गया. मैडम अपने काम में बिज़ी हो गई. उन्हें टाइम का ध्यान नहीं रहा.

उधर मैनेजर और हैड केशियर कैश बंद करने आ गए. जब ये लोग आये तो लॉकर अधिकारी ने सोचा कि अब मेरा क्या काम और वो घर की ओर रवाना हो गया. कैश बंद करने की कारवाई पूरी की गई. पहले गार्ड और चपरासी बाहर निकले, फिर तिजोरी बंद करके मैनेजर और हैड केशियर. ग्रिल गेट बंद किया गया और आखिर में बड़ा भारी भरकम दरवाज़ा भी बंद कर दिया गया. गार्ड ने बिजली का स्विच बंद कर दिया. जैसे ही अँधेरा हुआ तो मैडम अंदर जोर से चिल्लाई - ये क्या है लाइट क्यूँ बंद की? पर बाहर ना आवाज़ निकलनी थी ना निकली. 

तब तक दो बज चुके थे. मेजर साब अपनी मैडम को लेने आ गए. मैडम नदारद. वो भांप गए की गड़बड़ हो गई है. जोर जोर से चिल्लाने लगे. शोर मचा तो ब्रांच का बचा खुचा स्टाफ तहखाने में इकट्ठा हो गया. चाबी वाले मैनेजर साब तो आ गए पर हैड केशियर नदारद! वो तो घर के लिए निकल चुका था. तभी किसी ने बताया की वो अक्सर सड़क के दूसरी तरफ बस लेता है शायद अभी भी खड़ा हो?

दो लोग भागे बाहर की तरफ. हैड केशियर इत्मीनान से बस स्टॉप पर बस की इंतज़ार में खड़ा था. शनिवार और लंच टाइम की वजह से बसें कम चल रही थी. तीनों ब्रांच में वापिस भागे. लाइट जलाई गई और ताले फटाफट खोले गए.  

अन्दर मैडम फर्श पर पड़ी हुई मेजर साब का नाम बुदबुदा रही थी - मेजर बचा लो, मेजर बचा लो. मैडम की आवाज़ सुन कर सबकी जान में जान आ गई. 

सावधानी हटी और दुर्घटना घटी!

लॉकर की चाबी 


Sunday, 25 October 2020

लेखा जोखा

बैंक में ऑडिट बहुत होता है. जितनी ज्यादा बिज़नेस होगा उतनी बड़ी ब्रांच होगी और उतने ही ज्यादा ऑडिटर आएँगे. एक तो घरेलू या इंटरनल ऑडिटर होते हैं ये साल में एक बार आते हैं. एक और इंटरनल ऑडिटर भी हैं जिन्हें कनकरंट ऑडिटर कहते हैं. ये बड़ी ब्रांच में बारहों महीने बैठे रहते हैं और बीच बीच में करंट मारते रहते हैं. कहीं कहीं कनकरंट ऑडिट बाहर से आये चार्टर्ड अकाउंटेंट करते हैं. हर अप्रैल में रिज़र्व बैंक अपने पैनल में से चार्टर्ड अकाउंटेंट को भेजता है जाओ ब्रांच के हालात देख कर आओ और रिपोर्ट भेजो. कभी कभी रिज़र्व बैंक अपने ही अधिकारी भी भेज देता है. क्षेत्रीय कार्यालय या अंचल कार्यालय या प्रधान कार्यालय से भी अधिकारीगण दौरा लगाते रहते हैं. पर फ्रॉड और घपले फिर भी होते रहते हैं कारण है पैसा. क्यूंकि बैंक में पैसा जमा होने के लिए आएगा और लोन देने में जाएगा तो गड़बड़ कहीं भी हो सकती है. दूसरे शब्दों में जहाँ गुड़ होगा तो वहां मक्खियाँ भी आएंगी और ततैये भी आएँगे!

अब झुमरी तलैय्या ब्रांच को ही लें. इस ब्रांच में छोटे बड़े लोन बहुत हैं, लाकर बहुत हैं और तिजोरियां भी बहुत हैं. इस कारण से स्टाफ भी बहुत है. जाहिर है की ऐसी ब्रांच में ऑडिट करने के लिए बड़ा अनुभवी ऑडिटर भेजा जाता है. इस काम के लिए हमारे प्रिय बॉस चीफ ऑडिटर गोयल साब बिलकुल फिट हैं. हेड ऑफिस ने उन्हें सन्देश भेजा जिसमें कहा गया के झुमरी जाएं और ऑडिट करें. 

हमारे गोयल साब बड़े धाकड़ और ज्ञानी ऑडिटर हैं. सही लेखा जोखा करते हैं. बड़ी बड़ी और टेढ़ी ब्रांचों का ऑडिट आसानी से निपटा देते हैं. गोयल साब के ऊपर जो बड़े साब हैं उनका पूरा पूरा आशीर्वाद गोयल साब को प्राप्त है. जब ब्रांच का ऑडिट हो जाएगा, कच्ची रिपोर्ट बन जाएगी तो गोयल साब बड़े साब से फोन पर बात कर लेंगे. बड़े साब के स्वादानुसार रिपोर्ट में नमक, मिर्च और मसाले डाल दिए जाएंगे. फिर उस रिपोर्ट पर मन मुताबिक कारवाई की जा सकती है.

इस ब्रांच के बारे में बड़े सा ने इशारा कर दिया था कि बहुत स्टाफ बैठा है वहां और फिर भी ब्रांच का बिज़नेस बढ़ नहीं रहा है. वहां मनोहर नरूला बैठा बैठा क्या कर रहा है? शाखा में अनुशासन नहीं है जरा चेक किया जाए. अब गोयल सा ऑडिट की काली किताब और अपना ब्रीफ केस लेकर झुमरी ब्रांच में पहुंच गए और शाखा प्रबंधक से बोले, 

- मनोहर जी दस बज चुके हैं और अभी पूरा स्टाफ नज़र नहीं आ रहा? सीटें खाली पड़ी हैं?

- सर आप देख रहे हैं इस सड़क पर कितना ट्रैफिक है? पार्किंग आधा किमी दूर है और बस स्टॉप दो सौ मीटर. वहां से पैदल आना पड़ता है. आप भी तो बीस मिनट बाद पहुंचे हैं. खैर मैं दोबारा बोलता हूँ सबको. 

- हुंह! कल से जो दस बजे तक नहीं पहुंचे आप उसका क्रॉस लगाइए. कल से मैं देखूंगा हाजिरी रजिस्टर. और इस रजिस्टर में तो 56 नाम हैं. ये तो बहुत ज्यादा हैं. बिजनेस तो इतना है नहीं. 

- हुंह! आपने ब्रांच की फिगर्स तो देखी नहीं फिर आप कैसे कह सकते हो बिज़नेस बढ़ा नहीं? कमाल है!

- हुंह!

- हुंह!

जाहिर था की ऑडिटर और ब्रांच मैनेजर की तलवारें खिंच गईं थीं. ऑडिट अब आसान नहीं होने वाला था. अगले दिन गोयल सा और मनोहर सा और स्टाफ ने पौने दस बजे हाजिरी लगाने की ठान ली. गोयल सा ने पार्किंग में पहुँच कर अपनी गाड़ी लगानी चाही पर जगह मिलने में देर लगी. गाड़ी लगा कर तुरंत ब्रीफ केस उठाया और तेज़ी से ब्रांच की तरफ लपके. पर मोटापा तेज़ चलने में ब्रेक का काम कर रहा था. कितनी बार पत्नी कह चुकी है वजन घटाओ पर गोयल सा सुनते ही नहीं. हाँफते हुए पसीने में तर-बतर केबिन में पहुंचे तो दस बज के पांच मिनट हो चुके थे. इससे पहले कि गोयल सा हाजिरी लगाएं मनोहर जी ने उनके नाम के आगे वाले कॉलम में क्रॉस लगा दिया. बात हॉल में पहुंची तो स्टाफ खुश हुआ और कोरस में आवाज़ आई - काटा लगा! इधर मनोहर साब बोले,

- गोयल सा ठंडा लोगे या चाय मंगाऊं?

- हुंह!

- और ये देखिये बिज़नेस फिगर्स. दस परसेंट जमा राशी बढ़ गई है और सोलह परसेंट लोन, मनोहर जी ने कागज़ आगे बढ़ा दिया. 

- हुंह!

उसके बाद तो ब्रांच का ऑडिट करना और भी मुश्किल हो गया. मूछ का सवाल था हालांकि दोनों मुछ-मुंडे थे. गोयल सा ने अपनी गाड़ी छोड़ कर बस में आना शुरू कर दिया. पर फिर भी दो चार मिनट ऊपर हो जाते थे. दफ्तर दस बजे से पहले पहुंचना भारी पड़ रहा था. लोन फाइलें और बाकी काम काज भी ठीक ठाक ही था कुछ गड़बड़ नहीं निकल रही था. उधर बड़े साब ऑडिट रिपोर्ट जल्दी चाहते थे. जैसे तैसे काम ख़तम कर के गोयल सा ने रिपोर्ट तैयार कर दी और बड़े साब को फोन पर बताया.  

रिपोर्ट में लिख दिया की ब्रांच में छप्पन आदमी काम कर रहे हैं जबकि छत्तीस ही काफी थे. बिजनेस आंकड़ा और बढ़ सकता था उतना नहीं बढ़ा है जितना की स्कोप था. गोयल सा की रिपोर्ट बड़े सा को पसंद आ गई. पर साथ ही एक और ख़ुशी की बात हुई. बड़े सा का प्रमोशन हो गया और ट्रान्सफर भी आ गई. वहां अब नए साब बैठ गए. नए साब और मनोहर साब हमप्याला थे. मनोहर साब ने फोन लगाया और ऑडिट के बारे में नए सा को कथा सुनाई. बड़े सा ने रिपोर्ट देखी और बोले, 

- हूँ बहुत नाइंसाफी है रे गोयल! 

अब बड़े सा ने मानव संसाधन विभाग में फोन लगाया और गोयल सा की डट कर तारीफ़ कर दी. गोयल जैसा आदमी ही इस ब्रांच को चला सकता है. बहुत काबिल आदमी है वगैरा. और फिर गोयल सा की पोस्टिंग उसी झुमरी ब्रांच में करा दी. गोयल सा ने ना नुकुर तो की पर ब्रांच ज्वाइन करनी पड़ी. अब बड़े साब ने फोन लगाया, 

- गोयल साब अब जल्दी से स्टाफ छप्पन से घटा कर छत्तीस करो और बिज़नेस बढ़ाओ. 

 ऑडिट


Sunday, 18 October 2020

देवियों और सज्जनों

अखबार में कुछ दिनों पहले खबर छपी थी कि जापान एयरलाइन्स भविष्य में अपने हवाई जहाज़ में इस तरह से घोषणा नहीं करेंगे - गुड मोर्निंग लेडीज़ & जेंटलमेन. अब जापानी एयर होस्टेस दूसरी तरह से घोषणा करेगी - 'गुड मोर्निंग एवरीवन' या फिर 'गुड मोर्निंग पैस्सेंजर्स'. ब्रिटेन में भी 'हेलो एवरीवन' शुरू कर दिया गया है. इसका एक कारण तो यह बताया गया की सब बराबर हैं और लिंग भेद नहीं होना चाहिए. ये पुरुष प्रधान समाज को बदलने की लम्बी कोशिश की एक कड़ी है. दूसरा कारण यह की समाज में किन्नर भी हैं तो उन्हें भी गुड मोर्निंग पहुंचनी चाहिए. तीसरा इशारा यह भी था की अब लड़की-लड़की और लड़के-लड़के जैसी शादियाँ भी हो रही हैं तो जेंटलमैन और जेंटलवीमेन शब्द छोड़ ही दिए जाएं. 

बैठे ठाले इन्टरनेट पर खोजबीन शुरू की तो पता लगा की सोलहवीं सदी में जेंटलमैन और जेंटलवीमेन दोनों शब्द चला करते थे. जेंटलमेन वो थे जो निकम्मे थे याने बड़े ज़मींदार या अमीर जो खुद कभी काम नहीं करते थे बल्कि लोग उनके लिए काम करते थे! लोग कमा कर देते थे और वो बैठ कर खाते थे! कैसे इस शब्द ने मतलब बदला की सभी आम-ओ-खास  जेंटलमैन / जेंटलवीमेन हो गए! हालांकि आम जनता की जेब खाली की खाली ही रही. जनता जनार्दन को भाषण देते समय ये संबोधन 'लेडीज़ & जेंटलमैन' कहना कब और किसने शुरू किया ये कहीं भी लिखा नहीं पाया. पता लगा कि इस तरह का कोई रिकॉर्ड नहीं है. 

कुछ समय पहले ऑक्सफ़ोर्ड विश्विद्यालय ने एक प्रयोग शुरू किया था कि छात्र छात्राएं 'ही' या 'शी' शब्द के बजाए ज़ी शब्द इस्तेमाल करें. कैसा चल रहा है ये प्रयोग? इस पर कोई जानकारी नहीं मिल पाई.    

हमारे यहाँ मीटिंग या चुनावी रैली में 'लेडीज़ & जेंटलमेन' कहना हो तो 'महिलाओं और पुरुषों' ना कह कर 'देवियों और सज्जनों' कहा जाता है अर्थात मान सम्मान बढ़ा दिया जाता है. ये अलग बात है की असल में मान सम्मान बढ़ता है या नहीं. नेताओं के भाषणों में ज्यादातर संबोधन  'भाइयों और बहनों' का है. वोट लेने के लिए रिश्तेदारी गांठने की कोशिश रहती है! नेता जी जीतने के बाद में शक्ल दिखाएंगे या नहीं कह नहीं सकते.

मीटिंग या चुनावी रैली में मित्रों, साथियों, कॉमरेड, भारतवासियो जैसे संबोधन भी इस्तेमाल होते हैं. इन शब्दों में स्त्री, पुरुष और किन्नर सभी शामिल हैं कोई भेदभाव नहीं है. परन्तु इन संबोधनों का प्रचलन कम है. 

पश्चिमी देशों के विपरीत आम तौर पर यहाँ पर किसी अनजान राहगीर से बात करनी हो तो 'सुनिए भाईसाहब, बहनजी, माताजी, अम्माजी' जैसा रिश्तेदारी वाला संबोधन ही करते हैं सुनिए श्रीमान या महाशय या साहब नहीं बोलते या काफी कम बोलते हैं. ज्यादातर पश्चिमी देशों में टीचर, बॉस या पड़ोसी को नाम से ही पुकारते हैं. नाम के साथ में सर, मैडम, जी, जनाब या साहब लगाने की जरूरत नहीं समझते हैं. हमारे यहाँ ऐसा होना मुश्किल ही लगता है की बच्चे अपनी टीचर गायत्री भट्ट को गायत्री कह कर पुकारें. चलती प्रथा का बदलना आसान नहीं है. और पुरुष प्रधानता को बदलना और भी मुश्किल है.

वैसे बराबरी का संबोधन तो राजस्थान में खूब चलता है जैसे राम राम भाई सा, भाभी सा, ससुर सा, सासू सा. हो सकता है ये 'सा' साहब या साहिबा या दोनों का संक्षिप्त संस्करण हो. जो भी हो इस 'सा' ने साहब और साहिबा का भेद समाप्त कर दिया. सा लगा कर सब बराबर! इसी सा को आगे भी बढ़ाया जा सकता है. हवाई जहाज वाली होस्टेस बोले - सभी यात्रियाँ ने राम राम सा. अपणा अपणा सामान संभालणा सा. संबोधन में तो बराबरी अच्छी है पर आम जीवन में तो वैसी बराबरी नहीं है. 

वैदिक इतिहास में गार्गी और मैत्रेयि जैसी विदुशियाँ ज्ञानी पुरुषों से शास्त्रार्थ के लिए जानी जाती हैं. इससे लगता है की लिंग भेद नहीं रहा होगा या होगा तो बहुत कम रहा होगा. इसी तरह बौद्ध ग्रन्थ 'संयुक्त निकाय' में भिक्खु संघ के प्रमुख का नाम सारिपुत्त और मोगल्लना आता है तो भिक्खुनी संघ के प्रमुख का नाम खेम्मा( क्षेमा ) और उप्पल्वन्ना( उत्पलवर्णा ) लिखा मिलता है. ये सभी महिलाएं और पुरुष समान रूप से बिना भेद भाव के अरहंत बने या निर्वाण को प्राप्त हुए. पर भारतीय इतिहास में महिला राजा का नाम सुना नहीं. 

लगभग तीन साल के लिए 1986 से 88 तक असम में पोस्टिंग हुई थी. आसपास के छोटे छोटे राज्यों में घूमने का मौका मिला. वहां बहुत से कबीले हैं - खासी, गारो, कूकी, बोडो, नागा, मिज़ो वगैरा. बहुत से कबीलों में प्रथा है की जमीन जायदाद लड़कियों को ही मिलती है. बेटियों में से भी सबसे छोटी बेटी को सबसे ज्यादा मिलती है. बूढ़े माँ बाप छोटी बेटी के साथ ही रहते हैं. इसी तरह कुछ आदिवासियों में शादी के बाद लड़का लड़की के घर चला जाता है. शादी भी स्वयम्वर की तरह ही हो जाती है. इन कारणों से वहां लड़की या महिला के प्रति पुरुषों का दृष्टिकोण अलग है. पैत्रक व्यवस्था या patriarchy का जोर कम है. पुरुष प्रधानता ज्यादातर मधुशाला में दिखती है!

हमारे पेंशनर मित्र हैं जिनके पास एक कीमती फ्लैट है और गाँव में एक आम का बाग़ और एक बड़ा पुश्तैनी मकान भी है. उनका कहना है की जमीन जायदाद तो मैं बेटे को ही दूंगा. हाँ सोना, चांदी, कैश और बैंक बैलेंस बेटी को दे जाऊँगा. जब उन्हें बताया कि अब तो बेटे बेटी का जमीन जायदाद पर बराबर का हक है तो वो बोले की जितने मर्ज़ी क़ानून बना लो पर मेरा वंश तो बेटे ने ही चलाना है. जैसे स्वर्गीय पिता जी से मुझे जायदाद मिली थी वैसे ही मैं भी बेटे को ही दे कर जाउंगा. जो प्रथा चल रही है वही चलेगी.

पिछले तीस पैंतीस साल के दौरान घूँघट की प्रथा का समाप्त होना, शादी ब्याह तय होने से पहले लड़का-लड़की का आपस में मिलना और महिलाओं का नौकरी पर जाना भी बहुत बड़े बदलाव हैं. फिर भी संसद और विधान सभाओं में महिलाएं काफी कम हैं. ऊँचे ओहदों पर भी महिलाएं कम हैं. पर आजकल के अखबार तो बलात्कार और महिलाओं पर अत्याचार की ख़बरों से रंगे रहते हैं.  इन्हें पढ़ कर तो लगता है पुरुष प्रधानता कभी घटने वाली नहीं है. अर्थात हम पुरुषों की ऊँची गद्दी सुरक्षित है!  

सागरिका घटगे 'मानसून फुटबॉल' का उद्घाटन करते हुए ( filmytown.com से साभार ). फुटबॉल कितनी दूर जाएगी? सागरिका क्रिकेट के खिलाड़ी ज़हीर खान की पत्नी हैं. 


Patriarchy / पितृतंत्र / पुरुष प्रधानता की परिभाषाएँ :

* ऐसी सामाजिक व्यवस्था जिसमें सत्ता तथा नियंत्रण पुरुषों को प्राप्त होता है न कि महिलाओं को. 

* Patriarchy is a social system in which men hold primary power and predominate in roles of political leadership, moral authority, social privilege and control of property. Some patriarchal societies are also patrilineal, meaning that property and title are inherited by the male lineage - Wikipedia.

* (i) Social organization marked by the supremacy of the father in the clan or family, the legal dependence of wives and children, and the reckoning of descent and inheritance in the male line. (ii) A society or institution organized according to the principles or practices of patriarchy - Merriam-Webster.

* A society in which the oldest male is the leader of the family, or a society controlled by men in which they use their power to their own advantage - Cambridge Dictionary. 



Wednesday, 14 October 2020

ब्रीफकेस

बैंक बड़ा हो तो स्टाफ भी ज्यादा होता है. और स्टाफ जिस तरह के समाज से आता है और जिस तरह के बम पटाखे वहां फूटते हैं वही सब कुछ अंदर भी होता रहता है. स्टाफ के आपसी झगड़े, गाली गलौज, हाथापाई भी हो जाती है. कई बार ऐसा भी हो जाता है की किसी कर्मचारी या अधिकारी ने फ्रॉड कर दिया या फिर फ्रॉड कराने में शामिल हो गया. ऐसे में जवाब तलब किया जाता है और जवाब संतोषजनक ना पाया गया तो कचहरी बैठा दी जाती है. फिर वही सब कुछ होता है - मुंसिफ, मुद्दा, मुद्दई, मुद्दालेह और आखिर में सज़ा. 

मुकदमा चूँकि मैनेजमेंट चलाती है तो इन्क्वायरी ऑफिसर मन पसंद चुन लेती है. जिस चार्जशीटेड बन्दे को बैंक प्रबन्धन ने कड़ी सजा देनी होती वहीँ गोयल साब की याद आ जाती थी. गोयल सा केस लंबा खींचना हो या जल्दी  ख़त्म करना हो तो कर देते थे. इन्क्वायरी उलझाए रखने, आरोपी को धमकाने डराने में भी तेज़ थे. मैनेजमेंट के मूड के मुताबिक रिपोर्ट तैयार कर देते थे. कड़ी सजा देनी हो तो रिपोर्ट में ऐसा लिखते की मानो इस बन्दे और इस बन्दे की करतूत के कारण बैंक का दिवाला पीटने वाला है. इसलिए चार्जशीटेड बन्दे को बैंक के बाहर फेंक देना चाहिए. 

गोयल सा enquiry और inquiry में फर्क करते थे. उनका कहना था मैं इन्क्वायरी 'e' से नहीं 'i' से करता हूँ -  'i' याने डंडा! ऐसे धाकड़ इन्क्वायरी ऑफिसर का मुकाबला कौन करे? बचाव पक्ष में बचाव बस कॉमरेड मनोहर उर्फ़ मन्नू भैय्या ही कर पाते थे. छोटे मोटे बचाव अधिकारी तो गोयल सा से खौफ खाते थे और कन्नी काट जाते थे. 

एक बार हमारे मित्र ने किसी मैनेजर को कथित अपशब्द बोल दिए. हमारी जानकारी में ये मित्र अच्छी भाषा का ही इस्तेमाल करता था गलत शब्द नहीं बोला करता था. क्या जाने क्या हुआ होगा? हो सकता है की किसी बात पर मैनेजर साब की पूँछ पर पैर आ गया हो. बहरहाल जब गोयल साब को जज बनाया गया तो जाहिर था सजा सख्त होगी. 

इन्क्वायरी का सातवाँ दिन था. बचाव पक्ष से कॉमरेड मनोहर ने हमारे मित्र के पक्ष में दलील पेश करनी थी. कॉमरेड ने मित्र के कान में फुसफुसाया - देख चार बजे गोयल आएगा. मैं उस के साथ किसी ना किसी बहाने तू तू मैं मैं शुरू कर दूंगा. वो भी ऊँचा ऊँचा बोलने लगेगा. इस बीच जैसे ही उसका ध्यान इधर उधर हो तू उसका ब्रीफकेस ले कर ब्रांच के बाहर भाग जाना. और मेरी वेट करना. बाकी मैं सम्भाल लूँगा. मित्र झिझका और घबराया पर फिर हिम्मत कर के उसने हाँ कर दी.  

गोयल सा आए और आकर राजा भोज की सीट पर विराजमान हुए. मुकदमा आगे बढ़ने के लिए तैयार हो गए. आरोपी मित्र और कामरेड मनोहर नमस्ते कर के बैठ गए. कामरेड ने ड्रामा शुरू कर दिया - क्या सर झूठे केस बनाते हो, जी एम के चमचे हो .....गोयल सा भी भिड़ गए - ये क्या बकवास है? मुझे इन्क्वायरी दी गई है मुझे काम करने दो. बदतमीज़ी नहीं करना वरना मैं देख लूँगा तुमको... 

वार्तालाप ऊँची ऊँची आवाज़ में शुरू हो गई और केबिन का तापमान बढ़ गया. इस बीच कॉमरेड ने मित्र को इशारा किया. मित्र ने ब्रीफकेस उठाया और बाहर भाग लिया. अब गोयल सा का पारा सातवें आसमान पर पहुँच गया. फ़िल्मी डायलाग शुरू हो गए. काफी देर तक गरमा गर्मी चलती रही.  

पर ए सी की ठंडक ने थोड़ी देर में गोयल सा को शांत कर दिया और वो बोले - अरे यार मेरा कैश पड़ा हुआ है उस ब्रीफकेस में, गाड़ी की चाबियाँ हैं ऐसा कैसे कर सकते हो आप? सरासर गुंडागर्दी है ये तो! 

जवाब में कॉमरेड मनोहर समझाने लगे- गोयल सा ठण्ड रखो ठण्ड. कॉमरेड ने पानी मंगाया, चाय मंगाई और अंत में आपसी सुलह हो गई. हमारा मित्र बाइज्ज़त बरी हो गया. 

अंत भला तो सब भला. 

गोयल सा का ब्रीफकेस 

Saturday, 10 October 2020

देर कर दी

पंजाबी बोलना सीखना चाहिए या फिर बंगाली बोलना? या फिर दोनों? पर मुश्किल तो यो हो रही की सिखाए कौण? 

मनोहर जी आजकल बैंक में काम कर रहे हैं और रहने वाले हैं गाँव खेड़े के. अब खेड़े में ये दोनों भाषाएँ बोलने बताने वाला कोई है नहीं. तो मनोहर जी उर्फ़ हमारे मन्नू भैया का काम कैसे होगा? एक दोस्त ने सुझाव दिया अंग्रेजी बोलना सीख ले तो सारे काम निपट जाएंगे. अंग्रेजी सिखाने के वो पैसे भी नहीं लेगा. कनॉट प्लेस में तो नौकरी है ही वहां कोई किताब विताब ले लेगा और आगे पढ़ लेगा. क्यूँ जी? 

बात मन्नू भैय्या को जंची और एकाध पाठ पढ़ा भी. दोस्त ने बताया की अगर लड़की को अपना प्यार जताना हो तो कहना 'आई लव यू'. बहुत प्रैक्टिस के बाद भी मन्नू भैय्या 'आई लव जू' ही बोल पाए. यू और जू अलग अलग हैं मन्नू भैय्या को समझ तो आ रहे थे पर उच्चारण ठीक से ना हो पा रहा था जी. आपको तो पता ई है जी गाम में तो आम तौर पर नूं ही बोला जा - अबे जे का है? और बताऊँ जी यमुना नदी को भी तो जमना जी ही कहा जावे है क्यूँ जी?  

बात जे है की हमारे मन्नू भैय्या गाम छोड़ के सहर चले गए बैंक में नौकरी करने. वहां भान्त भान्त के लोग आवें तरा तरा की बोली बोलें जभी तो भैय्या ने सोची की दो एक बोली और सीख लें काम आ जागी. जहाँ पोस्टिंग हो लोकल भासा पहले सीखो क्यूँ जी. एक बात और भी तो है जी की हमारे मन्नू भैय्या अब तक कंवारे हैं. तो आप जानों बैंक में कोई पंजाबी बंगाली छोरी भी तो हो सके. टांका भिडाने में आसानी हो जा हाहाहा! क्यूँ जी? 

पर जे बात बाद में पता लगी जी की पंजाबी छोरी कैड़े सवाल कर गई मन्नू भैय्या से. बोली, कहाँ कहाँ से आ जाते हैं बालों में तेल चुपड़ के? लो बताओ भैय्या? कच्ची घनी का सरसों का तेल ले के आप बालों में गेर दो तो भैय्या दूर दूर तक चमकेंगे. पर हमारे भैय्या तेल की सीसी वापिस ले आए. योई बात खराब लगे दिल्ली वाली लड़कियन की. फिर दूसरे दिन बोली, कहाँ कहाँ से आ जाते हैं भूसे की स्मेल ले के? लो बताओ? उस दिन भैय्या दरअसल सुबह भैंसिया को चारा पानी दे के, फटफटिया दौड़ा के, सीधे डूटी पे जा लिए थे. बस जी दोस्ती छुट गई. सहर की छोरियां से बात जल्दी ना बनती. ऐंठन बहुत है ऐंठन. अब अपनी ऐंठ में रहती हों तो रहें.

पर जे बात भी बाद में पता लगी की कलकत्ते की छोरी जो बैंक में मन्नू भैय्या के साथ काम करे थी वा में ऐंठन ना थी. भैय्या ने बताया के संध्या की बड़ी बड़ी आँखें और बाल तो काले और इतने लम्बे की जमीन पे लोट रहे. उसी की खातर बंगाली पढनी थी मन्नू भैय्या ने. पर गाम में कौन पढावे? तब अंग्रेजी भासा का पाठ पढा. फिरंगी भासा अटक अटक के पढी जा. जल्दी से ना आती. मन्नू भैय्या को दोस्त ने सिखा दिया था की जब बोलना हो 'मैं तुम पे मरता हूँ' बोल दियो 'लेडी आई डाई ओन यू'. पर बेचारे भैय्या गड्ड मड्ड बोल दें थे - लेडी डाई आई जू.

भैय्या कोसिस कर के संध्या को नमस्ते जरूर कर दें थे. हालचाल भी रोज पता करें थें. एक दिन संध्या से पूछी- नास्ते में हमारे तो परांठे बनते हैं आप के तो मछली बनती होगी? जवाब में वो बोली, 

- मनोहर जी देस बिदेस में तरा तरा के खाने बनते हैं. मर्जी हो मछली खाओ ना मर्जी हो ना खाओ. 

बात तो लड़की ने ठीक कही जी. खाना हो खाओ ना खाना ना खाओ. उसके बाद लड़की छुट्टी ले के और कलकत्ते चली गई.    

खैर बड़े दिनां बाद कलकत्ते से वो संध्या वापिस आई. मन्नू भैय्या बोले,

- नमस्ते संध्या जी. कई दिन बाद आए हो जी?

- हेल्लो मनोहर जी. हाँ घर जाओ तो ऐसा ही होता है समय लग ही जाता है. 

- बड़ी सुंदर साड़ी पहरे हो जी. जच रही है जी. 

- थैंक्यू . मेरे मंगेतर ने दी है.

- ओ तेरे की! ***? # @ >*< % $ ?!***. 

भैय्या कुछ सोच में पड़ गए. मन को मजबूत करा और फिर बोले, 

- मैं सोचूं था आप आओगे तो जी शादी की बात चलाऊंगा जी. परपोज करना था जी आपको.   

- कमाल है मनोहर जी ! पर आपने देर कर दी.

मन्नू भैय्या के दिल का गुलाब कतई मुरझा गया जी.  

बाएं से दाएं - मंगेतर के गुलाब 😀 और मनोहर का गुलाब 😞 


Wednesday, 7 October 2020

केबिन में क्रांति

बड़े बड़े बैंकों में छोटी छोटी बातें होती रहती हैं. अब देखिये झुमरी तलैय्या की सबसे बड़ी ब्रांच के सबसे बड़े केबिन में सबसे बड़े साब गोयल जी बिराजमन थे. बड़ी सी टेबल पूरी तरह से ग्लास से ढकी हुई थी. एक तरफ कुछ फाइलें थी, अखबार थी, पेन स्टैंड था और फोन था. सामने तीन कुर्सियां थी जिनमें से एक पर ब्रांच यूनियन के सेक्रेटरी कॉमरेड मनोहर बैठे थे. 

आप तो गोयल साब और कॉमरेड को जानते ही होंगे? नहीं तो हम परिचय करा देते हैं कोई दिक्कत नहीं है. हमारे गोयल सा ज़रा सा सांवले कलर में हैं पर सफ़ेद कमीज़ पहनते हैं, लाल काली टाई लगाते हैं. उनके टकले सर पर दर्जन भर बाल खड़े रहते हैं जो यदा कदा हवा में लहरा जाते हैं फिर वापिस आ कर खड़े हो जाते हैं. हाव भाव में गोयल सा का अंदाज़ कुछ यूँ रहता है - अरे हटो यार तुम्हारे जैसे बहुत देखे हैं. 

कामरेड मनोहर उर्फ़ मन्नू भाई कुछ बरस पहले ही नौकरी में आए हैं. गाँव खेड़े के हैं तो ज़रा हृष्ट पुष्ट हैं. जोर से बोलते हैं. बताते हैं की कभी हम गाय भैंसिया वगैरह चराते थे. वही सब तो आवाज़ अंदाज़ में आ गया है. बुलंद आवाज़ में गजब के नारे लगाते हैं. अब जो जोर से बोलता है वही ना यूनियन का नेता बनता है? कामरेड की भाव भंगिमा यूँ रहती - अबे मानता है की नहीं?     

ब्रांच के केबिन में चीफ सा और कॉमरेड सा की आमने सामने गरमा गरम बहस चल रही थी. मुद्दा था ओवरटाइम. चीफ सा दस घंटे की पेमेंट देने के लिए तैयार थे जबकि कॉमरेड बीस घंटे का ओवरटाइम मांग रहे थे. 

बैंकों का राष्ट्रीयकरण को तीन चार बरस बीत चुके थे. रोज़ नई शाखाएं खुल रहीं थी और नया स्टाफ भी भरती हो रहा था. बैंक जो दरबार-ए-ख़ास हुआ करता था अब दरबार- ए-आम होता जा रहा था . शहर की बड़ी शाखाओं में भी नया स्टाफ पोस्ट किया जा रहा था. इसी ब्रांच में सौ लोग थे अब 110 हो गए हैं. 

बैंक का ख़याल था की ओवरटाइम अब बंद कर दिया जाए क्यूंकि एक्स्ट्रा स्टाफ दे दिया गया है. यूनियन कहती थी दिसम्बर और जून में खातों में ब्याज लगाने का काम एक्स्ट्रा था इसके ओवरटाइम मिलना चाहिए और सबको मिलना चाहिए. 

ब्रांच में बड़े लोन और फोरेन एक्सचेंज का काम भी था और रूसी एम्बेसी का खाता भी. केबिन में अभी बातचीत चल ही रही थी कि एक रूसी महिला और एक सज्जन भी अंदर आ गए.  

कामरेड ने मौके की नज़ाकत देख कर बात ख़तम करनी चाही और खड़े हो गए. बोले - चलो आप पंद्रह घंटे दे दो. 

चीफ साब बोले - नो! दस घंटे. 

कामरेड ने खड़े खड़े थोड़ा और ऊँचे सुर में बोल दिया - पंद्रह घंटे! और यह कह कर मेज़ पर जोर से थपकी मारी. उसी हाथ की कलाई में स्टील का कड़ा पहना हुआ था वो जोर से शीशे से टकराया और शीशा कड़क गया. आवाज़ सुन कर बाहर बैठा स्टाफ भी देखने लग गया. ये दृश्य देख कर दोनों रूसी तुरंत खड़े हो गए और महिला ने सोचा की भारत में क्रांति आरम्भ हो गई है. वो बोल पड़ी, 

революция ( revolution)! और दोनों रूसी केबिन से बाहर भाग लिए. 
गोयल सा भी उछल कर खड़े हो गए. कॉमरेड को लगा काम खराब हो जाएगा सो बोले, 
- सॉरी चीफ साब सॉरी.

खैर जो भी हुआ इस क्रांति का समापन शांतिपूर्ण रहा. क्रांति केबिन के अन्दर ही समाप्त हो गई. 
ओवरटाइम? वो तो दस घंटे में ही संतोष करना पड़ा.  
गोयल सा की ऐतिहासिक टेबल 



Saturday, 3 October 2020

खाली प्याला

बैंक में नौकरी लगे मनोहर को अभी ज्यादा दिन नहीं हुए थे. इम्तिहान देकर नौकरी लगी तो अपना गाँव कसेरू खेड़ा छोड़ कर कनॉट प्लेस पहुँच गए. कहाँ हरे भरे खेत और गाय भैंस का दूध और कहाँ ये कंक्रीट जंगल और चाय और कॉफ़ी. पर फिर भी कनॉट प्लेस की इमारतें, बड़े बड़े सुंदर शोरूम, रेस्तरां वगैरह में मनोहर उर्फ़ मन्नू भैया का दिल उलझ गया. अब वापिस जाना मुश्किल लगता था.

एक बड़ी दिक्कत थी यहाँ इस बैंक में. वो ये की कोई बात नहीं करता था और ना ही कोई बात करती थी. खुद बात शुरू करनी पड़ती थी. चलो आदमियों से क्या बात करणी थी उनें सुसरों को तो छोडो पर कोई सी छोरी भी ना बात करे तो जी में आग लगनी थी के नईं? 

बैंक में आए भी कई महीन्ने हो लिए पर काम भी पूरा ना सीख पाया. लोग सिखाते भी ना हैं जी पता नहीं क्यूँ? ट्रेनिंग में जो सीखा सो सीखा. फिक्स डिपाजिट है, लाकर है, लोन है जितने लोग बैठे हैं कोई ना काम समझाता. काम सीख के उस सीट पे कुंडली मार के बैठ जाँ. भई नया आदमी आया है इसे बता तो दो पर ना नू सोचें की पोल खुल जाएगी. किसी दिन इन सबका पत्ता साफ़ करणा है.

इब आज लोन डिपार्टमेंट में ड्यूटी लगा दी है मैनेजर साब ने. लोन की संध्या मैडम पता नहीं कुछ काम सिखाएगी या वो भी बैरंग वापिस भेज देगी. चलो ध्याड़ी तो पूरी करणी ही पड़ेगी. वैसे संध्या देखने में भली लागे है, जीन वीन पहरे है और जब चले है तो हॉल में टिक टोक चले है, अंग्रेजी भी बोले है थोड़ी घणी. चल भाई डिपार्टमेंट में चलो. आज तो अखबार में 'आज का भविष्य फल' भी ना पढ़ा!

संध्या बड़े अच्छे से मनोहर से पेश आई. उसने लोन फाइलों का काम बड़ी अच्छी तरह से समझाया. जब भी कोई सवाल मन्नू ने पूछा संध्या ने पूरी तरह से समझाया और करके भी दिखाया. मन्नू भैय्या का दिल बाग़ बाग़ हो गया और भैय्या वो गदगद हो गए. चार बजे तक संध्या के फैन हो गए और साढ़े चार बजे बोले,

- संध्या जी मैं दिल की बात कहूँ जी? 

- हाँ कहो.

- आज तक इस ब्रांच में मुझे किसी ने इतने बढ़िया तरीके से काम नहीं सिखाया जितना आपने जी. सब सिखाने के नाम पर टरका देते हैं जी. मैं तो जी आपको दिल से कह रहा हूँ जी रिक्वेस्ट है जी. आपको आज मैं चाय कॉफ़ी या आइस क्रीम जो भी आपकी इच्छा हो, मैं खिलाऊंगा जी.

- हाँ हाँ क्यूँ नहीं. मैं मंगा देती हूँ अभी. बताइये क्या लेंगे आप? 

- ना जी ना! मेरी तरफ से और यहाँ नहीं बाहर बैठेंगे जी.

- अच्छा ठीक है पांच बजे चलेंगे. मेरे एक गेस्ट आने वाले हैं पांच बजे इकट्ठे चलेंगे. 

- थैंक्यू जी. मैं सामने सोफे पर बैठा हूँ जी आप इसारा कर देना. 

सोफे पर बैठे मनोहर जी के मन में सितार, गिटार, बांसुरी, शहनाई और कई तरह की घंटियाँ बजने लगीं. मन कभी नदिया किनारे, कभी बगिया में और कभी आसमान में उड़ रहा था. पर बड़े सावधानी से अपना पर्स निकाल कर चेक किया की नोटों की संख्या में कमी तो नहीं है. बिल का भुगतान हो जाएगा जी. आश्वस्त होकर फिर से सपनों में खो गए मन्नू भाई. सपनों के बीच में काली घटा भी आई पर जल्दी उड़ गई थी. 

पांच बज के पांच मिनट पर देखा तो संध्या अपनी सीट पर खड़ी हुई थी चलने के लिए तैयार और सामने कोई कन-कौव्वा खड़ा हुआ बतिया रहा था. जरूर लोन लेने वाला होगा कमबखत. ये लोन लेने वाले शाम को ही आते हैं. तब तक दोनों काउंटर के पीछे से घूम कर सामने आ गए.

- मनोहर जी चलो कहाँ चलना है? 

मनोहर जी भी खड़े हो गए. कभी संध्या को और कभी कन-कौव्वे को देखने लगे. एक तरफ तो गुस्सा आ रहा था ये कन-कौव्वा बीच में टपक पड़ा. दूसरी तरफ ख़तरा नज़र आ रहा था ये संध्या का भाई वाई ना हो. जो भी हो ये अगर साथ चला तो मज़ा कतई किरकिरा होने वाला है.

- वो...

- मनोहर जी मैं परिचय कराना तो भूल ही गई. ये मेरे मंगेतर हैं युगल किशोर जी और आप हैं मनोहर जी. मनोहर जी आज कहीं ले जाने वाले हैं हमें? 

- वो क्या है संध्या जी आज नहीं, आज नहीं. मुझे कुछ काम याद आ गया है.

दोनों बोल पड़े - चलिए चलिए मनोहर जी चलते हैं?

- आप दोनों घूम आइए जी. मैं फिर कभी चलूँगा, कहते कहते मन्नू भाई का मुंह लाल हो गया. 

दोनों खिलखिलाते हुए निकल गए. मन्नू भाई की प्रबल इच्छा हुई की आसपास कोई गड्ढा हो तो उसमें छलांग लगा दूँ.    

प्याला खाली था और खाली ही रह गया