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Wednesday, 29 April 2020

फ़िकर नॉट यात्रा

घंटी बजी तो फोन उठाया. उधर से आवाज़ आई, 
- शेट्टी बोलता ए.
- बोलो शेट्टी. 
- चार दिन का छुट्टी आ रा भाई. दिल्ली जाएगा?
- नो नो.
- बोमडीला तवांग जाएगा ? सब अरेंज करेगा मैं. 
- जाएगा.
- मेरे को मालूम. जितना वूलेन है पैक करो. सुबह 6 बजे निकलेगा. 

शेट्टी विजया बैंक तेज़पुर( असम ) का मैनेजर था और बेलगाम का रहने वाला था पर अकेला रह रहा था. वही हाल अपुन का भी था. प्रमोशन के बाद दिल्ली से पोस्टिंग ज़ोनल ऑफिस कोलकाता हुई, वहां से रीजनल ऑफिस गुवाहाटी और वहां से तेज़पुर ब्रांच मिली.

तेज़पुर छोटा सा पर सुंदर शहर है. हरा भरा, शांत, साफ सफाई वाला और लोग भी सभ्य और मिलनसार हैं. लगभग दो साल 1987-88 वहां रहा पर उसके बाद जाने का मौका नहीं मिला. 

सुबह छे बजे शेट्टी एम्बेसडर लेकर आ गया. 
- भाई 6-7 घंटे में बोमडीला जाएगा हाल्ट करेगा. दूसरा रोज़ तवांग जाएगा हाल्ट करेगा वापिस आएगा ओके? 
- ओके. ऊपर ठंडा होगा?
- एह! वूलेन लाया? बहुत टंडा.
- लाया वूलेन लाया देखो बोटल भी लाया.   
- एह! ही ही ही हीटर! गुड बॉय! मैं भी लाया!

कुछ देर तक चाय बगानों के बीच से गाड़ी निकली फिर खुले इलाके में आ गई. भालुकपोंग से अरुणाचल की पहाड़ियां शुरू हो गईं. टिप्पी के बाद हरे भरे ऊँचे पहाड़ शुरू हो गए और रास्ता ज्यादा घुमावदार हो गया. ठंडक भी बढ़ने लगी. टेंगा नदी आ गई. कुछ देर दाएं रही, फिर बाएँ, कभी नीचे रह जाती और कभी सड़क को छूती हुई चलती. साफ़ पानी, तेज़ बहाव और पथरीले रास्ते पर उछलती और चमकदार सफ़ेद झाग बनाती इठलाती चल रही थी.  

दोपहर बाद बोमडीला पहुंचे बहुत ठंड थी. ये लगभग 8000 फुट की उंचाई पर है. छोटा सा बाज़ार था जिसमें गरम कपड़े और घरेलू चीज़ें मिल रही थी. दुकानदारनियों की शक्लें, कपड़े और भाषा बिलकुल अलग तिब्बतियों की तरह थी. ड्राईवर के सुझाव पर वूलेन बंदर टोपी भी खरीद कर पहन ली. बीस पचीस मिनट में ही ठन्ड जकड़ने लगी. अँधेरा भी होने लगा था हम बाज़ार छोड़ के होटल की तरफ हो लिए. दो दो पेग लगाए दाल-भात खाया और बिस्तर में गोल हो गए.

सुबह तवांग की ओर छोटी बस में प्रस्थान किया. असल में तवांग घुमना हो तो अप्रैल, मई या जून ठीक रहता है जबकि हम आ गए जनवरी में. 2000 फुट ऊपर तवांग में तो मौसम और बर्फीला होगा. खैर बस घों घों करती दूसरे तीसरे गियर में पचास साठ किमी चली होगी की खड़ी चढ़ाई शुरू हो गई और हिचकोले बढ़ने लगे. जंगलों में अभी भी कोहरा नज़र आ रहा था. पेंसिल जैसी संकरी, सांप की तरह बलखाती रोड पर कोई नज़र नहीं आ रहा था. उंचाई बढ़ी तो स्पीड और कम हो गई. अब केवल पहला दूसरा गियर ही लग रहा था. बैठे बैठे हिचकोले खाते लगा की दिल्ली बहुत दूर रह गई है बस सामने अभी एवरेस्ट आ जाएगा!

बस रुकी तो पता लगा की सेला आ गया है. 'से' एक दर्रा या पास या ला है इसलिए सेला कहते हैं. ऊँची ऊँची चट्टानें और उन पर बर्फ, सड़क, जमीन और पेड़ों पर भी बर्फ. कहीं कहीं स्नो जम कर आइस बन चुकी थी. तेज़ ठंडी हवा की सरसराहट कान में शूं शूं कर रही थी. 

एक खोखे में घुस के चाय और आमलेट का आनन्द लिया. जान में जान आई तो पुछा,
- शेट्टी दिल्ली वापिस पहुँच जाएगा न हम?
- एह! भाई बहुत टंडा है एक जैकेट और लेने का. देवा रे देवा बचा लो मुझे. 
मुंह खोल कर बात करने से ऐसा लगा की दांत भी ठन्डे हो जाएंगे. बस की तरफ लपके तो देखा ड्राईवर अगले पहियों पर पतली चेन चढ़ा रहा था.

- ओ तेरे की ये क्या? अब यहाँ से आगे गाड़ी पहले गियर में ही चलानी थी और ब्रेक भी नहीं लगानी थी. धीरे धीरे नीचे की तरफ बस सरकती रही और जब घाटी आई तो सांस में सांस आई. अब फौजी इलाका नज़र आने लगा. 

गाड़ी रुकी तो देखा सड़क के दूसरी तरफ बोर्ड लगा था 'फिकर नॉट कैंटीन'. अंदर गए तो देखा की कैंटीन किसी सेल्फ सर्विस रेस्तरां से कम नहीं थी. ऐसी हड्डी-मार ठण्ड में गरमा गरम दोसा और कॉफ़ी मिल जाए तो और क्या चाहिए. शेट्टी भी खुश हो गया. पर दोसा टेबल तक लाते लाते ठंडा हो रहा था. फौजी कुक ताड़ गया और बोला,
- साब यहीं आ जाओ. खड़े खड़े खा लो आप और कोई तो है नहीं यहाँ. 
अगला दोसा और कॉफ़ी चूल्हे के नज़दीक खड़े होकर खाए. गरमाइश अच्छी लगी. फौजी को सलूट मारा और फिर बैठ गए बस में.

बस का इंजन भी सर्दी का मारा नाराज़गी दिखा के ही चला. थके हारे अधसोए से तवांग पहुंचे. गाड़ी ने बाज़ार के नज़दीक उतारा और उतरते ही पता लग गया बर्फीली हवा क्या होती है. जल्दी से जैकेट खरीदी, पहनी और होटल में दाखिल हो गए. खान खाया और बिस्तर में. 

दो दो कम्बल और एक एक रजाई, एक हीटर दोनों पलंगों के बीच सर की तरफ और एक पैर की तरफ. दोनों बोतलें  भी रख ली. कपड़े उतारने का मन ना करे. केवल जूते उतारे. सॉक्स से लेकर, कोट और बंदर टोपी तक जो कुछ पहना था वैसे ही बिस्तर में घुस गए. बीच बीच में सुसू के लिए उठे तो ठण्ड लगी, ठण्ड लगी तो पेग लगाया फिर बिस्तर में. सुबह तक दोनों बोतलें फिनिश कर दी. नाश्ते के वक़्त पता लगा की रात को तापमान ज़ीरो से दो तीन डिग्री नीचे था. सुनकर फिर से कंपकंपी छुट गई! शेट्टी बोला,
- देवा रे देवा बचा लो! और कुछ मन्त्र पढ़ने लगा.
- शेट्टी ये गौतम बुद्ध का इलाका है-ॐ मणि पद्मे हूम!
- एह! बुद्धा रे बुद्धा बचा लो मुझे!

पर विशाल तवांग मोनेस्ट्री याने बौद्ध मठ पहुँच कर सारी थकावट भूल गए. आठ मीटर ऊँची बुद्ध की मूर्ती, पूरे हाल में सुंदर चित्रकारी, प्रवचन का स्थान, बच्चों का हॉस्टल वगैरा बहुत कुछ था. पर अफ़सोस उन दिनों हाथ में कैमरा नहीं था. 

चलते चलते ये भी बता दिया जाए की सबसे बड़ा बौद्ध मठ ल्हासा में है और तवांग मठ दूसरे नंबर पर है. जब दलाई लामा ल्हासा, तिब्बत में थे तो एकाध बार उन्होंने कहा था की तवांग तिब्बत का हिस्सा है. पर बाद में उन्हें वहां से भाग कर भारत में शरण लेनी पड़ी तो विचार बदल गया. चीन भी तवांग पर अपना दावा करता रहता है.

खैर वापसी फिकर नॉट रही और यात्रा यादगार रही. वहां की हाथ की बनी एक वूलेन 'प्रेयर मैट' अब भी मौजूद है. 
तवांग का तोहफा 'प्रेयर मैट'



Sunday, 26 April 2020

माचिस

चंद्रा साब ने ताला खोला और बेडरूम में आ गए. टॉवेल उठाया और इत्मीनान से नहा लिए. चिपचिपे मौसम से कुछ तो राहत मिली. दाल गरम की, एक प्याज काटा और प्लेट में चावल डाल कर डाइनिंग टेबल पर आ गए. एक व्हिस्की का पेग बना कर टेबल पर रख लिया. पर बंद घर में अलग सी महक आ रही थी तो उठकर चार अगरबत्तियां जलाई और तीनों बेडरूम, किचन और ड्राइंग में घुमा दी. अब खाना खाने बैठे और साथ ही श्रीमती को फोन मिला लिया,
- हेल्लो बस अभी पहुंचा और दाल भात खा रहा हूँ.
- गुड. कोई सब्जी भी बनवा लेते. 
- कल देखता हूँ. या फिर वापिस आते हुए कुछ ले आऊंगा. अभी यहाँ के बाज़ार का पता नहीं लगा. 
- बिस्तर कपड़े वगैरा लगा लिए? 
- वो तो कितना टाइम लगता है. आज भी जी. एम. को बोला था की इतनी बड़ा विला लेकर मैं अकेला क्या करूंगा ? बताओ तीन बेडरूम, दो बाथरूम एक ड्राइंग और सब में फर्नीचर लगा रखा है, हाथी जैसा फ्रिज है. मैंने कहा किसी और को दे दो माना ही नहीं. कहता है एक साल तो रहना है आपने उसमें से भी एकाध महीना आप छुट्टी मार लोगे. कंटिन्यू.
- चलो छोड़ो आप तो टाइम पास कर लो. सिक्यूरिटी तो है ना वहां? 
- सिक्यूरिटी? ये कोई दिल्ली की सोसाइटी के फ्लैट नहीं हैं.
- लोग तो रहते होंगे आसपास?
- हाँ हाँ ऐसे चार पांच विला इसी लाइन में हैं. उसके बाद खेत शुरू हो जाते हैं. पांच सौ मीटर और आगे एक बड़ा सा तालाब है. कुछ ज्यादा ही शांति है यहाँ. तू छुट्टी लेकर आजा दोनों इक्कठे हों तो यहाँ हनीमून का मज़ा है हाहाहा !
- अच्छा ! रिटायर होने वाले हो, जुल्फें उड़ चुकी हैं, तोंद बाहर निकल रही है और अब हनीमून याद आ रहा है. छुट्टी नहीं है मेरे पास अभी दो महीने तक नहीं आ सकती. 
- मुझे पता था तेरा जवाब. चल बाय अभी बर्तन धोने हैं.      

चंद्रा साब ने सारे दरवाज़े चेक किये और लेट गए. टीवी अभी लगा नहीं था और पढ़ने का कोई मेटेरियल नहीं था इसलिए आँखें बंद कर के सोने का प्रयास करने लगे. सोए अधसोए चंद्रा साब को लगा कोई बुला रहा है.
- सेठ ओ सेठ !
- कौन ?
- एक बीड़ी देना ! 
- अबे कौन है स्साला ! चंद्रा जी ने तुरंत बिस्तर छोड़ा और आवाज़ की दिशा में जाकर खड़े हो गए. कोई नहीं था पर किचन की खिड़की खुली थी. बंद करके वापिस लेट गए और फिर सुबह ही उठे. साढ़े नौ बजे ड्राईवर आ गया. बैंक जाते हुए ड्राईवर से पूछा,
- दलीप सिंह आप कहाँ रहते हो ?
- सर ये तालाब है ना उसके आगे एक गाँव है साबूवाला. वहीँ से साइकिल पर आ जाता हूँ. 
- किसी दिन चलूँगा आपके साथ.
- सर आप दिन में ही चलना मेरे साथ अकेले मत आना. 
- क्यों ?
- सर जी तालाब के पास ही एक शमशान है. सांझ के बाद जाना ठीक नहीं है जी.
- मतलब ?
- परेत आत्माएं घूमती हैं सर.
- हाहाहा ! तो घूमने दो यार किसी को कुछ कहती थोड़ी हैं.
- नहीं सर वो बीड़ी माचिस मांगती हैं सर ! 
चंद्रा साब सहम गए. 

अगली रात साढ़े ग्यारह और बारह के बीच चंद्रा साब को लगा की किचन की खिड़की के बाहर कोई है. उन्होंने जोर लगा कर ऊँची आवाज़ में बोला, 
- कौन है ? 
- सेठ माचिस दे दे.
- ठहर तेरी तो .....

उस रात चंद्रा साब ठीक से सो नहीं पाए. सोचने लगे अगर जनरल मैनेजर को बताया तो खिल्ली उड़ाएगा कहेगा पहले भी तो इस मकान में चीफ मैनेजर अपनी फॅमिली के साथ रहता था. संतोष को बताया तो डर जाएगी और ना सोएगी ना सोने देगी.  

सुबह सुबह पुराने चीफ मैनेजर को फोन लगाया,
- नरूला साब ये क्या चक्कर है ?
- हमारे साथ भी हुआ था चंद्रा साब. ड्राईवर किसी पंडित को लाया था. फिर पूजा कराई पर दुबारा परेशानी नहीं हुई. 

अगली रात फिर भूत ने पौने बारह बजे माचिस माँगी और गायब हो गया. 

शनिवार को चंद्रा साब ने काउंटर क्लर्क जगत सिंह को बुलाया और पूछा,
- जगत सिंह बिकुल फिट रहते हो आप ! जिम विम जाते हो क्या ?
- हाँ सर फिट तो रहना ही चाहिए.
- शादी हो गई ?
- नहीं सर.
- गुड आप भी बैचलर और मैं भी. आज का डिनर मेरे घर पे. गाड़ी में साथ ही चलेंगे. 
- ठीक है सर.

चंद्रा साब ने ड्राईवर की छुट्टी कर दी. जगत को बैठाया गाड़ी में, बाज़ार से दो टोर्च और दो लाठियां खरीदी. बोतल, चखना और बटर चिकन पैक कराया और घर पहुँच गए. साढ़े दस बजे तक गपशप चलती रही. फिर साब ने जगत को प्लान बताया,
- सवा ग्यारह बजे तुम मकान के लेफ्ट में दीवार के पीछे खड़े हो जाना और मैं मकान के दाहिने छुपा रहूँगा. साढ़े ग्यारह से बारह बजे के बीच किचन की खिड़की से आवाज़ आएगी - सेठ बीड़ी दे दे या माचिस दे दे. बस उसको मिल के झपटना है. ओके ?
- ओके सर ! ये काम तो बहुत मज़ेदार है आपने पहले बताना था.

प्लान कामयाब रही और भूत पकड़ा गया. जगत सिंह के एक ही मुक्के में ड्राईवर ने उगल दिया की उसकी और पंडित जी की ग्यारह हज़ार की कमाई हाथ से निकल गई. उसने झेंपते हुए कहा,
- साब माचिस मिलेगी ? 
साबूवाला का तालाब 

Wednesday, 22 April 2020

चन्द्रो

लोअर बाज़ार एक संकरी सी सड़क पर था और उस सड़क के दोनों तरफ छोटी छोटी दुकानों की दो कतारें थी. सौ मीटर चलें तो दाहिनी ओर एक पक्का मकान था जिसमें आप का अपना बैंक था. आगे चलते चलें तो परचून की, जूतों की, मिर्च मसालों की वगैरा वगैरा दुकानें मिलती जाएँगी. ज्यादा एक्टिव बाज़ार नहीं था सोया सोया सा था. इसी तरह ब्रांच में भी ग्यारह बजे से पहले शांति रहती थी. हाँ महीना शुरू होते ही पेंशन लेने वाले लाइन लगा लेते थे और तब छोटी सी ब्रांच और छोटी लगने लगती थी. 

ज्यादातर पेंशन लेने वाले पुरुष थे जो आसपास के गाँव से आते थे. कुछ महिलाएं भी पेंशन लेने आती थीं. इनमें चन्द्रो भी थी. पिछले साल जब यहाँ ज्वाइन किया था तो तीसरे दिन ही चन्द्रो से मुलाकात हो गई थी. चन्द्रो ने केबिन के दरवाज़े पे खड़े होकर बेबाक ऊँची आवाज़ में बोली,
- साब जी को नमस्ते ! नए आए हो ? 
- 'हूँ !' बोल के चन्द्रो की शकल देखी और सोचा ये कौन सी जनरल मैनेजर आ गई पूछती है नए आए हो ? तब तक उसने इंकपैड उठाकर स्लिप पर अंगूठा लगा दिया और लाल पेन उठाकर पकड़ा दिया, 
- लो जी गूठा लगा दिया सही कर दो. 
- आपको तो पूरी जानकारी है ? 
- लो जी पन्दरा साल हो गए पिंशन लेते पूरा पता है. चलो जी नमस्ते. 

गौर से देखा तो लगा चन्द्रो सत्तर के आसपास होगी. चेहरे पर झुरियां, बाल सफ़ेद पर गाल लाल और मुस्कराहट. बिना रोक-टोक बतियाना और हंसना. सात आठ मिनट ब्रांच में रही और सिर्फ उसी की आवाज़ गूंजती रही. बाद में पता लगा केशियर और ऑफिसर से कई बार लड़ चुकी थी और वो दोनों चन्द्रो से कन्नी काटते थे. हालांकि उसके नाम साढ़े चार लाख की फिक्स्ड डिपाजिट भी थी. लोअर बाज़ार ब्रांच में उन दिनों साढ़े चार लाख ठीक ठाक रकम थी. 

चन्द्रो से दूसरी मुलाकात उसके गाँव में हुई. गाँव से तीन लोन के फॉर्म आए हुए थे और उन लोगों से मिलना था. पर रास्ते में चन्द्रो मिल गई और उसने मेरा ही इंटरव्यू लेना शुरू कर दिया ! फिर अपने बारे में उसने बताया की फौजी की पत्नी थी. रिटायर होने के बाद फौजी मकान बनवा रहा था उसी दौरान एक्सीडेंट में उसका निधन हो गया. किसी तरह मकान पूरा कराया. मकान पर नज़र डाली तो देखा की गाँव के दूसरे मकानों से ज्यादा साफ़ और बेहतर था. दोनों का कोई बच्चा नहीं था और वो अकेली उस मकान में रह रही थी. उसे अफ़सोस था की वो बचपन में स्कूल नहीं जा पाई. चन्द्रो ने चाय के लिए पूछा पर काम करने की जल्दी थी इसलिए उसे मना कर दिया. पर ब्रांच में आइन्दा जब भी आई तो उसका काम जल्दी करवा देता था. खजांची भी खुश रहने लगा था.

सोमवार को गाँव के स्कूल के हेड मास्टर जी पधारे. 
- हेड मास्टर जी आज कैसे आना हुआ ? स्कूल की छुट्टी तो है नहीं आज. 
- कुछ काम से आया था. आपकी ब्रांच में चन्द्रो नाम की पेंशनर का खाता है शायद.
- हाँ है तो. 
- उसका बैलेंस बता दें. 
- वो क्यूँ आपको तो नहीं बता सकते. क्या आप की रिश्तेदार है ?
- हाँ रिश्तेदार तो है. है क्या थी पिचले सोमवार को उसका स्वर्गवास हो गया.
- ओ ! सुनकर अच्छा नहीं लगा. पर हरी इच्छा ! उसके खाते का बैलेंस का आपने क्या करना है ? 
- जी वो चन्द्रो अपनी वसीयत लिखवा गई थी. अपना मकान, एक गाय और खाते का बैलेंस स्कूल को दान कर गई है.
- अच्छा ! 
- वकील की बनी हुई पक्की वसीयत है जी. मैंने भी विटनेस दी थी. दो और भी विटनेस हैं. फॉर्म वगैरा दे दो भर के सारे कागज़ लगा के आपको अगले हफ्ते दे देंगे. स्कूल का खाता भी आपके ही पास है. उसी में डाल देना बस काम आसान हो गया.   
- हाँ हाँ आप पेपर्स ले लाइए कर देंगे. चन्द्रो अकेली ही थी क्या ? और कोई रिश्तेदार वगैरा नहीं थे क्या ?
- साब चन्द्रो की दो बहनें और तीन भाई हैं. और उसके घरवाले के भी भाई बहन थे परन्तु वसीयत में किसी को कुछ नहीं दिया. कहती थी की मेरे मकान के पीछे पड़ें हैं सारे. मेरा ख़याल किसी को नहीं है. किसी को भी कुछ नहीं दूँगी.
- हूँ ठीक किया. वसीयत लिख कर सबको नसीहत दे दी. 

गाँव की सत्तर साल की एक अनपढ़ औरत ने सोचने पर मजबूर कर दिया. अब वसीयत भी लिखनी है और उसमें दान की व्यवस्था भी करनी है. 

आपने अपनी वसीयत लिख दी क्या ?
लोअर बाज़ार 


Sunday, 19 April 2020

संतोषी का खाता

गाँव में बैंक की ब्रांच चलाना आसान काम नहीं है वो भी जब ब्रांच हो झुमरी तल्लैय्या की. कई बार गाँव के कस्टमर को अपनी बात समझानी मुश्किल हो जाती है और कई बार गाँव वाले की बात समझनी मुश्किल हो जाती है. इसका कारण कुछ तो अशिक्षा है और कुछ दोनों तरफ के पूर्वाग्रह. बैंकिंग की जरूरतों को सरल शब्दों में समझा पाना कौन सा आसान है ? लेकिन अगर समझा पाए तो सहयोग भी पूरा मिलता है. वर्ना तो दो साल की पोस्टिंग ख़त्म होने का इंतज़ार रहता है. 

बात असल में संतोषी की है जो बैंक में खाता खोलने आई थी. पचीस के आसपास की उम्र होगी शायद. पतली दुबली सी, हरी सलवार, लाल कमीज़ और हरी चुन्नी ओढ़े हुए थी. कपड़े कभी नए रहे होंगे पर अब उन की रंगत उड़ी हुई थी. एक हाथ में पोलीथिन की पोटली में कुछ कागज़ और दूसरे हाथ से एक मुन्ने को पकड़ा हुआ था. दोनों सकपकाए हुए दाएं बाएँ देख रहे थे. गार्ड ने पब्लिक रिलेशन स्किल दिखाते हुआ कहा,  
- के काम सै?
- खाता खुलाना. 
- फोटू फाटू ले रई ?
- हाँ रासन कारड भी अर आधार भी.
- नरूला साब वे बैठे मिल ले. 
नरूला साब के सामने चार ग्राहक और खड़े थे. निपटा कर दस मिनट बाद बोले 
- बताओ क्या काम है ?
- खाता खुलाना जी.  
- फॉर्म भर लोगी ? 
- ना जी 
- अच्छा पहले कागज़ दिखाओ क्या लाई हो ?
नरूला साब ने काग़ज़ गौर से देखे और पूछा 
- ये क्या ? राशन कार्ड में आपके पति का नाम गोपीचंद है और आधार में किशन लाल ? आपके पति का असली नाम क्या है ? अलग अलग नाम होगा तो खाता नहीं खुलेगा, हंसी दबाते हुए जैन साब बोले.
- जी नाम तो गोपी है.
- देखो आधार कार्ड ठीक करा के लाओ तो खाता खोल देंगे वरना नहीं. KYC जरूरी है. ये लो अपने कागज़ सम्भालो.
संतोषी ने कागज़ समेटे और पोलिथिन के लिफ़ाफ़े में डाल दिए. उसके चेहरे पर निराशा छा गई. अब किस से बात करे ? फिर गार्ड के पास पहुंची और शिकायत करते हुए बोली,
- वे तो खाता ई ना खोल रे. 
- के कै रे ?
- नू कै रे पहले आधार ठीक कराओ.
अब गार्ड ने कागज़ देखे और पुछा,
- ये ल्लो ! भई यो किसनलाल और गोपीचंद अलग अलग आदमी हैं तो कैसे खाता खुलेगा. पति का नाम दोनों में एक जैसा होना चाहिए. साब ठीक कै रे खाता ना खुल सके. अपना आधार ठीक कराओ.
थोड़ी देर संतोषी चुप खड़ी रही. कुछ सोच कर गार्ड से बोली, 
- साब से तो मैं कै ना पाई अर तमें सच सच बताऊँ. किसन और गोपी दोनों भाई तो हैं. गोपी मेरा देवर है. एकी माँ के बेट्टे तो हैं. सगे भाई हैं एकी मकान में रहें. कोई फरक ना ए.  
- हाहाहा ! भई तम तो दूसरे बैंक में जाओ और वहीँ खाता खुलवा लो या फेर परधान जी से मिलो. यहाँ खाता ना खुलने का. नाम ठीक होगा तभी खुलेगा. 

अगले दिन प्रधान जी का फोन आ गया,
- साब जी कल एक छोरी गई थी खाता खुलाने पर खाता खोला ही नहीं. क्या चक्कर है ? 
नरूला साब से प्रधान जी की बात करा दी पर प्रधान जी की तस्सली ना हुई बोले,
- साब जी कल बैंक आ के सारी बात बताऊंगा आपको. 

अगले दिन प्रधान जी पधारे. उनके लिए पास वाले गोकुल हलवाई से स्पेशल सेव और लड्डू मंगवाए. प्रधान जी बतियाने लगे,
- मनीजर साब संतोषी जो है उस का असली पति तो किशन लाल है यो सच्ची बात है जी. लड़का जो लाई थी वो भी उसी किशन लाल का है यो भी सच्ची बात है जी. किशन लाल तो जी जंगलात में चौकीदारी करे था. पिछली गर्मी में जब वो ड्यूटी पे गया जी तो पलट के घर नहीं आया जी. पुलिस ने, गाँव वालों ने और परिवार वालों ने पूरा जोर लगा दिया पर मिल के ना दिया जी किशन लाल. ना ही उसकी ल्हास मिली जी. अब पुलिस कै रही जी की सात साल तक का इंतज़ार करो फेर ही केस की फाइल बंद होगी जी.

- अब आप जानो संतोषी की उमर भी ज्यादा ना है और छोटा बच्चा भी है जी. संतोषी के सास ससुर और माता पिता  बैठक कराई थी. यही तय पाया की संतोषी इसी घर में रहेगी और गोपीचंद उसका आदमी रहेगा. जब कभी किशन लाल आया तब की तब देखी जाएगी. उसका कुछ इन्तेजाम तब कर दिया जाएगा. घर की चीज घर में रह जाएगी. संतोषी का बच्चा भी पल जाएगा जी.

- तो मनीजर साब आज की डेट में पति तो है जी गोपीचंद. बाकी जैसे बताओ वैसे कागज़ बनवा देता हूँ. थोड़ा बहुत पैसा संतोषी के नाम पंचायत से डलवाना है जी सो जमा हो जाएगा. 

क्या विचार है आपका खाता खोल दिया जाए ? 
संतोषी के गाँव में 

Wednesday, 15 April 2020

बैंक की छुट्टी कब होती है

भारत विविधताओं से भरा देश है और उसी तरह यहाँ बैंकों की विविधता भी कम नहीं है. केन्द्रीय बैंक - रिज़र्व बैंक और भारतीय स्टेट बैंक के अलावा सार्वजनिक क्षेत्र के बैंक, ग्रामीण बैंक, प्राइवेट बैंक, लोकल एरिया बैंक, स्माल फाइनेंस बैंक, पेमेंट बैंक और सहकारी बैंक भी हैं. नाबार्ड जैसी बैंकिंग और वित्तीय संस्थाएं और विदेशी बैंक भी हैं. 

इन बैंकों को चलाने के लिए बहुत से नियम, अधिनियम और कानून की किताबें हैं जिनका पालन करना पड़ता है. इनमें एक बड़ा पुराना नियम लिखा है जिसे कहते हैं 'परक्र्याम लिखत अधिनियम' या 'विनिमय साध्य विलेख नियम 1881' या फिर Negotiable Instruments Act 1881( N I Act या सिर्फ एक्ट ).

इस नियम के तहत चेक, प्रामिसरी नोट या बिल की तारीख का बड़ा महत्व है. और तारीख के साथ जुड़ी है बैंक और बैंकर की छुट्टी. अर्थात बैंक में होने वाली छुट्टियों की घोषणा इस नियम के अंतर्गत की जाती है. अब इस नियम को बनाया तो केंद्र सरकार ने पर छुट्टियां लागू करती हैं प्रदेश की सरकारें. छुट्टी की घोषणा जारी की जाती है प्रदेश की राजधानी से. अक्सर देखा गया है की घोषणा करने वाले अधिकारी को बैंक के N I Act की जानकारी नहीं होती. जब तक घोषणा में इस एक्ट का जिक्र ना हो तो बैंक की छुट्टी नहीं होती. 

बड़ा भरी लोचा है ये. इस लोचे का अहसास तब हुआ जब प्राचीन काल में बैंक ज्वाइन किये कुछ दिन ही हुए थे. एक दिन सुबह नौ बजे हमारी GF का फोन आया कि आज छुट्टी डिक्लेअर हो गई है कहाँ मिलोगे ? जी ऍफ़ की नौकरी तब प्रदेश सरकार के महकमें में थी. बहरहाल दिल बाग़ बाग़ हो गया. बैंक जाने की तैयारी तो थी ही फटफटिया में किक मारी और पहुँच गए इंडिया गेट. फिर वहां से पहुंचे बंगाली मार्किट डोसा खाने. पर वहां तो बैंक खुले हुए थे. मारे गए गुलफाम ! एक कैज़ुअल गई और पर्स अलग हल्का हो गया. तब मालूम हुआ कि बैंक की छुट्टी एक्ट के अंतर्गत होती है.

ये तो पुराने ज़माने की बात थी पर ये वाकया यदा कदा हो जाता है. प्रदेश सरकार ने सुबह घोषणा कर दी. अख़बार पढ़ के जब शाखा प्रबंधक को फोन किया जवाब मिला पता नहीं. शाखा प्रबंधक ने अपने क्षेत्रीय प्रबंधक को फोन किया जवाब मिला पता नहीं. स्थानीय स्टेट बैंक को फोन किया तो जवाब मिला पता नहीं आधे घंटे में बताते हैं. तब तक ब्रांच खोलनी पड़ गई. घंटे भर बाद बैंक बंद करने का आदेश आ गया. 

असमंजस की स्थिति तब भी हो जाती है जब किसी बड़े पद पर बैठे मंत्री का निधन हो जाए और उस दिन सार्वजानिक छुट्टी बिना एक्ट के डिक्लेअर हो जाए. अगर एक्ट के अंतर्गत भी हो तो शाखा को समेटने में एक दो घंटे लग ही जाते हैं. 

इसी तरह अगर दिन के दौरान दंगे फसाद होने के कारण  कर्फ्यू लग जाता है तो भी बैंकर की हालत डांवाडोल हो जाती है. ब्रांच सम्भालें या घर भागें ? ब्रांच से निकलने में पुलिस का सहयोग मुश्किल ही मिलता है. बैंक सरकारी होते हुए भी बैंकर गैर सरकारी हो जाते हैं. आजकल कोरोना बंदी में तो कई बैंकर पुलिस के हाथों पिट चुके हैं जबकि जरूरी सेवाओं में बैंकिंग भी शामिल है. 

इन दिनों इसका उल्टा भी हुआ है. कोरोना के चक्कर में घोषित छुट्टी कैंसिल कर दी गई. कैंसिल करने की घोषणा एक्ट के अंतर्गत हुई. कैंसिल करने में प्रदेश सरकार के अधिकारीयों ने कोई गलती नहीं की. आदेश में एक्ट का पूरा नाम छाप दिया.      

इस स्थिति का इलाज करने की जरूरत है. यूनियन और प्रबंधन दोनों को ही इसका इलाज कर दें तो अच्छा है. बैंकर और ग्राहक दोनों को सुविधा रहेगी.

बैंक खुलने का इंतज़ार 

Thursday, 9 April 2020

समय

समय के बारे में सुनते रहते हैं कि समय बड़ा कीमती है. ये भी सुनते हैं कि समय पलट कर वापिस नहीं आता है. मतलब हम गुज़रे समय में वापिस नहीं जा सकते और आने वाले समय का भी पता नहीं भी केवल इन्तेज़ार ही कर सकते हैं. तो क्या केवल वर्तमान ही हमें समय उपलब्ध है ?

प्राचीन समय से ही ऋषि, मुनि और विचारकों ने समय को परिभाषित करने की कोशिश की है और समय को नापने के पैमाने बनाने की कोशिश भी होती रही है. प्लेटो, अरस्तु, न्यूटन और आइंस्टीन ने समय के बारे में बताया और अब भी समय के गुण और इसको नापने के विषय में खोज बीन जारी है. 

एक सरल सा उदाहरण लें कि एक व्यक्ति एक पत्ते को पेड़ की टहनी से टूट कर धरती पर गिरते हुए देखता है. पत्ते के टूटने और धरती पर गिरने तक इन दो बिन्दुओं के बीच का अंतराल उस व्यक्ति को समय का बोध कराता है. इस अंतराल को किसी घड़ी से मापा जा सकता है. अगर घड़ी से समय माप सकते हैं तो क्या समय भौतिक वस्तु है? 

इसी उदाहरण में उस व्यक्ति ने पूरी घटना आँखों से देखी और मन में ( मस्तिष्क में या चित्त में ) नोट कर ली. अगर ना देखी होती तो उस व्यक्ति को हो चुकी घटना और घड़ी का सन्दर्भ देकर बताना पड़ता. तो क्या समय किसी घटना का  सापेक्ष या relative कहा जाए ? वैसे भी समय चलन अवस्था से ही जुड़ा हुआ है. बिना किसी पदार्थ के हिले डुले समय का पता लगेगा क्या?

आम तौर पर कहा जाता है की कष्ट का समय काटे नहीं कटता और ख़ुशी का समय जल्दी से ख़त्म हो जाता है. एक बुज़ुर्ग के जीवन में एक साल अपना कुछ महत्व रखता है पर वही एक साल एक बच्चे के जीवन में अलग महत्व रखता है. तो क्या अलग अलग लोगों का समय अलग अलग होता है ?

समय के इस तरह के सवालों पर धार्मिक उत्तर क्या हैं ? आइये देखते हैं. इसाई, यहूदी और इस्लाम धर्मों में आम तौर पर समय को सीधी रेखा की तरह माना गया है याने समय Linear है. साथ ही समय की दिशा भी एक तीर की तरह एक ही ओर मानी गई है. भगवान ने जब सृष्टि बनाई तो समय प्रारम्भ हुआ और सृष्टि जब खत्म करेगा तो समय समाप्त हो जाएगा. 

न्यूटन के विचार में समय सृष्टि का एक आयाम / भाग या Dimension है. Kant और Leibniz के अनुसार समय न कोई वस्तु है और ना ही कोई घटना. कान्त के अनुसार समय और आत्मा को अलग नहीं किया जा सकता. आइंस्टीन के अनुसार समय सापेक्ष है और इसका सम्बन्ध गति से भी है. फ़्रांसिसी दर्शन शास्त्री के अनुसार समय दो प्रकार के हैं शुद्ध समय याने pure time या lived consciousness जिसे मापा नहीं जा सकता और दूसरा समय mathematical time है जिसे गिना जा सकता है. 

बहुत सी प्राचीन सभ्यताओं और धर्मों में ( जैसे कि इन्का, माया, बेबीलोन, हिन्दू, जैन और बौद्ध ) समय को एक चक्र के रूप में बताया गया है. इनमें से कुछ में समय का आरम्भ और समाप्ति की सीमा और गणना भी बताई गई है.  

हिन्दू मान्यताओं में समय या काल को एक कालचक्र के रूप में दर्शाया जाता है. ये कालचक्र चार युगों में विभाजित है - सतयुग, द्वापर, त्रेता और कलयुग. युग शुरू होने के साथ समय शुरू हो कर युग के साथ समय भी समाप्त हो जाता है. एक युग का अन्तराल और अंत निर्धारित है. नए युग में नई सृष्टि के साथ एक बार फिर से शून्य से समय प्रारम्भ हो जाता है. चारों युगों की समाप्ती के बाद एक बार फिर कालचक्र चार युग लेकर आ जाता है. 

बौद्ध दर्शन के अनुसार समय की अपनी कोई अलग सत्ता नहीं है no real existance. समय का होना एक subjective विचार है जो दृष्टा और उसके चित्त ( या मस्तिष्क या मन या mind ) पर निर्भर है. पांच इन्द्रियों के माध्यम से संसार के पदार्थों को देख कर, सुन कर, स्पर्श कर, स्वाद लेकर या सूंघ कर चित्त में संवेदना या फीलिंग बनती है जो कुछ क्षणों के लिए होती है और फिर नष्ट हो जाती है. यही क्षण समय बोध कराते हैं. अर्थात चित्त में धारण नहीं हुआ तो समय नहीं है और समय चित्त सापेक्ष है.

मस्तिष्क में आए क्षणिक विचार के तीन खण्ड हैं - उत्पन्न होना, विकसित होना और नष्ट हो जाना. एक क्षण अब के एक सेकंड का पचहत्तरवां भाग है. महायान बौद्ध दर्शन में मान्यता है की एक क्षण में 900 तक विचार उत्पन्न होकर, विकसित होकर नष्ट भी हो सकते हैं !

इस पर एक उदाहरण याद आ गया जो अब याद नहीं कहाँ पढ़ा था. ओलिंपिक की दौड़ के लिए धावक अपनी पोज़ीशन में तैयार थे. उन्होंने पिस्तौल की आवाज़ सुनकर दौड़ना था. अगर उस आवाज़ से पहले कदम उठाया तो फ़ाउल और रेस से बाहर. अगर आवाज़ के बाद कदम उठाने में देर हुई तो पिछड़ने का खतरा. अब पिस्तौल बजी 'ठाएँ'. कान में आवाज़ पड़ी और तुरंत मस्तिष्क को सूचना मिली. मस्तिष्क ने तुरंत फैसला किया - 'दौड़ो' ! एक अच्छे धावक के मस्तिष्क में इस कारवाई में कितना समय लगा होगा ? मात्र 150 मिलीसेकंड जबकि एक सेकंड में 1000 मिलीसेकंड होते हैं !

इसी दार्शनिक विचार का एक स्वाभाविक निष्कर्ष ये भी निकलता है की समय क्षणों का जोड़ है या क्षणों की एक श्रृंखला है. पर इस श्रृंखला का चित्त पर से गुज़रना इतनी तेज़ी से होता है की हमें निरन्तरता का आभास होता है. ऐसा नहीं लगता की समय बीच बीच में भंग हो रहा है.  

और अंत में महर्षि रमण के विचार में समय :


 "The idea of time is only in your mind. It is not in the Self. There is no time for the Self. Time arises as an idea after the ego arises. But you are the Self beyond time and space; you exist even in the absence of time and space."
-- Sri Ramana Maharishi 
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