नोटबंदी के बाद बैंक के आगे लगी लाइन |
बैंकों का राष्ट्रीयकरण 19 जुलाई 1969 को हुआ जो उस वक़्त की एक धमाकेदार खबर थी. बैंक धन्ना सेठों के थे और सेठ लोग राजनैतिक पार्टियों को चंदा देते थे. अब भी देते हैं. ऐसी स्थिति में सरमायेदारों से पंगा लेना आसान नहीं था. फिर भी तत्कालीन प्रधान मंत्री इंदिरा गाँधी ने साहसी कदम लिया और चौदह बैंकों का राष्ट्रीयकरण कर दिया.
दूसरे बैंकों का तो पता नहीं उस वक्त पंजाब नेशनल बैंक की 619 शाखाएं थीं, डिपाजिट 383.4 करोड़ था, लोन 187.3 करोड़ थे और बैंक के मालिकान को 1020 करोड़ मुआवज़ा दिया गया था.
रिटायर होने के बाद अब पीछे मुड़ कर देखो तो राष्ट्रीयकृत बैंक की नौकरी की कुछ खट्टी मीठी यादें ज़हन में आ जाती हैं.
चलो गाँव की ओर: राष्ट्रीयकरण का उद्देश्य था की बैंकों को दूर दराज़ के इलाकों में छोटे किसानों और उद्यमियों की भी सहायता करनी है जिसके लिए बहुत सी नई शाखाएं भी खोलनी थीं. जल्दी जल्दी शाखाएं खुलने लगीं. राष्ट्रीयकृत बैंकों में होड़ लग गई कि कौन कितनी ब्रांचें पहले खोलेगा. बैंकों की सालाना बैलेंस शीट जब अखबारों में छपती थी तो सबसे ऊपर नई खुली शाखाओं की गिनती लिखी होती थी. गाँव खेड़े, कस्बों और शहर के छोटे छोटे बाज़ारों में शाखाएं खुलने लगीं. ऐसी शाखाओं के अजब गजब नाम सुनने को मिलते थे: - अड्डा कोट पतूही, जीरा, पापा पारे!
अब प्रमोशन होने पर गाँव की शाखाओं में भेजा जाने लगा. पता लगता था की उत्तराखंड के एक गाँव में श्री गोयल ने ब्रांच देर से बंद की और घर की ओर चले. अँधेरे में दो चमकती आँखें और बाघ की गुर्राहट सुनी. भाग कर नजदीक की दुकान में घुस गए. सुबह ऑफिस में आ कर पहला काम किया कि वापिस ट्रान्सफर की चिट्ठी लिख दी.
श्री चावला ने जब राजस्थान में गाँव की ब्रांच में घड़े से पानी लेना चाहा तो देखा कि घड़े के पास सांप बैठा हुआ है. शायद खाता न खुलने के कारण नाराज़ था और फुंकार रहा था.
एक मित्र की पोस्टिंग बद्रीनाथ में हुई तो लगभग दो साल उसने चढ़ावे के सिक्के गिनकर और मंदिर के प्रसाद खा कर ही गुज़ार दिए.
एक गाँव की ब्रांच में लोन न देने पर गोली चल गई.
एक मित्र गाँव की ब्रांच से वापिस ही नहीं आना चाहते थे. कहते थे की यहाँ नौकरानियां बड़ी अच्छी मिल जाती हैं!
जो भी हो बैंकों का कारवाँ चलता ही गया और फैलाव बढ़ता ही गया.
नौकरियाँ ही नौकरियाँ: जैसे जैसे बैंक अपनी शाखाएं खोलते गए तो और कर्मचारियों की ज़रूरत पड़ने लगी. एक संस्था बना दी गई Banking Services Recruitment Board जो लिखित टेस्ट लेती थी. हमने भी टेस्ट पास कर लिया और इंटरव्यू में हाज़िर हो गए.
-अच्छा तो आपका नाम हर्षवर्धन है. इस नाम का एक राजा भी हुआ करता था पता है आपको?
- जी सर. हर्षवर्धन 590 AD में पैदा हुआ था और 606 से 647 तक उसने राज किया था. उसकी पहली राजधानी थानेसर थी और दूसरी कन्नौज. उसके पिता का नाम प्रभाकरवर्धन ......
- थैंक यू थैंक यू.
पक्की नौकरी लग गई साब. गाँव कसेरू खेड़ा जिला मेरठ से पंजाब नेशनल बैंक संसद मार्ग शाखा नई दिल्ली पहुँच गए. इसी तरह हजारों हमउम्र लोगों ने उन दिनों टेस्ट पास कर लिया और बैंक में लग गए. ये सिलसिला लगभग पंद्रह साल तक चलता रहा. मेरा अंदाजा है की लगभग पंद्रह लाख लोगों की नौकरी बैंकों में लगी होगी. अच्छी तनख्वाह, जल्दी जल्दी प्रमोशन और दूसरी सुविधाओं के चलते इन सभी लोगों का लाइफस्टाइल ही बदल गया. सरकारी स्कूल में पढ़ने वाले और साइकिल चलाने वाले लोअर क्लास से मिडिल क्लास में आ गए और कुछ ने अपर क्लास में छलांग लगा दी.
यूनियन बाज़ी: जहां इतने ज़्यादा कर्मचारी हों तो यूनियन का बनना स्वाभाविक ही है. राष्ट्रीयकरण से पहले भी यूनियन थी पर कमजोर थी. अब बड़ी और ताकतवर हो गई. यूनियन में छोटे बड़े बहुत से नेता थे जिनकी अपनी अपनी छोटी बड़ी सल्तनत हुआ करती थी. अपने अपने 'इलाके' में ट्रान्सफर करवाना, सीटें बदलवाना, मैनेजर को 'सेट' करना इनके काम हुआ करते थे. स्टाफ में से कुछ साइड बिज़नेस भी किया करते थे मसलन ट्रेवल एजेंट, धूप अगरबत्ती बेचना, ट्यूशन पढ़ाना, कीर्तन मण्डली चलाना वगैरह. इन लोगों की यूनियन नेताओं से अच्छी छनती थी.
एक नियम ये भी था कि यूनियन का एक प्रतिनिधि बैंक के बोर्ड में डायरेक्टर बनेगा. ये लालच की पुड़िया झगड़े करवाती थी. डायरेक्टर तो वही बनेगा जिसे कम्युनिस्ट पार्टी चाहेगी और उसके बाद सरकार हाँ करेगी. डायरेक्टर की कुर्सी के उम्मीदवार के चुनाव में जम कर रस्साकशी होती थी.
राष्ट्रीयकरण से पहले का स्टाफ बताता था कि पहले नौकरी मुश्किल हुआ करती थी. अक्सर रात को घर लेट पहुँचते थे. बल्कि रास्ते में पीछे पीछे कुत्ते भौंकते हुए चलते रहते थे! राष्ट्रीयकरण और यूनियन की वजह से पुराने स्टाफ की भी जून सुधर गई थी!
लोन बांटो: राष्ट्रीयकरण के कुछ समय बाद 1975-76 के आस पास हुकुम जारी हुआ कि पांच हज़ार तक के लोन बिना किसी गारंटी या सिक्यूरिटी के दिए जाएं. अब मैनेजरों का घबराने का टाइम था. ये कैसे होगा? लोग पैसा वापिस ही नहीं करेंगे. एक रास्ता निकाला गया. लोन तो दे देते पर लोनी के किसी भाई भतीजे की गारंटी साइन करा के फाइल में लगा लेते. उसके बाद मैनेजरों से लिखवाया गया कि मैं छोटे लोन के लिए कोई गारंटी नहीं लूंगा. बमुश्किल छोटे लोन की सिक्यूरिटी बंद हुई.
हाकिम को खुश करने के लिए लोन मेले लगने लगे. पहले लोन ज्यादातर व्यापारी के गोदाम पर ताला लगाकर और कुछ जमीन जायदाद के कागज़ बैंक में रख कर होते थे. फिर hypothecation आ गया जिसमें माल का कब्ज़ा भी लोनी के पास चला गया. पुराने मैनेजरों को इससे काफी बैचैनी होती थी. पर हौले हौले ढर्रा बदल गया.
कंप्यूटर बाबा: कम्पू बाबा शायद 1996-97 के आसपास प्रकट हुए थे. यूनियन में हल्ला मच गया, हड़ताल हो गई और फिर सबको एक एक स्पेशल इन्क्रीमेंट दी गई और फिर धड़ल्ले से कम्पू लगने शुरू हो गए. काउंटर चाहे टूटा फूटा हो पर उसके ऊपर कम्पू नया होना ज़रूरी था.
अब फिर से a b c d सीखनी पड़ी. काफी लोगों ने कम्पू के गेम्स जरूर सीख लिए. काउंटर पर बैठे बैठे कम्पू में ताश तो खूब खेली जाती थी. फिर दिसम्बर 2000 के आखिरी रात तक 2K की धूम रही. फिर बाद में CBS का हंगामा शुरू हो गया था जो अब तक ख़तम होता नहीं नज़र आ रहा क्यूंकि इसमें समय समय पर अपग्रेड भी होने हैं और स्टाफ की ट्रेनिंग भी. वैसे अब हिन्दुस्तानी जनता जान चुकी है कि कनेक्टिविटी न होने, कंप्यूटर डाउन होने या सर्वर डाउन होने का क्या मतलब होता है.
पेंशन नो टेंशन: भई अब तो ज़िन्दगी पेंशन पर गुज़र रही है ये भी काफी हद तक राष्ट्रीयकरण और कुछ हद तक यूनियन के कारण है. खैर 2004 की अटल सरकार के समय से पेंशन बंद हो गई. और अब की सरकार वापिस निजीकरण चाहती है. अब अगर आप पेंशन लेना चाहते हैं तो आप एमपी या एमएलए बन जाएं तो टैक्स फ्री पेंशन ले सकते हैं.
राष्ट्रीयकृत बैंक की समस्याएँ भी थीं, कुछ यूनियन की थीं और कुछ मैनेजमेंट की पर काम भी हुए और प्रगति भी हुई जैसा की उद्देश्य था. पर साब ये राजरोग कब ख़त्म हुए हैं? ये तो चलते रहते हैं. बहरहाल आजकल के राष्ट्रीयकृत बैंकों में कार्यरत कर्मचारियों और अफसरों को शुभकामनाएं.
हाकिम को खुश करने के लिए लोन मेले लगने लगे. पहले लोन ज्यादातर व्यापारी के गोदाम पर ताला लगाकर और कुछ जमीन जायदाद के कागज़ बैंक में रख कर होते थे. फिर hypothecation आ गया जिसमें माल का कब्ज़ा भी लोनी के पास चला गया. पुराने मैनेजरों को इससे काफी बैचैनी होती थी. पर हौले हौले ढर्रा बदल गया.
अब फिर से a b c d सीखनी पड़ी. काफी लोगों ने कम्पू के गेम्स जरूर सीख लिए. काउंटर पर बैठे बैठे कम्पू में ताश तो खूब खेली जाती थी. फिर दिसम्बर 2000 के आखिरी रात तक 2K की धूम रही. फिर बाद में CBS का हंगामा शुरू हो गया था जो अब तक ख़तम होता नहीं नज़र आ रहा क्यूंकि इसमें समय समय पर अपग्रेड भी होने हैं और स्टाफ की ट्रेनिंग भी. वैसे अब हिन्दुस्तानी जनता जान चुकी है कि कनेक्टिविटी न होने, कंप्यूटर डाउन होने या सर्वर डाउन होने का क्या मतलब होता है.
राष्ट्रीयकृत बैंक की समस्याएँ भी थीं, कुछ यूनियन की थीं और कुछ मैनेजमेंट की पर काम भी हुए और प्रगति भी हुई जैसा की उद्देश्य था. पर साब ये राजरोग कब ख़त्म हुए हैं? ये तो चलते रहते हैं. बहरहाल आजकल के राष्ट्रीयकृत बैंकों में कार्यरत कर्मचारियों और अफसरों को शुभकामनाएं.
राष्ट्रीयकरण पर आर के लक्ष्मण का कार्टून जो 19 जुलाई 2019 को नवभारत टाइम्स में पुनः प्रकाशित हुआ |
4 comments:
https://jogharshwardhan.blogspot.com/2019/07/blog-post_26.html
बेहतरीन संस्मरण। इस लेख को पढ़कर काफी अनजानी चीजों से वाकिफ हुआ। आभार। मेरे कई दोस्त बैंक में कार्यरत हैं तो उनको भी इस लेख को साझा किया है।
इस संस्मरण के और भी पार्ट्स आएं तो मज़ा आ जाये।
धन्यवाद विकास नैनवाल अंजान. इस तरह के बैंक सम्बन्धी लेख लोखता रहता हूँ. आप Sketches around banking शीर्षक के अंतर्गत पढ़ सकते हैं.
आप ने इतने लम्बे सफ़र को थोड़े शब्दों में सुन्दर तरीक़े से बाँध दिया । प्रशंसनीयें हे । मेने भी एक राष्ट्रिक्रित बैंक में नौकरी पायी और यह सफ़र भी यादगार रहा। गाँव की ज़िंदगी देखी , village adoption की भी अच्छाइयाँ देखी , बिना बिजली के दिन में बैंक में और रात में घर पर लेजर tally करना इसका अलग ही मज़ा था । हर २/३ वर्ष बाद नया घर नयी जगह नए लोग मिले और उनका प्यार जो आज तक क़ायम है । इस दौरान में कलकत्ता में रात भर घेराव में भी रह कर अलाने को मज़बूत किया । of course अब लगता है कुछ ज़्यादा हो गया।यह भी लगता है retirementके बाद वाली ज़िंदगी बहुत अछी है
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