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Sunday, 7 June 2020

रज्जो का ब्याह

रजनी उर्फ़ रज्जो अपने माता पिता की पहली संतान थी. दोनों खुश थे पर बापू सोच रहा था अगली बार लड़का होना चाहिए. लड़की दो साल की होने वाली थी पर कोई बात या किसी शब्द का उच्चारण ही नहीं कर रही थी तो वो डॉक्टर से मिले. उन्हीं बताया गया की शहर के बड़े अस्पताल में दिखाना होगा. जीभ निचले तलुए से जुड़ी हुई है शायद ऑपरेशन से ठीक हो जाए. पचास हज़ार तक लग सकते हैं. रज्जो की माँ ने कभी घर में एक मुश्त पांच हज़ार भी नहीं देखे थे. दोनों ने भगवान् पर छोड़ दिया वो चाहेगा तो ठीक हो जाएगी वरना इसकी किस्मत.   

अगले साल रज्जो की नन्हीं बहन आ गई. बापू की निराशा बढ़ गई. बेटा होता तो ठीक था नहीं हुआ. बिधि के बिधान ढंग से समझ ही नहीं आते. इन दो को सम्भालते सँभालते और शादियाँ करते उमर निकल जाएगी. इस बार रज्जो की माँ भी बापू के साथ शामिल हो गई. नहीं जी भगवान अगली बार जरूर सुनेगा. इस बार बड़े मंदिर में पूजा करने जाउंगी.

रज्जो को स्कूल दाखिल करने का समय आया तो सोचा अभी क्या करना है उसे पढ़ा के. छोटी अगले साल जाएगी तो दोनों को साथ ही भेज देंगे. अगले साल दोनों को एक साथ ही गाँव के स्कूल में दाखिल कर दिया. ना तो टीचर और ना ही क्लास की लड़कियां रज्जो पर ध्यान देती थी. उल्टे उसका मज़ाक उड़ाती और मार पीट कर के भाग जातीं. रज्जो मन मसोस कर रह जाती की उसकी कोई सुनवाई नहीं होती थी. छोटी कभी उसका साथ देती और कभी वो भी खिंचाई कर देती. 

धीरे धीरे रज्जो का मन स्कूल से हट गया और घर में ही रहने लगी. बकरियां आसपास चरा लाती, गाय को भूसा सानी दे देती थी. बकरियां और गाय ना तो उसकी शिकायत करती और ना ही उसे चांटा घूंसा मर कर परेशान करती. इसलिए स्कूल के बजाए घर के आसपास, खेतों में और पेड़ों पर चढ़ कर बैठने में ज्यादा अच्छा लगता था. बकरियों और गाय से दोस्ती अच्छी लगती थी.

रज्जो पंद्रह की होने लगी तो माँ बापू को लगा बिटिया 'सयानी' हो गई है और इसका कुछ करना पड़ेगा. पर भगवान् की मर्ज़ी नहीं थी अभी. बहुत हाथ पैर मारे पर कहीं भी रिश्ता नहीं हो पा रहा था. बापू अपनी मजूरी छोड़ के आसपास के गाँव खेड़े में साइकिल लिए भटकता रहता पर कोई उपाय नहीं निकला. अक्सर बापू से रज्जो के बजाए छोटी के बारे में पूछताछ होती और बात ख़तम हो जाती. माँ, बापू और दोनों बेटियों को भी अब स्थिति समझ आ रही थी. 

जैसे जैसे हफ्ते और महीने गुज़र रहे थे वैसे वैसे घर के माहौल में कड़वाहट बढ़ रही थी. बापू की आवाज़ अब कर्कश होती जा रही थी और बापू बड़बड़ाने और गालियाँ देने लग जाता. कभी गुस्से में और कभी खीझ कर किस्मत और दुनिया को कोसने लग जाता. एक दिन बड़े तड़के उसने पास की चारपाई पर सोई माँ को जगाया और खेत की तरफ ले गया और बोला,
- नींद ना पड़ी सारी रात. क्या करें?
- मैं न जानू , कह कर माँ रोने लग पड़ी. 'जो चाहो कर लो'.
- दोनों का ब्या एकी लड़के से कर दूँ?
जवाब में माँ का रोना और तेज़ हो गयाऔर दोनों आपस में गले लग के रोने लगे.

अगले दिन चुप्पी छाई रही. पर रात में फैसला हो गया कि दोनों लछमन के बेटे के संग चली जाएँगी. अच्छा सा दिन देख कर दोनों को विदा कर दिया गया. अगले साल ही अच्छी खबर आ गई कि रज्जो और छोटी दोनों के लड़के पैदा हुए हैं. चार महीने बाद रज्जो बच्चे को लेकर अपने माँ बापू से मिलने गाँव आई. 

पर रज्जो फिर कभी वापिस नहीं गई. 

रज्जो का गाँव 



13 comments:

Harsh Wardhan Jog said...

https://jogharshwardhan.blogspot.com/2020/06/blog-post.html

A.K.SAXENA said...

सुखान्त लघू कहानी। रज्जो के अच्छे दिन आ गये और माँ बाप के भी दिन फिर गये। सब्र का फल मीठा।

डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' said...

मार्मिक लघु कथा।

Harsh Wardhan Jog said...

धन्यवाद सक्सेना जी. अपना ख़याल रखें.

Harsh Wardhan Jog said...

धन्यवाद डॉ रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'.

Harsh Wardhan Jog said...

धन्यवाद मीना भरद्वाज.
चर्चा अंक 3727 में अवश्य हाजिरी होगी.

Harsh Wardhan Jog said...

धन्यवाद Onkar

Unknown said...

मानसिक कुहांसे को आवज़ देती सशक्त रचना एक गुहार है मन की यह कथा।
kabirakhadabazarmein.blogspot.com
veeruji05.blogspot.com
veerujialami.blogspot.com

Rakesh said...

बहुत बढ़िया कथा

Harsh Wardhan Jog said...

धन्यवाद hindiguru

Harsh Wardhan Jog said...

धन्यवाद Unknown.

~Sudha Singh Aprajita ~ said...

बहुत बढ़िया कहानी 👌 👌 👌

Harsh Wardhan Jog said...

धन्यवाद Sudha Singh vyaghr