शादी के बाद संध्या बड़े परिवार में पहुँच गई. सास ससुर के अलावा दुल्हे राजा और उनकी चार बड़ी बहनें भी थीं. चार बेटियों के बाद राज कुमार पैदा हुए थे तो स्वाभाविक था की माँ बाप के दुलारे थे. साथ ही चारों बहनों को भी खूब प्यारे थे. चारों बहनों की शादी हो चुकी थी पर छोटे भाई से प्यार और उस पर अधिकार में कोई कमी नहीं आई थी.
परिवार बड़ा था तो मकान भी बड़ा था पर था पुराने स्टाइल का. चारों तरफ कमरे और बीच में बड़ा सा आँगन. दिन त्यौहार हों तो आँगन में चरपाइयों पर ही महफ़िल जम जाती थी और परिवार का हो हल्ला वहीँ देर रात तक चलता रहता था. जन्मदिन, कीर्तन वगैरह के आयोजन वहीँ होते थे. सासू माँ ने आँगन के एक कोने में तुलसी का पौधा लगाया हुआ था जहाँ वो शाम को दिया जला देती थी. वैसे घर के अन्दर भी छोटा सा मंदिर बना हुआ था जहाँ सासू जी सुबह शाम पूजा पाठ करती थी. मंदिर में ठाकुर जी विराजमान थे जिनसे सास को बड़ा लगाव था.
ससुर जी की पेंशन आती थी इसलिए वे निश्चिन्त रहते थे. अखबार, टीवी और दोस्तों से गपशप करके टाइम पास कर लेते थे. पारिवारिक मन्त्रणा में कम ही भाग लेते थे. परन्तु जमाई राजा आ जाएं तो ससुर जी का ध्यान आवभगत में रहता था. सासू जी का सेवा भाव तो सातवें आसमान तक चला जाता था और इस वजह से संध्या भी बिज़ी हो जाती थी. एक दो दिन चहल पहल रहती और फिर शांति छा जाती थी.
समय गुजरा और ससुर जी भी गुजर गए और उसके बाद संध्या की माँ भी चल बसीं. इस बीच संध्या की नन्हीं सी बिटिया आ गई. संध्या की सास को थोड़ा सा अफ़सोस हुआ पर ये सोच कर शांत हो गई की अगली बार ठाकुर जी की कृपा होगी तो बेटा भी आ जाएगा. अब सास का और ज्यादा समय ठाकुर जी के आगे बैठने में निकल जाता था. पर सच पूछो तो सासू जी दिन ब दिन तेजी से ढलने लगी थी.
एक दिन संध्या को बुलाकर कहने लगी,
- देख ये ठाकुर जी की मूर्ति मेरी सास ने जाते हुए दी थी. वो बताती थी की शायद उनकी सास को उनकी सास ने दी होगी. अब तूने ही इसे संभालना है. जब समय आए तो इसे अपनी बहू को दे जाना.
- हूँ. पर एक बात तो बताओ अगर बेटा ना हुआ तो फिर?
- अरे कैसी बात करती हो? जरूर होगा जरूर होगा. ठाकुर जी की कृपा अवश्य होगी और तू ठाकुर जी को अपनी बहू को दे कर ही जाएगी.
- जी अच्छा.
कुछ समय बाद सास चल बसी. ठाकुर जी की सेवा, पूजा पाठ अब संध्या करने लगी. पर भगवान् के रंग न्यारे संध्या की ना और बिटिया हुई ना बेटा. यदा कदा सास की बात याद आती तो सोचती कि ठाकुर जी किसको दूंगी? इतने मान सम्मान और जिम्मेवारी से मुझे दे कर गईं हैं तो निभाना पड़ेगा. बेटी को देना ठीक रहेगा या तो नहीं पता नहीं. उन्होंने भी किसी बेटी को तो नहीं सौंपी थी. अगर बेटी का बेटा हुआ तो उसे दे दूं? पर वो भी तो बेटी का ही तो घर होगा. चलो छोड़ो बाद में देखा जाएगा. अगर मैं बिना दिए चली जाऊं तो? नहीं वो भी ठीक नहीं है क्योंकि तब भी तो ठाकुर जी बिटिया के घर ही रहेंगे और सास की बात शायद अधूरी रह जाएगी. सास से बहू का क्रम टूट जाएगा. चलो अभी समय है देखते हैं.
बिटिया सयानी हो चली थी इसलिए उसे भी शादी कर के विदा कर दिया गया. पहले कभी कभार सास की बात का ध्यान आता था अब बार बार आने लगा. एक दिन संध्या बड़ी देर तक ठाकुर जी के सामने बैठ कर विचार करती रही. फैसला कर के ही उठी. दिन और समय देख कर पास के मंदिर में ठाकुर जी की स्थापना करवा दी पर आँख से आंसू छलक पड़े. फिर भी संध्या निश्चिन्त हो गई.
सबका मंगल होए! |
3 comments:
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Thakur Ji ki Jay
धन्यवाद मनीष.
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