श्रीमती संध्या और श्री चक्रवर्ती की बिटिया को बैंगलोर में अच्छी जॉब मिल गई. काफी राय मशवरे के बाद यह तय हुआ कि बिटिया के साथ वो दोनों भी बैंगलोर में रह लेंगे. चक्रवर्ती दादा पेंशनर थे इसलिए शिफ्ट होने में कोई दिक्कत नहीं थी. उनकी बिटिया पहले बैंगलोर चली गई और अपने ऑफिस के लोगों की मदद से एक किराये का मकान तय कर लिया. मम्मी पापा को बताया और टिकेट भी भेज दी. दोनों फ्लाइट से बंगलौर आ गए. कलकत्ते का मकान किराए पर दे आए. बंगलौर पसंद आया. मौसम अच्छा था और आस पास घूमने के लिए बहुत से मंदिर, किले, महल और सुंदर सुंदर स्थान थे. इसलिए दोनों और कभी कभी तीनों एक साथ अक्सर टूर लगाते रहते थे.
एक दिन बिटिया जब ऑफिस से वापिस आई तो उसके साथ एक उड़िया लड़का भी था. बातचीत हुई तो पता लगा कि दोनों शादी करना चाहते हैं. थोड़ी बहुत ना नुकुर के बाद शादी के लिए हाँ हो गई और जल्द ही शादी भी हो गई. दोनों ने मिल कर बड़ा मकान किराए पर ले लिया और सभी वहां शिफ्ट हो गए. फिर दोनों को लगा की किराया काफी ज्यादा है इतनी किश्त दे कर मकान ही खरीद लिया जाए. मकान खरीद लिया गया. अब लड़के के माँ बाप भी आ गए. संध्या को लगा की अलग रहना ही बेहतर है. चक्रवर्ती साब से बात की तो उन्होंने कहा बिलकुल ठीक. फिर दोनों ने बिटिया से बात की तो उसने कहा ठीक है. फिर बिटिया ने पति से बात की और पति ने अपने माँ बाप से. उन्होंने कहा चार कमरे का मकान है इकट्ठे रह सकते हैं. फिर भी अगर उनकी मर्ज़ी है तो ठीक है इन्हें पास में ही मकान दिलवा दो. और चाहो तो किराया भी दे देना.
संध्या और चक्रवर्ती दा अपने नए मकान में चले गए जो सिर्फ सौ मीटर दूर ही होगा. आपस में सलाह करके कलकत्ते का मकान भी बेच दिया. साल भर तो सब सही चला पर फिर चक्रवर्ती दादा का अचानक देहांत हो गया. इसके बाद सभी ने संध्या को कहा की बिटिया के मकान में ही आ जाए पर उसे लगा मैं अलग ही ठीक हूँ. इस टॉपिक पर बातचीत अक्सर ही हो जाती थी. बेटी, दामाद और उसके माता पिता साथ रहने के लिए कहते पर संध्या हाँ या ना करने में झिझकती थी. सोच विचार कर संध्या ने बात को ज्यादा खींचना ठीक नहीं समझा और हाँ कर दी. एक दिन यह तय हुआ की संध्या शाम सात बजे बिटिया के घर आ जाया करेगी, डिनर करेगी और यहीं सो जाया करेगी. सुबह नाश्ता कर के चली जायेगी. पोते के कमरे में संध्या का सामान सेट कर दिया गया. वैसे भी नानी और नाती की अच्छी जमती थी इसलिए दोनों मजे में रहने लगे.
अब संध्या रोज शाम को कभी चार बजे, कभी पांच बजे या कभी छे बजे अपने घर से निकल पड़ती है. पास के मॉल में चली जाती है, बाज़ार में घूम लेती है या फिर मंदिर चली जाती है. कभी कभी सोसाइटी के छोटे से पार्क में हमारे पास बैठ जाती है. पर सबसे पहले बिटिया को मेसेज कर देती है की नीचे बैठी हूँ. बंगला-हिंदी की खिचड़ी भाषा में अक्सर हमसे बतिया भी लेती है. यूँ कहती हैं,
- वहां तो हम डिनर के टाइम जाएगा पोहले नहीं जाएगा!
डिनर टाइम |
7 comments:
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jeevan ki Sandhya me achchha idea hai....
बंगला-हिंदी की खिचड़ी अच्छे से पकने लगी, इससे अच्छी बात और क्या होगी।
लड़की के घर रहना सच में आज भी अधिकांश लोगों को अच्छा नहीं लगता, चाहे वहां कितनी भी सुख सुविद्याएँ क्यों न हों, मजबूरी में अकेलेपन से बचने के लिए भले ही वे ऐसा करे वह अलग बात है
बहुत अच्छी कथा
बीच का रास्ता जो बहुत सी विसंगतियों से रक्षा करता है।
सुंदर।
धन्यवाद मन की वीणा. जीवन भर कोशिश रहती है की विसंगतियों से बचें!
धन्यवाद कविता रावत. पहले तो लड़की के घर का पानी भी पीने के लिए तैयार नहीं होते थे पर अब काफी बदलाव हो गया है. आगे और भी होगा.
धन्यवाद Manish. सकारात्मक आईडिया है.
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