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Saturday, 23 June 2018

योग बनाम योगा

योग दिवस उर्फ़ 'योगा डे' आया भी और चला भी गया. पर ये नहीं पता लगा कि योग करने वालों की संख्या बढ़ी या नहीं. सच पूछिए तो ये भी नहीं पता लग पाया कि भारत में कितने लोग रोजाना योगाभ्यास करते होंगे. इन्टरनेट पर भी खोज की पर जानकारी मिली नहीं. इतने बड़े देश की 130 करोड़ की आबादी में से शायद ही 1.3 करोड़ करते हों ? या कम या ज्यादा ? पता नहीं. योग से सम्बंधित कितनी गैर सरकारी संस्थाएं - NGO हैं ये भी नहीं पता लगा. सरकार कितने NGO को योग का प्रचार प्रसार करने के लिए कितने पैसे देती है ये भी शायद RTI कर के ही पता लगेगा. लेकिन इन दिनों ये NGO बहुत सक्रिय थे. नए पुराने साधकों को इकठ्ठा करके खूब फोटो खिंच लीं और खूब दस्तखत भी करा लिए. ये सब 'प्रूफ' दिखा कर शायद सरकारी खजाने से कुछ अनुलोम विलोम होगा !

इसके विपरीत अमेरिका के Yoga Journal के अनुसार 2012 में वहां लगभग दो करोड़ लोग योगाभ्यास करते थे और 2016 में ये संख्या बढ़ कर 3.6 हो गई थी और आगे बढ़ती जा रही है. वहां ज्यादातर योगाभ्यास सिखाना और कराना एक व्यवसाय है और साधक को फीस देनी पड़ती है. इसलिए उनका डाटा ठीक माना जा सकता है. अमेरिकन नागरिक और सरकार भी आसानी से बात नहीं मानने वालों में से हैं. योगा से फायदा ना मिलता हो तो कोई भी अमरीकी योगा ना करे. उन्होंने तो स्पेस शटल में भी योगाभ्यास करवा कर रिसर्च की. रिटायर्ड और अंग भंग हुए अपने फौजियों पर भी इसका असर देखा. हालांकि अपनी रिसर्च के पूरे रिजल्ट नहीं बताते पर योग का आगे बढ़ते जाना भी सबूत ही है की ये स्वास्थ्य के लिए फायदेमंद है.

अमेरिका और पश्चिमी देशों को योग के बारे में सबसे पहले शायद स्वामी विवेकानंद ने 1893 के आस पास बताया था. आधुनिक समय में पश्चिमी देशों में योग गुरु बी के एस आयंगार का काफी प्रभाव रहा है. इसलिए जब संयुक्त राज्य संघ - UNO में जब भारतीय राजदूत अशोक मुकर्जी ने 'अंतर्राष्ट्रीय योग दिवस' मनाने का प्रस्ताव यू एन असेंबली में रखा तो कोई विरोध नहीं हुआ. बल्कि 177 देशों का समर्थन मिला और नब्बे दिनों के भीतर ही प्रस्ताव पास भी हो गया. 21 जून को योग दिवस माना गया और घोषणा में कहा गया की - योग मानव स्वास्थ्य व कल्याण की दिशा में एक सम्पूर्ण नज़रिया है.

योगा विशुद्ध Made in India प्रोडक्ट है और ज्यादातर निशुल्क ट्रेनिंग मिल जाती है. फिर भी आम जनता में योग पनप नहीं रहा है. शायद घर की मुर्गी और दाल बराबर हो गई है ! 1997-98 में हम लोग दिल्ली में थे. गर्मी की छुट्टियों में भारतीय योग संस्थान ने दिल्ली में जगह जगह पार्कों में योग ट्रेनिंग शिविर लगाए. देखा देखी हम भी अपनी दरी लेकर पार्क में पहुँच गए. मन में कुछ ऐसा भाव था कि इस छोटी सी दरी पर लोटम-पोट कराए जा रहे हैं और कह रहे हैं की फिट रहोगे तो ये कैसे होगा ? पर साब हुआ. कुछ ही दिनों में आसन और प्राणायाम कैसे करते हैं समझ आ गया. इसके परिणाम शरीर पर महसूस भी होने लग गए. तीन महीने होते होते शारीरिक और मानसिक सुस्ती गायब हो गई, अनुशासन आ गया, शराब की तलब घट गई और जागरूकता बढ़ गई. सुबह नौ बजे भी थकान नहीं और रात नौ बजे भी चुस्त दुरुस्त.

हाँ जब ये कैम्प शुरू हुआ था तो पहले दिन 60 लोग शामिल हुए थे जबकि कॉलोनी की आबादी हज़ार के करीब थी. एक महीने बाद 15 साधक बचे और तीन महीने बाद केवल 5 साधक रह गए. अब भी लोग खिड़कियों से हमें योगा करते हुए देखते हैं पर शामिल नहीं होते. हमने तो योग का दामन थामा तो फिर छोड़ा नहीं चाहे मौसम कोई भी हो चाहे स्थान कोई भी हो. अब तो चाहे टूर पर निकले या कहीं बाहर शादी अटेंड करने, पॉलिथीन की शीट और दरी साथ ही रहती है.

पिछले दशक में योग बन गया है योगा और योगा से जुड़ी संस्थाओं - NGO की तो बाढ़ आ गई है. बहुत से नीम हकीम, गुरुघंटाल और ढोंगी बाबा योग की दुकानदारी करने लग पड़े हैं. कई तो दावा करते हैं की बस ये वाला आसन करो मोटापा दूर हो जाएगा, फलां आसन करो कैंसर दूर हो जाएगा और ढिमका आसन करो तो घुटनों का दर्द ठीक हो जाएगा. साथ ही अपने बनाए चूरन और गोलियों के बारे में बताना नहीं भूलते !

हम तो अपने अड़ोसी पड़ोसियों, दोस्तों और रिश्तेदारों को लगातार कहते रहते हैं कि 'चलो भई उठाओ दरी और चलो पार्क में' पर असर नहीं पड़ता. तरह तरह की बहाने और जवाब मिलते हैं. सर्दी में कहते हैं की गर्मी में शुरू करेंगे और गर्मी आई तो कहते हैं कि बच्चों को घुमा लाएं आने के बाद शुरू करते हैं ! पर मुहूर्त ही नहीं निकल पाता. अपने आप से प्यार बहुत है पर अपने को दुरुस्त रखने के लिए समय नहीं है.

चावला जी पेंट वगैरा की दूकान चलाते हैं. देर से याने 11-12 बजे जाते हैं और देर से याने 9-9.30 बजे आते हैं. उनका सीधा जवाब है 'योगा हमसे ना होगा'.

कालरा जी ने पेट घटाने के लिए योगा करना शुरू किया. कुछ आसन उन्हें बताए गए जिस में से एक था धनुरासन. इस आसन में पेट के बल लेट कर आगे से गर्दन उठानी है और पीछे से दोनों टखने पकड़ कर घुटने उठाने हैं याने धनुष की शक्ल बनानी है. कालरा जी को ये आसन सही लगा क्यूंकि पेट पर दबाव पड़ेगा तो पेट पिचक जाएगा. जोश जोश में सुबह, दोपहर और शाम कालरा जी शरीर को धनुष बनाने में लग गए. अब कमर में दर्द रहने लगा. डॉक्टर से मिले तो डॉक्टर ने योगा बंद करा दी और बेड रेस्ट बता दिया. कालरा जी और योगा का योग समाप्त हो गया !

 गोयल साब ने भी दो तीन दिन दरी बिछाई, लोट पोट हुए और फिर योगा छोड़ दिया. उन का कहना था,
- गुरु जी ने कहा कि चाय पी कर योगा क्लास में ना आया करें. अब बताओ बिना बेड टी के मैं तो टॉयलेट ही नहीं जा पाता पार्क में कैसे जाऊं ? मेरे बस की ना है योगा.

मिसेज़ नरूला भी आने के लिए तैयार हो गईं. पर पहले उन्होंने नई सफ़ेद सलवार कमीज़ सिलाई, नई चप्पल ली और एक अदद नई दरी खरीदी. बड़ी तैयारी से परफ्यूम वगैरा लगा कर क्लास में आईं और कोशिश भी की. पर चार पांच दिन बाद कमबख्त कुत्ता उनकी एक चप्पल लेकर भागा. एक दो सज्जन कुत्ते के पीछे दौड़े भी पर कुत्ते की पसंद और हिम्मत की दाद देनी होगी वो तेज़ी से पार्क के बाहर निकल गया और चप्पल भी नहीं छोड़ी. मिसेज़ नरूला फिर नहीं आईं शायद योग से उनका वियोग हो गया !

हमारे शर्मा जी ने तो टीवी के प्रोग्राम देख देख कर योगा सीख लिया. शर्मा जी कहते हैं,
- मैं तो बिस्तर में ही योगा कर लेता हूँ !
- वो कैसे ?
- सांस ही तो अंदर बाहर करनी है !

अब वर्मा, शर्मा, निरुला, कालरा आएं या ना आएं हमारी योगा क्लास रोज़ सुबह जारी है. आप आना चाहें तो तहेदिल से आपका स्वागत है.

कोणासन 

सूर्य नमस्कार ( पर्वताकार )

उष्टासन



Wednesday, 20 June 2018

बुद्ध का मार्ग - स्वस्थ शरीर

स्वस्थ शरीर  

राजकुमार सिद्धार्थ गौतम 29 वर्ष की आयु में अपना महल और परिवार छोड़ कर दुःख निवारण का रास्ता ढूंढने निकल पड़े. सात वर्ष जंगल में कठिन तपस्या करने के बाद वे बौद्ध हुए और उन्होंने मनुष्य को दुःख के उत्पन्न होने के कारण और दुःख से निवारण का रास्ता 'अष्टांगिक मार्ग' खोजा. बहुत सोच विचार कर के उन्होंने मोक्ष का रास्ता अपने तक ही सीमित ना रखने का फैसला किया और इसका प्रचार शुरू किया. 35 वर्ष की आयु से लेकर 80 वर्ष की आयु तक अपने शिष्यों के साथ पैदल चलते हुए दूर दूर तक उत्तर भारत में इस धम्म का प्रचार प्रसार किया.

ये यात्राएं आसान नहीं थीं. साल में आठ महीने इस तरह से चलते रुकते गुज़रते और बारिश के चार महीने वे गुफाओं और धर्मशालाओं में गुजारते. खाने में भिक्षा पर निर्भर रहते फिर भी कोई शिकवा शिकायत नहीं करते. ऐसे में मन को फोकस रखना और शरीर को स्वस्थ रखना भी चमत्कार ही है. वो कैसे स्वस्थ रहते थे ?

एक समय गौतम बुद्ध अंग देश के अश्वपुर ( पाली भाषा में अस्स्पुर ) नामक नगर में ठहरे हुए थे. वहां पर उन्होंने  प्रवचन की दौरान भिक्खुओं से कहा ( मज्झिम निकाय > महाअस्स्पुर सुत्त ):

हम इन्द्रियों पर संयम रखेंगे...,
हम भोजन में मात्रा का ख़याल रखेंगे... ,
काया को ध्यान में रख कर ठीक से आहार लेंगे ताकि,
नशा ना हो, पीड़ा ना हो, काया निर्दोष रहे, यात्रा चलती रहे और सुखपूर्वक रहा जा सके. 

बात बड़ी सरल सी कही पर बात बड़े पते की कही. ढाई हज़ार साल बाद भी ये बातें हम सभी पर लागू होती हैं और इसलिए हमें अपना लेनी चाहिए. पर आलस वश नहीं अपनाते या इन्द्रियों पर संयम के अभाव के कारण नहीं अपनाते. कुछ इसलिए भी नहीं अपनाते कि इसके बारे में अमरीका ने सर्टिफिकेट नहीं दिया !

ऐसी ही बातें योग विज्ञान में भी कही गई हैं. योग या योगा तो अमरीका से सर्टिफाइड भी है ! योग गुरु कहते हैं कि भूख लगने पर ही खाएं और शरीर की भूख को शांत करने के लिए खाएं. भोजन में 50% ठोस पदार्थ हो, 25% तरल और 25% जगह खाली छोड़ दें. याने चार रोटी की भूख हो तो तीन खाएं. पर ऐसा नहीं है की सबको एक ही डंडे से हांक दिया जाए. अब अगर कोई खिलाड़ी है तो उसकी काया और भोजन की मात्रा अलग होगी, ऑफिस के बाबू की काया और खाने की ज़रुरत कुछ और होगी और अगर पेंशनर है तो उसकी डाइट में फर्क होगा. पर साब इन्द्रियों का भी तो खेल बाकी है और इन्द्रियों का मज़ा पूरा करते करते जब हम अपने को रोक नहीं पाते तब डॉक्टर हमें रोकता है - तला हुआ और खट्टा मत खाना, चीनी बंद कर दो, ठंडी चीज़ों से परहेज़ करना वगैरा वगैरा.
 
हमें स्वयम ही खाने पीने के बारे में नियम बना लेने चाहिए. शरीर की ज़रुरत के अनुसार भोजन की मात्रा और समय निश्चित कर लेना चाहिए. मौसम का खाने पर और शरीर पर काफी प्रभाव रहता है. खाने पीने की स्थानीय चीज़ें और मौसमी चीज़ें लाभ दायक होती हैं. यही वस्तुएं ज्यादा से ज्यादा इस्तेमाल करना अच्छा रहेगा. लुब्बो लुबाव ये कि गौतम बुद्ध का बताया मार्ग ही सही है. सही मात्रा में खाएं और संयम रखते हुए खाएं तो निरोगी रह पाएंगे.

इन्द्रियों पर संयम


Saturday, 16 June 2018

साहब के साथ सैर

सरकारी फ्लैटों में रहने का अपना ही मज़ा है. लोकेशन अच्छी होगी आने जाने के लिए घोड़ा गाड़ी या लोहा गाड़ी आसानी से मिल जाएंगी. बिजली, पानी और सफाई की सुविधाएं भी ठीक ठाक होंगी. स्वच्छ भारत के लिए वैसे ही हम कुछ नहीं करते यहाँ तो बिलकुल ही जरूरत नहीं होती. ऐसे फ्लैटों के आस पास एक बड़ा पार्क जरूर होगा जो आपको सैर के लिए बुलाएगा. वो बात और है कि आप जाएं या ना जाएं. अब सात बजे से पहले कौन उठे क्यूँ साब ?

पर साब इन फ्लैटों के इन सब्ज़ बाग़ के बीच में एक लोचा भी है. यहाँ जूनियर मैनेजर रहते हैं तो सीनियर मैनेजर और जनरल मैनेजर साहिबान भी रहते हैं. यहाँ मैनेजर को छोटा दो बेडरूम फ्लैट मिलता है तो बड़े बॉस जनरल मैनेजर को चार पांच बेडरूम वाला फ्लैट मिलता है. यहाँ रहने वाले जी एम जब मिलते हैं तो अच्छी तरह से नमस्ते करनी पड़ती है और ऑफिस में भी जब मिलते हैं तो दोबारा वहां भी तरीके से नमस्ते करनी पड़ती है. आप कन्नी नहीं काट सकते वर्ना किसी दिन ट्रान्सफर आर्डर पर कलम चल सकती है. ये भी तो ध्यान देने वाली बात है की छोटे मैनेजर उम्र में छोटे होते हैं और बड़े मैनेजर उम्र में बड़े होते हैं इसलिए विचारों में फर्क हो सकता है क्यूँ साब ?

पिछले दिनों झुमरी तलैय्या से नए जनरल मैनेजर चंद्रा साब ट्रान्सफर होकर आ गए.सफाचट चेहरा, ऊपर भी लगभग सफाचट बस कान से कान तक एक झालर से बची हुई थी वो भी डाई लगी हुई. एक बड़ा सा पेट. धीमी चाल चलने वाले. वो तो बाद में पता लगा की सेहत का राज़ बियर थी. श्रीमति चंद्रा उनके मुकाबले पतली दुबली, बाल कटे हुए और चुस्त चाल वाली. सरकारी कोलोनी में ग्यारह फ्लैटों का एक सेक्शन बैंक को मिला हुआ था. चंद्रा साब सबसे बड़े फ्लैट में विराजमान हो गए. श्रीमति चंद्रा ने हफ्ते बाद सभी ग्यारह फ्लैटों की महिलाओं की किट्टी बुलाई गई. यहाँ  'मिलजुल' के ही तो रहना था तो पहला अनलिखा अध्यादेश जारी हो गया कि महिला मंडल की बॉस श्रीमती चंद्रा होंगी. इस नए बॉस ने चाय की चुस्की लेते हुए कह दिया,
- हम तो रोज़ सुबह साढ़े पांच बजे वाक करने जाते हैं आप नहीं दिखते ?

बात बॉस ने कही तो माननी ही पड़ेगी. दूसरा अध्यादेश निकल गया. सुबह पांच बजे सभी ग्यारह घरों में टनटन टनटन अलार्म बज उठे. श्रीमती ने झकझोर कर उठा दिया,
- चलो चलो सैर करने जाना है.
- क्या हुआ अभी तो बाहर अँधेरा है और चिड़िया कौवे भी सो रहे हैं. सात बजे उठूँगा.
- नो नो नो बिस्तर छोड़ो.

पार्क में देखा तो सारे अफसरान मौजूद, सारी महिलाएं मौजूद. निक्कर, टी शर्ट, सिर पर कैप, हाथ में दो फुटा डंडा और स्पोर्ट शूज में चंद्रा साब आगे आगे, डिप्टी जी एम उनके साथ साथ और बाकी सब पीछे पीछे. बड़े अफसर के अगाड़ी कौन जाए ? दूसरी कतार में जीन, कैप, टॉप और स्पोर्ट्स शूज में श्रीमती चंद्रा आगे आगे, श्रीमती डिप्टी उनके साथ साथ और बाकी सब पीछे पीछे. इन दो चंद्राज़ के अलावा ज्यादातर कुरते पाजामे में, कोई सलवार कमीज़ में और ज्यादातर चप्पलों और स्लीपरों में. चंद्रा साब की ढीली चाल के साथ चलना मुश्किल हो गया. बीच बीच में राग दरबारी भी सुनाई पड़ जाता था,
- ये बड़ा अच्छा किया जी मैडम ने ! डिप्टी जी एम बोले.
- सर मैं तो कहता हूँ सबकी सुस्ती दूर कर दी मैडम जी ने ! सहायक जी एम बोले.
दरबारियों को कुछ और सूझता ही नहीं. बॉस ने कह दिया तो बस पत्थर पर लिख लिया.

तीसरा अध्यादेश जारी हो गया. शाम को पूरे मोहल्ले ने स्पोर्ट्स शूज, निक्कर और जीन की शौपिंग शुरू कर दी. कमबख्त एक जोड़ी की कीमत 2500 से 4000 और एक अदद जीन 2000 की. कसम से जेब ढीली हो गई और नींद उड़ गई. कमबख्त क्या सैर करनी थी और क्या सेहत बनानी थी ? अगले दिन पहली कतार निक्कर वालों की लगी और दूसरी जीन और टॉप की. गजब का नज़ारा था. ओलिंपिक की मशाल जलानी बाकी थी. थोड़ी दूर चल कर चन्द्रा साब ने दाहिनी जेब में हाथ मारा और मोबाइल निकाला. फिर बाँई जेब में हाथ मारा और इयरफोन निकाल कर एक सिरा मोबाइल में ठूंस दिया और दूसरा कानों में लगा लिया.

ये बताना जरूरी नहीं है की चौथा अध्यादेश आ गया था और सब ने शाम को इयरफ़ोन ले लिए. अगले दिन सुबह की सैर में सबके कान और सबके मुख बंद थे. एक फायदा तो हुआ की बॉस की सुननी नहीं पड़ी और ना ही 'जी सर जी सर' करनी पड़ी. उस दिन की परेड शांतिपूर्वक संपन्न हुई.

अगले से अगले दिन जब सुबह की सैर खत्म हुई तो श्रीमती चंद्रा ने घोषणा कर दी,
- आज सबके लिए लौकी करेले के जूस बनवाए हैं साथ में निम्बू पानी भी है. आइये. अब ये बेसुरा जूस अपने बस की बात नहीं थी. जो भी हो पांचवां जूसी अध्यादेश जारी हो गया. सब्ज़ी मंडी के सारे करेले और लौकियां मोहल्ले में आ गईं.

इससे पहले की छठा अध्यादेश जरी हो मैंने तो ट्रान्सफर की अर्ज़ी लगा दी - हे मेरे बॉस या तो अपना मकान बदल ले या फिर मेरा शहर बदल दे !

 
बाएँ से दाएं - जी एम साब, डिप्टी जी एम साब, सहायक जी एम साब .....





Tuesday, 12 June 2018

किस्सा एक लॉकर का

सन्डे के बढ़िया नाश्ते के बाद चंद्रा साब ने मन बना लिया की आज अपने खजाने का मुआयना किया जाए. छोटी अलमारी के बड़े लाकर में से सारी पास बुक, फिक्स डिपाजिट की रसीदें, विकास पत्र, शेयर्स वगैरा वगैरा निकाल कर फर्श पर फैला लिए. करीने से एक लाइन में बैंकों की पास बुकें लगाईं, दूसरी लाइन में रसीदें , तीसरी लाइन में शेयर ब्रोकर की पर्चियां वगैरा सजा लीं और आलथी पालथी मार कर बैठ गए. तब तक श्रीमती चंद्रा ने अंदर झांका,
- ओहो लंच तक तो तुम बिज़ी रहोगे. तब तक मैं भी कुसुम दीदी से मिल आती हूँ एक बजे तक आ जाउंगी.
- हाँ हाँ खूब गले मिलो. तुम दोनों का एक ही तो काम है अपने अपने मियाँ की टोपी उछाल कर मज़े लेना हाहा करना.
- लो अब हंसना भी मना है क्या? टोपी के नीचे गंज ही तो बची है. बाय.
- हुंह कहकर चन्द्रा साब ने गंजे सिर पर हाथ फेरा. ज्यादातर बाल गायब थे बस किनारे किनारे एक झालर सजी हुई थी. पर इसी बीच एक पुरानी पास बुक पर नज़र पड़ी जो बिटिया की थी. पास बुक के पन्ने पलटे तो देखा पूरी भी नहीं थी. फिर सोचा कि इसे पूरा करा के बंद ही करा देता हूँ. चलिए हफ्ते दस दिन का काम मिल गया.

सोमवार को चंद्रा साब झुमरी तलैय्या बैंक पहुंचे, पास बुक पूरी कराई और खाता बंद कराने के लिए अर्जी दी. ऑफिसर ने कहा इसमें तो आपका लॉकर का किराया कट रहा है. आप पहले लॉकर इंचार्ज शर्मा जी से मिल लो. शर्मा जी से बात की तो उन्होंने कहा की आप लॉकर भी खाली कर दें तो ज्यादा अच्छा रहेगा. चंद्रा साब बोले,
- हमारा तो कोई लॉकर यहाँ अब नहीं है. एक था जिसकी चाबी वापिस कर दी थी. देखिये ना खाता पंद्रह साल पुराना है बिटिया के साथ जॉइंट खुलवाया था. बिटिया की शादी हुए छे साल हो गए. अब यहाँ रहती भी नहीं इसीलिए तो खाता भी बंद करा रहा हूँ.
- ना न ना बिटिया के नाम 328 नंबर का लॉकर है. उसका रेंट भी इसी खाते से कट रहा है. आप चाबी ढूंढ कर लाइए, शर्मा जी बोले.

चंद्रा जी ने घर छान मारा लाकर की चाबी नहीं मिली. श्रीमती चंद्रा ने कहा,
- मुझे तो याद आता है लॉकर की चाबी वापिस कर दी थी. उस बैंक में लॉकर तो होना नहीं चाहिए. शादी का सामान जब लिया था तब लाकर में रखा था. वो सब ले गई. पता नहीं बैंक वाला क्या कह रहा है ?
बिटिया से फोन पर पूछा तो उसने कहा,
- मेरे पास कोई चाबी वाबी नहीं है. सामान लाये हुए भी छे साल हो गए. अगर खाते में पैसे हैं तो भिजवा देना प्लीज.

चंद्रा साब फिर बैंक में लॉकर इंचार्ज शर्मा जी से मिले और बताया की कोई घर पर कोई चाबी नहीं मिली.
- देखिये चंद्रा साब पिछले दो साल में दो बार लॉकर खुला है और ये रही लाकर नंबर 328 की कंप्यूटर एंट्री.
- मुझे दस्तखत दिखाओ ज़रा इस एंट्री के ?
- अजी चंद्रा साब ये एंट्री कंप्यूटर में ऐसे ही थोड़ी हो जाती हैं. या तो आपकी श्रीमती आयी हैं या बिटिया आई है लाकर खोलने. उनको ले आओ याद आ जाएगा और कन्फर्म भी हो जाएगा.

दस दिन बाद श्रीमती और श्री चंद्रा ने फिर हाजिरी भरी शर्मा जी के दरबार में. श्रीमती चंद्रा ने कहा,
- लॉकर तो शायद यही था पर मैं तो बिटिया की शादी के बाद कभी आई नहीं. हम एक साथ ही सारा सामान ले गए थे. बस.
- हो सकता है की आपकी बिटिया आई हो ? उनको बुला लो एक बार, शर्मा जी बोले.
- नहीं उसको आए तो ज़माना गुज़र गया. आएगी भी नहीं. हमीं लोग जाते हैं मिलने, श्रीमती चंद्रा ने कहा.
- तो हम इस लॉकर को तुड़वा देते हैं जो भी खर्चा होगा आपके खाते से ले लेंगे, शर्मा जी ने कहा.
- अब कोई रास्ता नहीं है तो फिर आप तोड़ दीजिये. और क्या करें हम ? चाबी तो है नहीं हमारे पास और याद भी नहीं की इसमें है क्या ? चंद्रा साब बोले.

दस दिन बाद श्री और श्रीमती चंद्रा के सामने लॉकर तोड़ दिया गया. उसमें से तीन पोटलियाँ निकलीं. श्रीमती चंद्रा ने तत्परता से पोटलियाँ खोलीं और तुरंत घोषणा कर दी,
- ये हमारा सामान नहीं है !
लॉकर इंचार्ज शर्मा जी का चेहरा फक्क हो गया.

अब चीफ मैनेजर के केबिन में सारे इक्कठे हो गए. पानी आया, चाय आई, पर उत्तर नहीं मिला की सामान किसका था. मोटा मोटी अंदाजा लगाया गया कि सामान 15 से 20 लाख का हो सकता है. चंद्रा साब ने सामान लेने से इनकार कर दिया. चीफ साब और शर्मा साब एक दूसरे का मुंह देखने लगे. केबिन में सन्नाटा छा गया. अब शर्मा जी दो साथियों के साथ रिकॉर्ड रूम की तरफ भागे. पुराने कागज़ पत्तर ढूँढने की कारवाई जोरों से चालू हो गई. बाहर हॉल में खुसर-पुसर शुरू हो गई. तरह तरह के सुझाव, नसीहतों, कयास, सस्पेंशन, पुलिस की बातें होने लगीं. किसी तरह साढ़े छे बजे सारे ओरिजिनल कागज़ात मिले तो मामला स्पष्ट हुआ.

चंद्रा साब ने तीन साल पहले लॉकर खाली कर दिया था और चाबी वापिस कर दी थी. पर बैंक द्वारा जो भी कागज़ी कारवाई होती है पूरी नहीं की गई. किराया चंद्रा जी के खाते से लगातार कटता रहा. कुछ समय बाद वही चाबी और लॉकर किन्हीं तनेजा साब को दे दिया गया था. बल्कि उनके खाते से किराया भी नहीं कट रहा था. अब एक हरकारा तनेजा साब को बुलाने के लिए दौड़ाया गया. तनेजा साब आते ही सपरिवार बैंक वालों पर टूट पड़े. शर्मा जी तो घबरा कर वहीँ गिर पड़े. उन्हें पास के क्लिनिक में पहुंचाया गया.

बहरहाल आप सहमत होंगे कि दुनिया में अच्छे लोगों की कमी नहीं है. कुछ देर बाद गुस्सा ठंडा हुआ तो मामला सुलझ गया. लोगों ने हाथ मिलाए और दस बजे अपने अपने घरों की ओर प्रस्थान कर दिया. अगले दिन प्रशाद भी बांटा गया. आपको भी तो मिला होगा ? 

लॉकर बंद 

Sunday, 10 June 2018

अल्पसंख्यक पेंशनर

अल्पसंख्यक शब्द की चर्चा मीडिया में आए दिन होती रहती है. कानूनी परिभाषा तो ठीक से पता नहीं थी पर इसका व्यक्तिगत अनुभव पढ़ाई के दिनों में ही मिल गया था. बैक-बेंचर होने के कारण क्लास में अल्पसंख्यक थे. इम्तेहान में नंबर भी अल्प-संख्या में ही मिलते थे. फिर पास होने पर इनाम भी अल्प ही मिलता था. बमुश्किल नौकरी लगी पर काम अल्प ही करते रहे. बॉस नाराज़ हो गए और बार बार अल्प-काल में ट्रान्सफर करते रहे. फिर रिटायर होकर पेंशन लगी तो अल्प-संख्या में लगी ! 

* इन्टरनेट में यूँ ही टाइम पास के लिए अल्पसंख्यक के बारे में खोजबीन शुरू की तो पता लगा कि भारत में पहली बार जनगणना 1891 में ब्रिटिश जनगणना आयुक्त द्वारा कराई गई थी. इससे पहले 1856 के बाद कई बार कोशिश की जा चुकी थी पर टुकड़ों टुकड़ों में. फिरंगियों को यहाँ के बहुरंगी धर्म, पंथ, समाज, समुदाय, सम्प्रदाय, अनगिनत बोलियाँ, सैकड़ों भाषाएँ और बेहिसाब जात पात शायद समझ नहीं आ रहे होंगे. शायद उन्हें लगा हो की लिस्ट बना ली जाए और फिर यहाँ के सामाजिक हालात को समझा जाए ताकि राज करना आसान हो जाए. उस वक़्त पेड़ों पर भी निशान लगाए गए और घरेलू पशु भी गिने गए. उन्होंने उस वक़्त पहली बार 'अल्पसंख्यक' या 'minority' शब्द का प्रयोग किया. ये कहा गया कि हिंदुस्तान में सिख, जैन, बौद्ध, मुस्लिम, इसाई कम हैं याने अल्पसंख्यक हैं और इनके मुकाबले हिन्दू यहाँ बहुसंख्यक हैं. कमाल की खोज कर के फिरंगियों ने बटवारा पक्का कर दिया और कटीली झाड़ी बो दी जिसकी चुभन जारी है.

* वैसे फिरंगी शासक वर्ग पूरे शासन काल में गिनती में लाख - डेढ़ लाख ही रहा जबकि यहाँ आबादी करोड़ों में रही. यानि खुद ईसाई अल्पसंख्यक होते हुए बहुसंख्यक जनता पर सैकड़ों साल राज करते रहे. इसी तरह मुग़ल शासक भी ज्यादा नहीं थे अल्पसंख्यक ही थे. वो तो साम, दाम, दंड, भेद से संख्या बढ़ी.

* अंग्रेजों की इस concept को ढोए जा रहे हैं हम. हर जनगणना में हर एक से लिखवा लेते हैं 'तेरा धर्म क्या है" !  1951 में आबादी 36 करोड़ इस प्रकार थी - हिन्दू 84.1%, मुस्लिम 9.8%, सिख 1.89%  ईसाई 2.3% बौद्ध 0.74% थे. आखिरी जनगणना 2011 में आबादी 121 करोड़ इस प्रकार थी - हिन्दू 79.8%, मुस्लिम 14.2%,  इसाई 2.3%, सिक्ख 1.7%,  बौद्ध  0.7%, जैन 0.4% और 'अन्य' में नास्तिक 0.2% भी शामिल हैं. लगता है किसी दिन नास्तिक भी 'अल्पसंख्यक' होने का दावा करने लगेंगे !

* हमारे संविधान में अल्पसंख्यक का जिक्र तो है पर परिभाषा नहीं है. अनुच्छेद 29 का शीर्षक है 'अल्पसंख्यक वर्ग के हितों का संरक्षण' पर बिना परिभाषा के. ये जरूर कहा गया है की भारतीय नागरिकों के किसी अनुभाग को, जिसकी अपनी विशेष भाषा, लिपि या संस्कृति है, उसे बनाए रखने का अधिकार होगा. इस अधिकार के चलते फिलहाल अल्पसंख्यक दो तरह के हैं - पहला धर्म के आधार पर और दूसरा भाषा के आधार पर.

* अल्पसंख्यक से सम्बन्धी कार्यों की देखरख के लिए 2006 में एक मंत्रालय खुल गया. 2018-19 में इसका बजट 4700 करोड़ है. इस मंत्रालय के अंतर्गत कई विभाग हैं, कई स्कालरशिप स्कीम, लोन स्कीम वगैरा वगैरा भी चल रही हैं. बहुत से अल्पसंख्यक लोगों को फायदा भी हो रहा होगा. सरकारी तंत्र कैसे जनता तक फायदा पहुंचाता है वो आपको पता ही है.

* अब अगर अल्पसंख्यक की परिभाषा गिनती से लें तो सौ में से 51 बहुसंख्यक हुए और 49 अल्पसंख्यक हो गए. अल्पसंख्यक गिनती के हिसाब से देखें तो क्या किसी जिले में देखें या प्रदेश में देखें या पूरे देश में देखें ? मसलन मुस्लिम देश में अल्पसंख्यक हैं पर जम्मू-कश्मीर में बहुसंख्यक याने 68% हैं. सिख देश में अल्पसंख्यक हैं पर पंजाब में बहुसंख्यक अर्थात 61.6% हैं. पूरा देश लें तो हिन्दू बहुसंख्यक हैं पर प्रदेशों को लें तो कहीं कहीं हिन्दू अल्पसंख्यक हो जाते हैं जैसे - मिज़ोरम में 2.75%, मणिपुर में 41.3% मेघालय में 11.5%.

* 1992 में राष्ट्रीय अल्पसंख्यक आयोग कानून पास हुआ. इसमें कहा गया की अल्पसंख्यक समुदाय वो समुदाय है जिसे केन्द्रीय सरकार अधिसूचित करे. पर दूसरी ओर संविधान के अनुच्छेद 341 और 342 में कहा गया है कि किसी जाति समूह को अनुसूचित जाति या जनजाति में शामिल करने के काम केवल संसद ही करे. इन दोनों बातों में भी विरोधाभास लगता है. सीधी बात को जलेबी बनाने में नेता और लालफीताशाह दोनों माहिर हैं.

* 1961 की जनगणना में जनता ने 1652 मातृभाषाओं का पंजीकरण करवाया जिसे बाद में काट छांट कर 1100 माना गया. सरकार ने फिर रूल बनाया की कम से कम दस हज़ार लोग बोलें तो भाषा मानी जाएगी. 1971 की जनगणना में 108 भाषाएँ ही रजिस्टर हुईं. भाषाविद गणेश डेवी के अनुसार पीपुल्स लिंगविस्टिक सर्वे में 1100 में से 780 भाषाएँ ढूंढ ली गईं पर बाकी लुप्त हो गईं. भाषा के लुप्त होने के साथ साथ उससे जुड़ा खेती और पर्यावरण का ज्ञान भी लुप्त हो गया. पर बढ़ते शहरीकरण, कंप्यूटर और मोबाइल के आने के बाद और भाषाएँ भी गायब हो सकती हैं. इसका मतलब है कि भाषाई अल्पसंख्यक तो घटते ही जाएंगे. क्या पता पचास साल बाद क्या होगा ?

* पर धार्मिक अल्पसंख्यक के पंगों का कोई अंत नहीं नज़र आता. कुल मिला के धार्मिक अल्प और बहु संख्यकों की खिचड़ी स्वाद भी है और बेस्वाद भी. बहरहाल बहुत खोज के बाद भी आर्थिक आधार पर अल्पसंख्यक / बहुसंख्यक का कहीं जिक्र नहीं मिला. वर्ना तो देश में हमारी तरह पेंशनर अल्पसंख्यक हैं. उस पर तुर्रा ये कि पेंशन पर भी आयकर भिड़े रहे हैं. हमारे जैसे अल्पसंख्यक वर्ग पर ज़्यादती हो रही है. कम्बख्त बीयर के पैसे निकालने मुश्किल हो रहे हैं. अल्पसंख्यक समझ कर हमारा भी कुछ उद्धार होना चाहिए !

संख्या का खेल 



Wednesday, 6 June 2018

न्यूज़ीलैण्ड यात्रा - वनाका झील

न्यूज़ीलैण्ड द्वीपों पर बसा एक छोटा सा देश है जिसकी जनसँख्या 48.19 लाख है. न्यूज़ीलैण्ड में दो बड़े मुख्य द्वीप हैं उत्तरी द्वीप और दक्षिणी द्वीप और इसके अतिरिक्त छोटे बड़े 600 द्वीप हैं जिनमें से पांच टापुओं के अलावा आबादी बहुत कम है. न्यूज़ीलैण्ड ऑस्ट्रेलिया से 1500 किमी पूर्व में है. देश की राजधानी वेलिंगटन है और यहाँ की करेंसी है न्यूज़ीलैण्ड डॉलर NZD. ये डॉलर आजकल लगभग 47 भारतीय रूपये के बराबर है.

न्यूज़ीलैण्ड का प्रति व्यक्ति GDP( nominal) 36,254 डॉलर है और इसके मुकाबले भारत का GDP ( nominal ) का 2016-17 का अनुमानित आंकड़ा थोड़ा कम है याने प्रति व्यक्ति 1800 डॉलर है. याने हिन्दुस्तानियों को कमर कस कर मेहनत करनी पड़ेगी.

यहाँ के मूल निवासी माओरी कहलाते हैं. जनसँख्या में इनका अनुपात 14.9 % है और सरकारी काम काज के लिए इंग्लिश के अलावा माओरी यहाँ की सरकारी भाषा है. दक्षिणी द्वीप का सबसे बड़ा शहर है क्राइस्ट चर्च जिसकी जनसँख्या चार लाख से कम है.

भारत की तरह न्यूज़ीलैण्ड में भी गाड़ियां बाएं ही चलती हैं अर्थात left is right & right is wrong! आप अपने देसी लाइसेंस और पासपोर्ट दिखा कर कार या कारवाँ - Carvan किराए पर ले सकते हैं और खुद चला सकते हैं. हमने दो हफ्ते कारवाँ में ही गुज़ारे. ज्यादातर सड़कें दो लेन की हैं पर ट्रैफिक कम है और डिसिप्लिन है इसलिए आप इत्मीनान से गाड़ी चला सकते हैं. कारवाँ में छोटी सी किचन, टॉयलेट, बिस्तर वगैरा की व्यवस्था होती है. कारवाँ कई तरह के मिलते हैं जिनका रोज़ का किराया हज़ार रूपये से लेकर सत्तर अस्सी हज़ार तक हो सकता है. सुविधाएं भी फिर उसी प्रकार से मिलती हैं. रास्ते में जगह जगह पार्किंग मिल जाती है जहाँ, पानी भरने और सीवर से कनेक्ट करने की सुविधाएं होती हैं. पर आपको रास्ते में ढाबे और छोले भठूरे नहीं मिलेंगे ! यहाँ से आप मसाले, दालें और तैयार खाने का पैकेट बंद सामान ले जा सकते हैं. दालें और खाना कारवाँ की किचन में बना सकते हैं. दोस्ताना माहौल है, शांति है और प्रकृति के सुंदर अनछुए नज़ारे हैं.  कुछ फोटो:

वनाका झील

झील का किनारा  

पानी,पहाड़ और बर्फ

झील का एक नज़ारा 

ये ऐसा पेड़ है जिसकी सबसे ज्यादा फोटो खिंची जाती हैं        

वो आसमां मिल रहा है ज़मीं से 

ये कौन चित्रकार है 

प्राक्रतिक सौन्दर्य को सम्भाला हुआ है 

Carvan with a view 

*** मुकुल वर्धन की प्रस्तुति  *** Contributed by Mukul Wardhan ***




Friday, 1 June 2018

कुदसिया बाग दिल्ली

दिल्ली में बाग़ बगीचे बहुत हैं. ये बाग़ बगीचे आपने भी देखे होंगे और इनमें सैर भी की होगी. तो फिर कुदसिया बाग़ में ऐसी क्या खासियत है? ये कुदसिया बाग़ और उसमें बना छोटा सा आशियाना कुदसिया बेगम ने 1748 में बनवाया था और खासियत ये है की कुदसिया बेगम का असली नाम उधम बाई था. कश्मीरी गेट / सिविल लाइन्स के बीच बना ये बाग़ बहुत बड़ा था उस वक़्त. आजकल का बस अड्डा याने ISBT उसी बाग़ की जमीन पर है.  उस वक़्त यमुना इसके किनारे बहती थी अब थोड़ा दूर चली गई है. अब कुदसिया बाग़ में कुछ खंडहर बचे हुए हैं जो ASI की देख रेख में हैं.

उधम बाई एक नर्तकी थी और दिल्ली दरबार में नाचा करती थी. उधम बाई सुंदर होने के साथ साथ समझदार भी रही होगी और महत्वाकांक्षी भी. कुछ ही दिनों में उसने मुग़ल शासक का दिल जीत लिया या शायद मुग़ल बादशाह मुहम्मद शाह उसे दिल हार बैठा. जो भी हुआ हो उधम बाई अपने उद्यम से बादशाह की तीसरी बेगम बन बैठी. शादी के बाद उधम बाई को मनसबदार का ओहदा भी दिया गया. ये ओहदा बहुत महत्वपूर्ण था क्यूंकि इस मनसबदार होने का मतलब था कि अगर बादशाह कहीं बाहर हो तो राज काज के सारे फैसले मनसबदार ही करेगा. 24 दिसम्बर 1725 को उधम बाई ने एक पुत्र को जन्म दिया जिसका नाम था अहमद शाह बहादुर.

1748 में मुग़ल बादशाह मुहम्मद शाह की मृत्यु हो गई. उन दिनों वैसे भी मुग़ल साम्राज्य लड़खड़ा रहा था. अब उधम बाई का बेटा अहमद शाह बहादुर गद्दी पर बैठ गया. 1748 से लेकर 1755 तक बादशाह बना रहा. एक तो गद्दी के लायक प्रभावशाली और समझदार नहीं था और दूसरे ज्यादातर समय हरम में ही बिताता था. वज़ीर सफ़दर जंग राज काज चलाता था. पर उधम बाई ने कुदसिया बेगम का नाम रखकर कामकाज में हिस्सा लेना शुरू कर दिया. इस कमज़ोर स्थिति को उनके वज़ीर सफ़दर जंग ने पहचान लिया और उसने मराठों के साथ मिलकर हमला बोल दिया. अहमद शाह बहादुर को परिवार समेत जेल में डाल दिया गया. अहमद शाह बहादुर की आँखें फोड़ दीं गईं और वो मरते दम तक जेल में से नहीं निकल पाया. उधर उधम बाई की भी गुमनामी में मृत्यु हो गई. कब हुई ये नहीं पता और कहाँ दफनाया गया ये भी नहीं पता. कहा जाता है की लाल किले में दफनाया गया था. फ़िल्मी स्टाइल की इस कहानी के गवाह हैं कुदसिया बाग़ के खंडहर. ये खंडहर अब चिड़ियों और कबूतरों का बसेरा है या फिर सांझ के झुटपुटे में नशेड़ियों की पनाहगाह है. समय बड़ा बलवान है साब. कुछ फोटो:

बेगम ने 1748 में बनवाया था ये काम्प्लेक्स 

उस वक़्त का महल अब कबूतरों का घर 

कभी अर्श पर कभी फर्श पर, कभी रहगुज़र कभी दरबदर, गमें आशिकी तेरा शुक्रिया, हम कहाँ कहाँ से गुज़र गए !

कुदसिया बेगम की शाही मस्जिद 

कभी इमारत बुलंद थी