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Saturday, 27 February 2021

लेट मत बैठो

बड़े बैंक की बड़ी ब्रांच में कुछ ना कुछ होता रहता है. बड़ी ब्रांच की लोकेशन बहुत अच्छी थी, मेन रोड पर. ब्रांच के बाएँ हाथ पर एक पेट्रोल पंप था और दूसरी तरफ पोस्ट ऑफिस. इसलिए चहल  रहती थी और बसें भी आसानी से मिल जाती थी. आने जाने की सुविधा थी. बिल्डिंग के पहले माले पर याने ब्रांच के ऊपर प्राइवेट ऑफिस थे और बिल्डिंग के पीछे काफी बड़ा लॉन था. ये लॉन चहलकदमी के लिए या फिर सर्दियों की धूप सेकने के लिए बहुत काम आता था. बल्कि  सर्दी में लंच के डिब्बे लॉन में ही खुलते थे. 

लॉन की पिछली सीमा पर बिल्डिंग से ले कर पेट्रोल पंप तक ऊँची ऊँची कटीली तार की फेंसिंग थी. पर अक्सर पेट्रोल पंप के पास की तारें ऐसे ऊपर नीचे बंधी देखी जाती थी जैसे की कोई झुक कर वहां से निकलता हो. आम तौर पर यही कहा जाता था की नशेड़ी अँधेरे में अड्डा जमा लेते थे. बिल्डिंग का चौकीदार तारें ठीक कर देता था पर दो चार दिन के बाद जस की तस हो जाती.

ब्रांच में लोन भी काफी थे और अपने गोयल सा लोन मैनेजर थे. आप मिले तो होंगे गोयल सा से? सांवला रंग है, सर पे एकाधा बाल बचा है. थोड़े मोटे से हैं बियर के शौक़ीन हैं. लोन के मैनेजर हैं तो भला काम से कब फुर्सत मिलती है जो लॉन में जाकर सर्दी की धूप में लंच करें? वैसे भी क्लोजिंग सिर पर आ रही थी. लोन का आंकड़ा किसी ना किसी तरह बढ़ाना था. अपना काम बढ़ा चढ़ा कर दिखाना चाहे झूठा ही सही, जायज़ है. अंग्रेजी में तो इसे विंडो ड्रेसिंग कहते हैं हिंदी का उपयुक्त शब्द पता नहीं क्या है. विंडो ड्रेसिंग वैसे ही है जैसे घर के अगाड़ी सफाई हो और पिछाड़ी गंदगी.

गोयल सा के लिए विंडो ड्रेसिंग मूंछ का सवाल था. ये बात और है की ना उनकी मूंछ हैं, ना दाढ़ी और ना ही टकले सर पे बाल. इस विंडो ड्रेसिंग के लिए अगर गोयल सा को लेट बैठना पड़े तो भी बैठेंगे मिसेज़ नाराज़ होती हों तो हों. आठ बजने वाले थे सारा स्टाफ जा चुका था. बिल्डिंग भी खाली हो चुकी थी. बस एक गोयल सा और दूसरे उनके असिस्टेंट मनोहर उर्फ़ मन्नू भैय्या जी बैठे फाइलें खंगाल रहे थे. लोन पार्टियों को फोन फान कर रहे थे. 

अचानक चार पुलिस वालों ने दोनों को घेर लिया- चलो थाणे! बहुत देर तक डायलॉग चला बहुत कुछ समझाने की कोशिश की पर ना कोई सुनवाई नहीं. पुलिस वालों ने 'चलो थाणे' की रट लगा रखी थी. दो नशेड़ियों को पहले से ही पकड़ रखा था. पता लगा कि पुलिस पिछले पार्क में आई थी नशेड़ियों को धरने लगे हाथ उन्होंने गोयल सा और मन्नू भैय्या को भी घेर लिया. मन्नू ने कांपते हाथों से रीजनल मैनेजर के घर फोन किया और सारी कथा सुनाई. रीजनल मैनजेर ने आगे ताबड़ तोड़ फोन घुमा दिए और मामला ठीक ठाक निबट गया. थाणे जाने की नौबत नहीं आई. पर इस कार्रवाई में ग्यारह बज गए और घर पहुँचते पहुँचते बारह बज गए. 

मिसेज़ गोयल बेसब्री से इंतज़ार कर रहीं थी. बहुत लोगों से फोन पर पूछताछ कर चुकी थीं. अंदर कदम रखते ही बिजली चमकी, बादल गरजने लगे और धुआंधार शुरू हो गई. सुबह नाश्ते की टेबल पर भी मौसम नहीं बदला बल्कि इकतरफा घोषणा हो गई - रात दस बजे के बाद आना हो तो बराण्डे में सो जाना. बिस्तर और पजामा कुरता और साथ में डोग्गी बाहर ही मिलेगा !

बड़ी मुश्किल हो गई है जी नौकरी. एक बॉस दफ्तर में और एक बॉस घर में. इन दो पाटन के बीच में साबुत बचा ना कोय! 

 

बॉस




Sunday, 21 February 2021

नौकरी बैंक की

बहुत पहले  1972 में पब्लिक सेक्टर बैंक बतौर क्लर्क ज्वाइन किया था और 2011 में बतौर चीफ रिटायरमेंट हुई थी. अब पीछे मुड़ कर देखो तो लगता है कि ये प्राचीन काल की एक लम्बी घुमावदार यात्रा थी. इस यात्रा की कुछ खट्टी मीठी यादें हैं जो कभी कभी लिखने में मज़ा आता है. ये किस्से महज़ टाइमपास के लिए लिखे हैं. आप भी कृपया उसी भाव से पढ़ें और मज़ा लें.  

इन किस्सों में असली नाम पते देना ठीक नहीं लगता इसलिए मनपसन्द ब्रांच का नाम है झुमरी तलैय्या, मनपसंद अफसर हैं गोयल सा और मनपसंद कर्मचारी हैं मनोहर उर्फ़ मन्नू जी. 

हमारे गोयल सा अफसर से चेयरमैन तक का रोल आराम से निभा लेते हैं. ये सांवले से, मोटे से, टकले और चाटुकार प्रवृति के हैं. घर की पूछो तो पत्नी के सताए हुए हैं. 

मनोहर उर्फ़ मन्नू जी गाँव खेड़े के पढ़े हैं पर इम्तेहान पास कर के कनॉट प्लेस के बैंक में क्लर्क लग गए हैं. अब वापिस जाने का जी नहीं करता और गर्ल फ्रेंड कोई मिलती नहीं. 

चेक पास 

झुमरी कैंट की शाखा  में फौजी कस्टमर ज्यादा थे. इन कैंट शाखाओं का अपना एक अंदाज़ या फ्लेवर होता है. शाखा के आगे दो चार फौजी मोटरसाइकिलें या फौजी गाड़ियाँ जरूर खड़ी मिलेंगी. इनके खातों में हर महीने पगार या पेंशन आती है जो धीरे धीरे निकल जाती है. लोन ये लोग लेते नहीं हैं. फौजी अफसरान ब्रांच में कम ही आते हैं अपने राइडर के हाथ चेक भेजकर पैसे मंगा लेते हैं. पेमेंट फ़टाफ़ट हो जाए और 'सर' या साब करके बात कर ली जाए तो माहौल खुशनुमा रहता है. सुना है होली वगैरह में सस्ती बोतल भी मिल सकती थी! हाल फिलहाल का तो पता नहीं. 

खैर ब्रांच में मेजर साब का राइडर एक चेक लेकर आया और काउंटर पर 'जयहिंद सर' बोल कर चेक पकड़ा दिया. मनोहर उर्फ़ मन्नू जी ने टोकन दे दिया और लेजर में चेक पोस्ट कर के लेजर पीछे टेबल पर रख दिया. पीछे चेक पास करने वाला अधिकारी बैठा नहीं था. चेक लेजर में काफी देर पड़ा रहा. इधर फौजी राइडर खड़ा खड़ा बेचैन हो रहा था. मन्नू को बोला 'सर लेट हो रहा हूँ'. मन्नू ने लेजर उठाया और जवान को पकड़ाते हुए कहा ' अच्छा ये लो लेजर और साब से पास करा लो'. अब मन्नू का मतलब था की मैनेजर साब से पास करा लो पर राइडर ने सोचा की अपने मेजर साब से पास करा लो.

राइडर ने लेजर उठाया, मोटरसाइकिल के बॉक्स में रखा और अपने मेजर साब के पास ले गया! मेजर साब सोलह किमी दूर अपनी यूनिट में बैठे थे. 

फिर क्या हुआ होगा और मैनेजर साब और मेजर साब ने क्या किया होगा आप अंदाजा लगा सकते हैं.  

ओ. टी. हाउस  

बैंकों का राष्ट्रीयकरण 1969 में हुआ और ओवरटाइम का भूत उतरने में शायद सात आठ बरस लग गए थे. बैंक प्रबंधन को लगता था की जहाँ ब्रांच में 100 लोग काम कर रहे थे वहां अब 110 या 115 हैं, पहले 100 को ओवरटाइम देते थे अब 115 को ओवरटाइम क्यूँ दें? यूनियन चाहती थी की सबको मिले. जब तक छीना जा सकता है छीन लिया जाए.

ब्रांच के अलावा ओवरटाइम का एक और ठिकाना भी था जहाँ अन्तर-शाखा की एंट्रीयां  मिलानी होती थी. ये एंट्री रोज हजारों लाखों की संख्या में होती थी. इनका मिलान करना जरूरी था और बिना कंप्यूटर के आसान भी नहीं था. मिलान की रिपोर्ट रिज़र्व बैंक और ऑडिटर को भी दिखानी होती थी. इस कारण से दबाव बना रहता और अक्सर इस डिपार्टमेंट में ओवरटाइम लगता ही रहता था.  

हमारे गोयल साब इस तरह के अन्तर-ब्रांच मिलान में होशियार थे. साथ ही अपने ओवरटाइम की कमाई को सहेज कर रखते थे. खर्च नहीं करते थे. बाद में उन्होंने अपना मकान बनाया और पार्टी दी. कोकटेल पार्टी में गोयल साब ने बताया की उन्होंने अपने नए घर का नाम ओ टी हाउस रखा है!      

नारे बाज़ी 

बैंक राष्ट्रीयकरण के बाद यूनियन का पलड़ा बैंक प्रबन्धन से भारी लगता था शायद 21:19 रहा हो. बैंक यूनियन AIBEA सबसे बड़ी थी और अब भी है.   

AIBEA की मीटिंग हो, धरना हो या प्रदर्शन बढ़िया बढ़िया नारे लगते थे. ये तो कर्मचारियों का अधिकार है. शायद अब भी उतने मज़ेदार नारे लगते होंगे. दो तीन नारे बड़े मज़ेदार और पापुलर थे. 

- जब हम ना बैंक खोलेंगे, बैंक में उल्लू बोलेंगे!,

- नाराए बेधड़क, चमचों का बेड़ा गर्क! और 

- जो साथी साथी का साथ ना दे, चूड़ी पहने घर बैठे!

ये नारे सब को इकट्ठा करने में और जोश भरने में काम आते थे. नेता जी ने भाषण देने से पहले देखा जनता आपस में बातचीत कर रही है. जनता को लाइन पर लाने के लिए मनोहर उर्फ़ मन्नू भाई को इशारा किया नारे लगा दे. मनोहर ने गला साफ़ किया और जोर से बोला, 

- वर्कर्स यूनिटी ज़िन्दाबाद, जनता का ढीला सा जवाब आया - जिंदाबाद, जिंदाबाद! 

- भई जोर से बोलें. लेडी कामरेड भी बोलें. नारे का जवाब नारे से दें 

- वर्कर्स यूनिटी ज़िन्दाबाद. इस बार जोश भरा बेहतर जवाब आया, 

- ज़िन्दाबाद ज़िन्दाबाद! 

उन दिनों बैंक स्टाफ के लिए अलग से इम्तेहान होते थे जिसे CAIIB कहा जाता था. इस इम्तेहान को पास करने पर इन्क्रीमेंट अलग से मिलती थी. तनखा बढाने का एक बढ़िया साधन था.

अगला नारा मन्नू भाई जल्दबाजी में बोल गए - CAIIB जिंदाबाद! 

जवाब में सब हंस पड़े और कुछ ने तालियाँ पीट दीं. मन्नू ने बोलना तो था - AIBEA ज़िन्दाबाद! पर जल्दबाजी में मुंह से निकल गया CAIIB ज़िन्दाबाद!

मन्नू जी अपने गाँव में 


Sunday, 14 February 2021

चलो स्कूल चलें

रिटायरमेंट के बाद क्या करें? भारत दर्शन करें और क्या! चलो फिर एक मोटरसाइकिल ले लेते हैं. एक रॉयल एनफील्ड 500 क्लासिक खरीद ली. बड़े शौक से फटफटिया हाईवे पर दौड़ानी शुरू कर दी. दिल्ली से जयपुर, पुष्कर, हरिद्वार, लैंसडाउन की सैर की. पर कुछ ट्रैफिक ने परेशान किया, कुछ धूल मिट्टी ने और कुछ पतली कमर ने. सोच विचार करने के बाद फटफटिया बेटे को गिफ्ट कर दी. 

अब भारत दर्शन के लिए गाड़ी में चाबी लगाई. बारह दिन का एक चक्कर उदयपुर, पोरबंदर, दिउ, गिर फारेस्ट और द्वारका का लगा. दूसरा कन्याकुमारी से दिल्ली का लगा जिसमें एक महीना लगा. फिर पंद्रह दिन का टूर बीकानेर, जैसलमेर, जोधपुर और जयपुर का लगा. एक बार गाड़ी केदारनाथ की दिशा में भी गुप्तकाशी तक गई. छोटे मोटे कई और भी टूर लगते रहे. आखिरी लम्बा टूर दिल्ली-बंगलौर का रहा.

फिर आ गया कमबखत कोरोना. जनवरी 20 से फरवरी 21 आ गई गाड़ी उदास खड़ी है. एक साल तो गया हाथ से और आगे का पता नहीं. घर में बंद होकर तो भारत दर्शन नहीं हो पाएगा परन्तु भारतीय दर्शन तो पढ़ा जा सकता है? अब तक तो कोई धार्मिक ग्रन्थ पढ़ा नहीं था तो सोचा की नजर तो मारें इन पर. कुछ किताबें मंगवाईं,  कुछ इंटरनेट से उतार लीं और कुछ यू ट्यूब में खोज बीन शुरू की. यूट्यूब पर लेक्चर देखे सुने. कुछ समझ आए कुछ नहीं. भारतीय पुरातन दर्शन बहुत विस्तार वाला और धीर गंभीर है. फिर भी कोशिश जारी राखी.
 
कुछ मुख्य मुख्य बातें जानने को मिलीं : वेदों पर आधारित छे दर्शन हैं - सांख्य दर्शन, योग दर्शन, न्याय दर्शन, वैशेषिक दर्शन, मीमांसा और वेदांत. ये सभी दर्शन आत्मा और परमात्मा को किसी ना किसी रूप में मान्यता देते हैं. वेदों में आस्था होने के कारण इन्हें 'आस्तिक' दर्शन कहा जाता था. इन दर्शन या फलसफों के अपने अपने सूत्र, मन्त्र, भाष्य और ग्रन्थ हैं. ये ग्रन्थ ईसा पूर्व दो सौ साल से लेकर ईसा पूर्व दो हज़ार साल पहले या शायद और भी पहले संकलित किये गए होंगे। पर पक्के तौर पे समय निर्धारित नहीं है. 
 
प्राचीन काल के तीन भारतीय दर्शन और हैं जो नास्तिक दर्शन कहलाते हैं. ये हैं जैन, बौद्ध और चार्वाक दर्शन. ये तीनों आत्मा परमात्मा को नहीं मानते, ना ही ये मानते हैं कि संसार का बनाने वाला या कोई चलाने वाला है. चार्वाक तो अब केवल किताबों में ही है परन्तु जैन और बौद्ध धर्म प्रचलित हैं. 
2011 की जनगणना के अनुसार भारत में जैन अनुयायी पैंतालिस लाख से कुछ ज्यादा हैं और बौद्ध धर्म के अनुयायी लगभग चौरासी लाख से ज्यादा हैं. 2010 में विश्व में बौद्ध धर्म मानने वालों की संख्या सैंतालीस करोड़ से ज्यादा थी. इन देशों में बुद्धिज़्म मानने वाले ज्यादा हैं - भूटान, म्यांमार, कम्बोडिया, लाओस, मंगोलिया, श्रीलंका, थाईलैंड, चीन, सिंगापुर, हांगकांग और दक्षिणी कोरिया.   
बौद्ध धर्म या दर्शन के संस्थापक थे सिद्दार्थ गौतम जो 563 ईसा पूर्व पैदा हुए थे. यूँ तो वो कपिलवस्तु के राजा शुद्दोधन और रानी महमाया के बेटे थे पर उनत्तीस वर्ष की आयु में महल का विलासिता पूर्ण जीवन छोड़ सत्य की खोज में निकल पड़े. उन्हें चार दृश्यों ने गहरी सोच में डाल दिया था - जब एक बूढ़ा आदमी देखा, जब एक बार एक बीमार आदमी देखा, फिर एक बार अर्थी जाते देखी तो सिद्दार्थ ने अपने रथ के सारथी चन्ना से पूछा की ये सब क्या है? जवाब में उसने कहा ये सभी के साथ होता है और आपके साथ भी होगा। जवाब सुन कर सिद्धार्थ सोच में पड़ गए. एक बार सिद्धार्थ ने एक साधु देखा जो बड़ा शांत और प्रसन्न दिख रहा था. सिद्धार्थ गौतम ने सोचा की लगता है इस साधु ने दुखों से छुटकारा पा लिया है. ऐसा साधु बनना ही ठीक है? 

उन्नतीस बरस की उम्र में वे महल से निकल पड़े. लगभग छे साल तक कई आश्रम और ज्ञानी लोगों के साथ गुज़ारे पर संतुष्ट नहीं हुए. फिर स्वयम अपना मार्ग खोजा - मध्यम मार्ग. 

गौतम बुद्ध ने एक ओर विलासिता और दूसरी ओर शरीर को कष्ट देने वाला कठिन तप छोड़ कर मध्यम मार्ग पर चलने का सुझाव दिया. 35 वर्ष की आयु से शुरू कर के 80 वर्ष की आयु तक लगातार उत्तरी भारत में उपदेश देते रहे. पैंतालिस सालों के प्रवास में गौतम बुद्ध ने 82000 उपदेश दिए जो बाद में त्रिपिटक नामक तीन ग्रंथों - विनय पिटक, सुत्त पिटक और अभिधम्म पिटक में संगृहीत किये गए. 

त्रिपिटक मूलत: पाली या संस्कृत में लिखे गए थे. दोनों ही भाषाएं आती नहीं थी इसलिए हिंदी और इंग्लिश के अनुवाद पढ़ने की कोशिश की. बहुत विस्तार में मन, पांच इन्द्रियों की दशाएं और इनका प्रभाव का गहरा अनुसन्धान है. पूजा पाठ, मन्त्र, आत्मा, परमात्मा आदि का जिक्र लगभग है ही नहीं. कुल मिला कर दर्शन और मनोशास्त्र है. अपने आप पढ़ कर समझ लेना मुश्किल लगा इसलिए एम् ए ( बुद्धिस्ट स्टडीज़ ) में दाखिला ले लिया! 

दोबारा स्कूल में, चाहे वो स्कूल ऑफ़ बुद्धिज़्म ही सही, दाखिला मज़ेदार लग रहा है. क्लास में सत्तर साल का नौजवान मेरे अलावा कोई भी नहीं है! फिलहाल तो ऑनलाइन क्लासें चल रही हैं. ये भी नया अनुभव है जिसके बारे में भी आगे ब्लॉग लिखना पड़ेगा! होम वर्क भी मिल रहा है और लम्बी लम्बी असाइनमेंट भी. इसलिए ब्लॉग लिखने का काम घट गया है. मार्च में परीक्षा भी आ रही है तो पढ़ना भी पड़ेगा! 

चलते चलते ये बताना ठीक रहेगा का बुद्ध ने कहा है कि जीवन नदिया के बहाव जैसा है कभी तेज़, कभी घुमावदार और कभी पत्थरों से टकराव.  जब कभी सोचते हैं की सब ठीक ठाक चल रहा है अनहोनी हो जाती है. 
सभी वस्तुएं और घटनाएं अनित्य या नश्वर हैं. कभी धरती पर डाइनोसॉर डोलते थे अब नहीं हैं पर जीवन निरंतर जारी है. हम अपने वातावरण और प्रकृति का हिस्सा हैं और एक दूसरे पर निर्भर हैं. 
परिवर्तन एक  शाश्वत नियम है. वैसे ही हमारे विचारों का बदलना भी स्वभाविक है. कभी मानव सोचता था की दुनिया चपटी है और स्थिर है अब विचार बदल गए हैं. 
हम अपने विचार, वाणी और शरीर से कार्य करते हैं जिनसे कोई ना कोई फल निकलता है, इस फल से फिर कोई कार्य पैदा हो जाता है और इस तरह से एक लम्बी जटिल श्रृंखला चलती रहती है. अगर अच्छे कार्य करते चले जाते हैं तो फल भी वैसे ही आते जाते हैं. 
हमारा संसार हमारा हमारा अंतर्मन ही है और हम बाहरी घटना, स्थान या व्यक्ति से दुखी नहीं होते बल्कि अंतर्मन की धारणाओं से टकराव के कारण दुखी हो जाते हैं. वस्तुस्थिति समझ कर जीवन बेहतर बनाया जा सकता है. 
और अब ऑनलाइन कक्षा का समय हो रहा है, फिर मिलेंगे.
चलो स्कूल चलें