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Saturday, 26 November 2022

रूमी दरवाज़ा लखनऊ

लखनऊ शहर की निशानी है रूमी दरवाज़ा. ये पुराने नवाबी लखनऊ प्रवेश द्वार है. इसे 1784 में अवध के नवाब आसफुद्दौला ने बनवाया था. इसे बनाने का एक कारण यह भी बताया जाता है की उस समय भयंकर अकाल पड़ा था और नवाब ने लोगों को रोज़गार देने के लिए छोटे बड़े इमामबाड़े के साथ इस रूमी गेट को भी बनवाया गया था. नवाब ने शायद अर्थशास्त्री कीन्स( 1883 -1946 ) को काफी पहले ही पीछे छोड़ दिया था! कीन्स ने 1936 में कहा था कि आपदा और ज्यादा बेरोजगारी के समय सरकार बड़े बड़े प्रोजेक्ट्स में पैसा लगाए और ज्यादा से ज्यादा लोगों को रोज़गार मिले. नवाब ने भी खजाना खोल दिया और उसकी निशानी अब तक देखने को मिलती है. भारी भरकम रूमी दरवाज़ा छोटे और बड़े इमामबाड़े के बीच में है और दिन में यहाँ काफी ट्राफिक रहता है. इसे रूमी दरवाज़ा क्यूँ कहा जाता है इस बारे में मान्यताएं हैं:

* इसका डिज़ाइन इस्तानबुल के  सबलाइम पोर्ट ( Sublime Porte ) या बाब-इ-हुमायूँ से मिलता जुलता है. 

* रूमी दरवाज़े का डिज़ाईन कांस्टेंटिनोपल के गेट से मिलता है. रोम के अनातोलिया क्षेत्र का इस्लामिक उच्चारण रूम था और ये क्षेत्र ईस्टर्न रोमन एम्पायर कहलाता था. उस रूम के कारण इसे रूमी दरवाज़ा कहा जाता है.

* दरवाज़े का नाम शायद पारसी सूफी संत जलाल अल-दीन मुहम्मद रूमी ( 1207 - 1273 ) के नाम पर रखा गया था. बहारहाल जो भी हो रूमी की नीचे लिखी एक लाइन बहुत सुंदर लगी. आप भी पढ़िए:  

When we are dead, seek not our tomb in the earth, but find it in the hearts of men. 

प्रस्तुत हैं कुछ फोटो: 

रूमी दरवाज़े के नीचे से गुज़रता ट्रैफिक. आने जाने के लिए तीन ऊँची मेहराब बनाई गई जिससे की नवाब चाहे घोड़े पर बैठ कर निकलें या हाथी पर कोई परेशानी ना हो. बाद में ये दरवाज़ा महल का प्रवेश द्वार बन गया परन्तु महल को 1857 के स्वतंत्रता संग्राम के बाद अंग्रेजों ने ध्वस्त कर दिया. सड़क पर बिछी लाल ईंटें भी दरवाज़ा बनाने के समय लगाईं गई थी. उन्हें एक बार फिर से लगाया गया है  

 
दरवाज़े के किनारे पर फूल पत्तियां सुन्दरता से बनाई गई हैं. इनमें पान का पत्ता और लौंग भी शामिल हैं 

सुबह सुबह देखें तो ज्यादा अच्छा लगेगा क्यूंकि ट्रैफिक, ठेले वाले नहीं होते और ना ही शोर शराबा होता है और आप इत्मिनान से डिजाईन की बारीकी देख पाते हैं   
 
फूल और पत्ते 

रूमी दरवाज़े की ये फोटो उलटी की हुई है. गाइड ने बताया था कि यही डिजाईन लखनऊ की प्रसिद्द 'चिकनकारी' के कुर्तों और कुर्तियों में देखा जा सकता है  

दूसरी तरफ 


Thursday, 24 November 2022

रेज़ीडेंसी, लखनऊ

लखनऊ की रेज़ीडेंसी या ब्रिटिश रेज़ीडेंसी एक इमारत ना हो कर एक बड़ा परिसर है जिसमें कई इमारतें, लॉन और बगीचे हैं - बैले गेट, खज़ाना, बेगम कोठी, बैंक्वेट हॉल, डॉ फेयरर की कोठी वगैरह. यहाँ ब्रिटिश रेजिडेंट जिन्हें एजेंट भी कहा जाता था, रहते थे. रेज़ीडेंसी का 1857 के स्वतंत्रता संग्राम की ऐतिहासिक घटनाओं से गहरा रिश्ता है.

ब्रिटिश रेज़ीडेंसी सिस्टम अंग्रेजों ने बंगाल में हुए प्लासी युद्ध ( 1757 ) के बाद शुरू किया था. इस सिस्टम में रियासतों और छोटे राज्यों में ब्रिटिश एजेंट या रेज़ीडेंट रहता था जो अंदरूनी या बाहरी हमलों में "मदद" करता था. पर ये मदद फ्री नहीं होती थी इसका खर्चा भी वसूला जाता था. सबसे पहले ब्रिटिश  रेज़ीडेंट आर्कोट, लखनऊ और हैदराबाद में पोस्ट किये गए थे.

लखनऊ की रेज़ीडेंसी शहर के बीचोबीच है और इसका निर्माण 1780 में अवध के नवाब आसफुद्दौला ने शुरू कराया था. आसफुद्दौला 26 साल की उम्र में ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी की मदद से 1775 में अवध का नवाब बना था. उसका सौतेला भाई भी गद्दी चाहता था जिसे हराने के लिए फिरंगी सेना का इस्तेमाल किया गया था. गद्दी नशीन होने के बाद नवाब को अंग्रेजी मदद का अहसान भी चुकाना था. उस वक्त अवध दूसरी हिन्दुस्तानी रियासतों के मुकाबले अमीर था और अंग्रेज बड़े शातिर खिलाड़ी थे वो इस बात को समझते थे. कहा जाता है कि नवाब ने कम्पनी बहादुर को एक बार 26 लाख और दूसरी बार 30 लाख का मुआवज़ा दिया. नवाबी महंगी पड़ी. वैसे ये नवाब आसफुद्दौला दरिया दिल इंसान था और जनता जनार्दन की काफी मदद करता रहता था. आसफुद्दौला के बारे में कहावत मशहूर थी की - "जिसे न दे मौला उसे दे आसफुद्दौला!" अवध की राजधानी पहले फैजाबाद हुआ करती थी जिसे आसफुद्दौला ने लखनऊ में शिफ्ट कर दिया था. बहरहाल आसफुद्दौला 1797 में चल बसे और फिर आ गए नवाब सआदत अली खान और रेज़ीडेंसी 1800 में पूरी हुई. 

10 मई 1857 के दिन मेरठ में फिरंगियों पर ( उस वक़्त ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी में अंग्रेजों के अलावा बहुत से यूरोपियन भी थे ), हमले हो गए और शाम तक 'दिल्ली चलो' का नारा बुलंद हो गया. खबर लखनऊ भी पहुँच गई और 23 मई को रेज़ीडेंसी और दिलकुशा कोठी घेर कर स्वतंत्रता सेनानियों ने हमला बोल दिया. लखनऊ की इस 'घेराबंदी' में भयंकर मारकाट हुई. इस लड़ाई में फिरंग और उनके साथियों की संख्या लगभग 8000 तक पहुँच गई थी क्यूंकि आसपास से अंग्रेजी सैनिक भी आ पहुंचे थे. मुकाबले में रियासतों के सैनिक, कंपनी छोड़ कर भागे हुए सिपाही और आम जनता लगभग 30 हजार तक थी. पर ये लोग असंगठित थे, इनके पास हथियार और गोला बारूद कम था, स्वतंत्रता संग्रामियों की एक कमान ना हो कर कई लीडर थे. इसलिए घेराबंदी में जीता हुआ लखनऊ मार्च 1858 में हाथ से निकल गया. अंग्रेजी पक्ष में से 2500 लोग मारे गए, घायल हुए या फिर लापता हो गए. संग्रामियों में से शहीद हुए लोगों की संख्या का पता नहीं चला.  

रेज़ीडेंसी 1857 के संग्राम के बाद खंडहर ही है. आजकल पुरातत्व विभाग ( ASI ) रेजीडेंसी परिसर की देखभाल करता है. आसपास सुंदर लॉन और बगीचे हैं. अंदर जाने के लिए टिकट है और सोमवार की छुट्टी है. शाम को लाइट और साउंड का प्रोग्राम भी होता है. लखनऊ जाएं तो जरूर देखें.

प्रस्तुत हैं कुछ फोटो: 

रेज़ीडेंसी 1775 - 1800 के दौरान बनी. यहाँ कभी चहल पहल रही होगी 


रेज़ीडेंसी में बहुत सी छोटी बड़ी तोपें देखने को मिलेंगी 

रेज़ीडेंसी की इमारतें बनाने में पतली ईंटें इस्तेमाल की गई थीं जिन्हें लखौरी ईंटें कहा जाता है 


अवध के नवाब शुजाउद्दौला और ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी के बीच 1774 में हुए समझौते के अंतर्गत रेज़ीडेंसी बनाई गई थी. रेज़ीडेंसी करीब 33 एकड़ में फैली हुई है. अवध की पुरानी राजधानी फैज़ाबाद हुआ करती थी. राजधानी बदलने के बाद रेज़ीडेंसी यहाँ बनी 

डॉ फेयरर की कोठी. लखनऊ की घेराबंदी के समय यहाँ डॉ फेयरर रहा करते थे जो एक सर्जन थे. घेराबंदी के दौरान बच्चे और घायल सैनिकों को यहाँ रखा गया था.

बैंक्वेट हॉल या भोजशाला . इस परिसर की सबसे सुंदर इमारत यही थी जिसे नवाब  सआदत अली खान ने बनवाया था. बड़े बड़े झूमर, रेशमी परदे और शीशों से सजा हॉल घेराबंदी में अस्पताल बना दिया गया था 

बारादरी 

1857 स्मृति संग्रहालय  

संग्रहालय का प्रवेश. यहाँ पुराने नक़्शे, कागजात, पेंटिंग्स, ढाल और तलवार वगैरह देखने को मिलेंगी.

संग्रहालय के सामने रखी 18 पाउण्डर तोप

बैले गेट ( या बैले गार्ड गेट ) में लकड़ी का दरवाज़ा 
 
बैले गेट का सुधारा हुआ रूप वर्ना ये भी खँडहर हो चुका था. ये गेट नवाब सआदत अली खान ने बनवाया था और रेज़ीडेंसी में उस वक़्त ब्रिटिश रेज़िडेंट कप्तान जॉन बैले रहते थे. इसलिए इस गेट का नाम बैले गेट पड़ गया 

बेगम कोठी नवाब आसफुद्दौला द्वारा बनाई गई थी जो बाद में असिस्टेंट रेजिडेंट Saville Marcus Taylor को बेच दी गई. टेलर ने George Prendergast को 1802 में बेच दी. जॉर्ज ने कुछ दिन दुकान चलाई पर बाद में John Cullodon को बेच दी. John Cullodon की पौत्री आलिया नवाब नसीरुद्दीन हैदर के बेगम थी जो आम तौर पर विलायती बेगम के नाम से जानी जाती थी. विलायती बेगम अपनी माँ के साथ यहाँ रहती थी. ये कोठी अवध स्टाइल में बनी हुई थी  

रेज़ीडेंसी परिसर में पीर की मजार 


Sunday, 20 November 2022

दिलकुशा कोठी, लखनऊ

लखनऊ की बहुत सी ऐतिहासिक इमारतों में से एक है दिलकुशा कोठी. बहुत बड़े पार्क में बनी हुई इमारत कभी बहुत खुबसूरत और दिलकश रही होगी तभी इसका नाम दिलकुशा कोठी रखा गया था. लखनऊ कैंट के पास और गोमती नदी के किनारे बनी दिलकुशा कोठी की सैर अब भी दिल खुश कर देती है. 

दिलकुशा 1800 - 1805 में बनी और इसे अवध के नवाब सआदत अली खान ने बनवाया था. शुरू में यह शिकारगाह या फिर गर्मी से बचने की आरामगाह की तरह इस्तेमाल हुई थी क्यूंकि ये गोमती के किनारे थी. बाद में नवाब नसीरुद्दीन हैदर ( 1827 - 1837 ) ने भी इमारत में फेरबदल की. ईमारत के अंदर आँगन नहीं हैं जैसा की आम तौर पर होता था लेकिन ईमारत की उंचाई आम घरों के मुकाबले ज्यादा थी. 

दिलकुशा की खूबसूरती से प्रभावित हो कर इंग्लिश मंच अभिनेत्री मैरी लिनले टेलर ( Mary Linley Taylor 1889 - 1982 ) ने  जब अपना घर सोल दक्षिण कोरिया में बनाया तो अपने घर का नाम भी दिलकुशा रख दिया. इस बात का जिक्र इस किताब में है - 'Dilkusha By Ginkgo Tree: Our Seoul Home Beside Our Historic Tree by Bruce Tickell Taylor. 

ई एम् फोरस्टर की किताब 'अ पैसेज टू इंडिया' ( E M Forster - A Passage to India ) में भी दिलकुशा का जिक्र है.

बम्बैय्या फिल्म 'उमराव जान' में 1857 के लखनऊ के विद्रोह की झलक है हालांकि बैक ग्राउंड में है.   

1857 के स्वतंत्रता संग्राम में दिलकुशा कोठी का अहम् रोल रहा है. 10 मई 1857 की सुबह मेरठ में विद्रोह का बिगुल बज गया और शाम होते होते दिल्ली चलो का नारा बुलंद हो गया. इसकी खबर लखनऊ भी पहुंची और वहां भी चिंगारी सुलगाने लगी. अवध के नवाब वाजिद अली शाह को ईस्ट इंडिया कंपनी काफी पहले ही गिरफ्तार कर के कोलकोता भेज चुकी थी और अवध कब्जाने की तैयारी में थी. लोगों में इस बात को ले कर बहुत रंजिश थी. दूसरी बात थी की कम्पनी ने एनफील्ड राइफल फौजियों को बांटी. इसके कारतूस को मुंह से काट कर राइफल में भरना होता था. ऐसी खबर फ़ैल गई थी की कारतूस में गाय और सूअर की चर्बी लगी हुई थी. फ़ौज में और आम जनता में इसका बहुत सख्त विरोध हो रहा था. 

23 मई को ईद वाले दिन कुछ सिपाहियों और स्थानीय जनता ने फिरंगियों पर हमला बोल दिया. रेजीडेंसी, दिलकुशा और उन सभी ईमारतों पर जहाँ ईस्ट इंडिया कम्पनी के लोग थे, तोपों के गोले दाग दिए गए और घमासान शुरू हो गई. चार जून को सीतापुर में विद्रोह हो गया और उसके बाद फैजाबाद, दरियाबाद, सुल्तानपुर और आसपास फ़ैल गया. दस बारह दिनों में ही कम्पनी राज हवा हो गया. पर विद्रोही असंगठित थे, उनका एक लीडर ना हो कर कई थे और हथियार गोला बारूद की कमी थी और लोग अनुशासित नहीं थे. मार्च 1858 तक अंग्रेजी सेना फिर से लामबंद हो कर लखनऊ पर काबिज हो गई. 

दिलकुशा और रेजीडेंसी के खँडहर इतिहास बताने के लिए बच गए हालांकि यह इतिहास एक तरफ़ा ही है याने अंग्रेजों का ज्यादा है और स्वतंत्रता सेनानियों का कम.

दिलकुशा कोठी में प्रवेश सुबह आठ बजे से पांच बजे तक है और निशुल्क है. गाइड की व्यवस्था नहीं है. 

प्रस्तुत हैं कुछ फोटो:  


कोठी का निर्माण सन 1800 से 1805 के बीच हुआ था. अवध के नवाब सआदत अली खान ( 1752 - 1814 ) के समय में यह इमारत बनाई गई थी. सआदत का शासन काल 1798 - 1814 था और ये कोठी या 'महल' सआदत के ब्रिटिश दोस्त मेजर गोर ओसेली ( Gore Ouseley ) की देखरेख में बनवाया गया था. 
 
कोठी इंग्लिश बरोक ( English Baroque style ) की तर्ज़ पर बनाई गई थी और ये इंग्लैंड की एक इमारत सीटन डेलावल हॉल ( Seaton Delaval Hall, Northumberland ) से काफी मेल खाती है. 
 
दिलकुशा का निर्माण एक ख़ास किस्म की पतली छोटी इंटों से किया गया था जिसे लखौरी ईंटें कहते हैं. इन पतली इंटों की मदद से गोलाकार मोल्डिंग बनाई गई जो दूर से बहुत सुंदर लगती हैं. सीढ़ी के पायदान भी सरल से हैं जिन पर फुर्ती से चढ़ा जा सकता है. 

 बताया जाता है कि अंदर यूरोपियन स्टाइल में गोल घुमावदार सीढ़ियाँ हुआ करती थीं 

 
पुरातत्व विभाग द्वारा इन इमारतों का रख रखाव किया जा रहा है 


इस तरह लोहे के कई बेंच बगीचे में हैं. पता नहीं लगा ये कितने पुराने हैं. अलग ही स्टाइल के हैं ये

बेंच में बनी आकृति अंग्रेजी स्टाइल में है


बेंच के पैर भी जानवर के खुर की तरह हैं !


बड़ी बड़ी खिड़कियाँ और दरवाज़े हैं पर अन्दर आँगन नहीं है


यूरोपियन स्टाइल 


तहखाने का रास्ता 


दिलकश दिलकुशा