पिछले दिनों लैंसडाउन, पौड़ी गढ़वाल की तीन दिन की यात्रा की. कुछ गाँव तो जीप में बैठे-बैठे देखे और कुछ अपनी गाड़ी ऊपर होटल में ही छोड़ कर पैदल आने जाने में देखे. ऐसी ही यात्रा 20-25 साल पहले भी की थी. तो यह सवाल स्वाभाविक था कि यहाँ क्या बदलाव आया?
गाँव में घुसते ही स्वागत करने वालों में थे बुज़ुर्ग और बुज़ुर्ग. पहले भी यही हाल था वैसे तो पर इस बार ज्यादा महसूस हुआ. मनीआडर और पेंशन अर्थ व्यवस्था बदस्तूर जारी है. हाँ लाइट और पानी की सप्लाई आ गई है. पर छोटे छोटे गाँव में अभी सड़क का इंतज़ार है, रसोई गैस का इंतज़ार है. शौचालय का इंतज़ार है और चिकित्सा सुविधा का इंतज़ार है.
स्कूल में विद्यार्थी ज्यादा हैं, पढने वाली लड़कियां ज्यादा हैं पर स्कूल अभी घर से दूर ही हैं ख़ास तौर से प्राइमरी स्कूल. साथ ही एक और दुविधा है कि अगर बच्चा अच्छा पढने वाला निकला तो घर से दूर हो जाएगा. बहुत पढ़ाकू होगा तो विदेश पहुँच जाएगा!
स्थानीय नौकरियाँ कम हैं इसलिए फ़ौज और सरकारी नौकरी ढूंडते-ढूंडते लोग दूर से दूर निकल जाते हैं और फिर पलट कर आना मुश्किल हो जाता है. पहाड़ी गाँव सुंदर हैं इनमें खेती लायक जमीन भी हैं पर मशीनीकरण नहीं है और होना भी मुश्किल है. इसलिए कमरतोड़ मेहनत है पर कमाई कम है. इसलिए भी गाँव से पलायन हो रहा है.
प्रदेश सरकार और बैंक बहुत से काम धंधों के लिए पैसे देते हैं पर अपनी पूँजी का अभाव है, अनुभव का अभाव है और उद्यम चलाने की ट्रेनिंग का अभाव है. इन अभावों के चलते ज़्यादातर होटल और उद्योगों में मालिकाना हिस्सा कम है. पर नौकरियां जरूर मिल रही हैं.
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पहाड़ी गाँव का एक घर - एक ओर सूखी लकड़ियाँ जो चूल्हे में और सर्दी में काम आएंगी, घर के नीचे चारे का ढेर और कुछ फलों के पेड़ |
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टेढ़ी-मेढ़ी राहें |
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भगवान सबका भला करे |
पर बदलाव तो है और अच्छे के लिए है. होटल खुले हैं तो टूरिस्ट भी आएंगे, टैक्सी भी इस्तेमाल करेंगे, स्थानीय चीज़ें भी बिकेंगी और नौकरियां भी मिलेंगी. पर स्थानीय सरकार को पर्यावरण का भी विशेष ध्यान रखना होगा. हिमालय की इकोलॉजी बहुत नाज़ुक दौर से गुज़र रही है.
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