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Sunday, 14 November 2021

विपासना का मार्ग

तिहाड़ जेल नई दिल्ली में 1997 में सत्य नारायण गोयनका जी द्वारा दस दिन का विपासना कैंप लगाया गया तो अखबार में खबर छपी. घर में दो चार मिनट इस खबर पर चर्चा हुई और बात यहाँ पर ख़तम हो गई की अपराधियों को सुधारने का कोई प्रयास होगा. पर फिर दिल्ली विश्वविद्यालय के एक प्रोफेसर ने विपासना के बारे में बताया तो दोबारा घर में चर्चा हुई. इस बार भी बात ख़तम ऐसे हुई की कौन दस दिन की छुट्टी ले फिर कभी देखेंगे. ये 'फिर कभी' का समय आया रिटायर होने के बाद 2011 में !

देहरादून विपासना सेंटर में इन्टरनेट से बुकिंग करा के.पहुंच गए. पर्स और मोबाइल रखवा लिया गया. अखबार, टीवी या इन्टरनेट सेंटर में होता नहीं. वैसे भी शहर से दूर सेंटर एक पहाड़ी पर था चिड़ियों की चीं चीं के अलावा कोई आवाज़ नहीं थी. किसी से बात करना या किसी से नज़र मिलाना मना था. सुबह साढ़े चार बजे से रात तक साढ़े नौ बजे तक एक ही काम था मैडिटेशन करना. एक एक घंटे बैठने के बाद 5-10 मिनट का ब्रेक था. नाश्ते या खाने पीने का ब्रेक था. शाम को एक घंटे का सत्य नारायण गोयनका जी का प्रवचन विडियो पर दिखाया जाता था जिसमें अगले दिन क्या करना है बताया जाता था. दस दिन बाद छुट्टी मिली तो कई सवाल मन में उठे. कुछ समझ आया कुछ नहीं आया. पर एक बात जरूर समझ आई की हमारे बगैर घर, परिवार, संसार सब कुछ चल रहा था !

दो साल बाद फिर गए. कुछ समझ आया कुछ नहीं आया पर बेहतर लगा. अब गौतम बुद्ध के प्रवचन पर किताबें ढूँढनी शुरू कीं इन्टरनेट में खोज बीन की. अभ्यास भी करते रहे. अपने अध्ययन और अनुभव के आधार पर यह लेख तैयार किया है और लेख के अंत में अपने अनुभव भी लिख दिए हैं. आपकी टिप्पणी और सवालों का स्वागत है.

नमो बुद्धाए 

गौतम बुद्ध का जन्म ईसा पूर्व 563 में हुआ थे. वे कपिलवस्तु के राजा शुद्धोधन और रानी महामाया के पुत्र थे और उनका नाम सिद्दार्थ गौतम रखा गया था. जन्म देने के सात दिन बाद रानी महामाया का स्वर्गवास हो गया और सिद्धार्थ का पालन पोषण महामाया की छोटी बहन प्रजापति ने किया जो राजा की दूसरी पत्नि थी. अठारह वर्ष की आयु में सिद्धार्थ का विवाह एक स्वयंवर में यशोधरा से हुआ. उनत्तीस बरस की आयु में राजकुमार सिद्धार्थ महल, बेटा, पत्नी और माँ बाप को छोड़ जंगल की ओर निकल पड़े. 

उस समय पर प्रचलित 62 तरह की धार्मिक और दार्शनिक विचारों का अध्ययन किया. बहुत से साधू संतों से मिले और ध्यान समाधि लगाना सीखा पर संतुष्टि नहीं मिली. उन्हें अपने प्रश्न - दुःख का कारण क्या है?  का उत्तर नहीं मिला. अंत में अकेले पीपल के नीचे बैठ कर पैंतालिस दिन के कठिन ताप के बाद ज्ञान प्राप्त हुआ. शेष जीवन उन्होंने इसी ज्ञान के प्रचार प्रसार में लगा दिया. अस्सी वर्ष की आयु में उनका देहांत कुशीनगर में हुआ. 

गौतम बुद्ध का उद्देश्य यह पता लगाना था की जीवन में दुःख कैसे आता है और क्या उस का निवारण किया जा सकता है. दुःख के कारण और निवारण पर चिंतन मनन करने के लिए गौतम बुद्ध ने विपस्सना मैडिटेशन या ध्यान की विधि के बारे में बताया और सिखाया. 

विपस्सना 

प्राचीन पाली भाषा में पस्सना और संस्कृत भाषा में पश्य्ना का अर्थ है देखना. और विपस्सना या विपश्यना का अर्थ है विशेष तौर पर देखना या अच्छी तरह से देखना. जो कुछ हो रहा है उसे वैसा ही देखना - यथाभूत देखना, उसमें अपनी तरफ से ना कुछ जोड़ना है ना ही कुछ घटाना है. कल्पना का सहारा कतई नहीं लेना है. आजकल विपासना शब्द ज्यादा प्रचलित है. 

गौतम बुद्ध के उपदेश मौखिक हुआ करते थे और उस वक़्त प्रचलित पाली भाषा में थे. इन्हें काफी समय बाद में लिखा गया था. ये प्रवचन पाली भाषा में सुत्त कहलाते हैं. इन सुत्तों को 'त्रिपिटक' में संकलित किया गया है. त्रिपिटक के तीन भाग हैं - विनय पिटक, सुत्त पिटक और अभिधम्म पिटक. इनमें से सुत्त पिटक के पांच भाग या निकाय हैं. विपस्सना, ध्यान और समाधि सम्बंधित जानकारी इन निकायों में उपलब्ध हैं: मज्झिम निकाय में सतिपट्ठान सुत्त, महासिंहनाद सुत्त और आनापानसति सुत्त, दिग्घ निकाय में महासतिपट्ठान सुत्त और संयुक्त निकाय में सतिपट्ठान-संयुक्त. 

विपस्सना की साधना के लिए साधक को मेहनत, उर्जा और संकल्प की जरूरत है क्यूंकि ये इतना आसान भी नहीं है. लगातार दैनिक अभ्यास से चंचल मन स्थिर और एकाग्र होने लगता है. इससे दैनिक जीवन में आने वाली समस्याओं को समझने और सुलझाने में भी सहायता मिलती है और इसलिए इसे जीने की कला भी कहते हैं. 

विपस्सना का अभ्यास स्वयं को अपने अनुभव के आधार पर ज्ञान की तरफ ले जाता है. ये ज्ञान किसी गुप्त मन्त्र, किसी तर्कहीन सिद्धांत या कल्पना पर आधारित नहीं है और ना ही इस अभ्यास में कोई चमत्कार या आकाशवाणी होने वाली है जो जीवन बदल दे. ये तो स्वयं करने वाला अभ्यास है जो स्वयं के अनुभव के आधार पर भ्रम को मन से हटाता जाता है और सच्चाई सामने आ जाती है. इसलिए अच्छा होगा अगर विपस्सना की  शुरूआत खुले मन से, बिना किसी पूर्वाग्रह के और सभी दार्शनिक और धार्मिक मान्यताओं को अलग रख कर की जाए.  

हमें इस अभ्यास में अपने मन और शरीर में हो रही हलचल का अध्ययन मनन करना है. अपने आप से डायलॉग करना है. मन और शरीर को प्रभावित करने वाली वस्तु भौतिक भी हो सकती है और मानसिक या मेंटल भी. पांच भौतिक इन्द्रियां हैं- आंख जिससे हम देख सकते हैं, कान जिससे हम सुन सकते हैं, नाक जिससे हम सूंघ सकते हैं, जीभ जिससे हम चख सकते हैं, शरीर या शरीर की त्वचा जिससे हम छू सकते हैं. छठी इन्द्री मन है जिससे हम मनन करते हैं. मन या चित्त ऐसी इन्द्री है जिसमें अन्य इन्द्रियों से प्राप्त जानकारी जमा रहती है और जरूरत पड़ने पर जमा जानकारी सामने ले आती है.  

इन्हीं इन्द्रियों के प्रभावों का अध्ययन विपस्सना है. इस अध्ययन को चार भागों में विभाजित किया गया है - 1. कायानुपस्सना, 2. वेदनानुपस्सना, 3. चित्तानुपस्सना और 4.धम्मानुपस्सना. इन चार भागों में की जाने वाली विपस्सना संक्षेप में इस तरह से है.

कायानुपस्सना ( Contemplation of body )

विपस्सना का पहला कदम है अपनी साँसों को जानना. सांस जैसी भी आ रही है या जा रही है उपासक को उसे जानना है, सांस को  डिस्टर्ब नहीं करना है. इसके लिए उपासक एक आसन ऐसी जगह बिछा ले जहाँ कम से कम आवाज़ और रौशनी हो और शांतिपूर्वक घंटे भर तक बैठा जा सके. आलथी पालथी मार के, कमर, गर्दन सीधी रख के और ऑंखें बंद कर के उपासक ऐसे बैठे जैसे गौतम बुद्ध की मूर्ति हो. अगर देर तक एक ही मुद्रा में नहीं बैठ सकते तो जो भी आसन आरामदेह हो उस पर बैठ जाएं. बस रीढ़ की हड्डी और गर्दन सीधी रहे.  

शांतिपूर्वक बैठ कर उपासक अपना ध्यान साँस की ओर ले जाए. साँस बाईं नासिका से आए या दाहिनी से या दोनों से, तेज़ हो या धीमी, गर्म हो या ठंडी, गहरी हो या उथली उसे केवल जानना है और उसके प्रति जागरूक रहना है. उसे बदलने का प्रयास नहीं करना है. इसी तरह बाहर जाने वाली साँस को भी जाने देना है बस यथाभूत अर्थात as it is, नोट करना है कि - इस समय मेरी साँस धीमी है, मेरी साँस गर्म है इत्यादि.  

वर्णन आसान है पर शुरू शुरू में मुश्किल से एक दो मिनट ही कर पाते हैं. इस बीच चंचल मन सांस को देखने के बजाए इधर उधर भाग लेता है. सांस देखना भूल जाता है. उसे खींच कर फिर से साँस देखने पर वापिस लगाना पड़ेगा. नए उपासक को ये कारवाई बार बार करनी पड़ेगी. मन की मनमानी बहुत तेज़ है. एक सेकंड में हजारों तरह के विचार वीडियो की तरह घूम जाते हैं और मन को वापिस लाने के लिए दम लगाना पड़ता है. पर लगातार अभ्यास से मन अनुशासन में आने लग जाता है. 

बैठे बैठे साँस देखते रहें तो कुछ समय बाद महसूस होता है की साँस धीमी पड़ने लग गई है. कुछ देर और यही सिलसिला जारी रखें तो महसूस होता है कि शरीर भी शांत और आराम की स्थिति में आ गया है. शरीर पर जो भी तनाव या खिंचाव था वो ढीला पड़ गया है. साँस को लगातार देखने की क्रिया को आनापान कहा गया है. आनापन  विपस्सना की ओर ले जाने वाला पहला पर बहुत महत्वपूर्ण कदम है. ये मन को एकाग्र करने में बहुत सहयता करता है. 

अगला कदम है शरीर पर ध्यान देना और शरीर को बारीकी से जानना. इसका एक आसान तरीका है कि पूरे शरीर की मानसिक यात्रा की जाए. सिर के बालों से शुरू कर के बहुत धीरे धीरे हर अंग को निहारते हुए नीचे पैर के उँगलियों तक जाना है. उसी तरह से पैर के नाखूनों से ऊपर की ओर हर अंग को धीरे धीरे निहारते हुए सिर के बालों तक जाना है. लगातार अभ्यास से छोटे बड़े सभी अंग प्रत्यंग महसूस होने लगेंगे. ये भी जानने लगेंगे की शरीर के किस अंग में खिंचाव है या दबाव है, गर्मी है, झनझनाहट है, खुजली है या हवा लग रही है. 

इस बीच पांच दस मिनटों के बाद हो सकता है कि घुटने, कमर या गर्दन वगैरा दुखने लग जाएं और फिर से ध्यान बंटने लग जाए, मन में उकताहट होने लग जाए पर प्रयास जारी रखना है और डटे रहना है.

अभ्यास करते रहने से हम सांस और शरीर के प्रति सजग और सचेत होते जाएंगे. शरीर पर आई छोटी बड़ी संवेदना को पहचानने लग जाएंगे. अब तक की कारवाई केवल बैठ कर की गई इसे अब खड़े हो कर, चलते चलते या लेट कर करने का प्रयास भी कर सकते हैं. अभ्यास करते करते उपासक अपने शरीर और मन में होने वाले महीन से महीन क्रिया कलाप अच्छी तरह से समझने लग जाता है. यह अभ्यास आगे चल कर अपने आचार व्यवहार को समझने और बदलने में काम आता है.  

दस पंद्रह दिन के लगातार अभ्यास के बाद साधक बैठने का समय बढ़ा ले. दस बीस मिनट से बढ़ कर घंटे भर तक बैठ सकते हैं. उसके बाद जब घंटे भर बैठना नार्मल लगने लगे तो संकल्प ले कर एक घंटे के लिए अधिष्ठान में बैठे. इस एक घंटे के 'अधिष्टान' के दौरान शरीर पर चाहे, मक्खी-मच्छर बैठे, थकावट हो, गर्मी लगे, सर्दी लगे, उकताहट हो या मन उचटने लगे पर साधक हिले जुले नहीं. साधक अपना ध्यान सांस पर रख कर एक ही अवस्था में डटा रहे. ये कायानुपस्सना की असली कठिन परीक्षा है. 

इससे आगे चलें तो उपासक को अपने शरीर के अंगों पर हो रहे क्रिया कलापों का विश्लेषण करना है. शरीर के अंगों में कुछ मूलभूत गुण हैं जैसे हड्डी का ठोसपना, खून की तरलता, भीतरी वायु और तापमान. ये सभी क्रमश: पृथ्वी, जल, वायु और अग्नि जैसे तत्वों के गुणों से मेल खाते हैं. इसलिए शरीर को इन चार महाभूतों, तत्वों या धातुओं का बना हुआ मानते हैं. शरीर के अंगों में भी लगातार क्रिया प्रतिक्रिया होती रहती हैं. उपासक को इन्हें भी महसूस करना और जानना है. ये क्रियाएँ उत्पन्न होती रहती हैं और कुछ पलों के बाद नष्ट भी होती रहती हैं. 

कुछ उपासक कामुकता की अधिकता से परेशान रहते हैं और देर तक नहीं बैठ पाते उनको शमशान जाने की सलाह दी गई है. वहां जाकर देखें कि यह शरीर जिससे इतना प्यार करते हैं उसकी क्या स्थिति होने वाली है.

लगातार अभ्यास के बाद अनुभव होता है कि ये मन बड़ी जल्दी विचलित होता है इसीलिए इसे monkey mind कहा जाता है. पर उसे अभ्यास से एकाग्र और स्थिर किया जा सकता है. 

शरीर सैकड़ों अंगों से मिलकर बना एक जुगाड़ ही है. शरीर के छोटे मोटे अंगों का और आगे भी विभाजन किया जा सकता है. गहरे पैठने से पता लगता है की शरीर अणुओं और परमाणुओं का पुंज है जिसमें तरंगें ही तरंगें हैं. 

सांस आती है एकाध पल के बाद चली जाती है. इसी तरह शरीर के अंगों में तनाव, खिंचाव, दबाव, थकान, हंसी जैसी क्रिया और प्रतिक्रिया का उदय होता रहता है और कुछ पलों बाद क्रिया प्रतिक्रिया का अंत भी हो जाता है. अगर इस दौरान ध्यान सांस पर केन्द्रित है तो प्रतिक्रिया गायब हो जाती है. अगर ध्यान सांस से हट जाता है तो प्रतिक्रिया बढ़ जाती है. पर इनमें से कोई भी अवस्था स्थाई नहीं है. अगर स्थाई नहीं है तो इनसे बना दुःख या सुख भी स्थाई नहीं है. 

वेदनानुपस्सना ( Contemplation of feelings or sensations )

हमारी छे इन्द्रियाँ हैं जिनकी सहायता से बाहरी संसार से हमारा संपर्क रहता है. पांच इन्द्रियां हैं: आँख, कान, नाक, जिव्हा, शरीर या त्वचा जिनके अपने अपने विषय है. छठी इंद्री मन है जो हमारे अनुभवों को सहेज कर रखती है और जरूरत पड़ने पर उसकी सूचना देती है. 

उदहारण के लिए आँख से गुलाब का फूल देख कर उसके रंग रूप की अनुभूति को हम मन में धारण कर लेते हैं. एक बार मन में गुलाब का रंग रूप स्मृति में जमा हो जाए तो फिर बंद आँख से भी गुलाब देख सकते हैं. इसी तरह गुलाब की खुशबू नाक से आकर मन में रिकॉर्ड हो जाती है तो दोबारा मन ही मन महसूस की जा सकती है. अब अगर एक साल बाद भी कोई फूल देखा या सूंघा तो तुरंत मन अपना रिकॉर्ड खंगाल के बता देता है की यह गुलाब का फूल है. 

स तरह से कुल मिला कर हमारी इन्द्रियाँ अन्दर और बाहर अर्थात बारह तरह से काम करती हैं. इन इन्द्रियों से संपर्क होने के बाद शरीर पर संवेदनाएं जागती हैं. ये संवेदनाएं तीन प्रकार की हो सकती हैं - पसंद, नापसंद या तटस्थ. 

अगर संवेदना अच्छी लगी तो उसे हम फिर से पाने का प्रयास करते हैं. उदाहरण के लिए एक रसगुल्ला खाया, जीभ के स्वाद से संवेदना जगी और पसंद आ गई. अब इस अनुभूति को फिर से प्राप्त करने के लिए प्रयास करेंगे. हो सकता है कि दूसरा रसगुल्ला तुरंत उठा लें या कुछ हफ़्तों बाद फिर से वही संवेदना अनुभव करना चाहें. इस तरह की संवेदनाएं ज्यादातर लगाव, मोह या लालच पैदा कर सकती हैं. 

किसी वस्तु, व्यक्ति या स्थान का संपर्क नापसंद लगता है तो बुरी संवेदना आ सकती है. हम ऐसे दुखद अनुभव से दूर भागने का प्रयास करेंगे अन्यथा उस वस्तु या व्यक्ति को दूर भगाने का प्रयास करेंगे. ऐसी संवेदनाएं मन में ज्यादातर घृणा, क्रोध, बेचैनी, भय इत्यादि पैदा कर सकती हैं.

तटस्थ या अदुखद-असुखद संवेदना ज्यादातर भ्रम पैदा कर सकती हैं.  

उपासक का काम शरीर पर हो रही संवेदनाओं को नोट करना है चाहे ये संवेदनाएं सुखद हों, दुखद हों या तटस्थ हों. संवेदनाएं बहुत बारीक भी हो सकती हैं और स्थूल भी. इन संवेदनाओं के प्रति केवल सजग होना है उन्हें छेड़ना या डिस्टर्ब करना साधक का काम नहीं है. संवेदना से जुड़ना और उसका आनंद लेना 'भोक्ता भाव' कहलाता है. संवेदना को देख कर त्याग देना या उसे जाने देना 'दृष्टा भाव' या 'साक्षी भाव' कहलाता है. 

लगातार अभ्यास से महसूस होता है कि संवेदना चाहे जैसी भी हो, आती है, एकाध क्षण के लिए रूकती है और चली जाती है. अगर किसी संवेदना से मन जुड़ने लगता है तो हम उसमें उलझते जाते हैं और साधना से भटक जाते हैं. अगर संवेदना से नहीं जुड़ते तो वह संवेदना लुप्त हो जाती है. इसके लिए मन को जागरूक रहना होगा और लगातार अभ्यास भी करना होगा. धीरे धीरे ये समझ में आ जाता है की अगर चाहें तो संवेदनाओं से हटा भी जा सकता है अर्थात दृष्टा भाव बढाया जा सकता है. 

संवेदना को पहचान कर उससे हट जाने का मतलब है की उपासक कई तरह के गलत कर्मों से बच सकता है. मसलन ये जानते ही कि क्रोध के संवेदना आ रही है तुरंत उससे अलग हट जाएं, प्रतिक्रिया या रिएक्ट ना करें तो क्रोध से जुड़े कर्मों से बच सकते हैं. अर्थात संवेदनाओं को 'मैनेज' किया जा सकता है और इन्द्रियों द्वारा संपर्क > संपर्क से पैदा हुई संवेदना > संवेदना से पैदा हुआ लगाव > लगाव के कारण किये कर्म > कर्म से जुड़े फल का चक्र तोड़ा जा सकता है. 

वैसे विचार कर के देखा जाए तो हम सारी उम्र संवेदनाओं के फंदों में उलझे रहते हैं. सुखद संवेदना को पुन: पुन: पाने के प्रयास करते रहते हैं. कभी मिलती है कभी नहीं मिलती. मिल जाए तो प्रयास और बढ़ जाते हैं, ना मिले तो अफ़सोस करते रहते हैं. इसी तरह दुखद संवेदनाओं से दूर भागने का प्रयास करते रहते हैं, समय और उर्जा लगाते रहते हैं. सफल या असफल होने से पहले कोई और दुखद संवेदना आ जाती है. संवेदना का ये प्रवाह एक नदी के प्रवाह की तरह चलता रहता है तो फिर लाजमी है कि जीवन में दुःख रहना ही है. किसी शायर ने कहा है,

हजारों ख्वाहिशें ऐसी कि हर ख्वाहिश पे दम निकले, बहुत निकले मेरे अरमान लेकिन फिर भी कम निकले !  

चित्तानुपस्सना (  Contemplation of consciousness )

विपस्सना का तीसरा भाग है चित्तानुपस्सना. यह सतिपट्ठान सुत्त का तीसरा पट्ठान या प्रस्थान या पड़ाव कहा जाता है. इसकी भी विधि वैसी ही है कि शांतिपूर्वक बैठ कर, एकाग्रचित्त होकर चित्त में होती हलचल को जाना जाए. चित्त का अर्थ यहाँ मन, माइंड, मनोदशा, मेंटल स्टेट है और चित्त की हलचल जानने का अर्थ दृष्टा-भाव से जानना है भोक्ता भाव से नहीं. उदाहरण के तौर पर उपासक कह सकता है की इस वक़्त मेरा मन विचलित है, मेरे मन में क्रोध जगा है या मेरे मन में दया आ रही है, मेरे मन में पछ्तावे की भावना आ रही है इत्यादि.  

यहाँ यह बात ध्यान में रखने वाली है की मनोदशा के बारे में किसी तरह की कल्पना न हो. जैसा मेंटल स्टेट है उसे वैसा ही मान लिया जाए ना बढ़ा चढ़ा के और ना घटा के कहा जाए. जैसे उपासक कहे कि इस क्षण मेरा मन शांत है तो अब आइन्दा भी शांत ही रहा करेगा. यहाँ 'आइन्दा शांत ही रहेगा' कल्पना ही है और सही नहीं है. 

चित्त की मनोदशा तेज़ी से बदलती है. बदलने में एक सेकंड का बहुत छोटा सा हिस्सा भी नहीं लगता. बिजली की तरंगों की तरह मन में बदलाव आते रहते हैं. पर जो भी बदलाव घटित होते हैं वो शरीर और सांस में भी महसूस किये जा सकते हैं. अगर चित्त में इस क्षण क्रोध है तो शरीर में भी खिंचाव आता है और सांस में तेज़ी आ जाती है. दूसरे ही क्षण अगर हंसी आ जाए शरीर की स्थिति और सांस की गति बदल जाती है. इसीलिए गौतम बुद्ध ने कहा: 'सब्बे धम्मा वेदना समोसरणं' अर्थात सारे धर्म वेदना के साथ साथ चलते हैं. धम्म का अर्थ यहाँ चित्त पर घटना, घटित होना या phenomenon है.    .   

कायानुपस्सना में देखा और महसूस किया कि सांस आती जाती है, वेदनानुपस्सना में देखा और महसूस किया कि वेदना आती जाती है और अब चित्तानुपस्सना में देखा कि मनोदशा भी आती जाती है. मतलब मन में और शरीर में संवेदनाओं और विचारों का उदय-व्यय, उत्पन्न होना और नष्ट हो जाना लगातार जारी रहता है. ये महसूस होता है कि सब कुछ क्षणभंगुर है. स्थायी कुछ भी नहीं है. उपासक इन बदलने वाली दशाओं से न ही चिपकता है न ही दूर भागता है. केवल दृष्टा-भाव से दृश्य को महसूस कर के इन्हें जाने देता है और मन शांत होता जाता है. 

धम्मानुपस्सना ( Contemplation of mental objects )

विपस्सना मैडिटेशन की चौथी कड़ी है धम्मानुपस्साना या धर्मानुपस्साना. ऐसा नहीं है की इन चार कड़ियों के बीच किसी तरह की दीवारें खड़ी हैं. इन सभी अवास्थाओं में सांस भी आनी जानी है, वेदनाएं भी उत्पन्न होकर नष्ट होनी हैं और चित्त पर भी मनोदशा का उदय-व्यय होना है. पर लगातार अभ्यास से साँस, शरीर और मन में हल्कापन और शांति बढ़ती जानी है. इस कड़ी के बारे में कहा गया है कि 'जहाँ अध्ययन समाप्त होता है वहां से धम्मानुपस्सना आरम्भ होती है'. इसलिए इस अभ्यास में, उर्जा और मन की एकाग्रता की सख्त जरूरत पड़ती है. 

पाली भाषा में धम्म शब्द के अलग अलग सन्दर्भ में अलग अलग अर्थ हैं - धर्म, सिद्धांत, नियम, स्वभाव, उपदेश, सत्य, घटित होना, कर्तव्य इत्यादि. यहाँ धम्म का अर्थ है - चित्त ने जो धारण किया वो धम्म है. चित्त में क्रोध, लोभ, मोह, अच्छाई, बुराई, आलस, पश्चाताप, शांति, उल्लास इत्यादि सभी तरह के धम्म आते जाते हैं. इस कड़ी में उपासक को इन्हीं धम्मों के स्वभाव का विश्लेषण और विवेचना करनी है. इन धम्मों में से कुछ विपस्सना के प्रयास में रुकावट डाल सकते हैं और कुछ सहायक भी हो सकते हैं. ये धम्म हैं - पांच नीवरण, छे स्कंध, छे आयतन, सात बोध्यांग और चार आर्य सत्य. इनकी व्याख्या इस प्रकार है:    

पांच नीवरण ( Five hindrances )

नीवरण का अर्थ है पर्दा, विकार या रुकावट. ये पांच विकार मन पर परदे की तरह छा जाते हैं और सच को देखने समझने में अड़चन पैदा कर देते हैं. ये पांच हैं: 

1. कामछन्द ( Sensual desire )

कामछन्द का अर्थ है कामवासना, विलासिता, राग या लगाव. साधना करते हुए उपासक महसूस करता है की मन में काम जगा है और इस वजह से बैठना मुश्किल हो रहा है. पर अगर दृष्टा-भाव से जान कर इस काम भावना को जाने दे - let go, तो कुछ क्षणों में ये भावना लुप्त हो जाएगी. तब उपासक कह सकता है कि अब चित्त में काम नहीं है. अगर काम भावना को उपासक ने घृणा से देखा तो ये जाने वाली नहीं है. अगर भोक्ता-भाव से देखा और उससे चिपक गए तो साधना में उथल पुथल बढ़ने वाली है. 

2. व्यापाद ( ill will ) 

व्यापाद का अर्थ है द्रोह, द्वेष या मनमुटाव. उपासक के मन में किसी व्यक्ति या वस्तु के प्रति ये भाव जब जागता है तो उसकी छवि सामने आ जाती है. हो सकता है के उसके कहे शब्द, गाली या उसका फोटो बार बार मन में घूमता रहे. ऐसे में अगर मन तटस्थ रहे और केवल मनमुटाव को देखे पर उससे जुड़ाव ना करे तो वह भाव समाप्त हो जाता है.  

3. स्त्यानमृद्ध ( Sloth and torpor )

अर्थात तन का आलस और मन का आलस. ये आलस भी एक रुकावट है जो मन को विपस्सना में बैठने के लिए रोकता है. साधक को ये महसूस होते ही अपने मन को उर्जा और संकल्प की सहायता लेकर फिर से काम पर लगना होगा. 

4. औद्धत्य-कौकृत्य ( Restlessness and anxiety ) 

अर्थात बेचैनी, विलाप या पश्चाताप की भावना विपस्सना में बैठते ही आने लगती है. ये भी साधना में एक बड़ी रुकावट है जिसे हटाने के लिए पक्का इरादा चाहिए. ऐसी भावना आने पर ना तो उससे चिपकना है और ना ही उससे घृणा करनी है. तटस्थ रहने से औद्धत्य-कौकृत्य की भावना लुप्त हो जाती है.  

5. विचिकिच्चा ( Doubts ) 

विचिकिच्चा अर्थात संशय या शंका. ये शंका इस बात की है कि जो मैं कर रहा हूँ वो ठीक भी है या नहीं?  करूँ या ना करूँ? इत्यादि. विपस्सना ऐसा कुछ भी नहीं है. ये अपने आप को याने अपने मन और शरीर को जानने की बस एक प्रक्रिया है जो सार्वभौमिक, सार्वकालिक और सार्वजनिक है. और यही गौतम बुद्ध के ढाई हजार साल पुराने उपदेशों की खूबसूरती है.  

ये पाँचों नीवरण या रुकावटें विपस्सना के लगातार अभ्यास से घटती जाती हैं और छुट जाती हैं. अभ्यास की चारों कड़ियों में शारीरिक और मानसिक संवेदनाएं जागती हैं और नष्ट हो जाती हैं अर्थात अस्थाई हैं. उपासक को संवेदनाओं और भावनाओं को जानना है बस - observe करना है. प्रतिक्रया ना करने से और केवल जान लेने से  ये संवेदनाएं नष्ट हो जाती हैं. पर हमेशा के लिए नहीं. कुछ समय बाद फिर पलट कर आ सकती हैं और उन्हें फिर से तटस्थ भाव से जानना होगा. ऐसा करने से उसी तरह फिर चली भी जाती हैं. उदाहरण के लिए किसी खाने के शौक़ीन को सालों बाद भी किसी ख़ास ढाबे या रेस्तरां के बने परांठे याद आ सकते हैं, किसी पढ़ाकू को किसी किताब का पन्ना याद आ जाता है, फैशन के शौक़ीन को कुछ ख़ास कपड़े या पुराने स्टाइल याद आ सकती है जो बेचैनी पैदा कर सकती है. लगातार अभ्यास से इस तरह के सभी चिपकाव गायब हो जाते हैं.

पंच स्कंध ( Five aggregates )      

गौतम बुद्ध ने शारीरिक और मानसिक संवेदनाओं के विश्लेष्ण के लिए 'स्कन्ध' का वर्णन किया है. स्कंध का शाब्दिक अर्थ है खंड, स्तम्भ या कन्धा. यहाँ स्कन्ध का मतलब है (i) कुछ तत्वों का समूह / ग्रुप / संचय / aggregate और (ii) गुणों का समुच्चय या समष्टि या संग्रह या बंडल. पाली भाषा में स्कन्ध को खण्ड कहा गया है. ये स्कन्ध पांच हैं और इन पांच स्कन्धों को समझ कर आगे चलें तो आसानी रहेगी. इन पांच स्कन्धों में से पहला स्कन्ध भौतिक है और बाकी चार मानसिक हैं. ये स्कन्ध हर मनुष्य के व्यक्तित्व का हिस्सा हैं. इन स्कन्धों से साधना में बाधा पैदा होती है क्यूंकि ये पाँचों स्कन्ध राग या आसक्ति ( पाली भाषा में उपादान ) लाते हैं. ये 'मैं, ' ये मैं हूँ' और 'ये मेरा है' का भाव पैदा करते हैं जो दुःख का कारण बन जाता है. इन पांच स्कन्धों का परिचय इस प्रकार है:

1. रूप स्कंध ( Form or matter )

सभी जीवों का अपना अपना भौतिक रूप है. यह रूप पृथ्वी, जल, वायु और अग्नि जैसे तत्वों के गुणों का समूह और संयोग है. जैसे पृथ्वी में ठोस-पना है वैसे ही शरीर में है, जैसे जल में तरलता है वैसे ही शरीर में ये गुण है, जैसे वायु में बहाव है वैसे ही शरीर में भी वायु का आना जाना है. अग्नि के बदलते तापमान की तरह शरीर में भी गर्मी घटती बढ़ती है. 

हमारा रूप अर्थात शरीर हमें सुख, आराम, संतोष, मान, अहंकार, भव और 'मैं' की भावना देता है. ऐसे गुणों के कारण हमें शरीर से लगाव रहता है और मन में 'मैं और मेरा' की भाव जागता है. रूप अतीत, वर्तमान और भविष्य में होता है, सूक्ष्म और स्थूल है, दूर है और नज़दीक है. बहुत से छोटे छोटे परमाणुओं का पुंज है. 

रूप परिवर्तनशील है और स्थाई नहीं है इसलिए दुःख का कारण है. बच्चे के दांत धीरे धीरे निकलना बच्चे को परेशान करता है. शरीर पर चोट लगना, बाल सफ़ेद हो जाना, झुर्रियां पड़ना हमें दुःख देता है. शरीर नहीं रहेगा इस तरह का विचार भय पैदा करता है. देह का अंत होगा यह तो पता है पर कैसे होगा ये विचार भी मन को विचलित कर देता है.

रूप पर मौसम, तापमान, हवा, भूख, प्यास, मक्खी, मच्छर इत्यादि का प्रभाव पड़ता है.

जब साधक आसन लगा कर बैठता है और शरीर के गुण दोषों को जानकार विपस्सना करता है तो शरीर से लगाव घटता चला जाता है. जानने लगता है शरीर का परिवर्तन और विघटन होना ही है तो लगाव क्या रखना ?  

2. वेदना स्कन्ध ( Sensations )

रूप स्कंध से वेदना स्कन्ध की उत्पति होती है. शरीर और मन पर संवेदनाएं पैदा होती हैं. संवेदनाओं के समूह के तीन भाग हैं: सुखद, दुखद और असुखद-अदुखद ( तटस्थ ) संवेदना. इस वेदना स्कन्ध की जानकारी कैसे होती है? संपर्क से. और संपर्क कैसे होगा? छे तरह से - आँख से देख कर, कान से सुन कर, नाक से सूंघ कर, जीभ से स्वाद लेकर, त्वचा के स्पर्श से या मन के किसी विचार से. 

वेदना अतीत, वर्तमान और भविष्य में हो सकती है, मन या शरीर या दोनों पर हो सकती है, सूक्ष्म और स्थूल हो सकती है और दूर और नज़दीक भी हो सकती है. इन्हें पसंद, नापसंद या अनदेखा कर सकते हैं.  

3. संज्ञा स्कन्ध ( Perception ) 

गुणों के आधार पर वस्तु का नामकरण करना, उसकी पहचान करना, उसे जानना या उसका संज्ञान लेना ही संज्ञा स्कंध का काम है. लाल, पीला, छोटा, बड़ा जैसा ज्ञान और उनका अनुभव संज्ञा स्कन्ध कहलाता है. पाली भाषा में संज्ञा को 'सन्ना' कहा गया है. इसे प्रत्यक्षीकरण भी कहते हैं.

संज्ञा स्कन्ध का भी अतीत, वर्तमान और भविष्य है, संज्ञाएँ सूक्ष्म और स्थूल हो सकती हैं, दूर और नजदीक हो सकती हैं. इन में से कुछ संज्ञाओं से लगाव और कुछ से घृणा और कुछ के प्रति मन में तटस्थ भावना हो सकती है. 

4. संस्कार स्कन्ध ( Mental formations ) 

पाप, पुण्य, बुरा, भला, स्वर्ग, नर्क आदि मन की भावनाओं या धारणाओं ( fabrications of mind / tendencies of mind ) को संस्कार स्कंध कहते हैं. ये संस्कार कैसे बनते हैं? संज्ञा से ही संस्कार का जन्म होता है. स्मृति और धारणा मिल कर संस्कार स्कंध बन जाते हैं. अच्छे बुरे जैसे संस्कार कुछ तो हमें बचपन में बताए जाते हैं, कुछ स्कूल और समाज से सीख लेते हैं और कुछ खुद भी बना लेते हैं. समय के साथ कई बार ये संस्कार और धारणाएँ बदल भी जाती हैं या खुद बदल लेते हैं.   

5. विज्ञान स्कन्ध ( Consciousness )

विज्ञानं स्कंध का अर्थ है जानना पूरी तरह से जानना. जैसे ही चित्त में कोई वस्तु या भावना आई उसके बारे में जागरूक होना और उसके गुणों के बारे में पूरी तरह से जानना और समझना. पाली भाषा में विज्ञान को 'विन्नान' या विजनान और इंग्लिश में mental power / cognition / consciousness कहा गया है. 

षड़ायतन ( Six senses ) 

उपासक को शरीर के आयतन, उनके विषय और उनका संयोजन भी जान लेना चाहिए. षड़ायतन या सलायतन का अर्थ है छे आयतन या छे दरवाज़े. इन आयतनों की मदद से हम बाहरी दुनिया से सम्पर्क करते हैं. ये हैं - आँख, कान, नाक, जिव्हा, शरीर की त्वचा और मन ( चित्त ) जो शरीर के साथ लगे हैं. इन आयतनों के अलग अलग विषय हैं और अलग अलग आलम्बन हैं. ये आलम्बन शरीर के बाहर हैं - रूप, शब्द, गंध, रस, स्पर्श होने वाले पदार्थ और धम्म ( या धर्म ). ये बाहरी आलम्बन शरीर को छूने पर ही काम करते हैं. मसलन किसी रूप का आलम्बन आँख के माध्यम से होने पर ही मन में रूप का अहसास होता है अन्यथा नहीं. रूप ना हो या आँख बंद हो तो चित्त पर रूप नहीं जागता और उस रूप की अनुभूति नहीं होती है. 

उपासक आँख को जानता है, आँख के विषय 'रूप' को जानता है और दोनों के संयोजन से जो उत्पति होती है उसे जानता है. इसी तरह जब यह संयोजन भंग होता है उसे भी जान जाता है. नष्ट हुआ संयोजन फिर नहीं आया तो उसे भी जान जाता है. केवल जान लेने से बंधन नहीं बनता. पसंद या नापसंद करें तो बंधन बनता है. 

उदाहरण के लिए (i) आँख से रूप देखा, शरीर में संवेदना जागी, संज्ञा ने कहा रूप सुंदर है तो संवेदना सुखद लगने लगी. अब रूप से मोह हो गया और एक बंधन बन गया (ii) संज्ञा ने कहा ये रूप नापसंद है तो दुखद वेदना जागी और साथ ही नफरत जाग उठी. हो सकता है कि नफरत का एक बंधन बंध जाए. बंधन चाहे मोह का हो या घृणा का दुःख देता है. अगर उपासक इन संयोजनों को केवल देखता है ना मोह करता है और ना ही घृणा करता है तो वेदना टूट कर नष्ट हो जाती है.   

लगातार अभ्यास से साधक जान जाता है की बाहर का रूप भी तरंगें हैं, रूप का आँख से टकराना भी तरंग हैं, रूप और आँख के संयोजन से बनी वेदना भी तरंग है. ऐसे ही शब्द का कान से सम्पर्क तरंग है, गंध का नाक से टकराना तरंग है, स्वाद का जिव्हा से संयोजन तरंग है, त्वचा से वस्तु का छूना तरंग है और मन में आया भाव भी तरंग है. ये तरंगें बनती हैं और लुप्त हो जाती हैं आती हैं चली जाती हैं. स्थाई कुछ भी नहीं है. 

सात बोध्यंग ( Seven factors of awakening )

बोधि के सात अंग बताए गए हैं. पाली भाषा में इसे बोझांग कहते हैं. विपस्सना की राह हमें बोधि या ज्ञान प्राप्त करने की ओर ले जाती है. पैदा हुए बालक का चित्त निर्मल रहता है पर धीरे धीरे तरह तरह के अवगुण, विकार और दुर्गुण जमा हो जाते हैं. इन विकारों को दूर करके हम चित्त को फिर निर्मल बना सकते हैं. इसी निर्मलता लाने के लिए गौतम बुद्धा ने विपस्सना की राह बताई है. जैसे जैसे अभ्यास करते जाते हैं अवगुण घटते जाते है और सद्गुण बढ़ते जाते हैं और बोधि के सातों अंग परिपक्व होते जाते हैं. 

ये राह सभी के लिए है. हर किसी में ज्ञान प्राप्त करने की क्षमता है और कोई भी बुद्ध बन सकता है. गौतम बुद्ध ने कहा था की मुझसे पहले भी बुद्ध हुए थे और आगे भी होते रहेंगे. 

विपस्सना के अभ्यास में पहले कायानुपस्साना है, फिर वेदनानुपस्सना है, उसके बाद चित्तानुपस्सना है और अंत में है धम्मानुपस्सना जिसकी बात चल रही है. बोधि का अंग्रेज़ी अनुवाद है -awakening / enlightenment. बोधि या जागरूक चित्त के सात अंग हैं:  

1. सति ( Mindfulness )

सति को संस्कृत में स्मृति कहते हैं और इंगलिश में mindfulness. सति का शाब्दिक अर्थ है स्मरण, यादाश्त, याद रखना, याद करना. सति शब्द का ठीक अनुवाद विद्वानों में बहस का विषय है. यहाँ हम सति का अर्थ (१) उपदेशों को ढंग से याद रखना और जरूरत पड़ने पर तुरंत पेश कर देना और (२ ) जो भी घटित हो रहा है उसके प्रति सति समेत जागरूक रहना. 

शुरू में साधक लगातार स्मृतिवन नहीं रह पाता. स्मृति आती है चली जाती है. पर साधक को इतना जरूर करना होगा कि वो इस बात से जागरूक रहे - इस क्षण स्मृति है और अब स्मृति नहीं है. अभ्यास करते करते स्मृति बढ़ती जाती है और साधक स्मृतिवान हो जाता है.

2. धम्मविचय ( Investigation of mental objects)

चित्त में जो भी घटित होता है वह धम्म है. चित्त में क्रोध आए या आलस्य या किसी वस्तु की लालसा उससे वेदना उत्पन्न होगी. उस वेदना को तटस्थ भाव से या साक्षी भाव से देखने से उसका विचयन या विघटन होने लगता है. यही धर्म विचय है. उस क्षण की भीतर की वास्तविकता यही है की वेदना का टुकड़े टुकड़े हो कर लुप्त हो जाना. विपस्पसना का उद्देश्य ही वास्तविकता को पहचानना है. ये लुप्त धम्म फिर से उभर कर आ सकता है चाहे उसी वक़्त आ जाए या कभी बाद में. फिर से वही कारवाई करनी होगी. इस तरह से धीरे धीरे क्रोध, आलस्य या लालसा की भावना घटने लगेगी. 

3. वीर्य ( Energy, determination or effort )

 बोधि का तीसरा अंग है वीर्य और वीर्य का अर्थ है पुरुषार्थ या पराक्रम और इंग्लिश में है energy. साधना आसान नहीं है और इसमें किसी वीर की तरह जूझना पड़ता है. लगातार बैठने में तन या मन का आलस आता है और उसे उर्जा और परिश्रम से ही दूर किया जा सकता है. फिर विपस्सना में बैठ जाने के बाद मन और शरीर में तरह तरह के प्रपंच जागते हैं उसमें भी उर्जा लगानी पड़ती है कि उन प्रपंचों से कोई प्रतिक्रिया ना हो. इस धम्म को भी उसी तरह जान लेना है कि इस क्षण प्रतिक्रिया को रोकने के लिए उर्जा है या नहीं. धीरे धीरे लगातार अभ्यास से ये बोध्यंग भी मजबूत होता जाता है.

4. प्रीति ( Rapture or joy ) 

अभ्यास करते करते मन के बहुत से विकार निकलते जाते हैं और मन शांत होता जाता है. प्रीति एक लहर की तरह आने लगती है. पाली भाषा में कहें तो प्रीति-प्रमोद का उदय और व्यय होने लगता है. यह धम्म प्रक्रिया का आवश्यक अंग है. पर प्रीति के उदय या व्यय होने पर अभ्यास में रुकना नहीं है करते जाना है. उपासक को जागरूक रहना है कि इस क्षण में प्रीति आई और अब इस क्षण में प्रीति नहीं है ताकि प्रीति का बंधन नहीं बने. 

5. प्रश्रब्धि  ( Tranquillity or relaxation )

संस्कृत में प्रश्रब्धि और पाली भाषा में पस्सधि का अर्थ है तन और मन दोनों की गहरी शांति. अब प्रीति की लहर का उदय और अस्त समाप्त हो कर सम्पूर्ण शांति की ओर बढ़त होती है. इस शांति का प्रभाव मन और शरीर पर गहरा होता है यहाँ तक कि अपनी सांस की आवाज़ भी शोर की तरह सुनाई पड़ती है.

6. समाधि ( Concentration )

लगातार अभ्यास से ऊपर लिखित अवस्थाओं में से गुजरते हुए समाधि की अवस्था आ जाती है. गहरी और लम्बी एकाग्रता वाली समाधि लगने लगती है. 

7. उप्पेखा ( Equanimity )

पाली भाषा में उप्पेखा का अर्थ है समता. संस्कृत में इसे उपेक्षा कहते हैं. ये दशा समता-भाव की है. स्थिति कैसी भी हो पसंद या नापसंद,  क्रोध या उल्लास वाली, हंसने या रोने वाली हो या फिर सुख दुःख की सभी में समता भाव बनाए रखना ही मुक्त होने की अवस्था है. 

कुल मिला के मेहनत और धीरज वाला काम है जिसके लिए उर्जा चाहिए. उर्जा और लगातार अभ्यास से मन में प्रीति जागती है, प्रीति से शांति या प्रश्रब्धि आती है, प्रश्रब्धि से गहरी और लम्बी समाधि लगने लग जाती है और फिर समता भाव बढ़ने लग जाता है. 

चार आर्य सत्य 

गौतम बुद्ध ने ज्ञान प्राप्त करने के बाद पहली उपदेश अपने पांच साथियों को दिया सारनाथ में दिया जो धर्मचक्र प्रवर्तन सूत्र कहलाता है. सूत्र में चार सत्य बताए जो सभी लोगों पर चाहे वे कहीं भी हों कैसे भी हों लागू होते हैं. 

1. जीवन में दुःख है. पैदा होते ही रोना धोना शुरू हो जाता है, बीमारी या दुर्घटना होना दुःख का कारण है, शरीर का जर्जर होना दुखी करता है और मरना तो दुःख है ही. जीते जागते अगर नापसंद लोगों के साथ रहना पड़े तो दुःख है, जो पसंद हैं या प्रिय है उनसे दूर रहना पड़े तो वो भी दुःख देता है. याने दुःख सार्वभौमिक है, सार्वकालिक है और सार्वजनिक है. बचना मुश्किल है!

2. दुःख का कोई ना कोई कारण भी होता है. बिना कारण दुःख नहीं आता. दुःख शारीरिक हो तो मानस को और मानसिक हो तो शरीर को प्रभावित करता है. अपने अपने शरीर से सभी को लगाव और अभिमान है. केवल बाल ही सफ़ेद हो जाएं तो काले करने के लिए पैसे और समय लगाते हैं पर कमबख्त बाल फिर सफ़ेद हो जाते हैं! अपनी सोच और विचार खुद को बेमिसाल मानते हैं और उनके लिए लड़ने भिड़ने के लिए तैयार हो जाते हैं. एकाध ऐसे भी मिल जाएंगे जिन्हें अपना शरीर, परिवार, देश और दुनिया कुछ भी पसंद नहीं है. वो चौबीस घंटे ही मायूस रहते हैं. सरल शब्दों में कहें तो हमारे अपने राग और द्वेष ही दुःख पैदा कर देते हैं.

3. दुख का अंत भी है. दुखों का कारण जान कर दुखों को निरुद्ध करना ही निर्वाण है. दुखों का कारण हमारे राग द्वेष, लोभ, मोह आदि ही हैं. ध्यान में बैठ कर मन और शरीर में जागे इन विकारों को पहचान कर उन से हट जाना दुःख का अंत कर देता है. पर लोभ और मोह जैसे विचार मुड़ मुड़ कर आते हैं इसलिए अभ्यास भी लगातार करते रहना है. धीरे धीरे छुटकारा होने लगता है. 

4. दुखों से छुटकारा पाने का एक मार्ग है - अष्टांगिक मार्ग. इस मार्ग के आठ अंग हैं :

सम्यक वचन, सम्यक कर्म, सम्यक आजीविका, सम्यक व्यायाम, सम्यक स्मृति, सम्यक समाधि, सम्यक दृष्टि और सम्यक संकल्प. यह मार्ग मध्यम मार्ग है ना तो अति विलासिता का है और ना ही अति कठोर तपस्या का है.   

अपने अनुभव 

सांस को जानने का अभ्यास जब शुरू कराया गया तो हंसी आई थी. तीन दिन दस दस घंटे एक ही काम था साँस को देखना. सोचा था की बुद्ध का कुछ गहन गंभीर ज्ञान बताया जाएगा. पर ये क्या सांस को देखते रहो? पर अब लगता है की यह क, ख, ग, की तरह ही था जिसके बगैर आगे की पढ़ाई मुश्किल है. बुद्ध का मार्ग पढ़ लेना अलग बात है बिना अनुभव किये यह मार्ग अधूरा है. अध्ययन के साथ साधना और फिर व्यवहार में परिवर्तन लाना ही उद्देश्य है.

इसी तरह संवेदनाओं का खेल समझने में काफी देर लगी. संवेदना से ना चिपकें और ना ही घृणा करें तो कई कर्मों से बचते हैं और मन शांत हो जाता है. शाम होते ही बोतल खोलने की और महफ़िल लगाने की जो संवेदना आती थी वो समझ आ गई. और उसके बाद बोतल खल्लास 😁!

इसी प्रकार बच्चों को लेकर बड़ा लगाव और बड़ी उम्मीदें हुआ करती थी. हमें उनको सिखाना है कि कैसा व्यवहार करना चाहिए, कैसे रहना चाहिए, कैसे विचारों पर चलना चाहिए क्यूंकि हम उनसे ज्यादा दुनियादारी जानते हैं, वो तो हमारे सामने कल के बच्चे हैं वगैरा वगैरा. दृष्टा भाव से जब सोच विचार किया तो लगा की ये तो जाल हमने स्वयं ही बना रखा है. बच्चे बड़े हो चुके हैं, उनके अपने विचार, आशाएं, साधन और जानकारियाँ हैं. वे भी "अप्प दीपो भव' अपना दीपक स्वयं बने. हमारा रोल अब बराबरी का ही है. अब हम इत्मिनान से पिछली सीट पर बैठ सकते हैं. अब मन बैलेंस हो गया है 🙌!

क्रोध, लोभ और मोह में भी अन्तर आ गया है. मन शांत रहे तो उलझन घट जाती है और नकारात्मक विचारों से बचा जा सकता है. अब सामाजिक सम्बन्धों से भी अपेक्षा घट गई तो उनसे जुड़ी भावनाएं भी घटी और शांति बढ़ी. बहुत सुन्दर जीने की कला है.  

   

नमो बुद्धाए


2 comments:

Harsh Wardhan Jog said...

https://jogharshwardhan.blogspot.com/2021/11/blog-post.html

Unknown said...

बहुत ही सुंदर विवेचना। ज्ञानवर्धक। धन्यवाद।