जब मैंने आठवीं पास की तो गरमी की छुट्टियों में पहली बार गाँव गई. दिल्ली के सरकारी क्वार्टरों के मुक़ाबले गाँव बिलकुल अलग थे - हरे भरे जंगल और पहाड़, शोर मचाती बरसाती नदी, अलग तरह के पेड़ पौधे, तरह तरह की चिड़ियां और अलग तरह के मकान. चीड़ के ऊँचे ऊँचे पेड़ों का घना जंगल. हमारे छोटे से गाँव जिबलखाल में मात्र 12-14 परिवार रहते थे.
सुबह गाय बकरियाँ को चराने ले जाते थे, दोपहर को आम के पेड़ के नीचे चरपाई डालकर ठंडी हवा के साथ साथ कच्ची अम्बियों का आनंद लेते. रात को चारपाइयों में लेटे लेटे तारे देखते रहते. दिल्ली के मुक़ाबले यहाँ आसमान साफ़ था इसलिए चाँद तारे ज्यादा बड़े, ज्यादा पास और सुंदर लगते थे. बस वहाँ से आने का मन नहीं करता था.
पहले जाते थे तो दिल्ली से 9 घंटे की रेल यात्रा के बाद कोटद्वार स्टेशन आता था. वहां से बस या जीप में लैंसडाउन की ओर 20-22 किमी की पहाड़ी घुमावदार सड़कों पर हिचकोले वाली यात्रा होती थी. भरोसाखाल तक पौने घंटे में पहुँच जाते थे. उसके बाद शुरू होती पैदल यात्रा नीचे की ओर. पहले चीड़ के जंगले में से, फिर खेतों के मुंडेरों पर उतरते हुए और फिर पथरीली पगडंडियों पर चलते हुए अपने गाँव पहुँचते थे. चीड़ के जंगल में बहती ठंडी हवा की सरसराहट और एक ख़ास खुशबू अभी तक याद है.
पर अब अपनी कार से यात्रा आसान और कम समय की हो गई है. दिल्ली से मेरठ, मवाना, बिजनोर, कोटद्वार, दुगड्डा होते हुए भरोसाखाल तक सड़क अच्छी है हालाँकि 2 लेन की ही है. वहां से गाँव तक कच्ची सड़क बनी है जो और 5-7 सालों में शायद ठीक ठाक बन जाए. हाँ गाँव में बिजली और पानी की सप्लाई शुरू हो गई है. पर इस बार हमने कार ऊपर के एक होटल में ही छोड़ दी और कच्चे रास्ते से पैदल ही प्रस्थान कर दिया.
सुबह गाय बकरियाँ को चराने ले जाते थे, दोपहर को आम के पेड़ के नीचे चरपाई डालकर ठंडी हवा के साथ साथ कच्ची अम्बियों का आनंद लेते. रात को चारपाइयों में लेटे लेटे तारे देखते रहते. दिल्ली के मुक़ाबले यहाँ आसमान साफ़ था इसलिए चाँद तारे ज्यादा बड़े, ज्यादा पास और सुंदर लगते थे. बस वहाँ से आने का मन नहीं करता था.
पहले जाते थे तो दिल्ली से 9 घंटे की रेल यात्रा के बाद कोटद्वार स्टेशन आता था. वहां से बस या जीप में लैंसडाउन की ओर 20-22 किमी की पहाड़ी घुमावदार सड़कों पर हिचकोले वाली यात्रा होती थी. भरोसाखाल तक पौने घंटे में पहुँच जाते थे. उसके बाद शुरू होती पैदल यात्रा नीचे की ओर. पहले चीड़ के जंगले में से, फिर खेतों के मुंडेरों पर उतरते हुए और फिर पथरीली पगडंडियों पर चलते हुए अपने गाँव पहुँचते थे. चीड़ के जंगल में बहती ठंडी हवा की सरसराहट और एक ख़ास खुशबू अभी तक याद है.
पर अब अपनी कार से यात्रा आसान और कम समय की हो गई है. दिल्ली से मेरठ, मवाना, बिजनोर, कोटद्वार, दुगड्डा होते हुए भरोसाखाल तक सड़क अच्छी है हालाँकि 2 लेन की ही है. वहां से गाँव तक कच्ची सड़क बनी है जो और 5-7 सालों में शायद ठीक ठाक बन जाए. हाँ गाँव में बिजली और पानी की सप्लाई शुरू हो गई है. पर इस बार हमने कार ऊपर के एक होटल में ही छोड़ दी और कच्चे रास्ते से पैदल ही प्रस्थान कर दिया.
पढ़ाई पूरी करने के बाद दिल्ली में ही बैंक में नौकरी मिल गई. वहाँ हर्ष से मुलाक़ात हुई और वहीं शादी भी कर ली. हमारे दो बेटे हुए और उनके साथ भी दो तीन बार आना हुआ. उन्हें भी गाँव में बहुत मजा आया. पर माँ पिताजी के स्वर्गवास होने के बाद गाँव जाना नहीं हुआ.
समय गुज़रा और हर्ष रिटायर हो गए और मैंने भी रिटायरमेंट ले ली. अब दफ़्तर की भागदौड़ समाप्त हुई, ख़ाली समय भी था और गाँव से बहुत सी मीठी यादें जुड़ी थीं तो एक बार फिर से 25-26 साल बाद गाँव जाने का विचार बना. देख कर आएँ अपना पुश्तैनी घर कैसा है हालाँकि अब परिवार में से कोई भी वहां नहीं रहता था. पर चलो और नहीं तो सैर सपाटा ही सही और हमने कौन सी छुट्टी मंज़ूर करानी है!
समय गुज़रा और हर्ष रिटायर हो गए और मैंने भी रिटायरमेंट ले ली. अब दफ़्तर की भागदौड़ समाप्त हुई, ख़ाली समय भी था और गाँव से बहुत सी मीठी यादें जुड़ी थीं तो एक बार फिर से 25-26 साल बाद गाँव जाने का विचार बना. देख कर आएँ अपना पुश्तैनी घर कैसा है हालाँकि अब परिवार में से कोई भी वहां नहीं रहता था. पर चलो और नहीं तो सैर सपाटा ही सही और हमने कौन सी छुट्टी मंज़ूर करानी है!
चीड़ का जंगल और बीच से जाती पगडंडियाँ |
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https://jogharshwardhan.blogspot.com/2016/02/blog-post_28.html
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