लखनऊ की रेज़ीडेंसी या ब्रिटिश रेज़ीडेंसी एक इमारत ना हो कर एक बड़ा परिसर है जिसमें कई इमारतें, लॉन और बगीचे हैं - बैले गेट, खज़ाना, बेगम कोठी, बैंक्वेट हॉल, डॉ फेयरर की कोठी वगैरह. यहाँ ब्रिटिश रेजिडेंट जिन्हें एजेंट भी कहा जाता था, रहते थे. रेज़ीडेंसी का 1857 के स्वतंत्रता संग्राम की ऐतिहासिक घटनाओं से गहरा रिश्ता है.
ब्रिटिश रेज़ीडेंसी सिस्टम अंग्रेजों ने बंगाल में हुए प्लासी युद्ध ( 1757 ) के बाद शुरू किया था. इस सिस्टम में रियासतों और छोटे राज्यों में ब्रिटिश एजेंट या रेज़ीडेंट रहता था जो अंदरूनी या बाहरी हमलों में "मदद" करता था. पर ये मदद फ्री नहीं होती थी इसका खर्चा भी वसूला जाता था. सबसे पहले ब्रिटिश रेज़ीडेंट आर्कोट, लखनऊ और हैदराबाद में पोस्ट किये गए थे.
लखनऊ की रेज़ीडेंसी शहर के बीचोबीच है और इसका निर्माण 1780 में अवध के नवाब आसफुद्दौला ने शुरू कराया था. आसफुद्दौला 26 साल की उम्र में ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी की मदद से 1775 में अवध का नवाब बना था. उसका सौतेला भाई भी गद्दी चाहता था जिसे हराने के लिए फिरंगी सेना का इस्तेमाल किया गया था. गद्दी नशीन होने के बाद नवाब को अंग्रेजी मदद का अहसान भी चुकाना था. उस वक्त अवध दूसरी हिन्दुस्तानी रियासतों के मुकाबले अमीर था और अंग्रेज बड़े शातिर खिलाड़ी थे वो इस बात को समझते थे. कहा जाता है कि नवाब ने कम्पनी बहादुर को एक बार 26 लाख और दूसरी बार 30 लाख का मुआवज़ा दिया. नवाबी महंगी पड़ी. वैसे ये नवाब आसफुद्दौला दरिया दिल इंसान था और जनता जनार्दन की काफी मदद करता रहता था. आसफुद्दौला के बारे में कहावत मशहूर थी की - "जिसे न दे मौला उसे दे आसफुद्दौला!" अवध की राजधानी पहले फैजाबाद हुआ करती थी जिसे आसफुद्दौला ने लखनऊ में शिफ्ट कर दिया था. बहरहाल आसफुद्दौला 1797 में चल बसे और फिर आ गए नवाब सआदत अली खान और रेज़ीडेंसी 1800 में पूरी हुई.
10 मई 1857 के दिन मेरठ में फिरंगियों पर ( उस वक़्त ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी में अंग्रेजों के अलावा बहुत से यूरोपियन भी थे ), हमले हो गए और शाम तक 'दिल्ली चलो' का नारा बुलंद हो गया. खबर लखनऊ भी पहुँच गई और 23 मई को रेज़ीडेंसी और दिलकुशा कोठी घेर कर स्वतंत्रता सेनानियों ने हमला बोल दिया. लखनऊ की इस 'घेराबंदी' में भयंकर मारकाट हुई. इस लड़ाई में फिरंग और उनके साथियों की संख्या लगभग 8000 तक पहुँच गई थी क्यूंकि आसपास से अंग्रेजी सैनिक भी आ पहुंचे थे. मुकाबले में रियासतों के सैनिक, कंपनी छोड़ कर भागे हुए सिपाही और आम जनता लगभग 30 हजार तक थी. पर ये लोग असंगठित थे, इनके पास हथियार और गोला बारूद कम था, स्वतंत्रता संग्रामियों की एक कमान ना हो कर कई लीडर थे. इसलिए घेराबंदी में जीता हुआ लखनऊ मार्च 1858 में हाथ से निकल गया. अंग्रेजी पक्ष में से 2500 लोग मारे गए, घायल हुए या फिर लापता हो गए. संग्रामियों में से शहीद हुए लोगों की संख्या का पता नहीं चला.
रेज़ीडेंसी 1857 के संग्राम के बाद खंडहर ही है. आजकल पुरातत्व विभाग ( ASI ) रेजीडेंसी परिसर की देखभाल करता है. आसपास सुंदर लॉन और बगीचे हैं. अंदर जाने के लिए टिकट है और सोमवार की छुट्टी है. शाम को लाइट और साउंड का प्रोग्राम भी होता है. लखनऊ जाएं तो जरूर देखें.
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