बैंक के लिए डिपाज़िट इकट्ठा करना ऐसा ही है जैसे किसी फैक्ट्री के लिए रॉ मेटेरीयल इकट्ठा किया जाता है. डिपाज़िट नहीं होगा तो लोन कैसे होगा? इसलिए डिपाज़िट लाने के लिए बहुत सी तरकीबें लगानी पड़ती हैं, स्कीम बनानी पड़ती हैं और घूम घूम कर संपर्क बनाने पड़ते हैं. ये काम तो प्राचीन काल से सभी बैंकों और शाखाओं में होता चला आ रहा है.
इस मामले में हमारे बॉस चीफ मैनेजर गोयल साब अपने को एक्सपर्ट मानते थे. उनका दावा था जिस दुकान, दफ्तर, कंपनी या फैक्ट्री में जाऊँगा कुछ ना कुछ ले कर ही आऊंगा चाहे डिपाजिट हो या लोन की अर्जी ही क्यूँ ना हो. एक दिन ब्रांच के एक स्टाफ मेम्बर ने गोयल सा को बताया कि शहर के बाहर कोई बड़ा प्रोजेक्ट लग रहा है और कोई रिटायर्ड कर्नल साब इंचार्ज हैं तो गोयल सा के कान खड़े हो गए.
अगले दिन गोयल सा ने तैयारी कर ली. सूट बूट और टाई पहन कर शीशे में नज़र मारी और ठंडी साँस भरी - अरे कभी हम भी फौजियों की तरह स्लिम ट्रिम थे. अब तो बेल्ट लगा के भी पेंट नहीं सम्भलती. बीवी अलग डांटती रहती है कि पेट घटाओ. शादी भी मुसीबत ही है. बहुत हाथ फेरती रहती थी ज़ुल्फों में, फेर फेर के सारा मैदान साफ़ कर दिया है. पर अब कुछ नहीं हो सकता. अब तो चलें कर्नल साब से मिलने. आवाज़ दी - ड्राईवर...
मीटिंग हो गई, खाता खुल गया और मोटे मोटे चेक जमा घटा होने लगे. कभी कभी कर्नल साब भी आ जाते थे. अपने फौजी अंदाज़ में. ज्यादातर सिविल कपड़ों में हाथ में दो फुटा काला डंडा ले कर चलते थे. हाव-भाव और चाल देख कर जाहिर हो जाता था की फौजी अफसर हैं.
एक दिन हड़ताल के कारण ब्रांच के ठीक सामने दरी बिछी हुई थी. यूनियन के काफी मेम्बरान जिनमें महिलाएं भी शामिल थीं, दरी पर बैठे हुए थे. उनके सामने अंदर जाने के लिए पांच पायदान वाली चौड़ी सीढ़ी थी. पाँचों स्टेप्स पर लोग सटे हुए बैठे हुए थे. भाषण चल रहा था और बीच बीच में नारे बाज़ी हो रही थी.
कर्नल साब के ड्राईवर ने गाड़ी दूर ही रोक दी. इस तरह का सीन साब ने कभी देखा नहीं था. वो उतरे और दाहिने हाथ से डंडा बाईं हथेली पर दो तीन बार थपथपाया और फिर सीढ़ियों की तरफ बढ़े. भाषण रुक गया और कई आवाजें आईं - रास्ता दो भई, साब को जाने दो! और नारे फिर चालू हो गए.
अंदर जाने के लिए साब ने पहली फिर दूसरी पायदान पर पैर रखा. वो जल्दी से इस मजमे से निकल जाना चाहते थे. तीसरे पायदान पर चढ़े तो उनका छोटा सा डंडा शायद एक दो साथियों से टकरा गया. उनमें से एक गुस्से में कुछ बड़बड़ाया. जवाब में साब ने कुछ अंग्रेजी बोल दी. अब दूसरा साथी भी बोल पड़ा. पलट के साब ने और थोड़ी सी अंग्रेजी और जोर से बोल दी. अब गरमा गरम आदान प्रदान शुरू हो गया. बात बढ़ने लगी और दोनों तरफ से आवाज़ ऊँची हो गई. नेता जी ने और यूनियन के नरम दल ने बीच बचाव किया और उन्हें सम्मानपूर्वक गोयल सा के केबिन में पहुंचा दिया.
पर बाहर दरी पर बैठे लोगों में एक गरम दल भी था. उनकी तसल्ली नहीं हुई. गरम दल ने अपनी गर्मी दिखाने का फैसला कर लिया. ये मौका कैसे जानें दें? गरम दल ने साहब की एम्बेसडर गाड़ी खोज कर ड्राईवर को घेर लिया. उसे धमकाया और वहां से भगा दिया. फिर हड़ताल का एक पोस्टर सफ़ेद अम्बेसेडर गाड़ी पर चिपका दिया.
कर्नल साब ने इस सारे ड्रामे पर क्या प्रतिक्रया दिखाई ये पता नहीं लग पाया. धरने, हड़ताल, नारेबाज़ी और प्रदर्शन का मज़ा फ़ौज में कहाँ ! परन्तु गोयल सा को कर्नल साब का अकाउंट बचाने के लिए काफी मशक्कत करनी पड़ी. तभी तो गोयल सा कहते हैं,
- अनुशासन सभी को अच्छा लगता है और कहते भी हैं कि अनुशासन कड़ाई से लागू होना चाहिए. पर कहते वक्त मंशा यही होती है - अनुशासन सब के लिए होना चाहिए लेकिन मुझे छोड़ कर!
(बीबीसी न्यूज़/हिंदी के सौजन्य से) |
5 comments:
https://jogharshwardhan.blogspot.com/2021/12/blog-post.html
सही बात :)
धन्यवाद जोशी जी.
रोचक संस्मरण। सच में अक्सर अनुशासन, धर्म इत्यादि की बात करने वालों का मन्तव्य यही होता है कि इन सबका दूसरों को पालन करना चाहिए न कि खुद उनको।
धन्यवाद विकास नैनवाल 'अंजान'. आप से सहमत हूँ. खुद पालन कर के कहने वाले कम हैं.
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