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Friday, 23 May 2014

कार मेरे द्वार

भले दिनों में सड़कें ख़ाली हुआ करतीं थीं और कार के नाम पर फ़िएट या एम्बेसडर कभी कभी दिखाई दे जाती थी । वो भी ज़्यादातर सरकारी हुआ करती थी । सन 73 में जब बैंक में नौकरी लगी तब भी कार लेने का कोई विचार नहीं आया । हाँ ये ज़रूर लगता था की चलो 3 -4 साल में एक अदद स्कूटर ले लेंगे और ज़िंदगी में क्या चाहिए क्यूँकि साइकल तो है ही अपने पास । और फिर सरकारी बसें और रेल गाड़ियाँ किस काम के लिए हैं ?

पर साब समय बड़ा बलवान है । दिसम्बर 83 में श्रीमती इंदिरा गांधी ने पहली मारुति 800 की चाभी श्री हरपाल सिंह को पकड़ाई और उसके बाद तो भारत की सड़कों की रंगत ही बदल गई । शिलांग से लेकर मुम्बई और कश्मीर से कन्या कुमारी तक मारुति नज़र आने लगी । कुछ ने इसे कहा माचिस की डिबिया कुछ ने इस का नाम रखा साबुनदानी । पर देखते देखते 29 लाख साबुनदानीयां बिक गईं । 

इस मारुति के आने से पहले cc के बारे में किसे पता था की क्या बला है ये cc । फिर समझ में आया की कम cc का मतलब है डिबिया और ज़्यादा cc का मतलब है डिब्बा । 

एम्बेसडर का दरवाज़ा खोलने की एक चाभी हुआ करती थी, दूसरी चाभी स्टीयरिंग खोलने की, तीसरी ओन करने की, चौथी डिक्की खोलने वाली, पाँचवी पेट्रोल टैंक का ढक्कन खोलने वाली वग़ैरा वग़ैरा । मारूति ने ये ढर्रा ही तोड़ दिया । एक चाभी का मैजिक । 

एम्बेसडर में अगली सीट सोफानुमा थी और ड्राईवर के साथ दो तीन बड़े और चिल्लर पार्टी  भी समा जाती थी । काफ़ी सहूलीयत थी जनाब । मारूति ने अगला सोफ़ा दूर फेंक दिया और परिवार नियोजन करने में भी मदद की ! डिक्की हटा कर गाड़ी हल्की फुल्की कर दी और रफ़्तार बढ़ा दी । गाड़ी छोटी और हल्की थी इस लिए महिलाओं और नौजवानों ने इस पर जल्दी क़ब्ज़ा कर लिया । 

भारत में गाड़ियों के बारे में आँकड़े ( 2011 - 12 ) भी कुछ कम नहीं है देखिए ज़रा:
- दुनिया में भारत का छटा स्थान है गाड़ियों और कार बनाने में,
- दुनिया में भारत का पहला स्थान है तिपहिया बनाने में,
- दुनिया में भारत का पहला स्थान है ट्रेक्टर बनाने में और 
- दुनिया में भारत का दूसरा स्थान है मोटर साईकल बनाने में । 

अब तो गाड़ियों की संख्या भी बढ़ रही है और साइज़ भी । इसलिए सड़कें चौड़ी हो रहीं हैं और फुटपाथ संकरे । इसके साथ ही पार्किंग की समस्या भी विकराल रूप धारण कर चुकी है । आए दिन पार्किंग को ले कर तूतू मैंमैं के प्रेमालाप और पंगे होते रहते हैं । 

हर बार पार्किंग की  30-40 रूपए की पर्ची कटानी पड़ती है । कार सफ़ाई वाला भी नोट माँगता है । प्रदूषण का noc का ख़र्चा अलग बढ़ गया है । पर छोड़िए साब ख़र्चों को गाड़ी में बैठ कर अगर मेडम ख़ुश हुई तो बस पैसे वसूल हो गए । पहले का टोपिक हुआ करता था 'आपने गाड़ी ली की नहीं ?' और अब 'क्या करें जी पार्किंग ही नहीं मिलती' । 

किसी मैडम को परवा नहीं की तेल 70 रू लीटर मिलेगा या 200 रू गाड़ी तो रखनी ही रखनी है । 

वैसे राज़ की बात है अपन की गाड़ी तो केवल छुट्टी वाले दिन ही बाहर निकलती है । 

हमारे कई पड़ोसी तो गाड़ी निकालने के बाद उस जगह पर स्कूटर या गमले रख देते हैं ताकी वापिस आ कर गाड़ी उसी जगह पार्क कर सकें । पहले ऐसा बसों या रेल के डिब्बों में होता था कि लोग ख़ाली सीट पर अपना रूमाल रख कर सीट रिज़र्व कर लेते थे । सभी चाहते हैं की उनकी गाड़ी ठीक दरवाज़े के सामने हो । कार मेरे द्वार । अब ऊपर के फ़्लैटों वाले हैरान और परेशान रहते हैं । ऐसे में दिक़्क़त है की फ़्लैटों के आस पास जगह तो है नहीं स्कूटर रखने की भी तो गाड़ी कहाँ रक्खें ? 

पर गाड़ी से प्यार भी तो है न साब । स्टेटस सिम्बल है आख़िर । मेरा बस चले तो मैं अपनी कार को ड्राइंग रूम में पार्क कर दिया करूँ !

800 के साथ पोंडीचेरी में


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