नोबेल पुरस्कार विजेता अमर्त्य सेन ने संस्कृत के बारे में पिछले दिनों इस तरह से कहा -
“It is not only the language of priesthood and a language in which there are many Hindu and many Buddhist texts, it is also a vehicle for many other radical thoughts of comprehensive doubts about the supernatural… a medium in which questioning of class, caste and legitimacy of power was expressed with profound eloquence by Sudraka in his profound play Mrichchhakatika,"
मेरा संस्कृत भाषा ज्ञान न के बराबर ही है और शूद्रक का नाटक म्रच्छकटिका - मिट्टी की गाड़ी - भी इंग्लिश में ही पढ़ा जो 1905 में आर्थर विलियम राइडर ने अनूदित किया और जो इंटरनेट पर उपलब्ध है। इस नाटक का यूरोप में काफ़ी मंचन हुआ है।
www.forgottenbooks.com/...pdf/The_Little_Clay_Cart_Mrcchakatika_an_..
सन 1984 में बनी शशी कपूर और गिरीश करनाड की फ़िल्म उत्सव इसी नाटक पर आधारित थी जिसमें शेखर सुमन और रेखा भी शामिल थे।
हाई स्कूल के दौरान एक एडिशनल विषय के तौर पे संस्कृत भाषा पढ़ी थी। संस्कृत के पेपर में थोड़ी से मेहनत से नम्बर पूरे आ जाते थे और कुल नम्बरों की % में सुधार हो जाता था। इस लिए रट्टा मार लिया, नम्बर आ गए और बस उसके बाद संस्कृत की पोथी पुस्तक बंद हो गई। बाद में ज़रूरत भी नहीं पड़ी।
बाक़ी विषयों के टीचर हमारी तरह पैंट शर्ट पहनते थे पर संस्कृत पढ़ाने वाले गुरूजी धोती कुर्ते में हुआ करते थे और चुटिया भी रखते थे। दूसरे टीचरों के मुक़ाबले गुरूजी का मज़ाक़ ज़्यादा उड़ाया जाता था। संस्कृत से दूर होने का शायद ये भी कारण था।
संस्कृत का इस्तेमाल स्कूल की दैनिक प्रार्थना में, या घर में 'ऊं भूर भुवा स्व:' तक सीमित रहा। कभी कभी मुंडन, शादी-ब्याह या शमशान घाट में पंडितजी की आवाज में कुछ आधे-अधूरे श्लोक कान में पड़ जाते हैं। कुछ समझ आते हैं कुछ नहीं। पर कभी समझने की कोशिश भी नहीं की।
लगभग 15 बरस पहले योगा - ठीक शब्द तो योग है - सीखने का मौका मिला। वहाँ रोज़ सुबह योगाभ्यास से पहले और योगाभ्यास करने के बाद में प्रार्थना की जाती है। उस समय एक बार फिर संस्कृत के श्लोक सीखे। पर इस बार शब्दार्थ और भावार्थ पर भी ध्यान दिया। बहुत सुंदर लगा। जैसे कि इस श्लोक पर ग़ौर करें:
लोका: समस्त: सुखिनो भवन्तु । ( सभी लोक सुखी हों )
सर्वे भवन्तु सुखिन: सर्वे सन्तु निरामया: । ( सब हों सुखी, सब हों निरोगी )
सर्वे भद्राणी पश्यन्तु मा कशिचद् दु:खभाग्भवेत ।। ( सब भली बातें देखें, न कोई दुखी हो )
पाँच हज़ार वर्ष पुरानी भाषा धार्मिक, सामाजिक, नाटक, काव्य, कहानियों और दर्शन शास्त्र से भरपूर है। भाषा के तौर पर संस्कृत सशक्त है और व्याकरण बिलकुल एक्यूरेट है, कोई अपवाद नहीं मिलेंगे। दाँए बाँए हिलने की या एक्सेपश्न की गुंजाइश नहीं है। शब्द संधि के अलावा एक ही शब्द के कई रूप इसकी विशेषता है। एक और चीज़ है द्वीवचन जो एक वचन और बहुवचन के बीच है जो और भाषाओं में शायद नहीं है। शब्दों का क्रम भी बदला जा सकता है बिना मतलब बदले हुए जैसे ' अहं गृहं गच्छामि या गच्छामि गृहं अहम् ' दोनों का अर्थ एक ही है। ऐसी अनूठी और पुरातन भाषा पर सभी गर्व करेंगे।
पर इन्हीं सब कारणों से संस्कृत भाषा कुछ क्लिष्ट भी हो गई और इलीट या समाज के एक ख़ास वर्ग में ही रह गई। बोलचाल में आम आदमी से थोड़ा दूर हो गई। आज की परिस्थिति ये है कि सवा सौ करोड़ के देश में बीस हज़ार लोग भी संस्कृत बोलने वाले नहीं हैं। संस्कृत भाषा के सभी ग्रंथ हिन्दी या दूसरी भाषाओं में उपलब्ध हैं। संस्कृत भाषा से सम्बन्धित कामकाज या नौकरियाँ भी नहीं हैं। इसलिए प्रश्न उठता है की संस्कृत भाषा पढ़ें ?
फ़िल्म उत्सव का पोस्टर ( विकीपीडीया से उतारा गया ) |
No comments:
Post a Comment