हम ठहरे दिल्ली शहर के शहरी बाबू और ससुराल ठहरी गाँव में और गाँव ठहरा गढ़वाल की पहाड़ियों में । अब आजकल तो बाइक या कार में भी चले जाते हैं । पर पहले याने तीस साल पहले ये यात्रा किश्तों में की जाती थी । पहले भीड़ भरी रेल गाड़ी में रात में घुसो जो दिल्ली से चलती थी । रात भर का जागरण करो । सुबह कोटद्वार स्टेशन से बाहर निकल कर कुछ राहत िमलती । कुछ पहाड़ियाँ िदखती, कुछ आबोहवा में बदलाव महसूस होता । और उसके बाद जीप की ज़रूरत होती थी ।
अब आइए लैैंसडोन की जीप की खोज की जाए । जीपें तो बहुत मिलेंगी पर आपको पर यह भी तो देखना पड़ेगा की सीट वो मिले जिस पर बैठ कर आगे की ओर मुँह रहे जैसे की ड्राइवर के साथ वाली । ऐसा इस लिए की गाड़ी अब घुमाव दार और उतराव चढ़ाव वाले रास्ते से पहाड़ पर चढ़ेगी । और इस घुमाव दार राहों पर कुछ सवारियों के सर और पेट भी घूमने शुरू हो जाएँगे । इसलिए संतरे की गोली चूसते रहो और यात्रा जारी रखो ।
अब हम पहुँचते हैं दोगड्डा । अब तक का रास्ता ज़्यादा उँचा नीचा नहीं था । कमरशियल ब्रेक में कुछ सवारियों ने साथ छोड़ िदया और कुछ नए साथ हो लिए । थोड़ी कमर सीधी हुई । अब चढ़ाई शुरू हुई । रास्ता संकरा हो गया और रास्ते के एक ओर पहाड़ और दूसरी ओर दूसरी ओर खाइयाँ शुरू हो गई । क्या चक्कर आने शुरू हो गए भाई जी ?
जीप का पायलट भरोसेमंद था और उसने सही सलामत भरोसाखाल पहुँचा िदया । सामान समेत हमें उतार िदया गया । चारों तरफ़ छोटे बड़े पहाड़, ऊँचे ऊँचे चीड़ और देवदार के पेड़ । हवा में ठंडक बढ़ गई थी और पेड़ों में से बहती बयार की सरसराहट भी सुनाई पड़ रही थी । आस पास न कोई मकान, न कोई दुकान, न कोई इन्सान । ऊपर गहरा नीला आसमान और बिलकुल साफ़ । ऐसा तो दिल्ली में कभी नहीं िदखाई पड़ता है । तीन साल के बेटे को मज़ा आ रहा था । दूर नीचे शायद दो हज़ार फ़ीट नीचे, हमारा गांव था झीबलखाल ।
पैदल यात्रा शुरू हुई । एक घंटा लगातार िनचाई नापी । पैरों के पंजे, टखने, घुटने और जंघाएं चूर चूर हो गए । लगभग तीन बजे िकसी तरह डेरे पर पहुँच गए और तब तक तीन साल के बेटे को बुखार चढ़ गया । अब आसपास की सीनरी भूल कर डाक्टर की चिंता सताने लगी । गाँव वाले हाल चाल जानने और स्वागत के लिए इकट्ठा हो गए थे ।
- अजी ठीक हो जाएगा भाई जी एक दो िदन में - एक महिला ने कहा ।
- पहाड़ नाम पूछता है जी नए आने वालों का भाई जी - एक पेंशनर बोला ।
- अरे ये तो आम बात है परसों तक िफट हो जाएगा साब जी । ज़रा हवा बदली है और क्या ? - िरटायर्ड फ़ौजी बोला ।
- अरे बैद जी को बुला लाओ जल्दी से - नानी बोली ।
नानी की बात मान ली गई और बैद जी को लाने के लिए राजदूत भेज िदया गया । तीन घंटे बाद बैद जी पधारे, बच्चे का हाल पूछा और तसल्ली दी की सुबह तक ठीक हो जाएगा । िफर बैद जी बच्चे के बारे में कम और दिल्ली के बारे में ज़्यादा सवाल करने लगे । मन में कई तरह की शंकाएँ थी इस झोला छाप डाक्टर को ले कर । कहीं कोई गड़बड़ न हो जाए ।
बैद जी ने पुराने मैलै झोले से टीन की पुरानी डिब्बी निकाली और उसमें से काला सा पाउडर अख़बार के एक टुकड़े पर डाला और एक पुड़िया तैयार कर दी । मन में शंका और बढ़ गई । पुड़िया हाथ में ले कर मंत्र पढ़ा और थमा दी ।
- अभी िखलानी है ?
- न भाई जी बालक के सर के नीचे रखनी है ।
आश्चर्य घनघोर आश्चर्य हुआ पर तसल्ली भी हुई की पुड़िया नहीं िखलानी पड़ेगी ।
अगले िदन सुबह बालक बकरियों के पीछे दौड़ रहा था ।
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