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Thursday, 29 December 2022

बड़ा इमामबाड़ा लखनऊ

लखनऊ जाएं तो बड़े इमामबाड़े को जरूर देखें. ये ऐतिहासिक इमामबाड़ा अवध के नवाब आसफुद्दौला( 1748 - 1797 ) ने 1784 में बनवाना शुरू किया था जो लगभग दस साल में बन कर तैयार हुआ. इस इमामबाड़े को बनाने में अंदाज़न पांच लाख से दस लाख तक का खर्चा आया था. बन जाने के बाद भी साज सज्जा पर और पांच लाख खर्चे गए थे. उन दिनों लखनऊ और आसपास भयंकर अकाल पड़ा था और इमामबाड़ा बनाने का शिया मुस्लिम नवाब का एक उद्देश्य ये भी था कि जनता जनार्दन को रोज़गार मिले ताकि गुजर बसर होती रहे. इमामबाड़े के साथ साथ वहां एक बड़ी मस्जिद और बावली भी बनाई गई थी.  

ऐसा किस्सा बताया जाता है कि काम कर रहे मजदूरों को सुबह नाश्ते या निहारी में रोटी, और भेड़ या बकरे का मांस परोसा जाता था जिसके बाद वो काम पर लग जाते थे. कुछ ऐसे लोग भी थे जो दिन में सबके सामने मजदूरी करने में झिझकते थे. ऐसे लोगों के लिए नवाब का आदेश था कि वे अँधेरे में काम करेंगे. और काम भी क्या था कि जो दिन में बनाया गया हो वो उसे गिरा दिया जाए ! जनता को इस बहाने मदद मिल जाती थी. नवाब की दरियादिली के चलते ये कहावत भी चल पड़ी - जिसे ना दे मौला उसे दे आसफुद्दौला! 

वैसे इमामबाड़ा एक धार्मिक स्थल है. इमामबाड़े का अर्थ है इमाम का घर. इमामबाड़ा एक हॉल के साथ लगी ईमारत है जहाँ लोग इमाम हुसैन और कर्बला के शहीदों के लिए शोक सभा या मजलिस लगाते हैं. शिया मुस्लिम छोटे छोटे इमामबाड़े घर में भी बनाते हैं. भारत में बहुत से इमामबाड़े हैं जिनमें से यह बड़ा इमामबाड़ा सबसे ज्यादा मशहूर है. 

इमामबाड़े की लम्बाई 50 मीटर, चौड़ाई 16 मीटर और ऊंचाई 15 मीटर है. गुम्बद बनाने के लिए कोई बीम या लोहा इस्तेमाल नहीं किया गया है बल्कि मेहराबों का सहारे गोल छतें बनाई गई हैं. अपने किस्म का दुनिया का एक अनोखा भवन है. इसके इर्द गिर्द आठ चैम्बर अलग अलग ऊंचाई के हैं जिसके कारण ऐसी जगह मिल गई कि जिसमें बने कमरे तीन तलों में बनाए जा सके. इन कमरों में बने आले, खिड़कियाँ और दरवाज़े सब का नाप एक जैसा ही है. इन कमरों में लकड़ी के पल्ले या दरवाज़े नहीं है. कुल मिला कर यही कमरे भूल भुल्लैय्या बन गए. आम तौर पर अब पूरी बिल्डिंग को भूल भुल्लैय्या ही कहा जाता है. वैसे ये भूल भुल्लैय्या गुम्बद और हॉल का सपोर्ट सिस्टम ही है. छत पर जाने के लिए 1024 रास्ते हैं पर नीचे गेट पर आने के लिए दो ही हैं. फिलहाल काफी रास्ते बंद कर दिए गए हैं. 

इमारत का नक्शा दिल्ली निवासी किफायतुल्ला बनाया था. इत्तेफाक देखिये कि ईमारत बनवाने वाला नवाब आसफुद्दौला और किफायतुल्ला दोनों यहीं दफनाए गए थे. अन्दर जाने के लिए टिकट है जिसमें गाइड की फीस भी शामिल है. हॉल के ऊपर भूल भुल्लैय्या जाने के लिए गाइड जरूरी है. कुछ फोटो प्रस्तुत हैं:

बड़े इमामबाड़े का एक दृश्य 

ऊँचे मेहराबों पर बनी मछलियाँ नवाबी प्रतीक हैं

हॉल में रखा ताज़िया. यह हर साल बदल दिया जाता है 

हॉल में लगी नवाब वाजिद अली शाह की पेंटिंग  

छत पर जाने के लिए 84 पायदान वाली सीढ़ियां 

भूल भुल्लैय्या का एक दृश्य. चूँकि ये प्रार्थना घर भी है इसलिए जूते अलग से बाहर जमा कर के ही अन्दर जा सकते हैं. 

भूल भुल्लैय्या के कमरों और खिड़कियों में दरवाज़े या पल्ले नहीं हैं. इसलिए सभी कमरे एक जैसे ही लगते हैं और रास्ता भूल जाने का खतरा रहता है 

छत का एक दृश्य

छत पर बनी एक मीनार 

पुरानी ईमारत की छत से दिखती शहर की एक आधुनिक ईमारत 

इमामबाड़ा परिसर में बनी एक मस्जिद. इसे आसफ़ी मस्जिद भी कहा जाता है क्यूंकि ये नवाब आसफुद्दौला ने बनवाई थी 

बहुत लोकप्रिय जगह है ये इसलिए छुट्टी वाले दिन मेला लग जाता है 

बावली के पास बनी ईमारत 

बावली 

कहा जाता है की बावली गोमती नदी से जुड़ी हुई थी और इसका पानी गोमती से आता था. 

बावली के तहखानों में ठंडक रहती थी इसलिए गर्मी में यहाँ रहने का भी इन्तेजाम था 

गर्मी से बचने के लिए अच्छी जगह 

बावली की दीवारों पर सुंदर काम 

कुआँ तो अब बंद कर दिया गया है. गाइड ने बताया की जब अंग्रेज हमलावर महल में घुस आए तो खजांची चाबियां ले कर बावली में कूद गया. उसके बाद चाबियों का कभी पता नहीं चला. 


Thursday, 15 December 2022

मुस्कुराइये कि आप लखनऊ में हैं

भारत में बहुत से पुराने शहर हैं अलग अलग तरह के, अनोखे और बहुत सारी यादें समेटे हुए. उनमें से एक है लखनऊ. कहा जाता है कि लखनऊ प्राचीन कोसल या कौशल राज्य ( सातवीं से तीसरी शताब्दी ईसा पूर्व ) का एक हिस्सा था और इसे लक्ष्मणपुर या लखनपुर कहा जाता था जो कालान्तर में लखनऊ कहलाने लगा. यह लखनऊ अवध की राजधानी बना 1775 में जब नवाब आसफुद्दौला ने अवध की राजधानी फैज़ाबाद के बजाए लखनऊ बना दी. छोटा सा शहर रहा होगा लखनऊ गोमती के किनारे जिसकी चार-दिवारी में दाखिल होने के लिए बड़े बड़े गेट थे. अन्दर महल, कोठियां और बाज़ार वगैरह थे. अपने वक़्त में हिंदुस्तान का सबसे समृद्ध शहर था लखनऊ और इसे शिराज़-ए-हिन्द कहा जाता था. फिर फिरंगी आ गए और नवाबी ज़िन्दगी में दखल देने लगे. जनता जनार्दन में रंजिश बढ़ी तो अंग्रेजों के खिलाफ 1857 में संग्राम छिड़ गया. लखनऊ की घेराबंदी हो गई और बहुत कुछ तहस नहस हो गया कुछ खँडहर बचे हैं जिनमें फ़क़त यादे हैं. 

जैसे लखनऊ का इतिहास बदला वैसे ही थोड़ी बहुत भाषा भी बदली. कुछ लोग अभी भी इसे नखलऊ कह देते हैं. यहाँ पान खाया नहीं जाता बल्कि- अमाँ यार हम तो गिलौरी का मज़ा ले रहे हैं! यहाँ 'मैं' की जगह 'हम' ज्यादा इस्तेमाल होता है. नवाबी दौर भोग विलासिता का दौर था इसलिए उस समय तरह तरह के पकवान, गाना बजाना, शेरो-शायरी, अच्छे अच्छे कपड़े, दिलकश इमारतें और इतर फुलेल खूब चलते थे. नवाब वाजिद अली शाह के बारे में मशहूर है कि जब अंग्रेजों ने महल पर हमला किया तो नौकरों ने कहा - हुजूर भागिए गोरे महल में घुस आए हैं. नवाब ने कहा - अच्छा तो पहले तू जूता पहना दे. पर तब तक तो नौकर भाग गया और अंग्रेज दाखिल हो गए. अंग्रेज अधिकारी ने पूछा की आप भागे क्यूँ नहीं? महल तो खाली हो गया है. नवाब बोले कि किसी ने जूता ही नहीं पहनाया! 

आप लखनऊ के अमौसी एअरपोर्ट पर उतरें या किसी रेलवे स्टेशन पर आपको एक बोर्ड दिखाई पड़ जाएगा 'मुस्कुराइये की आप लखनऊ में हैं!'  

कुछ दिनों पहले ही मेरठ से कार में जाना हुआ था. लगभग आठ घंटे का सफ़र था : मेरठ एक्सप्रेस वे > नॉएडा > दिल्ली - आगरा एक्सप्रेस वे > आगरा-लखनऊ एक्सप्रेस वे. कुछ रास्ते की और कुछ नखलऊ - ओह मुआफ़ कीजिए लखनऊ की फोटो पेश हैं:      

टाँगे की सैर अपने लखनऊ में. कभी यहाँ 'इक्के' भी चलते थे पर इस बार कहीं दिखे नहीं 


नवाब, बेगम और साहिबज़ादे दिल्ली -आगरा एक्सप्रेस वे के एक रेस्टोरेंट में 



                     आगरा-लखनऊ महामार्ग का एक दृश्य इस मार्ग से आने जाने में बड़ी सुविधा रही  


                                               आगरा-लखनऊ महामार्ग पर बना रनवे 

आगरा-लखनऊ एक्सप्रेस वे की एक खासियत है ये रनवे. लखनऊ से 80-85 किमी दूर है और इसे जरूरत पड़ने पर वायु सेना के लड़ाकू जेट इस्तेमाल कर सकते हैं. बीच में रखे कंक्रीट ब्लाक की पार्टीशन हटाई जा सकती है. ये रनवे का एक सिरा है दूसरा लगभग 8-9 किमी दूर है. ये रनवे भारत में अपने किस्म का पहला था अब कई और भी बन रहे हैं 


लखनऊ में अपना तीन दिन का ठिकाना 

 
बस अब तो मुस्करा दीजिए कि अब आप बार में हैं! 


रूमी दरवाज़ा 1784 में बना था और बनवाने वाले थे अवध के नवाब आसफुद्दौला. इस रूमी दरवाज़े पर एक फोटो ब्लॉग इस लिंक पर देख सकते हैं : 

                                   https://jogharshwardhan.blogspot.com/2022/11/blog-post_26.html

  

नौबतखाना या नक्कारखाना. बड़े इमामबाड़े के ठीक सामने. अगर आप या हम नवाब होते और तशरीफ़ का टोकरा इस तरफ लाते तो इस नौबतखाने में आपके सम्मान में शहनाई, सारंगी, तानपुरा, तबला और नगाड़े बजते! 


नौबतखाने में फूल, पत्तों और मछलियों की सुन्दर नक्काशी 


पिक्चर गैलरी. बहुत से नवाबों, उनके दरबारों के बड़े बड़े चित्र यहाँ देखे जा सकते हैं 

 
सतखंडा. ये सतखंडा टावर सन 1848 में  नवाब मोहम्मद अली शाह ने बनवाना शुरू किया था जिसमें सात मंजिलें - सतखंडा- बननी थी ताकि ऊपर चढ़ कर चाँद और पूरा लखनऊ देखा जा सके. पर इमारत इतनी ही बनी थी कि नवाब का देहांत हो गया. बाद में किसी ने इसे पूरा करने की कोशिश नहीं की. इसलिए ये 'मनहूस' ईमारत भी कहलाती है.

हुसैनाबाद का तालाब 1837-1842 में बना था. इसकी सीढ़ियों पर शाम को बेगमें बैठा करती थी. बीच का तालाब 35-40 फुट गहरा बताया जाता है


घंटाघर. इमामबाड़े के सामने है और इसे 1887 में नवाब नसीरुद्दीन ने जॉर्ज कूपर के स्वागत में बनवाया था जो यूनाइटेड प्रोविंस का पहला लेफ्टीनेंट गवर्नर था. यह टावर 221 फीट या 67 मीटर ऊँचा है और शायद भारत का सबसे ऊँचा घंटाघर है. 


घंटाघर का उपरी भाग. ऑटो वाले ने बताया की ऊपर बैठी चिड़िया सोने की थी जो अंग्रेज जाते हुए उखाड़ कर ले गए ! 

बड़े इमामबाड़े का एक दृश्य  


बड़े इमामबाड़े का एक दृश्य 


बड़े इमामबाड़े के परिसर में बनी आसिफी मस्जिद 

बावली. बड़े इमामबाड़े के परिसर में नवाब आसफुद्दौला द्वारा बनवाई गई थी. कहावत है की यह गोमती नदी से जुड़ी हुई है 

बावली अब बंद कर दी गई है. कहा जाता है की इस बावली में नवाबी खजाने की चाबियाँ ले कर खजांची रस्तोगी कूद गया और चाबियाँ फिर कभी नहीं मिली. शायद खजाना अब भी वहीँ कहीं दबा हुआ हो? ट्राई करें?   

बावली की सीढियाँ. कुछ कमरे भी बने हुए हैं यहाँ जिनमें ऐसा कहा जाता है की किसी वक़्त मेहमान रुका करते थे खास तौर से गर्मियों में  

बड़े इमामबाड़े की छत से दिखता नज़ारा 


बड़ा इमामबाड़ा 


भूल भुलैय्या की एक एंट्री पर 


दिलकुशा कोठी. इस कोठी की ज्यादा जानकारी के लिए इस लिंक पर क्लिक करें: 

                            https://jogharshwardhan.blogspot.com/2022/11/blog-post.html

 

रेजीडेंसी. इस रेजीडेंसी की अधिक जानकारी के लिए इस लिंक पर क्लिक करें: 

            https://jogharshwardhan.blogspot.com/2022/11/blog-post_24.html




Saturday, 26 November 2022

रूमी दरवाज़ा लखनऊ

लखनऊ शहर की निशानी है रूमी दरवाज़ा. ये पुराने नवाबी लखनऊ प्रवेश द्वार है. इसे 1784 में अवध के नवाब आसफुद्दौला ने बनवाया था. इसे बनाने का एक कारण यह भी बताया जाता है की उस समय भयंकर अकाल पड़ा था और नवाब ने लोगों को रोज़गार देने के लिए छोटे बड़े इमामबाड़े के साथ इस रूमी गेट को भी बनवाया गया था. नवाब ने शायद अर्थशास्त्री कीन्स( 1883 -1946 ) को काफी पहले ही पीछे छोड़ दिया था! कीन्स ने 1936 में कहा था कि आपदा और ज्यादा बेरोजगारी के समय सरकार बड़े बड़े प्रोजेक्ट्स में पैसा लगाए और ज्यादा से ज्यादा लोगों को रोज़गार मिले. नवाब ने भी खजाना खोल दिया और उसकी निशानी अब तक देखने को मिलती है. भारी भरकम रूमी दरवाज़ा छोटे और बड़े इमामबाड़े के बीच में है और दिन में यहाँ काफी ट्राफिक रहता है. इसे रूमी दरवाज़ा क्यूँ कहा जाता है इस बारे में मान्यताएं हैं:

* इसका डिज़ाइन इस्तानबुल के  सबलाइम पोर्ट ( Sublime Porte ) या बाब-इ-हुमायूँ से मिलता जुलता है. 

* रूमी दरवाज़े का डिज़ाईन कांस्टेंटिनोपल के गेट से मिलता है. रोम के अनातोलिया क्षेत्र का इस्लामिक उच्चारण रूम था और ये क्षेत्र ईस्टर्न रोमन एम्पायर कहलाता था. उस रूम के कारण इसे रूमी दरवाज़ा कहा जाता है.

* दरवाज़े का नाम शायद पारसी सूफी संत जलाल अल-दीन मुहम्मद रूमी ( 1207 - 1273 ) के नाम पर रखा गया था. बहारहाल जो भी हो रूमी की नीचे लिखी एक लाइन बहुत सुंदर लगी. आप भी पढ़िए:  

When we are dead, seek not our tomb in the earth, but find it in the hearts of men. 

प्रस्तुत हैं कुछ फोटो: 

रूमी दरवाज़े के नीचे से गुज़रता ट्रैफिक. आने जाने के लिए तीन ऊँची मेहराब बनाई गई जिससे की नवाब चाहे घोड़े पर बैठ कर निकलें या हाथी पर कोई परेशानी ना हो. बाद में ये दरवाज़ा महल का प्रवेश द्वार बन गया परन्तु महल को 1857 के स्वतंत्रता संग्राम के बाद अंग्रेजों ने ध्वस्त कर दिया. सड़क पर बिछी लाल ईंटें भी दरवाज़ा बनाने के समय लगाईं गई थी. उन्हें एक बार फिर से लगाया गया है  

 
दरवाज़े के किनारे पर फूल पत्तियां सुन्दरता से बनाई गई हैं. इनमें पान का पत्ता और लौंग भी शामिल हैं 

सुबह सुबह देखें तो ज्यादा अच्छा लगेगा क्यूंकि ट्रैफिक, ठेले वाले नहीं होते और ना ही शोर शराबा होता है और आप इत्मिनान से डिजाईन की बारीकी देख पाते हैं   
 
फूल और पत्ते 

रूमी दरवाज़े की ये फोटो उलटी की हुई है. गाइड ने बताया था कि यही डिजाईन लखनऊ की प्रसिद्द 'चिकनकारी' के कुर्तों और कुर्तियों में देखा जा सकता है  

दूसरी तरफ 


Thursday, 24 November 2022

रेज़ीडेंसी, लखनऊ

लखनऊ की रेज़ीडेंसी या ब्रिटिश रेज़ीडेंसी एक इमारत ना हो कर एक बड़ा परिसर है जिसमें कई इमारतें, लॉन और बगीचे हैं - बैले गेट, खज़ाना, बेगम कोठी, बैंक्वेट हॉल, डॉ फेयरर की कोठी वगैरह. यहाँ ब्रिटिश रेजिडेंट जिन्हें एजेंट भी कहा जाता था, रहते थे. रेज़ीडेंसी का 1857 के स्वतंत्रता संग्राम की ऐतिहासिक घटनाओं से गहरा रिश्ता है.

ब्रिटिश रेज़ीडेंसी सिस्टम अंग्रेजों ने बंगाल में हुए प्लासी युद्ध ( 1757 ) के बाद शुरू किया था. इस सिस्टम में रियासतों और छोटे राज्यों में ब्रिटिश एजेंट या रेज़ीडेंट रहता था जो अंदरूनी या बाहरी हमलों में "मदद" करता था. पर ये मदद फ्री नहीं होती थी इसका खर्चा भी वसूला जाता था. सबसे पहले ब्रिटिश  रेज़ीडेंट आर्कोट, लखनऊ और हैदराबाद में पोस्ट किये गए थे.

लखनऊ की रेज़ीडेंसी शहर के बीचोबीच है और इसका निर्माण 1780 में अवध के नवाब आसफुद्दौला ने शुरू कराया था. आसफुद्दौला 26 साल की उम्र में ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी की मदद से 1775 में अवध का नवाब बना था. उसका सौतेला भाई भी गद्दी चाहता था जिसे हराने के लिए फिरंगी सेना का इस्तेमाल किया गया था. गद्दी नशीन होने के बाद नवाब को अंग्रेजी मदद का अहसान भी चुकाना था. उस वक्त अवध दूसरी हिन्दुस्तानी रियासतों के मुकाबले अमीर था और अंग्रेज बड़े शातिर खिलाड़ी थे वो इस बात को समझते थे. कहा जाता है कि नवाब ने कम्पनी बहादुर को एक बार 26 लाख और दूसरी बार 30 लाख का मुआवज़ा दिया. नवाबी महंगी पड़ी. वैसे ये नवाब आसफुद्दौला दरिया दिल इंसान था और जनता जनार्दन की काफी मदद करता रहता था. आसफुद्दौला के बारे में कहावत मशहूर थी की - "जिसे न दे मौला उसे दे आसफुद्दौला!" अवध की राजधानी पहले फैजाबाद हुआ करती थी जिसे आसफुद्दौला ने लखनऊ में शिफ्ट कर दिया था. बहरहाल आसफुद्दौला 1797 में चल बसे और फिर आ गए नवाब सआदत अली खान और रेज़ीडेंसी 1800 में पूरी हुई. 

10 मई 1857 के दिन मेरठ में फिरंगियों पर ( उस वक़्त ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी में अंग्रेजों के अलावा बहुत से यूरोपियन भी थे ), हमले हो गए और शाम तक 'दिल्ली चलो' का नारा बुलंद हो गया. खबर लखनऊ भी पहुँच गई और 23 मई को रेज़ीडेंसी और दिलकुशा कोठी घेर कर स्वतंत्रता सेनानियों ने हमला बोल दिया. लखनऊ की इस 'घेराबंदी' में भयंकर मारकाट हुई. इस लड़ाई में फिरंग और उनके साथियों की संख्या लगभग 8000 तक पहुँच गई थी क्यूंकि आसपास से अंग्रेजी सैनिक भी आ पहुंचे थे. मुकाबले में रियासतों के सैनिक, कंपनी छोड़ कर भागे हुए सिपाही और आम जनता लगभग 30 हजार तक थी. पर ये लोग असंगठित थे, इनके पास हथियार और गोला बारूद कम था, स्वतंत्रता संग्रामियों की एक कमान ना हो कर कई लीडर थे. इसलिए घेराबंदी में जीता हुआ लखनऊ मार्च 1858 में हाथ से निकल गया. अंग्रेजी पक्ष में से 2500 लोग मारे गए, घायल हुए या फिर लापता हो गए. संग्रामियों में से शहीद हुए लोगों की संख्या का पता नहीं चला.  

रेज़ीडेंसी 1857 के संग्राम के बाद खंडहर ही है. आजकल पुरातत्व विभाग ( ASI ) रेजीडेंसी परिसर की देखभाल करता है. आसपास सुंदर लॉन और बगीचे हैं. अंदर जाने के लिए टिकट है और सोमवार की छुट्टी है. शाम को लाइट और साउंड का प्रोग्राम भी होता है. लखनऊ जाएं तो जरूर देखें.

प्रस्तुत हैं कुछ फोटो: 

रेज़ीडेंसी 1775 - 1800 के दौरान बनी. यहाँ कभी चहल पहल रही होगी 


रेज़ीडेंसी में बहुत सी छोटी बड़ी तोपें देखने को मिलेंगी 

रेज़ीडेंसी की इमारतें बनाने में पतली ईंटें इस्तेमाल की गई थीं जिन्हें लखौरी ईंटें कहा जाता है 


अवध के नवाब शुजाउद्दौला और ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी के बीच 1774 में हुए समझौते के अंतर्गत रेज़ीडेंसी बनाई गई थी. रेज़ीडेंसी करीब 33 एकड़ में फैली हुई है. अवध की पुरानी राजधानी फैज़ाबाद हुआ करती थी. राजधानी बदलने के बाद रेज़ीडेंसी यहाँ बनी 

डॉ फेयरर की कोठी. लखनऊ की घेराबंदी के समय यहाँ डॉ फेयरर रहा करते थे जो एक सर्जन थे. घेराबंदी के दौरान बच्चे और घायल सैनिकों को यहाँ रखा गया था.

बैंक्वेट हॉल या भोजशाला . इस परिसर की सबसे सुंदर इमारत यही थी जिसे नवाब  सआदत अली खान ने बनवाया था. बड़े बड़े झूमर, रेशमी परदे और शीशों से सजा हॉल घेराबंदी में अस्पताल बना दिया गया था 

बारादरी 

1857 स्मृति संग्रहालय  

संग्रहालय का प्रवेश. यहाँ पुराने नक़्शे, कागजात, पेंटिंग्स, ढाल और तलवार वगैरह देखने को मिलेंगी.

संग्रहालय के सामने रखी 18 पाउण्डर तोप

बैले गेट ( या बैले गार्ड गेट ) में लकड़ी का दरवाज़ा 
 
बैले गेट का सुधारा हुआ रूप वर्ना ये भी खँडहर हो चुका था. ये गेट नवाब सआदत अली खान ने बनवाया था और रेज़ीडेंसी में उस वक़्त ब्रिटिश रेज़िडेंट कप्तान जॉन बैले रहते थे. इसलिए इस गेट का नाम बैले गेट पड़ गया 

बेगम कोठी नवाब आसफुद्दौला द्वारा बनाई गई थी जो बाद में असिस्टेंट रेजिडेंट Saville Marcus Taylor को बेच दी गई. टेलर ने George Prendergast को 1802 में बेच दी. जॉर्ज ने कुछ दिन दुकान चलाई पर बाद में John Cullodon को बेच दी. John Cullodon की पौत्री आलिया नवाब नसीरुद्दीन हैदर के बेगम थी जो आम तौर पर विलायती बेगम के नाम से जानी जाती थी. विलायती बेगम अपनी माँ के साथ यहाँ रहती थी. ये कोठी अवध स्टाइल में बनी हुई थी  

रेज़ीडेंसी परिसर में पीर की मजार