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Saturday, 22 May 2021

ससुर जी की पेंशन

प्रमोशन हुई तो पहाड़ की एक ब्रांच में पोस्टिंग हो गई. पैकिंग की, बस पकड़ी और कोटद्वार पहुँच गए. वहां से जीप में सामान डाला और दुगड्डा पहुंचे. यहाँ से पैदल यात्रा शुरू हुई पहले दाएं, फिर बाएं, फिर ऊपर और फिर नीचे! तीन किमी का पथरीला रास्ता तीस किमी लगने लगा. सांसों में अनुलोम विलोम होने लगा, पसीना आ गया, गला सूख गया, कंधे और घुटने जवाब देने लगे. ब्रांच के अंदर जा कर सूटकेस पटका, साँस थमी तो पानी पिया और तब थोड़ा चैन आया.

ब्रांच का काम ठीक ठाक था बहुत ज्यादा नहीं था. फौजी इलाका था इसलिए पेंशन के खाते ज्यादा थे. कस्टमर की भीड़ महीने के पहले आठ दस दिन रहती थी फिर घटनी शुरू हो जाती थी. किसी वक़्त यहाँ मनी आर्डर इकॉनमी थी पर अब पोस्ट ऑफिस नदारद हो गए हैं और ये काम बैंक में होने लगा है. एटीएम कार्ड इस्तेमाल करने वाले कम थे, कैश पर विश्वास ज्यादा था. इसके अलावा फॅमिली पेंशन वाले ज्यादातर अंगूठा टेक थे. 

बुज़ुर्ग पेंशनर अपने साथ किसी ना किसी के शेरपा को ले कर आते थे और छोटी सी ब्रांच में भीड़ हो जाती थी. कारण ये कि किसी बुज़ुर्ग को चलने में दिक्कत थी, या फिर किसी को कम दिखता था या फिर पैसे गिनने और सँभालने में मुश्किल होती थी. लांस नायक बिनोद भी ऐसे ही थे. उमर सत्तर साल से ऊपर की होगी पर आवाज़ कड़क थी. आँखों पर मोटा चश्मा और हाथ में छड़ी रहती थी. उनका साथ देने के लिए एक 17-18 साल की लड़की आती थी जो बाद में पता लगा की उनकी बहु याने बुआरी थी.

बिनोद के तीन बेटे थे. इनमें से दो तो शादी होने के बाद अपनी अपनी बुआरी लेकर चले गए थे और बहुत कम गांव आते थे. जब तीसरे बेटे की नौकरी लगी तो बिनोद को लगा की ये भी शादी करके बुआरी को ले कर लखनऊ चला गया तो मेरा क्या होगा? ऐसी बुआरी होनी चाहिए जो गांव में ज्यादा रहे, खेत खलिहान भी देख ले और कुछ टाइम बेटे के साथ भी रहे. बेटे ने भी सोच विचार कर के हामी भर दी. भई बापू का भी ख्याल रखना है और खेती बाड़ी का भी.

लड़की मिल गई, पत्री मिल गई और शादी हो गई. शादी के पंद्रह दिन बाद बेटा ड्यूटी पर जाने के लिए तैयार हो गया और बोल गया कि बापू का ध्यान रखना ज़रा गर्म स्वभाव के हैं. पेंशन तो मिलती ही है मैं भी पैसे भेज दिया करूँगा चिंता मत करना. बेटे ने मन में सोचा अपना क्या है अस्पताल में नौकरी लगी है तो कोई ना कोई नर्स तो मिल ही जाएगी!

इधर ससुर जी ने बुआरी को रंगरूट ही समझ लिया. सुबह होते ही बुआरी को खेत में भेज देता, फिर दोनों गउओं के चारा पानी और दूध निकालने लगा देता फिर नाश्ता पानी वगैरा वगैरा. पूरा दिन बुआरी काम में लगी रहती उसके बावजूद बुड्ढा डांट डपट करता रहता. समय से और अच्छा खाना मिलने से बुड्ढे की जून सुधरने लगी पर बुआरी की हालत खस्ता होने लगी. कई महीने गुज़र गए ना तो बुआरी मायके जा पाई और ना ही उसका पति उसे लेने आया. शादी में जो कपड़े लाई थी वो भी इस्तेमाल कर कर के पुराने पड़ गए. धीरे धीरे बुआरी का मन उचटने लगा. इधर गाँव में भी कई तरह की चर्चाएँ होने लगी थी. पति भी आता नहीं था और अब तो पैसे भी आने बंद हो गए थे. 

गांव में अब मन कम लगता था. कई बार भागने का ख़याल भी आया पर अकेले गाँव से बाहर जाना मुश्किल था. लखनऊ जाना तो नामुमकिन था क्यूंकि शहर तो कभी देखे ही नहीं थे. वापिस माँ के घर तो जा सकती थी पर यहाँ से निकले कैसे? ऊपर सड़क तक पहुँचने के लिए 30-40 मिनट लगते थे और बीच में जंगल भी था. गाँव वाले शोर भी मचा सकते थे सब तो ससुर जी का साथ देने वाले थे. और टिकट के लिए पैसे भी तो चाहिए थे ससुर जी तो देते नहीं थे. महीने में केवल एक दिन बुआरी गाँव से निकल पाती थी वो भी तब जब उसे ससुर जी अपने साथ बैंक से पैसे लाने के लिए जाते थे. 

फरवरी की पेंशन लेने ससुर जी हमेशा की तरह बुआरी को लेकर बैंक पहुंचे. खजांची से पैसे लेकर दोनों बाहर निकल गए. दस मिनट बाद ही रोता चिल्लाता बिनोद बैंक में वापिस आ गया,

- मेरा पैसा ले गई! मेरा पैसा ले गई! 

शोर की वजह से काम ठप्प हो गया. मै उसे पकड़ कर अन्दर केबिन में ले आया, बिठाया और उसकी बात समझने की कोशिश की. पर उसका तमतमाया चेहरा और गुस्से वाली उसकी भाषा नहीं समझ पाया. गार्ड को बुला कर पूछा तो पता लगा कि उसकी बहु पेंशन के पैसे ले कर भाग गई थी. वैसे तब तक तो बस पकड़ कर मायके की तरफ निकल भी गई होगी. इस बीच बिनोद पर दूसरे पेंशनर ने कमेंटरी भी शुरू कर दी थी. 

इनके घरेलू झगड़े में मैनेजर का क्या काम? गार्ड को कहा की इन्हें बाहर ले जाओ. अगर इनके पास पैसे नहीं बचे हैं तो इनके खाते से निकलवा दो. उस ने अपने खाते से कुछ और पैसे निकाले और जेब में खोंस लिए. तब तक वहां खड़ी एक बूढ़ी महिला पेंशनर जो शायद उसके गाँव की रही होगी, बोली 

- जी इंत हूँण ही छ: ( ये तो होना ही था जी )!

पहाड़ी गाँव 

 

13 comments:

Harsh Wardhan Jog said...

https://jogharshwardhan.blogspot.com/2021/05/blog-post_22.html

ASHOK KUMAR GANDHI said...

Good,

Ravindra Singh Yadav said...

नमस्ते,
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा शनिवार (22-05-2021 ) को 'कोई रोटियों से खेलने चला है' (चर्चा अंक 4073) पर भी होगी। आप भी सादर आमंत्रित है।

चर्चामंच पर आपकी रचना का लिंक विस्तारिक पाठक वर्ग तक पहुँचाने के उद्देश्य से सम्मिलित किया गया है ताकि साहित्य रसिक पाठकों को अनेक विकल्प मिल सकें तथा साहित्य-सृजन के विभिन्न आयामों से वे सूचित हो सकें।

यदि हमारे द्वारा किए गए इस प्रयास से आपको कोई आपत्ति है तो कृपया संबंधित प्रस्तुति के अंक में अपनी टिप्पणी के ज़रिये या हमारे ब्लॉग पर प्रदर्शित संपर्क फ़ॉर्म के माध्यम से हमें सूचित कीजिएगा ताकि आपकी रचना का लिंक प्रस्तुति से विलोपित किया जा सके।

हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।

#रवीन्द्र_सिंह_यादव

रेणु said...

हर्षजी, बहुत रोचक प्रसंग आपके रोचक अंदाज़ में। आखिर ससुर जी को आइना दिखाना ही था। इतना स्वार्थ कोई कमजोर जान कैसे सहे?

Anita said...

वाह ! रोचक अंदाज

Harsh Wardhan Jog said...

धन्यवाद ASHOK KUMAR GANDHI

Harsh Wardhan Jog said...

धन्यवाद Ravindra Singh Yadav

'कोई रोटियों से खेलने चला है' (चर्चा अंक 4073) पर भी उपस्थिति होगी।

Harsh Wardhan Jog said...

धन्यवाद रेणु। बगावत करनी पड़ी!

Harsh Wardhan Jog said...

धन्यवाद Anita

Meena sharma said...

ये तो होना ही था।
देर से सही, बहू निकल गई चंगुल से।

Harsh Wardhan Jog said...

धन्यवाद Meena sharma.

Harsh Wardhan Jog said...

धन्यवाद Jyoti Dehliwal.

Harsh Wardhan Jog said...

Thank you Subhsh Mittal ji