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Thursday, 29 March 2018

बुद्ध का मार्ग - संवेदना

संवेदना 

गौतम बुद्ध ने कहा कि जैसे आकाश में तरह तरह की हवाएं लगातार चलती रहती हैं, कभी पुरवैय्या, कभी पछुआ, कभी उत्तर से, कभी दक्खिन से, कोई धूल वाली कोई बिना धूल की, कभी ठंडी तो कभी गरम, कहीं से मंद मंद और कहीं से तेज़, ठीक उसी प्रकार शरीर में भी तरह तरह की संवेदनाएं आती जाती रहती हैं. ये संवेदनाएं एक जैसी ना होकर हवाओं की तरह अलग अलग होती हैं. कुछ संवेदनाएं सुखद लगती हैं, कुछ दुखद और कुछ असुखद-अदुखद याने feeling of gladness, sadness or indifference. और जीवन भर ऐसा लगातार ही होता रहता है.

गौतम बुद्ध ने संयुक्त निकाय के 'अठ्ठसत परियाय वर्ग' में विस्तार से इस विषय पर चर्चा की है. उन्होंने 108 तरह की वेदनाएं बताई हैं.
- भिक्खुओ दो वेदनाएं कौन सी हैं?
- ये दो वेदनाएं हैं शारीरिक वेदना और मानसिक वेदना / bodily & mental feelings.
शारीरिक वेदना चोट लगने से, उल्टा पुल्टा खा लेने से या फिर जरूरत से ज्यादा काम करने से हो सकती है. साथ ही मौसम बदलने से भी शरीर में संवेदना हो सकती है.
मानसिक वेदना कुछ काम अधूरा छोड़ देने से या फिर पूरा कर देने इत्यादि से वेदना जाग सकती है.

- भिक्खुओ तीन वेदनाएं कौन सी हैं?
- ये तीन वेदनाएं हैं - सुखद वेदना, दुखद वेदना और अदुख-असुख वेदना

- भिक्खुओ पांच वेदनाएं कौन सी हैं?
- ये पांच वेदनाएं इस प्रकार हैं - 1. सुखेंद्रिय वेदना , 2. दुखेंद्रिय वेदना, 3. सौमनस्येंद्रिय वेदना, 4. दौर्मनस्येंद्रिय वेदना और 5. उपेक्षेन्द्रिय वेदना ( feeling of pleasure, pain, gladness, sadness & equinimity ).
पहली दो शरीर से और बाकी तीन मन से सम्बंधित हैं.

- भिक्खुओ छे वेदनाएं कौन सी हैं?
- ये छे वेदनाएं इस प्रकार हैं - 1. आँख के स्पर्श से पैदा हुई वेदना, 2. कान के स्पर्श से उपजी वेदना, 3. नाक के स्पर्श के कारण बनी वेदना, 4. जीभ के स्पर्श से बनी वेदना, 5. काया के संपर्क से उपजी वेदना और 6. मन के स्पर्श से बनी वेदना ( feelings born of sense-impression through eyes, ears, nose, tongue, body & mind ).

- भिक्खुओ अट्ठारह वेदना कौन सी हैं?
- अगर छे इन्द्रियों की सहायता से सौमनस्य ( सुखी मन से ) विचार करें तो छे, अगर छे इन्द्रियों की सहायता से दौर्मनस्य ( दुखी मन से ) विचार करें तो छे और छे इन्द्रियों के माध्यम से उपेक्षा जैसी वेदना से विचार करें तो छे याने कुल अट्ठारह वेदनाएं हैं.

- भिक्खुओ छत्तीस वेदनाएं कौन सी हैं?
- ये वेदनाएं दो भागों में हैं - 18 गृहसम्बन्धी और 18 गृहत्याग ( नैष्कर्म ) सम्बन्धी -
छे गृहसम्बन्धी सौमनस्य वेदनाएं, छे गृहसम्बन्धी दौर्मनस्य वेदनाएं और छे गृहसम्बन्धी उपेक्षा वेदनाएं, छे नैष्कर्म सम्बन्धी सौमनस्य वेदनाएं, छे नैष्कर्म सम्बन्धी दौर्मनस्य वेदनाएं और छे नैष्कर्म सम्बन्धी उपेक्षा / neutral वेदनाएं. कुल 36 वेदनाएं.

- भिक्खुओ 108 वेदनाएं कौन सी हैं?
- छत्तीस वेदनाएं अतीत की हैं, छत्तीस वेदनाएं वर्तमान की हैं और छत्तीस वेदनाएं भविष्य की हैं. इस तरह कुल 108 वेदनाएं हैं.
इसीलिए इस सुत्त का नाम अठ्ठसत सुत्त / अष्टशत सूत्र है.

वेदना का उदय मन और आँख, कान, नाक, जीभ और शरीर के स्पर्श / संपर्क से होता है. स्पर्श निरुद्ध हो जाए तो वेदना भी निरुद्ध हो जाएगी.
वेदना का गुण है कि इसके कारण सुख-सौमनस्य या दुःख-दौर्मनस्य की संवेदनाएं उत्पन्न होती हैं. वेदना का दोष है कि यह सदा नहीं रहती और परिवर्तनशील है.
वेदना का तृष्णा से जुड़ जाना स्वाभाविक है पर दुःख का कारण है.

गौतम बुद्ध ने आगे 'पठम समणब्राह्मण सुत्त में कहा है कि जो भिक्खु वेदना के गुण, दोष, वेदना का उदय होना, अस्त होना और निरुद्ध होना नहीं जानते वे श्रमण या ब्राह्मण सच में अपने नाम के अधिकारी नहीं हैं.

वेदना सम्बन्धी जानकारी आगे मैडिटेशन सीखने में बहुत सहायता करेगी.

 ये सौन्दर्य भी संवेदनशील है 



Sunday, 25 March 2018

बुद्ध का मार्ग - पांच तरह के भार

पांच तरह के भार 

गौतम बुद्ध ने जीवन को दुःख भरा बताया और कहा की इसका मूल कारण तृष्णा है. ये तृष्णा याने आसक्ति या चाहत या craving जुड़ी है स्वयं से, स्वयं की काया से, स्वयं के विचारों से और स्वयं की भीतरी दुनिया से. स्वयं सुख भोगने की इच्छा, बारम्बार आनंद भोगने की इच्छा आसानी से छूटती नहीं है. मन से सदा जीवित रहने की इच्छा जाती नहीं हालांकि ये सभी इच्छाएँ आखिर में दुःख ही देती हैं. गौतम बुद्ध ने इस विषय को बहुत महत्व दिया है और उस पर अपने प्रवचनों में कई बार अलग अलग तरीके से विस्तार से बताया है. तृष्णा, शारीरिक और मानसिक दशाओं के विश्लेषण के लिए गौतम बुद्ध ने 'स्कन्ध' का जिकर किया है. स्कन्ध का शाब्दिक अर्थ है खंड, कन्धा, स्तम्भ, या pillar. इनको समझ लेने से बौद्ध दर्शन को आगे समझने में सहायता मिलेगी. धम्म के उपदेशों में बताए गए पंचखंड या पांच स्कन्ध - five aggregates /  five constituents इस प्रकार हैं:

रूप स्कन्ध - पृथ्वी, जल, अग्नि और वायु चार महाभूत हैं और इनके संयोग से बना है - रूप / form / material.  इन चारों महाभूतों के गुणों और इनके कार्यों को रूप स्कन्ध कहते हैं.     
रूप के कारण जो हमें सुख और आराम मिलता है वह रूप का गुण है. ऐसे गुणों से हम चिपके रहना चाहते हैं और ना मिलें तो परेशान हो जाते हैं.
रूप का अस्थाई होना और परिवर्तनशील होना रूप का दोष है. ये दोष दुःख का कारण है. इन दोषों से हम दूर रहना चाहते हैं और दूर ना हो पाने पर दुखी होते हैं.
रूप अतीत, वर्तमान और भविष्य, अंदर या बाहर, सूक्ष्म और स्थूल है, दूर है और नज़दीक है.
रूप पर किसका प्रभाव पड़ता है? रूप पर धूप, बारिश, भूख, प्यास, मक्खी, मच्छर इत्यादि का प्रभाव पड़ता है.

वेदना स्कन्ध - सुख या दुःख जैसी संवेदनाओं /अनुभवों - pleasant & unpleasant sensations / feelings को वेदना स्कन्ध कहते हैं.
वेदना स्कन्ध की जानकारी कैसे होती है? संपर्क से. संपर्क किससे? आँखों से देखकर, कान से सुनकर, नाक से सूंघ कर, जीभ से स्वाद लेकर, त्वचा के स्पर्श से या मन के किसी विचार से.
वेदनाएं तीन प्रकार की हैं - सुखद वेदना, दुःखद वेदना और असुखद-अदुःखद / neutral महसूस होने वाली वेदना.
वेदना भी अतीत, वर्तमान और भविष्य, मन या शरीर पर, सूक्ष्म और स्थूल, दूर और नज़दीक है.

संज्ञा स्कन्ध - लाल, पीला, छोटा, बड़ा जैसा ज्ञान - abstract ideas / perceptions को संज्ञा स्कन्ध कहते हैं.
संज्ञा का भी अतीत, वर्तमान और भविष्य है, ये सूक्ष्म और स्थूल है, दूर और नजदीक है.

संस्कार स्कन्ध - पाप, पुण्य, बुरा, भला, स्वर्ग, नर्क आदि भावनाओं या धारणाओं - fabrications of mind / tendencies of mind को संस्कार स्कंध कहते हैं.

विज्ञान स्कन्ध - नियमों को समझना और जानना विज्ञान स्कन्ध है. पाली भाषा में विज्ञान को 'विन्नान' और इंग्लिश में mental power / cognition / consciousness कहा गया है.

रूप स्कन्ध धरती, जल, वायु और अग्नि जैसे गुणों का भौतिक पुंज है और अन्य चार मानसिक पुंज हैं या 'नाम' हैं. दोनों मिल कर नाम-रूप कहलाते हैं.

जैसे पहिये, धुरा, नेमी के समूह को जोड़ कर रथ की जानकारी होती है वैसे ही इन पांच स्कन्धों को मेल कर कोई जीव या person जाना जाता है. इन्हीं स्कन्धों से हम बने हैं, इन स्कन्धों की वजह से हम चैतन्य हैं और इन्हीं स्कन्धों की सहायता से दुनिया से रूबरू होते हैं. इन पांच स्कन्धों से ही मोह या आसक्ति या उपादान होता है इसलिए इन्हें पांच उपादान-स्कन्ध कहा जाता है.

इन पांच उपादान-स्कन्ध के मूल या जड़ में है अपनी इच्छा / तम्मना या craving. मन में कई बार ऐसा आता है की आगे चलकर मैं ऐसे रूप वाला बनूँगा / ऐसी वेदना वाला बनूँगा / ऐसी संज्ञा वाला हो जाऊँगा / फलां तरह के संस्कार धारण कर लूँगा / फलां तरह का विज्ञान अपना लूँगा. या फिर ऐसा नहीं होने दूंगा. यही तृष्णा का खेल है.

इन पांच उपादान-स्कन्ध से अलग कोई स्वतंत्र पदार्थ नहीं है,  इन स्कन्धों से अलग आत्मा भी प्रत्यक्ष नहीं है और अनुमान भी नहीं लगाया जा सकता है.

ये पाँचों स्कन्ध परिवर्तनशील - changing phenomena हैं और अस्थाई हैं. इसलिए  इन पांच स्कन्धों से मोह करना और इन पांच स्कन्धों वाले जीव से लगाव लगाना दुःख का कारण है.

श्रावस्ती में दिए उपदेश ( संयुक्त निकाय > भार सुत्त ) में गौतम बुद्ध ने कहा की इन पांच उपादान-स्कन्धों को मानव के ऊपर भार ही कहना चाहिए. जो लोग काम-तृष्णा, भव-तृष्णा और विभव-तृष्णा से जुड़े हैं वे लोग भार ही उठा रहे हैं और दुखी हो रहे हैं. जिन्होंने तृष्णा को निरुद्ध कर दिया, त्याग दिया या उससे मुक्ति पा ली है तो समझो उन्होंने भार उतार कर फेंक दिया.

ये पांच स्कन्ध भार हैं और पुरुष भारहार ( भार वाहक )है,
भार का उठाना लोक में दुःख है, भार का उतार देना सुख है!

जो भार के बोझे को उतार, दूसरा भार फिर नहीं लेता है,
वो तृष्णा को जड़ से उखाड़, दुखमुक्त निर्वाण पा लेता है!

बढ़ते रहो 



Saturday, 24 March 2018

शुक्रताल

शुक्रताल एक प्राचीन तीर्थ स्थल है जिसे शुकतीर्थ, शुक्रतीर्थ, शुकदेव पुरी और शुकतार नाम से भी संबोधित किया जाता रहा है. यह स्थान मुज़फ्फर नगर, उत्तर प्रदेश में है. दिल्ली-हरिद्वार राष्ट्रीय राजमार्ग NH-58 से लगभग 23 किमी अंदर की ओर है. गंगा किनारे बसी इस छोटी सी तीर्थ नगरी में 100 से ज्यादा छोटे बड़े मन्दिर हैं. और लगभग इतनी ही धर्मशालाएं भी होंगी. यहाँ से हरिद्वार, हस्तिनापुर और परिक्षित गढ़ लगभग 50 किमी के दायरे में हैं.  

इस ऐतिहासिक नगर से जुड़ी एक कथा प्रचलित है जो संक्षेप में इस तरह है कि राजा परिक्षित जो कि अभिमन्यु और उत्तरा के पुत्र थे, शिकार करते हुए भटक गए. भूख प्यास से व्याकुल भटक रहे थे कि एक टीले पर बैठे संत शमिक दिखाई पड़े. राजा ने नमस्कार कर ऋषि शमिक से पानी माँगा पर कोई जवाब न मिला. बार बार माँगने पर भी कोई उत्तर ना मिला तो राजा क्रोधित हो गए. गुस्से में उन्होंने एक मरा हुआ साँप उठा कर ऋषि के गले में डाल दिया. यह बात ऋषि शमिक के पुत्र ऋंगी तक पहुंची तो उन्होंने राजा परीक्षित को श्राप दे दिया कि सातवें दिन साँप के डसने से उनकी जीवन लीला समाप्त हो जाएगी. 

राजा परीक्षित को सूचना मिलते ही उन्होंने राजपाट अपने बेटे जन्मेजय को सौंप दिया और जंगल की ओर प्रस्थान कर दिया. यहाँ शुक्रताल के निकट उनकी भेंट ऋषि शुकदेव से हुई. राजा ने ऋषिवर से जीवन मरण सम्बन्धी अनेक प्रश्न पूछे जिनमें से दो प्रमुख थे :
- जो मनुष्य सर्वथा मृत्यु के निकट हैं उसे क्या करना चाहिए ?
- मनुष्य मात्र को क्या करना चाहिये, किसका श्रवण, किसका जप, किसका स्मरण तथा किसका भजन करे व किसका त्याग करे जिससे मोक्ष की प्राप्ति हो?

उत्तर में ऋषि शुकदेव ने सात दिनों तक श्रीमद् भागवत पुराण सुनाकर राजा के प्रश्नों का उत्तर दिया और काल से भयमुक्त कर दिया. ऋषि ने कहा:
- हे राजन,
- मनुष्य सर्वथा निडर होकर वैराग्य रुपी शस्त्र से शरीर, स्त्री, पुत्र, धन के मोह को काट फेंके,
- धैर्य के साथ निर्जन और पवित्र स्थान पर बैठ ॐ का जाप करे,
- प्राणायाम से मन वश में करे,
- बुद्धि द्वारा विषयों को दूर करे और
- कर्म कल्याणकारी रूप में लगाए.
राजा परीक्षित ने नियमों का पालन करते हुए तप किया और मोक्ष को प्राप्त हुए. 

श्रीमद् भागवत पुराण में 12 स्कन्ध, 335 अध्याय और 18000 श्लोक हैं. सभी स्कंधों में विष्णु अवतारों का वर्णन है इसलिए वैष्णवी सम्प्रदाय का एक प्रमुख ग्रन्थ है. इसके लिखने के समय पर इतिहासकारों में काफी मतभेद है. शायद यह ग्रंथ 1300 ईसा पूर्व से लेकर 200 ईसा पूर्व के बीच कभी लिखा गया होगा.
शुकदेव मंदिर परिसर का विशालकाय बरगद भी उसी समय का माना जाता है.
शुक्रताल में श्रीमद्भागवत पुराण पर आधारित भागवत कथाएँ विभिन्न भाषाओं में पूरे साल ही चलती रहती हैं.
कुछ फोटो :

मूर्तिकार केशवराम द्वारा निर्मित मूर्ति की उंचाई चरणों से मुकुट तक 42 फीट 3 इंच है. इसे बनाने में एक वर्ष लगा. प्राण-प्रतिष्ठा समारोह 6 अप्रैल 1989 को संपन्न हुआ 

प्राचीन वट-वृक्ष पूरे शुकदेव मंदिर परिसर पर छाया हुआ है 

वट वृक्ष के नीचे मंदिर 

शुकदेव मुनि की काले पत्थर में मूर्ति और दाहिनी और हैं उनके शिष्य चरणदास, अलवर वाले 

संस्कृत विद्यालय का एक छात्र 
                 
संस्कृत विद्यालय का एक छात्र 








बरगद की ठंडी छाँव में दोपहर

साधू संतों का डेरा 

शिव मन्दिर 

हिंदी के अलावा कई भाषाओं में भागवत प्रवचन चलते रहते हैं 

बाज़ार का एक दृश्य 

नगर का एक दृश्य 

शांत बहती गंगा 

हनुमद्धाम में स्थापित मूर्ति. चरणों से लेकर मुकुट तक की उंचाई 65 फीट 10 इंच की है और सतह से 77 फीट. मूर्तिकार हैं केशवराम, जिला शाहडोल, मध्य प्रदेश. मूर्ति का शिलान्यास 26 मई 1986 को हुआ और 27 मई 1987 को प्राण-प्रतिष्ठा समारोह मनाया गया 

दिल्ली से मेरठ बाइपास और मुज़फ्फरनगर बाईपास होते हुए शुक्रताल लगभग 125 किमी की दूरी पर है  


Wednesday, 21 March 2018

बुद्ध का मार्ग - दुःख

दुःख 

राजकुमार सिद्धार्थ गौतम 21 वर्ष की आयु में महलों का विलासिता पूर्ण जीवन छोड़ जंगल की और निकल गए. सात वर्षों तक उस समय के हर तरह के साधू संतों से मिले. उस समय की प्रचलित सभी 62 दार्शनिक विचार धाराओं का अध्ययन किया और उन विचारों पर अमल किया. पर फिर संतुष्ट नहीं हुए आगे बढ़ गए. सात साल की लम्बी और कठिन तपस्या से शरीर सूख कर काँटा हो गया पर खोज नहीं छोड़ी. अंत में एक छोर की भरपूर विलासिता और दूसरे छोर की शरीर को कष्ट देने वाली तपस्या दोनों को ही त्याग दिया और मध्यम मार्ग अपनाया.

आज के मनुष्य का शरीर, उसकी इन्द्रियां, शरीर की जरूरतें और मन की उथल पुथल वैसी ही है जैसे बुद्ध के समय में या उनसे भी पहले थी. मन में लगाव, राग, द्वेष, इर्ष्या, भय, लालच, आसक्ति, गुस्सा, पश्चाताप और प्रतिशोध की भावनाएं वैसी ही हैं जो पहले भी थीं. आज भी मन की इच्छा न पूरी होने पर हम दुखी होते हैं, आज भी अनहोनी की सोच से भय लगता है और आज भी अपनों से बिछड़ने में दुःख घेर लेता है. सब कुछ ठीक चल रहा हो तो अचानक नई समस्या बिन बुलाए आन खड़ी हो जाती है. और कुछ नहीं तो दांत गिरने लगते हैं, सफ़ेद बाल निकल आते हैं या प्रमोशन ना होने से ब्लड प्रेशर का शिकार हो जाते हैं.

और ये समस्याएँ केवल मेरी या आपकी नहीं हैं बल्कि हर एक की हैं. हर कोई इन्हीं में उलझा हुआ है. और इन समस्याओं के आने का कारण कोई ख़ास उम्र, या ख़ास स्थान या ख़ास घटना या ख़ास व्यक्ति नहीं है बल्कि ये एक लगातार चलने वाली प्रक्रिया है. अंतर्मन की ये प्रक्रिया ख़त्म होने का नाम ही नहीं लेती. एक के बाद एक उलझनें मन में जमा होती जाती हैं और परेशान करती हैं. ऐसा लगता है कि दुःख की घड़ियाँ लम्बी हैं और सुख किश्तों में आकर फुर्र हो जाता है.

सारनाथ, बनारस में दिए पहले उपदेश में गौतम बुद्ध ने चार आर्य सत्य बताए:
- जीवन में दुःख है,
- दुःख का कारण है,
- दुःख का अंत है और
- दुःख के अंत करने का मार्ग है.

ये चार आर्य सत्य - Four Noble Truths, बौद्ध दर्शन के आधारभूत अंग हैं. मज्झिम निकाय में सारिपुत्त सुत्त में कहा गया है कि इन्हीं चार आर्य सत्य के अनुभव पर सारा बौद्ध दर्शन ऐसे स्थित है जैसे हाथी के पाँव में सबका पाँव. इन चार आर्य सत्यों को पाली भाषा में 'चत्तारी अरियसच्चानी' और संस्कृत में 'चत्वारी आर्यसत्यानी' कहा गया है.
दुःख दैहिक, दैविक या भौतिक हो सकता है मतलब कि शारीरिक, मानसिक या फिर प्राकृतिक घटनाओं से दुःख उत्पन्न हो जाता है. गौतम बुद्ध ने इसे और आगे परिभाषित इस तरह से किया:

दुःख: जन्म भी दुःख है, शरीर का ढलना भी दुःख है और मरण भी दुःख है. अप्रिय लोगों के साथ रहने में दुःख है और प्रियजनों से बिछड़ना दुःख है. व्यसनों से दूर ना रह पाना और इच्छित वस्तु का ना मिलना भी दुःख है.
इंग्लिश के अनुवादों में दुःख को Stress, Suffering, unsatisfactoriness आदि लिखा गया है.

दुःख का कारण: दुःख का कारण है तृष्णा ( या चाहत या राग या आसक्ति या Craving ). पाली भाषा में तृष्णा को तण्हा कहा जाता है. इस तृष्णा को आगे विस्तार से गौतम बुद्ध कैसे बताते हैं देखें:

काम तृष्णा - मैं स्वयं हर अच्छी वस्तु का उपभोग करूँ और बारम्बार करूँ, मैं और मेरे विचार सबसे अच्छे हैं, मेरे जैसा और मेरे परिवार जैसा कोई परिवार है ही नहीं, मैं जो काम करता हूँ बेजोड़ करता हूँ, मेरे से लोग सलाह लेने आते हैं इत्यादि जैसे तृष्णा के विचार रखना जो अंत में दुःख देते हैं. ये है - craving for sensuality.

भव तृष्णा - मैं हूँ और मैं सदा बना रहूँ. मेरी Existance / becoming मेरा वजूद है और सदा ही बना रहे. मेरी उम्र लम्बी हो और मेरे मर जाने के बाद ( मरना तो नहीं चाहता पर क्यूंकि मरना प्राकृतिक नियम है क्या करूँ? ) स्वर्ग में जाऊँ. धरती पर मैं नहीं रहा तो क्या मेरा नाम तो रहेगा. मुझे लोग जन्मों तक याद करेंगे.
ये सारे विचार स्वयं के 'भव' से चिपकाव वाले हैं जो अंततः दुःख ही देते हैं. सच तो यह है स्वर्ग किसी ने नहीं देखा है और मरने के बाद क्या होता है वो भी किसी को पता नहीं. परन्तु स्वयं को बनाए रखने के लिए तो तृष्णा के सब्ज़ बाग़ दिख रहे हैं. ये है - craving for becoming.

विभव तृष्णा - मेरे आसपास सब बेकार है, ये संसार बेकार है और इससे उच्छेद (या अलगाव ) होना चाहिए. ये है - craving for non-becoming.

दुःख का अंत: अगर तृष्णा निरुद्ध हो जाए, सर्वथा त्याग दी जाए या तृष्णा से मुक्ति हो जाए तो दुःख भी समाप्त हो जाएगा.

दुःख के अंत करने का मार्ग: यह अष्टांगिक मार्ग कहलाता है और इसके आठ अंग हैं -
1. सम्यक दृष्टि - जो व्यक्ति, वस्तु या जगह जैसी है वो वैसी ही देखना. उनके गुणों और स्वभाव को उसी तरह देखना जैसे वे हैं. अपनी ओर से ना घटाना ना बढ़ाना.
2. सम्यक संकल्प - आसपास के संसार की वास्तविकता देखकर अनासक्ति का संकल्प लेकर चलना.
3. सम्यक वचन - झूठ, चुगली, गाली और कड़वे वचनों का त्याग करना और सच को अपनाना.
4. सम्यक कर्म - हिंसा, हत्या और चोरी ना करना. नशे, जुए और व्यभिचार से दूर रहना.
5. सम्यक आजीविका - गैर कानूनी, धोखा धड़ी वाले काम ना करना. ऐसा धंधा करना जिससे समाज का कल्याण हो.
6. सम्यक व्यायाम - बुराइयों को हटाना और अच्छे विचार रखने का यत्न करना. मन, वाणी और शरीर को प्रबल रखना.
7. सम्यक स्मृति - वर्तमान में रहना और जीना और वर्तमान की सच्चाई समझना.
8. सम्यक समाधि - मन को स्वच्छ बनाए रखना. लोभ, मोह, क्षोभ से दूर समता बनाए रखना.
इस मार्ग को दुःख निरोध गामिनी प्रतिपदा आर्य सत्य कहते हैं.

यहाँ सम्यक शब्द का अर्थ है - समभाव, समता, उचित, उपयुक्त, ना इस छोर पर ना ही उस छोर पर बल्कि मध्य में, Balanced / Equinimous.

ये विषय तो बड़ा है और जटिल है पर ये लेख बहुत ही संक्षिप्त और सरलीकृत है. लेकिन यहाँ यह कहना जरूरी है की इन चार सत्यों को यूँ ही ना मान लिया जाए बल्कि स्वयं के अनुभव और अनुभूति के आधार पर ही माना जाए और उन्हीं अनुभूतियों पर स्वयं से जुड़ी बातों, चाहतों और घटनाओं का विश्लेषण भी किया जाए.

मानसिक तनाव का कारण छोटी बड़ी बातों में, व्यक्तियों में, स्थान में या फिर घटनाओं में छुपा हुआ हो सकता है. मसलन - मुझे कैसे घूर रहा था! बड़ी सुंदर जगह है ये! मेरी पोस्टिंग परेशान करने के लिए की है मुझे पता है! अरे ये टायर तो पंचर हो गया! अब अगर टायर पंचर हो गया तो मैं लेट हो जाऊँगा, मेरी बेज्ज़ती हो जाएगी, मैं हमेशा समय से पहुँचाने वाला और अब मेरी इमेज खराब हो जाएगी आज मैं ऑफिस जाता ही नहीं. इस छोटी सी बात के बारीक बारीक तार भी मैं और मेरी भव तृष्णा से जुड़े हैं! अगर हम रोज़ अपने कार्य कलापों का विश्लेषण करते रहें तो पाएंगे कि वाकई इन कार्यों के पीछे तृष्णा हमें दौड़ा रही है.           

सही रास्ते की खोज 

            

Sunday, 18 March 2018

बुद्ध का मार्ग - धम्म

धम्म 

सिद्धार्थ गौतम का जन्म ईसापूर्व 563 में लुम्बिनि, नेपाल में हुआ था. कपिलवस्तु राज्य में शाक्य वंश का राज्य था इसलिए सिद्धार्थ गौतम शाक्यमुनि भी कहलाते हैं. सिद्धार्थ को बचपन में राजकुमारों जैसी शिक्षा और अस्त्र-शस्त्र का ज्ञान दिया गया. राजकुमार की शादी 18 वर्ष की आयु में एक स्वयंवर में यशोधरा से हुई जो 16 वर्ष की थी. कपिलवस्तु के राजा शुद्धोधन ने पुत्र सिद्धार्थ के लिए तीन महल बनवा दिए थे एक सर्दी के लिए, दूसरा गर्मी के लिए और तीसरा वर्षा ऋतु के लिए. स्वस्थ, सुंदर और नौजवान दास दासियाँ उनकी सेवा में रहती थीं. 21 वर्ष की आयु में पुत्र राहुल का जन्म हुआ. राजकुमार सिद्धार्थ गौतम भरपूर विलासिता में रह रहे थे पर उन पर चार घटनाओं का गहरा असर पड़ा. 

एक दिन महल से बाहर राजकुमार सिद्धार्थ घूमने निकले तो उन्हें पहली बार एक बूढ़ा व्यक्ति दिखाई पड़ा. उसके दांत नहीं थे, चेहरे पर झुर्रियां पड़ी हुई थी और वो लाठी लेकर चल रहा था. उन्हें लगा कि क्या मैं भी ऐसा ही हो जाऊँगा?

दूसरी बार राजकुमार ने एक रोगी देखा. चेहरा पीला पड़ा हुआ, साँस मुश्किल से आ रही थी और चला भी नहीं जा रहा था. राजकुमार सिद्धार्थ ने सोचा क्या ऐसा सभी के साथ होता है? ऐसा क्यूँ होता है?


तीसरी बार राजकुमार ने एक अर्थी देखी जिसके पीछे पीछे परिजन रोते बिलखते जा रहे थे. राजकुमार सोच में पड़ गए कि क्या राजा और रंक सभी मर जाते हैं? चारों ओर दुःख फैला हुआ है? 


चौथी बार महल से बाहर निकले तो कमंडल लिए हुए एक प्रसन्न साधु देखा. उनके मन में विचार आया कि इस साधु की तरह से स्वतंत्र रहना कितना अच्छा है!


बाईस वर्ष की अवस्था में उन्होंने महल का विलासिता पूर्ण जीवन त्याग कर संन्यास ले लिया और जंगल की और प्रस्थान कर दिया. 

समकालीन धर्म 

उस समय आत्मा, परमात्मा, साकार, निराकार, लोक और परलोक हैं या नहीं हैं इस पर लगभग बासठ दार्शनिक विचार धाराएं साथ साथ ही चल रहीं थीं. इनमें से प्रमुख हैं:

* न्याय दर्शन जिसमें परमात्मा को सर्वव्यापी और निराकार कहा गया है. प्रकृति को अचेतन और आत्मा को शरीर से अलग कहा गया है. यह दर्शन महर्षि गौतम द्वारा रचित है.

* वैशेषिक दर्शन में वेदों को ईश्वर का वचन माना गया है. मनुष्य के कल्याण और उन्नति के लिए धर्म पर चलना आवश्यक बताया गया है. महर्षि कणाद के अनुसार जीव और ब्रह्म अलग अलग हैं और एक नहीं हो सकते.

* सांख्य दर्शन महर्षि कपिल द्वारा रचित है. इसमें कहा गया है कि प्रकृति अचेतन और शाश्वत है पर मनुष्य चेतन है और प्रकृति को भोगता है. असत्य से सत्य की उत्पति नहीं होती और सत्य कारणों से ही सत्य कार्य होते हैं.

* योग दर्शन में परमात्मा और आत्मा का मिलन यौगिक क्रियाओं द्वारा कराने की बात कही गई है. इन्द्रियों को अन्तर्मुखी कर ध्यान और समाधि लगाने से आत्मा और परमात्मा का योग संभव है. अंतःकरण शुद्धि पर महर्षि पतंजलि ने ज्यादा जोर दिया है. 

* महर्षि जैमिनी द्वारा रचित मीमांसा दर्शन वेद मन्त्र और वैदिक क्रियाओं को सत्य मानता है. यह दर्शन उन्नति के लिए पारिवारिक और सामाजिक कर्तव्यों पर ज्यादा जोर देता है.

* वेदांत दर्शन या उत्तर मीमांसा महर्षि व्यास द्वारा ब्रह्मसूत्र में रचित है. इसमें कहा गया है कि ब्रह्म सर्वज्ञ है पर निराकार है और जन्म-मरण से ऊपर है पर आत्मा से अलग है. मीमांसा में भी आगे चल कर कई धाराएं चल पड़ी - द्वैत, अद्वैत, विशिष्ठाद्वैत.

* नास्तिकवादी विचार भी उस समय प्रचलित थे. ईश्वर और परलोक ना मानने वाले, केवल प्रत्यक्ष को प्रमाण मानने वाले और वेदों से असहमति रखने वाले दर्शन भी थे जैसे कि चार्वाक दर्शन, माध्यमिक, योगाचार, सौतांत्रिक, वैभाषिक और आर्हत दर्शन इत्यादि. 


श्रमण ( सन्यासी ) सिद्धार्थ ने उस समय के नामी गुरुओं और सन्यासियों के साथ रह कर इन विचारों को समझा और अपना कर देखा, पर संतुष्ट ना हुए और अकेले ही खोज जारी रखी. सातवें वर्ष में याने जब उनकी उम्र 29 वर्ष की थी तब उन्हें बोधि प्राप्त हुई. उसके पश्चात अस्सी वर्ष की आयु में महानिर्वाण प्राप्त करने तक, एक मिशनरी की तरह वे धर्म प्रवर्तन में लगे रहे.

बौद्ध धर्म   

अपने उपदेशों में गौतम बुद्ध ने वर्ण व्यवस्था को नकार दिया, अहिंसा पर बहुत जोर दिया और यज्ञ में पशु बलि का विरोध किया. एक छोर की भोग विलासिता और दूसरे छोर की शरीर को कष्ट देने वाली तपस्या दोनों को त्याग कर मध्यम मार्ग अपनाया. उन्होंने दुःख, उसके कारण और निवारण का अष्टांगिक मार्ग बताया. इस मार्ग पर चलकर स्वयं दुःख को समझना और दूर करना होगा. धर्म को मान कर कोई चमत्कार नहीं होगा जो दुःख दूर कर देगा. यह संसार परिवर्तन शील है और यहाँ कुछ भी स्थायी नहीं है. सब कुछ नश्वर है. स्वयं के लिए गौतम बुद्ध ने कहा कि मुझसे पहले भी और बाद में भी बुद्ध होंगे. मैं केवल एक गाइड या मार्ग प्रदर्शक हूँ. मुक्ति के लिए हर मनुष्य को स्वयं प्रयास करना होगा. 

बुद्ध के धर्म प्रचार से समकालीन राजा रंक सभी प्रभावित हुए और बौद्ध धर्म तेज़ी से फैला. मौर्य काल तक बौध धर्म चीन, जापान, कोरिया, मंगोलिया, बर्मा, थाईलैंड, इंडोनेशिया, श्रीलंका आदि में फैल चुका था। इन देशों में बौद्ध धर्म बहुसंख्यक धर्म है. विश्व में बौध धर्म अनुयायियों की संख्या पचास करोड़ से ज्यादा है. गौतम बुद्ध के उपदेशों को समझने में अगर हम इन कुछ बातों को ध्यान में रख लें तो आसानी होगी क्यूंकि ये और धर्मों से भिन्न हैं. जैसे कि -

ईश्वर: मनुष्य स्वयं अपना मालिक है दूसरा कोई नहीं. सृष्टी अपने नियमों पर चलती रहती है और उसे कोई चलाता नहीं है. मुख्य प्रश्न ये नहीं है कि ईश्वर है या नहीं है बल्कि मुख्य प्रश्न ये है कि मनुष्य दुखों से पीड़ित है और उसे दुःख दूर करने का उपाय ढूँढना है. गौतम बुद्ध ने कहा कि दुःख का निवारण अष्टांगिक मार्ग पर चलने में है और यह काम इंसान को खुद ही करना पड़ेगा और आकाश से कोई मदद करने नहीं आएगा.  

आत्मा: गौतम बुद्ध ने कहा कि आत्मा अज्ञात है और अदृश्य है और आत्मा पर विश्वास करना अनुपयोगी है. आत्मा और परमात्मा में विश्वास करना मिथ्या है और इनसे बहुत से अंध विश्वासों का जन्म हो जाता है. वास्तविक चीज मन या चित्त या Mind है जिसे हमें संयत और अनुशासित करना होगा.

धर्म ग्रन्थ: सभी धर्मों में अपने अपने धर्म ग्रन्थ या ग्रंथों को स्वत:प्रमाण, स्वयं-सिद्ध, ईश्वर के शब्द या फिर अकाट्य वचन माना गया है. इसके विपरीत गौतम बुद्ध ने कहा कि मेरी बातें इसलिए ना मान ली जाएं की मैंने कही हैं बल्कि इन्हें समझ कर, अपनाकर तभी मानी जाएं. हर कोई इस अष्टांगिक मार्ग पर प्रश्न कर सकता है और इस मार्ग का परीक्षण भी कर सकता है कि यह सन्मार्ग है या नहीं. पूरी तरह जानने के बाद ही बताए हुए रास्ते पर चलें. शायद ही किसी धर्म उपदेशक ने ऐसा चैलेंज किया हो?

वर्ण: गौतम बुद्ध ने वर्ण व्यवस्था को सिरे से नकार दिया. उन्होंने कहा कि ना कोई जन्म से नीच होता है ना ही कोई जन्म से ब्राह्मण. अपने कर्म से ही कोई नीच होता है और अपने कर्मों से ही कोई ब्राह्मण होता है.  
तपस्या से क्षीण गौतम बुद्ध ( लाहौर म्यूजियम में रखी एक मूर्ति. फोटो विकिपीडिया से साभार )

जीने की कला: गौतम बुद्ध के बताए मार्ग पर चल कर मानसिक सुख और शांति पाने के लिए कोई पूजा पाठ या किसी रहस्यमय तंत्र मन्त्र की जरूरत नहीं है. किसी विशेष यज्ञ, विधि विधान, रीति रिवाज़ या किसी व्रत की भी जरूरत नहीं है. अच्छे कर्म कर के और मोह त्याग कर जीवन को सरल बनाया जा सकता है और इसी जीवन में निर्वाण प्राप्त हो सकता है. प्रचलित धर्मों से इस तरह की कई चीज़ों की समानता बौद्ध 'धर्म' में नहीं है. इसलिए शायद यह धर्म ना होकर जीने की कला है.

इस विषय को पढ़ कर और विपासना मैडिटेशन सीख कर मुझे तो बुद्ध का उपदेश 'धर्म' नहीं लगा बल्कि अपने मन को अनुशासित और संयत कराने वाला याने mind management कराने वाला रास्ता लगा.

और आगे पढ़ना चाहें तो ढेर सारी किताबें हिंदी और इंग्लिश में उपलब्ध हैं. इन्टरनेट पर फ्री डाउनलोड में बहुत सामग्री मिल जाएगी:-

मज्झिम निकाय - महापंडित राहुल सांकृत्यायन,
भगवान बुद्ध और उनका धम्म - डॉ बाबासाहेब अम्बेडकर,
धम्मपद - भिक्खु धर्म रक्षित,

Access to Insight - whole ati website free download available. Very useful.
The Buddha and His Teachings - Venerable Narada Mahathera,
The Wings to Awakening - Thanissaro Bhikkhu.

विपासना साधना / मैडिटेशन सीखने के लिए विपासना शिविर में जा सकते हैं जिनके कार्यक्रम आप www.dhamma.org पर देख सकते हैं. आचार्य एस एन गोयनका जी के विपासना मेडीटेशन से सम्बन्धित ऑडियो / विडियो प्रवचन यूट्यूब पर उपलब्ध हैं.