बीकानेर गए तो पता लगा कि लगभग 30 किमी दूर देशनोक नामक स्थान पर करणी माता का मंदिर है. ये एक ऐसा मंदिर है जहाँ हजारों चूहे घूमते रहते हैं. हम तो घर में एक भी चूहा घुस आए तो डंडा लेकर मारने दौड़ते हैं और यहाँ इस मंदिर में हजारों चूहे? मन में पहले तो अविश्वास हुआ फिर देखने की इच्छा हुई. पहले इंटरनेट पर देखा और फिर जाना तय कर लिया. वैसे करणी माता के दो और मशहूर मंदिर भी हैं एक अलवर में बाला किले के पास और दूसरा उदयपुर में माछला पहाड़ी पर. पर यह मूषक मंदिर अपने चूहों के कारण ज्यादा चर्चा में रहता है.
बीकानेर से देशनोक जाने के लिए सड़क अच्छी है और बसें, टैक्सी आसानी से उपलब्ध हैं. मंदिर की बड़ी मान्यता है इसलिए बहुत से भक्त और साधक आते जाते रहते हैं. रुकने के लिए मंदिर के आस पास धर्मशालाएं भी हैं. साल में दो बार नवरात्रों में यहाँ मेले भी लगते हैं.
सफ़ेद संगमरमर से बना मंदिर आकर्षक है और राजस्थानी / मुग़ल शैली में की गई नक्काशी बहुत सुंदर हैं. मंदिर का निर्माण कार्य बीकानेर के महाराजा गंगा सिंह ने पंद्रहवीं शताब्दी में शुरू कराया था. मंदिर में चांदी के पत्रे वाले दरवाज़े हैं उन पर भी चूहे बने हुए हैं. मंदिर में चूहों के लिए चांदी की प्लेटें हैं जिनमें पीने के लिए दूध डाल दिया जाता है. मजेदार बात ये है कि मंदिर के बाहर चूहे नजर नहीं आते. मंदिर के चूहों को काबा कहा जाता है. प्लेग जैसी कोई दुर्घटना भी यहाँ कभी नहीं हुई जबकि ये चूहे प्रशाद में भी घुसे रहते हैं!
करणी माता को माँ जगदम्बा का अवतार माना जाता है. कहा जाता है की करणी माता के आशीर्वाद से बीकानेर और जोधपुर रजवाड़ों की स्थापना हुई. बीकानेर राजघराने की कुलदेवी भी करणी माता ही हैं.
करणी माता का जन्म 1387 में चारण राजपूत परिवार में हुआ और इनका बचपन का नाम रिघुबाई था. इनकी शादी दीपोजी चारण से हुई जबकि इनकी वैवाहिक जीवन में रूचि नहीं थी. इन्होनें अपनी छोटी बहन गुलाब की शादी अपने पति से करवा दी ताकि पति का वैवाहिक जीवन चलता रहे. दो साल ससुराली गाँव में रहने के बाद बंजारों का जीवन शुरू कर दिया. पशुओं और कुछ भक्तों के साथ जंगलों में चरवाहों की ज़िन्दगी व्यतीत करने लगी. पशु चराते चराते जहां रात हुई वहीं छावनी डाल दी जाती थी.
एक बार इनका काफिला जांगलू नामक गाँव में पहुंचा. इस इलाके का शासक राव कान्हा था. शासक के कारिंदों नें पानी पीने और पशुओं को पिलाने से मना कर दिया. करणी माता ने अपने एक अनुयायी राव रिदमल को वहां का शासक नियुक्त कर दिया. राव कान्हा और उनके सैनिकों ने करणी माता का विरोध किया और भला बुरा कहा. करणी माता ने एक रेखा खिंची और राव कान्हा से रेखा पार ना करने के लिया कहा. पर वो ना माना और वह परलोक सिधार गया.
सन 1453 में राव जोधा ने करणी माता के आशीर्वाद से अजमेर, मंडोर और मेड़ता के इलाकों को जीत लिया था. राव जोधा के बुलावे पे करणी माता ने जोधपुर किले का नींव पत्थर 1457 में रखा.
वैसे तो करणी माता का पहला मंदिर उनके जीवन काल में अमर चारण द्वारा 1472 में ही बना दिया गया था. इसी साल में करणी माता ने राव बिका ( जिन्होनें बीकानेर बसाया ) की शादी रंग कुंवर से करवा दी. रंग कुंवर राव शेखा की बेटी थी जो भाटियान राजपूत थे. ऐसा करने से बहुत देर से चली आ रही राठोड़ - भाटियान परिवारों की दुश्मनी समाप्त हो गई. 1485 में करणी माता ने बीकानेर किले का नींव पत्थर रखा.
मंदिर में चूहे होने का एक किस्सा आसपास के दुकानदारों ने बताया कि किसी लड़ाई में हार के कारण 20000 सैनिकों का एक जत्था मैदान छोड़ कर भाग कर करनी माता की शरण में आया. जंगी मैदान छोड़ने की सजा तो मौत थी और ये लोग बचना चाहते थे. करणी माता ने कहा कि बचना है तो चूहे बन कर रहना होगा. तभी से यहाँ चूहे घूम रहे हैं और मंदिर परिसर के बाहर नहीं दिखते हैं.
मार्च 1538 में करणी माता महाराजा जैसलमेर से मिलकर बीकानेर की ओर वापिस आ रही थीं. रास्ते में कोलायत तहसील के गडियाला गाँव के पास पानी पीने के लिए पड़ाव डाला गया. इस पड़ाव के बाद वे ज्योतिर्लीन हो गईं और फिर कभी देखी नहीं गईं. उस वक़्त उनकी उम्र 151 साल बताई जाती है. तब से ही लगातार उनकी पूजा अर्चना की जा रही है.
प्रस्तुत हैं कुछ फोटो :
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करणी माता मंदिर, देशनोक, बीकानेर |
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मुख्य द्वार के दाहिनी ओर संगमरमर पर नक्काशी |
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मुख्य द्वार के बाईं ओर नक्काशी. झरोखे पर चांदी के पल्ले चढ़े हुए हैं और उस पर भी चूहे बने हुए हैं |
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द्वारपाल |
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दूसरा द्वारपाल सो रहा है. सुंदर बना है पर पता नहीं सोता हुआ क्यूँ बनाया |
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मंदिर का आँगन जालियों से ढका हुआ है ताकि चील या गिद्ध जैसे पक्षी चूहों का शिकार न कर सकें |
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प्रशाद बनाने के कढ़ाहे |
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मंदिर के बाईं ओर का चांदी का दरवाज़ा |
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बताया जाता है की लगभग बीस हज़ार चूहे मंदिर में रहते हैं. अगर आप को सफ़ेद चूहा दिखे तो आप किस्मत वाले हैं |
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चांदी के परात में दूध. चूहों की बड़ी तादाद के कारण इसे चूहों का मंदिर भी कहा जाता है |
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दूध पीते चूहे. मंदिर में चलते हुए ध्यान से पैर रखें. बल्कि पैर घसीट कर चलें. आप के पैर के आसपास घूम रहे चूहों में से कोई दब ना जाए. दबने का मतलब है अपशगुन. अगर दब कर मर गया तो बदले में चांदी का बना चूहा दान करना होगा |
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कबूतरों से बचने के लिए जालीयां भी लगी हुई है पर फिर भी चुग्गा दाना ढूंढते ढूंढते कबूतर अंदर स्टोर में भी पहुँच जाते हैं. |
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दर्शानर्थी |
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