लौद्रवा नामक जैन तीर्थ जैसलमेर से लगभग 16 किमी दूर है. यहाँ एक बहुत ही सुंदर और प्राचीन मंदिर - जिनालय है जो 23वें जैन तीर्थंकर पार्श्वनाथ जी को समर्पित है.
लौद्रवा को लुद्र्वा या लुद्रावा भी कहते हैं. हज़ार बारह सौ साल पहले जब ईरान, इराक, अफगानिस्तान से व्यापारी ऊँटों के कारवां लेकर चलते थे उस वक़्त लौद्रवा व्यापारियों का एक छोटा सा पड़ाव था. यहाँ लोधुरवा राजपूतों का निवास था. नौवीं सदी में भाटी राजपूत देवराज ने लौद्रवा पर कब्जा कर लिया और इसे राजधानी बनाया.
व्यापारी कारवाँ का पड़ाव होने के कारण यह क्षेत्र समृद्ध था. इसी कारण यहाँ लूटपाट और हमले भी होते रहते थे. 1025 में महमूद ग़ज़नवी ने लौद्रवा की घेरा बंदी की और दूसरा बड़ा हमला 1152 में मोहम्मद गौरी ने किया. इन हमलों में मंदिर और शहर का जान माल का भारी नुक्सान हुआ. सुरक्षा को मद्दे नज़र रखते हुए महाराजा जैसल ने 1178 में राजधानी को लौद्रवा से हटा कर नई राजधानी जैसलमेर में बना दी.
हमलों में बर्बाद हुए मंदिरों को एक व्यापारी थारू शाह ने 1615 में दुबारा बनवाना शुरू किया. समय समय पर मंदिर का काम होता रहा और 1970 में इन्हें पूर्ण सुन्दरता के साथ पुनः स्थापित कर दिया गया. मंदिर में ज्यादातर स्थानीय पीला पत्थर इस्तेमाल किया गया है. पर साथ ही जोधपुर से लाया गया हल्का गुलाबी और मकराना का सफ़ेद संगमरमर भी इस्तेमाल किया गया है. मंदिर की जगती, स्तम्भ, तोरण, झरोखे और पत्थर की जालियों पर कमाल की और मनमोहक कारीगरी है.
मंदिर दिन भरे खुले रहते हैं और फीस देकर कैमरा इस्तेमाल किया जा सकता है. पास में ही जैन सात्विक भोजनालय है जहाँ संध्या से पहले कूपन पर भोजन उपलब्ध हो जाता है. जैसलमेर से आने जाने के लिए जीप और टैक्सी आसानी से मिल जाती हैं. पर थार रेगिस्तान के इस इलाके में तीख़ी धूप और तेज़ हवाएं चलती हैं ध्यान रखें. कुछ फोटो प्रस्तुत हैं:
लौद्रवा को लुद्र्वा या लुद्रावा भी कहते हैं. हज़ार बारह सौ साल पहले जब ईरान, इराक, अफगानिस्तान से व्यापारी ऊँटों के कारवां लेकर चलते थे उस वक़्त लौद्रवा व्यापारियों का एक छोटा सा पड़ाव था. यहाँ लोधुरवा राजपूतों का निवास था. नौवीं सदी में भाटी राजपूत देवराज ने लौद्रवा पर कब्जा कर लिया और इसे राजधानी बनाया.
व्यापारी कारवाँ का पड़ाव होने के कारण यह क्षेत्र समृद्ध था. इसी कारण यहाँ लूटपाट और हमले भी होते रहते थे. 1025 में महमूद ग़ज़नवी ने लौद्रवा की घेरा बंदी की और दूसरा बड़ा हमला 1152 में मोहम्मद गौरी ने किया. इन हमलों में मंदिर और शहर का जान माल का भारी नुक्सान हुआ. सुरक्षा को मद्दे नज़र रखते हुए महाराजा जैसल ने 1178 में राजधानी को लौद्रवा से हटा कर नई राजधानी जैसलमेर में बना दी.
हमलों में बर्बाद हुए मंदिरों को एक व्यापारी थारू शाह ने 1615 में दुबारा बनवाना शुरू किया. समय समय पर मंदिर का काम होता रहा और 1970 में इन्हें पूर्ण सुन्दरता के साथ पुनः स्थापित कर दिया गया. मंदिर में ज्यादातर स्थानीय पीला पत्थर इस्तेमाल किया गया है. पर साथ ही जोधपुर से लाया गया हल्का गुलाबी और मकराना का सफ़ेद संगमरमर भी इस्तेमाल किया गया है. मंदिर की जगती, स्तम्भ, तोरण, झरोखे और पत्थर की जालियों पर कमाल की और मनमोहक कारीगरी है.
मंदिर दिन भरे खुले रहते हैं और फीस देकर कैमरा इस्तेमाल किया जा सकता है. पास में ही जैन सात्विक भोजनालय है जहाँ संध्या से पहले कूपन पर भोजन उपलब्ध हो जाता है. जैसलमेर से आने जाने के लिए जीप और टैक्सी आसानी से मिल जाती हैं. पर थार रेगिस्तान के इस इलाके में तीख़ी धूप और तेज़ हवाएं चलती हैं ध्यान रखें. कुछ फोटो प्रस्तुत हैं:
जिनालय |
मुख्य द्वार |
जगती या चबूतरा |
तीर्थंकर श्री पार्श्वनाथ का मंदिर |
छत पर सुंदर नक्काशी |
स्थानीय पीले पत्थर से बना सुंदर तोरण |
तीर्थंकर श्री ऋषभदेव का मंदिर |
चबूतरे पर की गई नक्काशी |
दीवारों के डिजाईन और फूल पत्ते |
मूर्तियाँ कम हैं और बहुत छोटी हैं |
जाली का मनमोहक काम |
परिसर में मुख्य मंदिर के अलवा तीन छोटे मंदिर भी हैं |
1950 में दी गई एक भेंट |
1 comment:
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