दुःख
राजकुमार सिद्धार्थ गौतम 21 वर्ष की आयु में महलों का विलासिता पूर्ण जीवन छोड़ जंगल की और निकल गए. सात वर्षों तक उस समय के हर तरह के साधू संतों से मिले. उस समय की प्रचलित सभी 62 दार्शनिक विचार धाराओं का अध्ययन किया और उन विचारों पर अमल किया. पर फिर संतुष्ट नहीं हुए आगे बढ़ गए. सात साल की लम्बी और कठिन तपस्या से शरीर सूख कर काँटा हो गया पर खोज नहीं छोड़ी. अंत में एक छोर की भरपूर विलासिता और दूसरे छोर की शरीर को कष्ट देने वाली तपस्या दोनों को ही त्याग दिया और मध्यम मार्ग अपनाया.
आज के मनुष्य का शरीर, उसकी इन्द्रियां, शरीर की जरूरतें और मन की उथल पुथल वैसी ही है जैसे बुद्ध के समय में या उनसे भी पहले थी. मन में लगाव, राग, द्वेष, इर्ष्या, भय, लालच, आसक्ति, गुस्सा, पश्चाताप और प्रतिशोध की भावनाएं वैसी ही हैं जो पहले भी थीं. आज भी मन की इच्छा न पूरी होने पर हम दुखी होते हैं, आज भी अनहोनी की सोच से भय लगता है और आज भी अपनों से बिछड़ने में दुःख घेर लेता है. सब कुछ ठीक चल रहा हो तो अचानक नई समस्या बिन बुलाए आन खड़ी हो जाती है. और कुछ नहीं तो दांत गिरने लगते हैं, सफ़ेद बाल निकल आते हैं या प्रमोशन ना होने से ब्लड प्रेशर का शिकार हो जाते हैं.
और ये समस्याएँ केवल मेरी या आपकी नहीं हैं बल्कि हर एक की हैं. हर कोई इन्हीं में उलझा हुआ है. और इन समस्याओं के आने का कारण कोई ख़ास उम्र, या ख़ास स्थान या ख़ास घटना या ख़ास व्यक्ति नहीं है बल्कि ये एक लगातार चलने वाली प्रक्रिया है. अंतर्मन की ये प्रक्रिया ख़त्म होने का नाम ही नहीं लेती. एक के बाद एक उलझनें मन में जमा होती जाती हैं और परेशान करती हैं. ऐसा लगता है कि दुःख की घड़ियाँ लम्बी हैं और सुख किश्तों में आकर फुर्र हो जाता है.
सारनाथ, बनारस में दिए पहले उपदेश में गौतम बुद्ध ने चार आर्य सत्य बताए:
- जीवन में दुःख है,
- दुःख का कारण है,
- दुःख का अंत है और
- दुःख के अंत करने का मार्ग है.
ये चार आर्य सत्य - Four Noble Truths, बौद्ध दर्शन के आधारभूत अंग हैं. मज्झिम निकाय में सारिपुत्त सुत्त में कहा गया है कि इन्हीं चार आर्य सत्य के अनुभव पर सारा बौद्ध दर्शन ऐसे स्थित है जैसे हाथी के पाँव में सबका पाँव. इन चार आर्य सत्यों को पाली भाषा में 'चत्तारी अरियसच्चानी' और संस्कृत में 'चत्वारी आर्यसत्यानी' कहा गया है.
दुःख दैहिक, दैविक या भौतिक हो सकता है मतलब कि शारीरिक, मानसिक या फिर प्राकृतिक घटनाओं से दुःख उत्पन्न हो जाता है. गौतम बुद्ध ने इसे और आगे परिभाषित इस तरह से किया:
दुःख: जन्म भी दुःख है, शरीर का ढलना भी दुःख है और मरण भी दुःख है. अप्रिय लोगों के साथ रहने में दुःख है और प्रियजनों से बिछड़ना दुःख है. व्यसनों से दूर ना रह पाना और इच्छित वस्तु का ना मिलना भी दुःख है.
इंग्लिश के अनुवादों में दुःख को Stress, Suffering, unsatisfactoriness आदि लिखा गया है.
दुःख का कारण: दुःख का कारण है तृष्णा ( या चाहत या राग या आसक्ति या Craving ). पाली भाषा में तृष्णा को तण्हा कहा जाता है. इस तृष्णा को आगे विस्तार से गौतम बुद्ध कैसे बताते हैं देखें:
काम तृष्णा - मैं स्वयं हर अच्छी वस्तु का उपभोग करूँ और बारम्बार करूँ, मैं और मेरे विचार सबसे अच्छे हैं, मेरे जैसा और मेरे परिवार जैसा कोई परिवार है ही नहीं, मैं जो काम करता हूँ बेजोड़ करता हूँ, मेरे से लोग सलाह लेने आते हैं इत्यादि जैसे तृष्णा के विचार रखना जो अंत में दुःख देते हैं. ये है - craving for sensuality.
भव तृष्णा - मैं हूँ और मैं सदा बना रहूँ. मेरी Existance / becoming मेरा वजूद है और सदा ही बना रहे. मेरी उम्र लम्बी हो और मेरे मर जाने के बाद ( मरना तो नहीं चाहता पर क्यूंकि मरना प्राकृतिक नियम है क्या करूँ? ) स्वर्ग में जाऊँ. धरती पर मैं नहीं रहा तो क्या मेरा नाम तो रहेगा. मुझे लोग जन्मों तक याद करेंगे.
ये सारे विचार स्वयं के 'भव' से चिपकाव वाले हैं जो अंततः दुःख ही देते हैं. सच तो यह है स्वर्ग किसी ने नहीं देखा है और मरने के बाद क्या होता है वो भी किसी को पता नहीं. परन्तु स्वयं को बनाए रखने के लिए तो तृष्णा के सब्ज़ बाग़ दिख रहे हैं. ये है - craving for becoming.
विभव तृष्णा - मेरे आसपास सब बेकार है, ये संसार बेकार है और इससे उच्छेद (या अलगाव ) होना चाहिए. ये है - craving for non-becoming.
दुःख का अंत: अगर तृष्णा निरुद्ध हो जाए, सर्वथा त्याग दी जाए या तृष्णा से मुक्ति हो जाए तो दुःख भी समाप्त हो जाएगा.
दुःख के अंत करने का मार्ग: यह अष्टांगिक मार्ग कहलाता है और इसके आठ अंग हैं -
1. सम्यक दृष्टि - जो व्यक्ति, वस्तु या जगह जैसी है वो वैसी ही देखना. उनके गुणों और स्वभाव को उसी तरह देखना जैसे वे हैं. अपनी ओर से ना घटाना ना बढ़ाना.
2. सम्यक संकल्प - आसपास के संसार की वास्तविकता देखकर अनासक्ति का संकल्प लेकर चलना.
3. सम्यक वचन - झूठ, चुगली, गाली और कड़वे वचनों का त्याग करना और सच को अपनाना.
4. सम्यक कर्म - हिंसा, हत्या और चोरी ना करना. नशे, जुए और व्यभिचार से दूर रहना.
5. सम्यक आजीविका - गैर कानूनी, धोखा धड़ी वाले काम ना करना. ऐसा धंधा करना जिससे समाज का कल्याण हो.
6. सम्यक व्यायाम - बुराइयों को हटाना और अच्छे विचार रखने का यत्न करना. मन, वाणी और शरीर को प्रबल रखना.
7. सम्यक स्मृति - वर्तमान में रहना और जीना और वर्तमान की सच्चाई समझना.
8. सम्यक समाधि - मन को स्वच्छ बनाए रखना. लोभ, मोह, क्षोभ से दूर समता बनाए रखना.
इस मार्ग को दुःख निरोध गामिनी प्रतिपदा आर्य सत्य कहते हैं.
यहाँ सम्यक शब्द का अर्थ है - समभाव, समता, उचित, उपयुक्त, ना इस छोर पर ना ही उस छोर पर बल्कि मध्य में, Balanced / Equinimous.
ये विषय तो बड़ा है और जटिल है पर ये लेख बहुत ही संक्षिप्त और सरलीकृत है. लेकिन यहाँ यह कहना जरूरी है की इन चार सत्यों को यूँ ही ना मान लिया जाए बल्कि स्वयं के अनुभव और अनुभूति के आधार पर ही माना जाए और उन्हीं अनुभूतियों पर स्वयं से जुड़ी बातों, चाहतों और घटनाओं का विश्लेषण भी किया जाए.
मानसिक तनाव का कारण छोटी बड़ी बातों में, व्यक्तियों में, स्थान में या फिर घटनाओं में छुपा हुआ हो सकता है. मसलन - मुझे कैसे घूर रहा था! बड़ी सुंदर जगह है ये! मेरी पोस्टिंग परेशान करने के लिए की है मुझे पता है! अरे ये टायर तो पंचर हो गया! अब अगर टायर पंचर हो गया तो मैं लेट हो जाऊँगा, मेरी बेज्ज़ती हो जाएगी, मैं हमेशा समय से पहुँचाने वाला और अब मेरी इमेज खराब हो जाएगी आज मैं ऑफिस जाता ही नहीं. इस छोटी सी बात के बारीक बारीक तार भी मैं और मेरी भव तृष्णा से जुड़े हैं! अगर हम रोज़ अपने कार्य कलापों का विश्लेषण करते रहें तो पाएंगे कि वाकई इन कार्यों के पीछे तृष्णा हमें दौड़ा रही है.
राजकुमार सिद्धार्थ गौतम 21 वर्ष की आयु में महलों का विलासिता पूर्ण जीवन छोड़ जंगल की और निकल गए. सात वर्षों तक उस समय के हर तरह के साधू संतों से मिले. उस समय की प्रचलित सभी 62 दार्शनिक विचार धाराओं का अध्ययन किया और उन विचारों पर अमल किया. पर फिर संतुष्ट नहीं हुए आगे बढ़ गए. सात साल की लम्बी और कठिन तपस्या से शरीर सूख कर काँटा हो गया पर खोज नहीं छोड़ी. अंत में एक छोर की भरपूर विलासिता और दूसरे छोर की शरीर को कष्ट देने वाली तपस्या दोनों को ही त्याग दिया और मध्यम मार्ग अपनाया.
आज के मनुष्य का शरीर, उसकी इन्द्रियां, शरीर की जरूरतें और मन की उथल पुथल वैसी ही है जैसे बुद्ध के समय में या उनसे भी पहले थी. मन में लगाव, राग, द्वेष, इर्ष्या, भय, लालच, आसक्ति, गुस्सा, पश्चाताप और प्रतिशोध की भावनाएं वैसी ही हैं जो पहले भी थीं. आज भी मन की इच्छा न पूरी होने पर हम दुखी होते हैं, आज भी अनहोनी की सोच से भय लगता है और आज भी अपनों से बिछड़ने में दुःख घेर लेता है. सब कुछ ठीक चल रहा हो तो अचानक नई समस्या बिन बुलाए आन खड़ी हो जाती है. और कुछ नहीं तो दांत गिरने लगते हैं, सफ़ेद बाल निकल आते हैं या प्रमोशन ना होने से ब्लड प्रेशर का शिकार हो जाते हैं.
और ये समस्याएँ केवल मेरी या आपकी नहीं हैं बल्कि हर एक की हैं. हर कोई इन्हीं में उलझा हुआ है. और इन समस्याओं के आने का कारण कोई ख़ास उम्र, या ख़ास स्थान या ख़ास घटना या ख़ास व्यक्ति नहीं है बल्कि ये एक लगातार चलने वाली प्रक्रिया है. अंतर्मन की ये प्रक्रिया ख़त्म होने का नाम ही नहीं लेती. एक के बाद एक उलझनें मन में जमा होती जाती हैं और परेशान करती हैं. ऐसा लगता है कि दुःख की घड़ियाँ लम्बी हैं और सुख किश्तों में आकर फुर्र हो जाता है.
सारनाथ, बनारस में दिए पहले उपदेश में गौतम बुद्ध ने चार आर्य सत्य बताए:
- जीवन में दुःख है,
- दुःख का कारण है,
- दुःख का अंत है और
- दुःख के अंत करने का मार्ग है.
ये चार आर्य सत्य - Four Noble Truths, बौद्ध दर्शन के आधारभूत अंग हैं. मज्झिम निकाय में सारिपुत्त सुत्त में कहा गया है कि इन्हीं चार आर्य सत्य के अनुभव पर सारा बौद्ध दर्शन ऐसे स्थित है जैसे हाथी के पाँव में सबका पाँव. इन चार आर्य सत्यों को पाली भाषा में 'चत्तारी अरियसच्चानी' और संस्कृत में 'चत्वारी आर्यसत्यानी' कहा गया है.
दुःख दैहिक, दैविक या भौतिक हो सकता है मतलब कि शारीरिक, मानसिक या फिर प्राकृतिक घटनाओं से दुःख उत्पन्न हो जाता है. गौतम बुद्ध ने इसे और आगे परिभाषित इस तरह से किया:
दुःख: जन्म भी दुःख है, शरीर का ढलना भी दुःख है और मरण भी दुःख है. अप्रिय लोगों के साथ रहने में दुःख है और प्रियजनों से बिछड़ना दुःख है. व्यसनों से दूर ना रह पाना और इच्छित वस्तु का ना मिलना भी दुःख है.
इंग्लिश के अनुवादों में दुःख को Stress, Suffering, unsatisfactoriness आदि लिखा गया है.
दुःख का कारण: दुःख का कारण है तृष्णा ( या चाहत या राग या आसक्ति या Craving ). पाली भाषा में तृष्णा को तण्हा कहा जाता है. इस तृष्णा को आगे विस्तार से गौतम बुद्ध कैसे बताते हैं देखें:
काम तृष्णा - मैं स्वयं हर अच्छी वस्तु का उपभोग करूँ और बारम्बार करूँ, मैं और मेरे विचार सबसे अच्छे हैं, मेरे जैसा और मेरे परिवार जैसा कोई परिवार है ही नहीं, मैं जो काम करता हूँ बेजोड़ करता हूँ, मेरे से लोग सलाह लेने आते हैं इत्यादि जैसे तृष्णा के विचार रखना जो अंत में दुःख देते हैं. ये है - craving for sensuality.
भव तृष्णा - मैं हूँ और मैं सदा बना रहूँ. मेरी Existance / becoming मेरा वजूद है और सदा ही बना रहे. मेरी उम्र लम्बी हो और मेरे मर जाने के बाद ( मरना तो नहीं चाहता पर क्यूंकि मरना प्राकृतिक नियम है क्या करूँ? ) स्वर्ग में जाऊँ. धरती पर मैं नहीं रहा तो क्या मेरा नाम तो रहेगा. मुझे लोग जन्मों तक याद करेंगे.
ये सारे विचार स्वयं के 'भव' से चिपकाव वाले हैं जो अंततः दुःख ही देते हैं. सच तो यह है स्वर्ग किसी ने नहीं देखा है और मरने के बाद क्या होता है वो भी किसी को पता नहीं. परन्तु स्वयं को बनाए रखने के लिए तो तृष्णा के सब्ज़ बाग़ दिख रहे हैं. ये है - craving for becoming.
विभव तृष्णा - मेरे आसपास सब बेकार है, ये संसार बेकार है और इससे उच्छेद (या अलगाव ) होना चाहिए. ये है - craving for non-becoming.
दुःख का अंत: अगर तृष्णा निरुद्ध हो जाए, सर्वथा त्याग दी जाए या तृष्णा से मुक्ति हो जाए तो दुःख भी समाप्त हो जाएगा.
दुःख के अंत करने का मार्ग: यह अष्टांगिक मार्ग कहलाता है और इसके आठ अंग हैं -
1. सम्यक दृष्टि - जो व्यक्ति, वस्तु या जगह जैसी है वो वैसी ही देखना. उनके गुणों और स्वभाव को उसी तरह देखना जैसे वे हैं. अपनी ओर से ना घटाना ना बढ़ाना.
2. सम्यक संकल्प - आसपास के संसार की वास्तविकता देखकर अनासक्ति का संकल्प लेकर चलना.
3. सम्यक वचन - झूठ, चुगली, गाली और कड़वे वचनों का त्याग करना और सच को अपनाना.
4. सम्यक कर्म - हिंसा, हत्या और चोरी ना करना. नशे, जुए और व्यभिचार से दूर रहना.
5. सम्यक आजीविका - गैर कानूनी, धोखा धड़ी वाले काम ना करना. ऐसा धंधा करना जिससे समाज का कल्याण हो.
6. सम्यक व्यायाम - बुराइयों को हटाना और अच्छे विचार रखने का यत्न करना. मन, वाणी और शरीर को प्रबल रखना.
7. सम्यक स्मृति - वर्तमान में रहना और जीना और वर्तमान की सच्चाई समझना.
8. सम्यक समाधि - मन को स्वच्छ बनाए रखना. लोभ, मोह, क्षोभ से दूर समता बनाए रखना.
इस मार्ग को दुःख निरोध गामिनी प्रतिपदा आर्य सत्य कहते हैं.
यहाँ सम्यक शब्द का अर्थ है - समभाव, समता, उचित, उपयुक्त, ना इस छोर पर ना ही उस छोर पर बल्कि मध्य में, Balanced / Equinimous.
ये विषय तो बड़ा है और जटिल है पर ये लेख बहुत ही संक्षिप्त और सरलीकृत है. लेकिन यहाँ यह कहना जरूरी है की इन चार सत्यों को यूँ ही ना मान लिया जाए बल्कि स्वयं के अनुभव और अनुभूति के आधार पर ही माना जाए और उन्हीं अनुभूतियों पर स्वयं से जुड़ी बातों, चाहतों और घटनाओं का विश्लेषण भी किया जाए.
मानसिक तनाव का कारण छोटी बड़ी बातों में, व्यक्तियों में, स्थान में या फिर घटनाओं में छुपा हुआ हो सकता है. मसलन - मुझे कैसे घूर रहा था! बड़ी सुंदर जगह है ये! मेरी पोस्टिंग परेशान करने के लिए की है मुझे पता है! अरे ये टायर तो पंचर हो गया! अब अगर टायर पंचर हो गया तो मैं लेट हो जाऊँगा, मेरी बेज्ज़ती हो जाएगी, मैं हमेशा समय से पहुँचाने वाला और अब मेरी इमेज खराब हो जाएगी आज मैं ऑफिस जाता ही नहीं. इस छोटी सी बात के बारीक बारीक तार भी मैं और मेरी भव तृष्णा से जुड़े हैं! अगर हम रोज़ अपने कार्य कलापों का विश्लेषण करते रहें तो पाएंगे कि वाकई इन कार्यों के पीछे तृष्णा हमें दौड़ा रही है.
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