दिल्ली में बाग़ बगीचे बहुत हैं. ये बाग़ बगीचे आपने भी देखे होंगे और इनमें सैर भी की होगी. तो फिर कुदसिया बाग़ में ऐसी क्या खासियत है? ये कुदसिया बाग़ और उसमें बना छोटा सा आशियाना कुदसिया बेगम ने 1748 में बनवाया था और खासियत ये है की कुदसिया बेगम का असली नाम उधम बाई था. कश्मीरी गेट / सिविल लाइन्स के बीच बना ये बाग़ बहुत बड़ा था उस वक़्त. आजकल का बस अड्डा याने ISBT उसी बाग़ की जमीन पर है. उस वक़्त यमुना इसके किनारे बहती थी अब थोड़ा दूर चली गई है. अब कुदसिया बाग़ में कुछ खंडहर बचे हुए हैं जो ASI की देख रेख में हैं.
उधम बाई एक नर्तकी थी और दिल्ली दरबार में नाचा करती थी. उधम बाई सुंदर होने के साथ साथ समझदार भी रही होगी और महत्वाकांक्षी भी. कुछ ही दिनों में उसने मुग़ल शासक का दिल जीत लिया या शायद मुग़ल बादशाह मुहम्मद शाह उसे दिल हार बैठा. जो भी हुआ हो उधम बाई अपने उद्यम से बादशाह की तीसरी बेगम बन बैठी. शादी के बाद उधम बाई को मनसबदार का ओहदा भी दिया गया. ये ओहदा बहुत महत्वपूर्ण था क्यूंकि इस मनसबदार होने का मतलब था कि अगर बादशाह कहीं बाहर हो तो राज काज के सारे फैसले मनसबदार ही करेगा. 24 दिसम्बर 1725 को उधम बाई ने एक पुत्र को जन्म दिया जिसका नाम था अहमद शाह बहादुर.
1748 में मुग़ल बादशाह मुहम्मद शाह की मृत्यु हो गई. उन दिनों वैसे भी मुग़ल साम्राज्य लड़खड़ा रहा था. अब उधम बाई का बेटा अहमद शाह बहादुर गद्दी पर बैठ गया. 1748 से लेकर 1755 तक बादशाह बना रहा. एक तो गद्दी के लायक प्रभावशाली और समझदार नहीं था और दूसरे ज्यादातर समय हरम में ही बिताता था. वज़ीर सफ़दर जंग राज काज चलाता था. पर उधम बाई ने कुदसिया बेगम का नाम रखकर कामकाज में हिस्सा लेना शुरू कर दिया. इस कमज़ोर स्थिति को उनके वज़ीर सफ़दर जंग ने पहचान लिया और उसने मराठों के साथ मिलकर हमला बोल दिया. अहमद शाह बहादुर को परिवार समेत जेल में डाल दिया गया. अहमद शाह बहादुर की आँखें फोड़ दीं गईं और वो मरते दम तक जेल में से नहीं निकल पाया. उधर उधम बाई की भी गुमनामी में मृत्यु हो गई. कब हुई ये नहीं पता और कहाँ दफनाया गया ये भी नहीं पता. कहा जाता है की लाल किले में दफनाया गया था. फ़िल्मी स्टाइल की इस कहानी के गवाह हैं कुदसिया बाग़ के खंडहर. ये खंडहर अब चिड़ियों और कबूतरों का बसेरा है या फिर सांझ के झुटपुटे में नशेड़ियों की पनाहगाह है. समय बड़ा बलवान है साब. कुछ फोटो:
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बेगम ने 1748 में बनवाया था ये काम्प्लेक्स |
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उस वक़्त का महल अब कबूतरों का घर |
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कभी अर्श पर कभी फर्श पर, कभी रहगुज़र कभी दरबदर, गमें आशिकी तेरा शुक्रिया, हम कहाँ कहाँ से गुज़र गए ! |
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कुदसिया बेगम की शाही मस्जिद |
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कभी इमारत बुलंद थी |
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