बख्तर कीजे लोहे का,
पग कीजे पाषाण !
घोड़ा कीजे काठ का,
तब देखो जैसान !
ये पुरानी कहावत जैसलमेर की दशा बताती हैं. थार रेगिस्तान की भयंकर गर्मी या फिर कड़ाके की सर्दी और तेज़ धूल भरी हवाओं के थपेड़े यात्रियों को परेशान करते हैं. इसलिए यात्रियों को सलाह दी गई कि कपड़ों के बजाए लोहे का बख्तर पहन लें जो ना मैला हो और ना फटे, पैर पत्थर के बना लें जो तपती रेत में झुलसे नहीं और ना ही थकें, घोड़ा लकड़ी का ले लें जो ना कभी थके और ना पानी मांगे और तब जैस्सल राजा का स्थान देखने निकलें ! अब बख्तर और घोड़ा तो पुरानी बात हो गई पर आप जैसलमेर जाते समय अपनी गाड़ी का कूलैंट और ए.सी. जरूर चेक कर लें !
जैसलमेर शहर भाटी राजपूत महाराजा जैसल द्वारा 1178 में बसाया गया था. थार रेगिस्तान में बसा ये शहर जयपुर से लगभग 560 किमी दूर है और दिल्ली से 780 किमी. रेगिस्तान होने के कारण गर्मियों में तापमान 50 के नज़दीक पहुँच जाता है और सर्दियों में शून्य के नज़दीक पहुँच सकता है.
काफी लम्बे समय तक इराक, ईरान, अफगानिस्तान जैसे देशों से व्यापारी ऊँटों के कारवां लेकर चलते थे और जैसलमेर व्यापारियों का एक पड़ाव था. अफीम, सोने, चांदी, हीरे जवाहरात, सूखे मेवों वगैरा का व्यापार हुआ करता था. जैसलमेर के समृद्ध व्यापारियों ने अपने रहने के लिए सुंदर हवेलियाँ बना रखी थी. इन हवेलियों को अपने समय के सबसे सुंदर साजो सामान से सजाया जाता था. हर हवेली का डिजाईन, नक्काशी और रूप रंग अलग अलग था. तेज़ गर्मी और कड़ाके की ठण्ड को ध्यान में रखते हुए इनका निर्माण किया गया था. खम्बे, दरवाज़े, खिड़कियाँ, झरोखे सभी पर सुंदर और मनोहारी कारीगरी दिखाई पड़ती है. ज्यादातर स्थानीय हल्का पीला पत्थर इस्तेमाल किया जाता था. इसके अलावा मकराना का सफ़ेद संगमरमर और जोधपुर का हल्का गुलाबी बालू पत्थर भी काफी इस्तेमाल किया गया है.
दीवान नथमल की हवेली 1885 में बनी और अभी भी उनके वंशजों के पास ही है. पटवा हवेलियाँ 1805 में बनना शुरू हुई. सेठ घुम्मन चंद पटवा का ज़री याने ब्रोकेड का काम खूब चलता था. उन्होंने अपने पांच बेटों के लिए दस लाख रुपए की लागत से पांच हवेलियाँ बनवाई जो लगभग 50 सालों में बन कर तैयार हुईं. इन पांच हवेलियों में से पहली हवेली में संग्रहालय है और बाकी चार बंद पड़ी हैं. संग्रहालय में जाने के लिए टिकट लगता है और गाइड फीस देने पर उपलब्ध हैं. गाइड ने बताया की बंद हवेलियाँ सरकार ने ले ली हैं. प्रस्तुत हैं कुछ फोटो:
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दीवान नथमल की हवेली. जैसलमेर के महारावल ( राजा - रावल और महाराजा - महारावल ) बैरिसाल ने 1885 में ये दो मंजिली हवेली बनवा कर दीवान को उपहार में दी. दाएं बाएँ दो हाथी खड़े हैं जो समाज में हवेलीदार का उंचा ओहदा दर्शाते हैं |
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दीवान नथमल की हवेली की ड्योढ़ी याने प्रवेश. दीवार, चबूतरे, खिड़कियों और छज्जों पर बारीक और बेहतरीन नक्काशी |
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पटवा की हवेलियों में से दूसरी हवेली |
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हवेलियों के बीच का दालान |
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गली में निकले हुए बेहतरीन नक्काशी वाले छज्जे |
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पटवा की एक हवेली का प्रवेश द्वार और तहखानों की खिड़कियाँ |
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हवेली के नीचे से ऊपर तक सुंदर नक्काशी |
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पतली गली के दोनों ओर हवेलियाँ होने के कारण गली में भीषण गर्मी में भी ठंडक बनी रहती है |
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पटवा की चौथी हवेली |
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हवेलियों के बीच की पतली गली |
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हवेली का संग्रहालय - नाप तौल का सामान. तोला, मासा, रत्ती से लेकर २० सेर तक के बाट. छोटे बाट से अफीम, सोना और चांदी जैसी चीज़ तोली जाती थी |
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हवेली की महिलाओं के लिए साज सिंगार के बक्से और अन्य सामान |
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तीसरी मंजिल पर बने नक्काशीदार सुंदर झरोखे और पर्यटक |
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दीवान खाने में बहुत सी पेंटिंग लगी हैं. जलपान में इस्तेमाल किये जाने वाले बर्तन |
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हवेली जाने का रास्ता. पूरा पुराना शहर आप पैदल भी घूम सकते हैं |
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हवेली के पास देसी दूकानदार और फिरंगी खरीदार. दोनों को एक दूसरे की भाषा नहीं आती पर मोल भाव खूब चलता है. पास में खड़े होकर चुपचाप देखें और सुनें तो मज़ा आता है कि कैसे इशारों और हाव भाव से खरीद बेच होती है |
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पटवा की हवेली में कठपुतलियों का बाज़ार |
* मंडावा की हवेलियाँ पर एक फोटो-ब्लॉग इस लिंक पर देख सकते हैं :
http://jogharshwardhan.blogspot.com/2017/01/blog-post_20.html
* रामपुरिया हवेलियाँ, बीकानेर पर एक फोटो-ब्लॉग इस लिंक पर देख सकते हैं :
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https://jogharshwardhan.blogspot.com/2017/04/blog-post_22.html
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