Pages

Sunday, 31 May 2020

मीटिंग

नौकरी जब तक नहीं लगी थी तब तक यूनियन के बारे में पता नहीं लगा था. सन 1972 में बैंक ज्वाइन किया तो साथ ही यूनियन का सदस्यता फॉर्म भी भर दिया. भर दिया या भरना पड़ा इन दो में से आपको जो ठीक लगे वो ही मान लें. जब यूनियन की आठ दस मीटिंग अटेंड कर ली तब समझ में आने लगा की ये भी किसी राज दरबार की तरह ही है.

वैसे इस तरह के दरबार हर जगह मिलेंगे - परिवार में, मोहल्ले में, जात बिरादरी में, स्कूल की क्लास में, देश प्रदेश की सरकारों में और धार्मिक संगठनों में. हर छोटे बड़े दरबार का एक मुखिया होता है और उस के अपने चुने हुए नौरत्न होते हैं. राजा साब अकेले काम काज कैसे चलाएँगे? इसके अलावा राजा को दो चार ढंढोरची, खबरची, लठैत, सेवादार वगैरा भी रखने पड़ते हैं ताके कारवाई सुचारू रूप से चलती रहे और कोई सिरफिरा अचानक कुर्सी ना हिला दे. दरबार का आम ढांचा कुछ इस तरह का होता है:
राजा > नौरत्न > सौरत्न > हज़ार रत्न > लाख रेतीले कण > करोड़ धूल भरे कण. 

तो दरबार सजा हुआ था राजा कॉमरेड बोले, 
- कॉमरेड्स अपनी अपनी राय बताओ.

पहला रतन - दशहरा आ गया है जी, आगे दिवाली है और फिर भैया दूज है. आप इस दौरान कोई धरना प्रदर्शन मत रखना. ना ही कोई उम्मीद रखना की कोई धरने में आएगा. मैं ही नहीं आ सकता घरवाली निकलने नहीं देगी. महिला कॉमरेड्स भी नहीं आएंगी. आप दूसरे रतनों से भी पूछ कर देख लो क्या कहते हैं.

दूसरा रतन - सहमत हूँ जी. इस सीजन को खराब थोड़ी ही करना है. बल्कि  यार मैं तो ये सैंपल भी लाया हूँ. यूनियन की तरफ से गिफ्ट बांटने हैं भाई या धरने देने हैं? मेरे अंकल की दुकान का कम्बल है ये. 100 का 85 में और 200 पीस लिए तो 82 के रेट में दे देंगे. यूनियन मेम्बर खुश हो जाएँगे. लो राजा कॉमरेड पास कर दो. 

तीसरा रतन - ओ रुक जा भाई रुक जा! मैं भी एक सैंपल लाया हूँ. राजा कॉमरेड ये स्टील का टिफ़िन 80 में मिल रहा है. ये कैसा रहेगा? चावड़ी ब्रांच में इस पार्टी का अकाउंट है. ज़रा दबाव डालेंगे तो एकाधा रुपया और डाउन कर देगा. बाकी पसंद आपकी है.

राजा कॉमरेड - रुको रुको यार तुमने तो शोर मचा दिया. सैंपल रख दो यहीं अगली मीटिंग में फैसला करेंगे. तब तक दो चार लेडीज़ से बात कर लेता हूँ. घरेलू चीज़ें हैं घरवालियां पसंद करे तो ज्यादा अच्छा है. अच्छा तू बता तेरी ब्रांच से एक लेडी का चन्दा नहीं आ रहा?

चौथा रतन - कॉमरेड उस लेडी से मैं तो कई बार कह चुका हूँ. पर मान ही नहीं रही. एक बार आप कह के देख लो. वैसे उस का हसबैंड सी बी आई में है. मुझे लगता है की ज्यादा बोलने से कहीं मेरा बैंड ना बजा दे.

पांचवां रतन - क्या बात कर रहा है ये? इसे नौरतन क्यूँ बनाया है राजा कॉमरेड? एक लेडी को मेम्बर नहीं बना सकता?
 
राजा साब - पांचवा रतन ठीक कह रहा है. कभी कभी ऐसे लोगों की ज़रुरत पड़ सकती है. आप उस लेडी का और हस्बैंड का दोनों के नंबर देना मुझे. मैं बात करता हूँ.

पांचवां रतन - देखा चौथे रतन? कल को राजा कॉमरेड डायरेक्टर बनेंगे तो सी बी आई की क्लीयरेंस चाहिए की नहीं? सीख ले कुछ!

छठा रतन - एन्नी दूर तों आए हाँ राजा साब कोई समोसा, कोई बियर शीयर.....
राजा कॉमरेड - ओए सबर कर यार ज़रा. जिस मीटिंग में तू नईं आता ना शांति रहती है.  

सातवाँ रतन - हमारी ब्रांच में एक बड़ा लोन प्रपोज़ल आया हुआ है कॉमरेड. बड़ी तैयारी हो रही है.

राजा कॉमरेड - ओ तैयारी के बच्चे पूरी बात बताया कर. कितनी बार कहा है तुझे? कहाँ की पार्टी है, क्या बनाती है, फैक्ट्री कहाँ है? तू बस हैडलाइन बताता है.

आठवाँ रतन - हमारी ब्रांच ठीक है जी. बन्दा रिटायर होने वाला है कोई लोन वोन का चक्कर नहीं. यूनियन की बात पूरी मानता है. नया आएगा तो देखी जाएगी. 

नौंवां रतन - आपका तो नया आएगा तो यहाँ नई आएगी. अब इनकी संख्या बढ़ती जा रही है कॉमरेड. अब इन्हें भी तो यूनियन में लाना पड़ेगा. 

राजा कॉमरेड - अरे छोड़ ना यार. ये जनानियां छुट्टी मांगती रहती हैं, बच्चा बीमार तो छुट्टी, सास बीमार तो छुट्टी, धरने प्रदर्शन में बुलाओ तो आती नहीं. और सुना ब्रांच का हाल तो ठीक है? लो भई चाय भी आ गई और समोसे भी. आनन्द लो. अगली मीटिंग अगले महीने दूसरे शनिवार को. 
मीटिंग 


Sunday, 24 May 2020

भत्ता

पति पत्नी दोनों जॉब करते हों तो अर्थ शास्त्र आसान हो जाता है. दोनों के खातों में पैसा दो पैसे जमा होते रहते हैं और जमा होते होते रुपए भी बन जाते हैं. पर इन सिक्कों की पिक्चर का दूसरा पक्ष भी है जिसमें बच्चे और मम्मी पापा भागते दौड़ते ही नज़र आते हैं. ऐसे में डबल इनकम ग्रुप वाले मम्मी पापा चाहते हैं की बालक जल्दी से बड़े हो जाएं और अपना रास्ता खोजने लग जाएं. 

पर इन बालकों को मैनेज करने का कोई एक फार्मूला तो है नहीं बल्कि इस विषय पर नए नए मन्त्र निकलते रहते हैं. छोटे बच्चों के लिए जब नए नए क्रेच खुले थे तो अजीब लगते थे पर अब नार्मल हो गए हैं. इनसे उन लोगों को काफी राहत मिली जिन्हें नौकरी पर जाना होता था. हमारे दोनों साहबजादे जब तक पांचवी और दूसरी क्लास में थे तब तक पड़ोस के क्रेच में जाते थे. पर छठी और तीसरी क्लास में पहुंचते ही बड़े ने विद्रोह कर दिया की अब क्रेच में नहीं जाना है. अब वो आता भी एक घंटा लेट था. क्या किया जाए?

तीन चाबियों वाले ताले लिए गए. एक चाबी मम्मी के पास दूसरी पापा के पास तीसरी बड़े के बस्ते में. छोटा पहले आएगा, क्रेच में चला जाएगा. फिर बड़ा आएगा उसे क्रेच से ले आएगा. 
अगले साल सातवीं और चौथी कक्षा आ गई. अब छोटे ने क्रेच जाने से मना कर दिया नतीजतन अब चाबी छोटे के बस्ते में आ गई. उससे अगले साल स्कूल से दोनों की वापसी एक साथ होने लगी तो चाबी दोनों बस्तों के बीच में लटक गई. 

आम तौर पर चाबी रात को बड़े के बस्ते में पैक कर दी जाती थी ताकि सुबह हड़बड़ाहट में रह ना जाए वरना हम चारों को परेशानी हो सकती थी. पर स्कूल में लंच टाइम में बड़ा कई बार छोटे के बस्ते में चाबी डाल जाता. बड़ा तो बड़ा ठहरा. कभी प्यार से, कभी फुसला के और कभी धमका के चाबी ट्रान्सफर हो जाती थी. इस ट्रान्सफर से छोटे का इंटरवल खराब हो जाता था. वो बार बार अपने बस्ते को चेक करता रहता कि चाबी है या नहीं. किसी शरारती तत्व ने निकाल तो नहीं ली? छोटे के रंग में भंग होने लगा.  

पहले तो दोनों में तू-तू मैं-मैं हुई पर आपस तक सिमित रही. धीरे धीरे झगड़ा बढ़ने लगा और फिर एक दिन विस्फोट हो गया.    
- मैं नहीं रखूँगा चाबी मेरी एक्स्ट्रा क्लास लगती है.
- चाबी तो मैं भी नहीं रखूँगा मेरी स्पोर्ट्स की क्लास लगती है. 
गंभीर समस्या और तनाव. रोज़ शाम बहस शुरू हो जाती पर कोई नतीजा नहीं निकल रहा था.  

तब ध्यान गया बैंक में मिलने वाले भत्ते या allowance पर. क्यूँ ना यही नुस्खा इस्तेमाल किया जाए? अब पंचायत बुलाई गई और मम्मी ने शुरुआत की,
- हमारे बैंक में ना कई तरह के अलाउंस या भत्ते होते हैं.
- क्या होते हैं?
- भत्ते याने पैसे मिलते हैं. जैसे की हेड केशियर छुट्टी पर गया तो उसकी जगह छोटा केशियर काम करेगा और छोटे को कुछ पैसे या भत्ता मिलेगा. इसी तरह मान लो कि आज मैनेजर नहीं आया तो जो उसकी जगह काम करेगा तो उसको भत्ता मिलेगा. अब तुम्हें भी key allowance या चाबी भत्ता मिला करेगा. तीस रूपए महीना. 
- ये तो गुड है!
- सही!
- चाबी रखने के तीस रुपए मिलेंगे. तुम आपस में हिसाब कर लेना. जितने दिन चाबी बड़े के पास रहेगी उतने रूपए बड़े को मिलेंगे और ....
- बस बस समझ गया! और पॉकेट मनी?
- जेब खर्ची तो मिलती ही रहेगी ये चाबी भत्ता तो अलग है.
- ओके है ओके!  
प्रस्ताव बड़ी जल्दी पास हो गया.
- रुको रुको. एक बात और भी है, मम्मी बोली. हमारे घर दो अखबार आते हैं अगले दिन रद्दी में फेंक दिए जाते हैं. जब रद्दी वाला आता है तो पुराने अखबार, पुराना प्लास्टिक का सामान रद्दी वाला ले जाता है और बदले में कुछ पैसे दे जाता है. अब से कबाड़ी के पैसे भी तुम्हारे - रद्दी भत्ता! 
- वाह वैरी गुड!
- सही है!
- देख लो सारी रद्दी और कबाड़ इकट्ठी करके एक जगह रखना, कबाड़ी को बुलाना और बेचना अब से तुम्हारा काम है. ठीक है ना? जो कुछ मिलेगा वो तुम दोनों का - फिफ्टी फिफ्टी.
- गुड है!
- सही है!
 
तीर निशाने पर बैठा. मीटिंग बर्खास्त.  
दिल की चाबी 
 

Wednesday, 20 May 2020

बूट

परिवार बड़ा था - हम सात भाई बहन, मम्मी, दादी और पिताजी. परिवार की आर्थिक साइकिल खींचने वाले अकेले पिताजी ही थे. बचपन में तो पता नहीं लगा की तनखा क्या होती है और 'पर कैपिटा' खर्च क्या होता है. उस समय के अनुसार ठीक ठाक ही रहा होगा. पर कभी कभी महसूस जरूर हो जाता था. मसलन सात बरस की उमर में एक बार बूट लेने की जरूरत पड़ी. मन में एक पिक्चर बनी हुई थी की जैसे ही दूकान के अंदर जाएंगे एक आदमी मुझे लाल सोफे पर बिठाएगा, फिर एक ख़ास तरह के स्टूल पर मेरा पैर रख कर नाप लेगा, फिर नया चमकता हुआ काला बूट पहनाएगा और पूछेगा 'कैसा लगा?'.

एक हफ्ते से तो मैं कह रहा था कि काले बूट लेने हैं पर बाज़ार जाने का मुहूर्त ही नहीं निकल रहा था. एक दिन घोषणा हो गई की इतवार को पापा के साथ जाना और ले आना. अगले तीन दिन बड़े अच्छे गुज़रे. इन तीन दिनों में पड़ोस हो या स्कूल, बस सबके बूटों को देखता रहा. ये वाला ठीक है! ये नहीं चलेगा! 

सन्डे को दोपहर बाद पिताजी ने साइकिल निकाल ली. मैंने जल्दी से साफ़ करनी शुरू कर दी. पिताजी ने छोटी वाली गद्दी आगे कस दी.
- मैं नहीं बैठूँगा इस पर!
- बेटा परेड तक जाना है तू पीछे बैठा बैठा सो जाएगा और फिर गिर गिरा जाएगा. जाते वक्त पीछे बैठ जा और वापसी में आगे. ठीक है?
- हूँ.( ठीक है.वापसी में अँधेरा हो जाएगा कोई देखेगा तो नहीं).
मर्रे कंपनी, फूलबाग, बड़ा चौराहा होते हुए साइकिल कानपुर के परेड ग्राउंड की तरफ बढ़ चली. परेड पहुंचे तो मैदान में बाज़ार लगा हुआ था. जूते वालों की दुकानें एक तरफ लगी हुई थी. मन में मायूसी छा गई यहाँ कौन सोफे में बिठाएगा. यहाँ तो दूकानदार गंदे से कपड़े पहने 'आ जाओ आ जाओ' चिल्ला रहे थे. तीन दुकानें में बात नहीं बनी चौथी में सौदा पट गया. अब साइकिल घर की तरफ वापिस दौड़ने लगी. बैठे बैठे विचार उमड़ रहे थे कि दोस्त क्या कहेंगे,
- अच्छी दूकान से नहीं लिया? 
- परेड तो चोर बाज़ार है. 
- नहीं नहीं बढ़िया लग रहे हैं! 
- चमक रहे हैं! सोल देखो कितना मोटा है!   
- पर तुम्हारे पास कम पैसे हैं नहीं तो दूकान में इससे अच्छा मिल जाता. 
 
तब तक पिताजी ने टोका - सोना नहीं बेटा बस पहुँचाने वाले हैं. 
घर पहुँच कर सबने जूतों को हाथ में उठा कर, घुमा फिरा कर देखा और  खूब तारीफ की. हिदायत भी मिली की पानी में नहीं डालना, ठुड्डे मत मारना पत्थरों को. अच्छी चीज़ मिली है ढंग से रखना. थोड़ी तसल्ली हुई.

पर क्या अच्छी चीज़? दो महीने बाद सोल निकल गया. सबको जवाब भी देना पड़ा की बूट पानी में नहीं डाला था. अपने आप टूटा है मैंने नहीं तोड़ा है. बहुत दिनों तक नाइंसाफी होने का ख़याल दिल में रहा. छोटे से बालक की छोटी सी भावना और धीमी सी आवाज़. नक्कारखाने में तूती की आवाज़?
ज़िप वाले बूट 
खैर, पढ़ाई ख़त्म हुई तो बैंक में नौकरी लग गई और वहीँ पार्टनर भी मिल गई. समय गुज़रा दो बेटे हो गए. बड़ा छे साल का रहा होगा तो एक दिन उसकी डिमांड आई कि बूट लेने हैं. और बूट भी ऐसे जो टखने से ऊपर हों और साइड में ज़िप लगी हो. मम्मी ने कहा इतवार की छुट्टी है बाज़ार चलेंगे ले लेना. 
इतवार शाम को बड़े नवाब, मम्मी और दादी बाज़ार चल पड़े. 
- तू पैदल चल लेगा या रिक्शा करें?
 - पैदल पैदल!, बड़े नवाब बड़ा हल्का फुल्का महसूस कर रहे थे. और जूते मिलेंगे इसलिए पैदल चलना कोई मुश्किल काम नहीं था.   
बाज़ार में पहुँच कर सात आठ दुकानें देख लीं पर ज़िप वाला जूता नहीं मिला. दादी थकने लग गई और बोली, 
- कोई दूसरा ले ले! जरूरी है ज़िप वाला? 
- नहीं मैंने वोई लेना है.
- मैं तो थक गई तेरे जूते देख देख कर.
- दादी आप बड़ी जल्दी थक जाते हो.
- बेटे ऐसा करते हैं घर चलते हैं काफी देर हो गई है. कल बड़े बाज़ार में चलेंगे, मम्मी ने कहा.
- ह्हूँ अच्छा ठीक है. पर कल दादी नहीं आएगी हमारे साथ.
अगले दिन फिर ज़िप वाले जूते की खोज शुरू हुई. एक घंटे बाद एक जोड़ी नज़र आई और लपक ली. कोई और चॉइस ही नहीं थी. बड़े शौक से दो तीन हफ्ते तक बड़े नवाब ने बूटों की मालिश पोलिश की. शौक और टशन से पहने. वैसे ज़िप वाले जूते पहनने में इतना आराम देह नहीं थे. ना जल्दी से पहने जा सकते थे और ना ही उतारे जा सकते थे. कुछ ही दिनों में लगाव घट गया और तीसरे महीने तो ज़िप वाले बूट नज़र आने बंद हो गए. 

एक दिन छोटे नवाब जिनकी उमर सात साल के आसपास रही होगी बोले,
- मैंने बूट लेने हैं!
- हाँ. अच्छा ठीक है कौन से लेने हैं?
- मैं दूकान में देख कर बता दूंगा. बस आप साथ चल पड़ना.
- ओके.
इतवार के दिन हम चारों बड़े बाज़ार पहुंचे. कई दुकानें देखीं. कई सेल्समेनों ने पूछा,
- कैसे बूट चाहिए?  
- मैं देख रहा हूँ अभी बताता हूँ. 
पर मनपसंद जूता नहीं मिला. गाड़ी लेकर कनाट प्लेस पहुँच गए. बड़े बड़े तीन चार शो रूम देख लिए.
- और डिजाईन दिखाओ.
- आपको कैसा शू चाहिए?
- मैं देख लूँ फिर बताता हूँ.
शोरूम बंद होने लग गए पर मनपसन्द बूट नहीं मिले. चारों थकने लग गए और भूख भी लगने लगी. 
- चलो यहीं कहीं डिनर कर लेते हैं. अगले सन्डे फिर देखते हैं.
- हूँ! उदास आवाज़ में छोटे नवाब बोले.
पर उसके बाद से आजतक छोटे नवाब ने ना तो बूट का डिज़ाइन बताया और ना ही दोबारा बूट लेने की कभी बात की.

अब तीसरी पीढ़ी आने वाली है. देखते हैं की बेटे के बेटे को कौन सा बूट पसंद आता है!

  

Sunday, 17 May 2020

झाड़ू झाड़न

दादी, माँ, बहनों, पत्नी और काम वाली के चलते कभी किचन में झांका भी नहीं था. ये भी नहीं पता था की झाड़ू पोछा कैसे होता है. जब पोछा लगता तो कहा जाता था बस अब पलंग पर बैठ जाओ या फिर बाहर घूम आओ. पर अब सत्तर साल की उमर में फूल झाड़ू, पानी वाला झाड़ू, वाइपर, डस्टिंग जैसे शब्द अपन की डिक्शनरी में शामिल हो गए हैं. अब छुरी, चक्कू, कड़छी, लाइटर भी पता लग गए हैं, चाय बनानी और दूध उबालना भी आ गया है. 

कोरोना के कीटाणु तूने कहाँ लाके मारा रे!

उधर लॉकडाउन की घोषणा हुई इधर हमारी सोसाइटी का मेन गेट भी बंद हो गया. आप बाहर नहीं जाओगे और फलां-फलां अंदर नहीं आएगा. फलां-फलां की लिस्ट में से काम वाली को तो बिलकुल नहीं आने दी जाएगी. इस पर पैंसठ जन्मदिन पार कर चुकी श्रीमती को क्रोध में आना स्वाभाविक था. स्थिति नियंत्रण से बाहर हो सकती थी. ये देख मैंने आश्वासन दे दिया की चलो 'झाड़ू मेरा पोछा तेरा' प्लान के मुताबिक काम कर लेंगे. स्थिति नियंत्रण में आ गई. चलिए अब शाम की बियर पर तो लॉकडाउन नहीं लगेगा!

अगले दिन झाड़ू लगा के महसूस किया की अगर बैठ कर लगाओ तो घुटने नाराज़ होते हैं. अगर खड़े खड़े झाड़ू लगाओ तो कमर कड़कती है. कलाइयां और कंधे तो हर हाल में हाय हाय करते हैं. साथ ही जब काम करते करते हिदायतें मिलती हैं तो कान भी गरम हो जाते हैं,
- जरा पलंग के नीचे से भी,
- ज़रा दरवाज़े के पीछे से भी,
- ज़रा खिड़की की ग्रिल पे भी.  

वो दिन था और आज ये चालीसवां दिन है झाड़ू का सिलसिला बदस्तूर जारी है. कमर दर्द और झाड़ू का मिलाजुला अफ़साना चल रहां है. इन दिनों में अपने तीन बेडरूम, ड्राइंग और आँगन के फर्श को अच्छी तरह पहचान लिया है. अब ये पता लग चुका है की एंट्री के पास धूल मिलेगी, किचन में प्याज के छिलके और ड्रेसिंग टेबल के आसपास बुढ़िया के लम्बे लम्बे बाल मिलेंगे! डस्टिंग के लिए मुख्य इलाके भी चिन्हित कर लिए हैं. कहाँ सूखा कपड़ा मारना है कहाँ गीला ये याद कर लिया है. झाड़ू कौन सा होना चाहिए, कैसे पकड़ना चाहिए इत्यादि सब पर रिसर्च कर ली है. 

इस नई जॉब प्रोफाइल में कमर तो दोहरी हो ही रही थी पर फिर भी एक और आइटम खुद ही जोड़ लिया है. इधर झाड़ू ख़तम हुआ, उधर पोछा शुरू हुआ. उधर पोछा ख़तम हुआ इधर चाय बिस्किट की ट्रे पेश कर दी. साथ में पुराने फ़िल्मी गाने लगा दिए. थकान दूर हो जाती है और गजब का माहौल बन जाता है!

अब झाड़ू लगाने का काफी अनुभव हो गया है और इरादा है एक कोचिंग सेंटर खोलने का. इसमें पचपन से ऊपर वाले सज्जनों को झाड़ू पोछा लगाने की ट्रेनिंग दी जाएगी. अभी कोर्स, फीस और टाइम टेबल के पैकेज पर काम चल रहा है. जल्दी ही सूचना दे दी जाएगी.

गो कोरोना गो,
झाड़ू उठा लिया है गो,
वाइपर उठा लिया है गो,
गो कोरोना गो!
जंग के लिए तैयार 
 
लगे रहो!


 

Wednesday, 13 May 2020

नाम में क्या रखा है

शेक्सपियर अंकल कह गए हैं कि नाम में क्या रखा है! गुलाब को चाहे किसी भी नाम से पुकारो पर खुशबू तो वही आएगी. लेकिन गुलाबी फूल का नाम तो कुछ रखना ही पड़ेगा इसलिए गुलाब ही ठीक है अब क्या बदलना. वैसे तो गुलाब के खुबसूरत फूल पर इंसानों के नाम भी हैं जैसे - गुलाब चन्द, गुलाब सिंह या फिर गुलाबो! पर इनमें से खुशबू किसकी बेहतर होगी ये कहना मुश्किल है. मेरा अंदाजा है की गुलाबो की बेहतर होगी. क्या कहते हैं आप?

गुलाब के नाम पर हिन्दुस्तान में एक शहर भी है - गुलाबी नगरी. ये तो आप जान गए होंगे कि इशारा राजस्थान की राजधानी की ओर है. एक और शब्द 'गंज' है जो पुराने शहरों में काफी सुनने को मिलता है. रूड़की में एक पुराना बाज़ार है बी टी गंज. बी और टी का मतलब बहुत से लोगों से पूछा केवल एक सज्जन से जवाब मिला ब्रिटिश ट्रेडर्स गंज. पता नहीं ये तीर है या तुक्का. कानपुर में देखा एक हूलागंज. हूलागंज के हूला का मतलब नहीं पता चला. शायद ऊ-ला-ला से बन गया हो हूला. वहां एक कलेक्टर गंज भी है शायद कलेक्टर साब के ऑफिस के आसपास होगा इसलिए नाम पड़ गया कलेक्टर गंज. नई दिल्ली रेलवे स्टेशन के पास एक गंज है पहाड़गंज. पहाड़ तो कहीं नज़र नहीं आता पर खैर पहाड़गंज के बोर्ड नज़र आ जाएंगे.

मेरठ में भी एक गंज है सोतीगंज. शायद कोई सुन्दरी सोती होगी वहां पर? लेकिन इस बात की पुख्ता जानकारी नहीं मिली. पुख्ता से मिलता जुलता नाम मेरठ के एक गाँव में जरूर देखा है 'पुट्ठा'. ये अच्छा सा खुशहाल गाँव पुट्ठा आपको मेरठ बाईपास पर मिलेगा जो राजमार्ग 58 याने दिल्ली - देहरादून रोड पर है.

और अगर आप देहरादून से पोंटा साहब जा रहे हों तो रास्ते में एक बोर्ड नज़र आएगा जिस पर गाँव का नाम लिखा हुआ है 'पुट्ठी'. जब हम गाड़ी से निकले तो श्रीमती ने बताया,
- देखो पीछे बोर्ड लगा था और गाँव का नाम लिखा था पुट्ठी. मेरठ में पुट्ठा गाँव था और यहाँ पुट्ठी!
तुरंत ब्रेक मारी, रिवर्स लगाया और फोटो लेनी ही पड़ी.
इस पर याने पुट्ठा और पुट्ठी पर काफी देर विचार विमर्श हुआ. लगभग दो सौ किमी का अंतर है दोनों गाँव में पर नाम जोड़ीदार जैसे हैं. क्या कारण रहा होगा? पर किसी नतीजे पर नहीं पहुंचे.

आपको जानकारी हो तो जरा प्रकाश डालें.

गाँव पुट्ठी, देहरादून - पोंटा साहिब रोड पर 


गाँव पुट्ठा, मेरठ बाईपास NH 58 पर 



Sunday, 10 May 2020

पहला गियर

कहावत मशहूर है कि हज़ार मील लम्बा सफ़र हो पर शुरुआत तो एक कदम से ही होती है. ये बात एक चीनी दार्शनिक लाओ त्सू ने कही थी. आजकल तो यूँ कहना चाहिए की लम्बे सफ़र की शुरुआत पहले गियर से ही होती है. अब लाओ त्सू की तरह पैदल तो जाना मुमकिन नहीं है. हाँ आजकल बसें हैं आराम से बैठिये ड्राईवर पहुंचा देगा. 

पर अगर बस ड्राईवर बीच रास्ते में कहे कि 'बस अब मैं बस नहीं चला सकता' तो? बात वैसे पुरानी है. दिसम्बर 1982 की सर्दी में दिल्ली से बस ली कोटद्वार की. वहां से जीप में सवार हुए और पहुँच गए लैंसडाउन. लगभग 6000 फुट की उंचाई पर बसा लैंसडाउन कुल्फी की तरह ठंडा था. रात का तापमान शायद 3-4 डिग्री होगा. पर दिन में साफ़ नीला आसमान और तेज़ धूप. छत में बैठकर नज़ारा देखो और चाय की चुस्की लो. शाम हो तो जलती लकड़ियों की गर्माइश लो और साथ में पेग रख लो. ऐसा मज़ा पहाड़ों में ही आ सकता है. ऐसी ही छुट्टी मना कर हम अपने दो साल के बालक के साथ वापिस चल पड़े. सोचा कि हरिद्वार और ऋषिकेश होते हुए दिल्ली निकल जाएंगे. नाश्ता किया, बिल दिया, सिद्धबली मंदिर देखा और कोटद्वार बस अड्डे पहुँच गए. 

शाम के साढ़े पांच बज चुके थे और हरिद्वार की इकलौती बस तैयार खड़ी थी. पचास सीटों की खटारा बस में मुश्किल से पंद्रह सवारियां होंगी जिनमें से चार पांच लेडीज़ थी और दो तीन बच्चे थे. नौजवान ड्राईवर ने बस स्टार्ट कर दी और बूढ़े कंडक्टर ने घोषणा कर दी लालढांग होकर जाएगी. मन में सोचा,
- यार लालढांग से ले जा या पीले से पर जल्दी पहुंचा दे. अँधेरा हो गया है और पहाड़ी जंगल का रास्ता है. 
अगर आप उस तरफ गए हों तो जानकारी होगी की एक तरफ तो चिड़ियापुर का जंगल है और दूसरी तरफ पथरीला बरसाती नाला है. ये नाला अपनी मर्ज़ी से कभी सड़क के नज़दीक आ जाता है और कभी जिम कॉर्बेट जंगल में घुस जाता है. यहाँ रात को बस चलाना खाला जी का काम नहीं है.  

पंद्रह किमी भी नहीं चली थी बस के अगले टायर की आवाज़ आई फुस्स्स्स! बस हिचकोले खाती रुक गई. बजाए टायर चेक करने के ड्राईवर और कंडक्टर में बहस शुरू हो गई की ड्राईवर खटारा बस रात को क्यूँ लाया दूसरी ले आता. दोनों नीचे उतरे तो सवारियों में बहस शुरू हो गई. दो अधेड़ आपस में कह रहे थे,
- बसों को मेन्टेन नहीं करते पैसा खा रहे हैं बस. जनता का टाइम खराब कर रहे हैं. 
जवाब मिला,
- सरकारी काम च भै जी परवा नीं च  
एक बुज़ुर्ग ने बहित ही गुप्त जानकारी दी,
- इस रस्ते पर कई बसें रात को लुटी हैं. ये स्टाफ स्साला मिला हुआ है आज बस लुटे ही लुटे!
पिछली सीट पर बैठे यात्री ने बीड़ी का बण्डल निकाल लिया बोला, 
- भै जी माचिस देण. 
बच्चे अँधेरे और ठण्ड से परेशान थे. महिलाएं भयभीत हो रही थीं. नीचे उतर के देखा तो अँधेरे की वजह से काम ठीक से नहीं हो पा रहा था. कागज़ जला कर काम करने की कोशिश कर रहे थे. चार पांच तमाशबीन कारवाई देख रहे थे. तब तक एक फौजी ने टोर्च दिखाना शुरू किया तो स्टेपनी खुली. स्टेपनी साइड में टिका कर अब पंचर टायर उतारने की कोशिश की जा रही थी. तब तक सामने से गाड़ी आती दिखी. आवाज़ से लगा की ट्रेक्टर है. बिलकुल पास आकर उसने झटके से बाएँ काटा ट्रेक्टर तो निकल गया पर ट्रोली लहराई और ड्राईवर की साइड की हेड लाइट तोड़ती हुई निकल गई. इस टक्कर ने साइड में टिकी स्टेपनी को हिला दिया और वो ड्राईवर पे जा गिरी. जैक भी खिसक गया और पंचर टायर फिर जमीन पर आ गया.

अफरा तफरी मच गई. लोगों ने स्टेपनी सीधी की ड्राईवर को उठाया. ड्राईवर दर्द में कराहा और सड़क पर ही पसर गया. लेटने के बाद हाय हाय करने लगा. फर्स्ट ऐड के नाम पर फौजी ने चुपके से पटियाला पेग लगवा दिया. फौजी और कंडक्टर तो जैक लगाने और पंचर टायर उतारने में लग गए. दो लोग ड्राईवर की सेवा में हाजिर हो गए. सारा काम हो जाने के बाद ड्राईवर ने गाड़ी चलाने से मना कर दिया बोला मेरे दोनों पैरों में बहुत दर्द है नहीं चला पाऊंगा. 

अब क्या होगा? काली रात, सन्नाटा और ठण्ड. दूर दूर तक घना जंगल. ड्राईवर बोला जिस किसी को चलानी आती हो चला ले यहाँ रुकना ठीक नहीं है. उसकी बात से सब सहमत थे. सब मर्दों ने एक दूसरे की तरफ देखा. मैंने कहा भाई लोग कार तो चलाई है पर बस नहीं चलाई कभी. फिर लाइट भी टूटी हुई है. स्टार्ट कर के दूसरी लाइट भी चेक करो जलती है या नहीं. दूसरी लाइट ठीक थी बस टिमटिमा रही थी. शायद कोई तार ढीला हो गया होगा. फौजी भी तैयार था गाड़ी चलाने के लिए हालांकि अभ्यास उसे भी नहीं था. 

पहला नंबर अपुन का लगा. स्टार्ट करके पहला गियर लगा दिया. बस चल पड़ी दूसरा गियर समझ में नहीं आया कैसे लगाएं. तब ड्राईवर ने बताया,
- भै जी पहले क्लच दबा के न्यूट्रल में लाओ. दुबारा क्लच दबा के सेकंड लगाओ.    
- ओहो अपने बस की बात नहीं है. फौजी भाई आप आ जाओ. 
- जय बद्री विशाल! फौजी भाई ने नारा लगाया और बस फिर से स्टार्ट कर दी. ड्राईवर बताता रहा और फौजी भाई धीरे धीरे चलाता रहा. बस की इकलौती बाँई लाइट टिमटिमा रही थी जिसकी वजह से स्पीड नहीं बढ़ पाई. किसी तरह से तीस किमी का फासला छे घंटे में पूरा करके लगभग पौने बारह बजे लालढांग पहुंचे. जान में जान आई. 

छोटे से बियाबान कस्बे में एक दो लाइटें जल रही थी. आदमी तो क्या भूत भूतनी भी नहीं दिखाई पड़े. दो कुत्तों ने अलसाई नज़रों से बस की तरफ देखा और सोचा भौंकना बेकार है. वो फिर सो गए. होटल कौन ढूंढता? रात बस में ही गुजार दी. सुबह साढ़े पांच बजे हरिद्वार की बस आई और हम सवार हो गए.  

सच में भै जी गियर बदलना भी आना चाहिए!

कोटद्वार -. लालढांग सॅटॅलाइट मैप

  

Wednesday, 6 May 2020

हवा हवाई

गोयल साब ने मुंडी घुमाकर केबिन के शीशे से बैंकिंग हाल में नज़र मारी. तीनों कैशियर बिज़ी थे. बाकी सीटों पर भी दो चार लोग खड़े थे. एक सम्मानित ग्राहक ऑफिसर से गुथमगुत्था हो रहा था पर अभी बीच बचाव का समय नहीं आया था. कुल मिला कर चहल पहल थी अर्थात ब्रांच नार्मल थी. इन्क्वायरी सीट पर देखा तो कोई सुन्दरी खड़ी कुछ पूछ रही थी. बढ़िया सी साड़ी, मंहगा सा पर्स और अंदाज़े-बयाँ देख कर लग रहा था की अंग्रेजी बोल रही होगी.

गोयल साब बैठे बैठे कसमसाए और बुदबुदाने लगे,
- हूँ! ये शर्मा कमबख्त ठीक से जवाब नहीं देगा. टरका देगा या उल्टा पुल्टा बोल देगा. फिर मुझे बीच बचाव करना पड़ेगा. ल्लो भेज दिया सुन्दरी को लोन सेक्शन में. अबे मेरे पास भेजता सुसरे.

गोयल साब का हाथ स्वत: ही पिछली जेब में चला गया और धीरे से उसमें से कंघी निकाली. सर पर फेर कर वापिस रख दी. वैसे तो सर पर बाल बचे ही नहीं थे पर एक कान से कालर तक और कालर से दूसरे कान तक छोटे छोटे बालों की एक झालर बची थी जिस पर काला रंग किया हुआ था. टाई की नॉट को भी दुरुस्त किया. देखने में तो स्मार्ट लगना ही चाहिए. तब तक सुन्दरी को लोन इंचार्ज वर्मा जी ने बिठा लिया. गोयल साब बुदबुदाए,
- शर्मा के बाद वर्मा! नहले पे दहला. बतियाता रहेगा पर काम ये भी नहीं करेगा. देखना अभी अंदर भेज देगा. कहाँ कहाँ से भरती हो गए बैंक में? देखा, इधर को इशारा कर दिया. आ जाओ आ जाओ सुन्दरी हम आपके हर सवाल का जवाब देंगे अच्छी तरह से. घंटी बजाई और कैंटीन बॉय को बोले - अरे दो गिलास पानी ले आ ताड़ा ताड़ी बाद में दो कप चाय भी ले आना! पानी और सुन्दरी दोनों एक साथ ही आ गए केबिन में. 
- पहले मेमसाब को पानी दो भई लेडीज फर्स्ट!
- जी शुक्रिया, सुंदरी स्वीट सी मुस्कराहट लाकर बोली.
- हें हें हें! साब गदगद हो गए बोले,
- आदेश करें.
- लोन के बारे में पूछना था.
- क्यों नहीं. हम बैठे किसलिए हैं? पर पहले आप अपने बारे में बताइये.
- जी मैं उड़नखटोला एयरलाइन्स में काम .....
- ओहो मैं तो कई बार गया हूँ आपकी एयरलाइन्स से. कभी आपसे मुलाकात नहीं हुई? साब बीच में ही कूद पड़े.
- जी जनवरी में इस्तीफा दे दिया था.
- मैनेजमेंट ने आपको छोड़ दिया! कमाल है आपकी लुक्स आपकी पर्सनालिटी देखकर लगता है एयरलाइन्स घाटे में रहेगी. खैर और बताएं.
- अब प्लान बनाया है की लेदर गारमेंट्स एक्सपोर्ट करेंगे. सात लाख का किया भी है. 
- वाह अच्छा प्लान है हमारा भरपूर सपोर्ट मिलेगा आपको? आप करेंट अकाउंट खोल दें और कल आपकी शॉप या वर्कशॉप जो भी है देख लेता हूँ फिर आगे की कारवाई कर लेंगे. लीजिये चाय लीजिये.
- मैं चाय बहुत कम पीती हूँ.
- हें हें हें! यूँ समझ लीजिये कि आज बहुत कम वाला दिन है! लीजिये लीजिये. मैं आपके ऑफिस आउंगा तो आप क्या पिलाएंगी?
- जो आप कहेंगे. एयरलाइन्स की तरह पूरा इंतज़ाम है पर छोटे स्केल पे.
- हें हें हें! गोयल साब ने मन ही मन कहा हवाई सुन्दरी का काम तो करना ही पड़ेगा. बोले, कल शाम की विज़िट ठीक रहेगी?
- जी मैं गाड़ी भेज दूंगी.

शाम की विज़िट भी बढ़िया रही. कुछ सामान तैयार हो रहा था, पैकिंग हो रही थी और आर्डर बुक में आर्डर भी थे. हवाई सुन्दरी गजब की होस्टेस थी. हर चीज़ तरीके से दिखाई गई, बात भी बड़े सलीके से की गई और हाई टी भी शानदार रही. वापस रवाना हुए तो पिछली सीट पर दो स्कॉच की बोतलें, भुने काजू का पैकेट और एक लेदर की जैकेट भी पैक पड़ी थी. साब मुस्कुराए, 
- हें हें हें! चलो ड्राईवर.
अगले दिन वर्मा जी को बुलाया,
- वर्मा जी कल हवाई सुन्दरी का सेट-अप देख कर आया था सब ठीक है. कागज़ पूरे आ जाएँ तो लोन प्रपोज़ल बना देना. मैं ओके कर दूंगा.
- पर सर हवाई सुन्दरी को एक्सपोर्ट का अनुभव तो है नहीं?
- अरे वर्मा जी आपको लोन का अनुभव था जब बैंक में आए? काम तो आते आते ही आता है. दो चार बन्दे रख लेगी और क्या. एक बार हो आओ देख लो फिर अच्छी सी लिमिट बना देना. और महिला उद्यमी वाली स्टेटमेंट निल बटा निल जा रही है उस में रिपोर्ट कर देना. सुसरा हेड ऑफिस भी खुश हो जाएगा समझे. एक हमारी बीवी है जो ज़बान ही चला सकती है कोई बिज़नस नहीं चला सकती.
- सर अभी तो काम शुरू किया है हवाई सुन्दरी ने छोटा लोन कर देते हैं. 
- यहीं तो हिन्दुस्तान मात खा रहा है वर्मा. ज़रा ब्रॉड विज़न रखो, दूर की सोचो ये हवाई सुन्दरी कल को करोड़ों में खेलेगी. देश को डॉलर कमा के देगी. हम और आप तो कलम घिसते रहेंगे.
- सर आप तो रिटायर हो जाओगे जनवरी में मेरी तो अभी सर्विस काफी है इसलिए ख़तरा लगता है.
- वर्मा आप बहुत तरक्की करोगे. बस अपना दिल बड़ा कर लो. फार्मूला बता रहा हूँ लिख लो. हवा का रुख पहचानने की कोशिश किया करो. एक जेब में चार्जशीट लेकर डालते रहो और दूसरी में प्रमोशन लैटर. 
- अरे सर! 
- अरे वरे छोड़ो और हवाई सुन्दरी को मिलकर आओ. फिर बात करेंगे.

पंद्रह दिन बाद लोन हो गया. जब तक साब रिटायर नहीं हुए खाता सही चलता रहा. पर रिटायरमेंट के कुछ समय बाद खाता लड़खड़ाने लगा और फिर बैठ गया. याने एन पी ए. वसूली की कारवाई जारी है हालांकि रफ़्तार ढीलम ढाल है.

विश्वस्त सूत्रों से पता लगा है गोयल साब और हवाई सुन्दरी हवा हवाई हो गए हैं और कुछ दिनों पहले लन्दन में देखे गए हैं.
उड़नखटोला 
   

Sunday, 3 May 2020

मोटर साइकिल डायरी

मोटर साइकिल डायरी की बजाए पहले तो 'फटफटिया डायरी' शीर्षक देना चाहता था पर जचा नहीं इसलिए लिखा नहीं. दरअसल 'द मोटरसाइकिल  डायरीज ' एक मशहूर किताब है जिस पर इसी नाम की 2004 में स्पेनिश फिल्म भी बन चुकी है. ये 'डायरीज ' लिखने वाले का नाम है एरनेस्तो ग्वेरा( Ernesto Guevara de la Serna ) जो 'चे ग्वेरा' के नाम से बेहतर जाना जाता है. अर्जेंटीना में जन्मे( 1928-1967 ) 'चे' डोक्टरी की पढ़ाई ख़त्म करके अपने दोस्त अल्बर्टो ग्रानादो के साथ मोटरसाइकिल पर दक्षिणी अमरीका में कई देशों की यात्रा की जो तक़रीबन चार महीने चली. उसी दौरान 'चे' ने डायरीज  लिखी. 'चे' के बारे में आपको इन्टरनेट में ढेर सारी जानकारी मिलेगी. 'चे' डॉक्टर, लेखक, क्रांतिकारी, गोरिल्ला सैनिक, क्यूबा सरकार का मंत्री और डिप्लोमेट भी रहा था. बोलीविया के जंगलों में पकड़ा गया और सैनिक कोर्ट ने सरसरी सुनवाई करके सजाए मौत दे दी और उस पर मशीन गन से गोलियां दाग दी गईं. 

चे ग्वेरा की 'डायरीज ' के मुकाबले अपुन की फटफटिया डायरी तो कुछ भी नहीं है. बस एक ही इत्तेफाक है वो है मोटरसाइकिल से घूमने का शौक. घूमना तो पैदल से लेकर हवाई जहाज तक किसी भी तरह हो सकता है पर पसंद अपनी अपनी है. जब फटफटिया रेस पकड़ती है तो सीने पे हवा लगती है, ज़ुल्फें लहराती हैं, शर्ट के कालर फड़ फड़ करते हैं तो मज़ा आता है. किसी विद्वान ने कहा है कि,
Four wheels move the body, 
Two wheels move the soul! 
बस यही सोच के पहली फटफट 1979 में खरीदी थी. उसका नाम था राजदूत. थी तो 250 सी सी की पर थी हलकी फुलकी. चौराहे की लाल बत्ती पर बंद कर दो हरी हो तो किक मारो और चल मेरे भाई. हाईवे पर अगर 80 के ऊपर स्पीड करो तो लगता था उड़ ना जाए. हाईवे पर भी स्पीड ना हो तो क्या फायदा ऐसी फटफट का? समझ आ गया की लम्बी ड्राइव की गाड़ी नहीं है राजदूत. खैर दिल्ली में तो खूब चली और सच पूछो तो पिछली सीट की सवारी ढूँढने में भी खूब काम आई.

जल्द ही पटर पटर करने वाली राजदूत को बदलने का मन बना लिया. फिर खरीदी धकधक करने वाली स्टैण्डर्ड बुलेट. 1984 में इसकी कीमत सोलह हज़ार के आसपास थी. शानदार सवारी और जानदार सवारी! उस वक़्त बुलेट का रुआब ज्यादा था और पुलिस वाले भी टोकते नहीं थे. दिल्ली की रिंग रोड पर कई बार 100 पे दौड़ा दी. जयपुर, ऋषिकेश और लैंसडाउन का ट्रिप लगाने में मज़ा आने लगा. पर 1986 में ट्रान्सफर हो गई सिलचर, आसाम. अब? अब बुलेट को पैक कराया और ट्रेन में डाल दिया. सिलचर स्टेशन पर उतारी, पेट्रोल डलवाया और धकधक फिर शुरू हो गई. 

कुछ दिनों बाद सिलचर से तेज़पुर ब्रांच में ट्रान्सफर हो गई. लगभग चार सौ किमी दूर. अपना बिस्तर लपेटा और बुलेट में बाँध दिया. एक अटैची साइड में बाँधी और रवाना हो गए. रात गुवाहाटी के होटल में काटी और सुबह तेज़पुर का रुख किया. ट्रैफिक काफी कम था उन दिनों. रास्ते में शानदार सीनरी - पहाड़ियां, तालाब, खेत, छोटे बड़े गाँव देखते हुए पहुँच गए तेज़पुर. बैंक के साथियों को आश्चर्यचकित और डरते देख और भी मज़ा आता था. ब्रांच मैन रोड के क्रासिंग पर थी और सुबह 9 से 12 तक ट्रैफिक पुलिस की ड्यूटी रहती थी. दो दिन तो उसने देखा पार्किंग करते हुए तीसरे दिन मिलने आ गया. मिल कर बहुत खुश हुआ और हमारी दोस्ती हो गई! 

पर बाइक की क्वालिटी उस वक़्त अच्छी नहीं थी. बल्ब फ्यूज़ हो जाते थे, क्लच की तार ज्यादा नहीं चलती थी, चेन लॉक निकल जाता था और मोबिल आयल का ध्यान रखना पड़ता था. याने सन्डे के सन्डे हाथ काले हो जाना लाज़मी था. बुलेट का एक फायदा ज़रूर था की दोस्त यार मांगते नहीं थे!

तेज़पुर से सितम्बर 1988 में दिल्ली वापसी के आर्डर हो गए. एक बार फिर बुलेट ट्रेन में लोड कर दी. पर दिल्ली आकर बुलेट ज्यादा समय रुक नहीं पाई और दस हज़ार में बिक गई. चार्टर्ड बस और स्कूटर का मज़ा लिया. तब तक मारुती 800 ने पीं पीं कर दी थी तो फटफटिया पीछे हो गई थी पर भूली नहीं थी. 

2005 में फिर रॉयल एनफील्ड की याद आ गई. छोरा भी जवान हो गया था और उसकी डिमांड भी आने लगी थी. तो इस बार थंडरबर्ड खरीदी छप्पन हज़ार की. इस थंडरबर्ड ने भी खूब सड़कें नापी. नैनीताल, ऋषिकेश, अहमदाबाद, जयपुर, पुष्कर, जैसलमेर वगैरा के चक्कर लगते रहे. 

मज़ा तब आता था जबकि आप लम्बी खाली सड़क पर धकधक करते जा रहे हैं और दूसरी तरफ से धकधक करती बुलेट आ रही हो तो अनायास ही एक दूसरे को हाथ उठा कर अभिवादन कर देते थे. बाइकर बिरादरी बड़ी मस्त है! इस बिरादरी में फिरंगी बाइकर भी शामिल हैं. वो भी खुले दिल से हाथ हिलाते या मिलते हैं. पर खैर उन्हीं दिनों बैंक ने भी मारुती गाड़ी दे दी, अपनी मारुती भी थी तो फिर थंडरबर्ड का क्या काम? थंडरबर्ड  रुखसत हो गई.

जून 2011 में रिटायरमेंट आ रही थी तो सोचा की एक बार फिर रॉयल एनफील्ड चलाई जाए और इस बार भारत दर्शन किया जाए. जेब में पैसे भी होंगे और छुट्टी किसी बॉस से लेनी नहीं होगी तो टूर का ज्यादा आनंद आएगा. तो चार महीने पहले ही एक लाख दस हज़ार में क्लासिक 500 ले ली. ये गड्डी ज्यादा भारी, ज्यादा ताकत वाली और ज्यादा रफ़्तार वाली थी. लम्बे टूर के लिए फिट थी. 

रिटायरमेंट के बाद सोचा की क्लासिक 500 पर एक दो छोटे टूर लगा लें ज़रा हाथ साफ़ हो जाएगा फिर लम्बा ड्राइव लगाएंगे. कई सालों से तो कार के आदी हो चुके थे. पहला टूर ऋषिकेश, लैंसडाउन की तरफ बनाया. महसूस किया की शहरों में ट्रैफिक और प्रदूषण बेतहाशा बढ़ चुका है. कार में ए सी के चलते इतना महसूस नहीं होता था. जितना भी मुंह ढक लो या हेलमेट से कवर कर लो धुआं अंदर जाना ही है. बाइक सड़क के बाएँ रखो तो बस और ट्रक वाले दबाते हैं दाहिने रहो तो कारें पीं पीं करती हैं और बीच में चलो तो त्रिशंकू की तरह परेशानी है. साथ ही ये भी पता लग गया की उमर साठ की हो गई है! पहले दो ढाई घंटे बाद टी ब्रेक करते थे अब एक घंटे में ही थकावट होने लगती है. नाज़ुक कमर, गर्दन और कंधे कड़कड़ाने लग रहे थे. सोचा कि शायद बहुत दिन बाद हाईवे पे निकले हैं इसलिए.

दूसरी यात्रा राजस्थान की बनाई सोचा की चौड़ी चौड़ी सड़कें हैं और ट्रैफिक कम मिलेगा तो ड्राइविंग आसान हो जाएगी. कहाँ तो सुबह चलकर शाम को बुलेट या थंडरबर्ड से पुष्कर पहुँच जाते थे अब जयपुर ही मुश्किल लगने लगा. हमारी सवारी ने भी थकान की शिकायत कर दी. अब तो ढाबे की कड़क चाय या बियर ने भी जोश भरना बंद कर दिया. कुल मिला के भारत दर्शन मुश्किल लगने लगा. बहरहाल भारत दर्शन तो जारी है सिर्फ वाहन बदल गया है. आजकल चार चक्रीय ए सी डीज़ल रथ इस्तेमाल हो रहा है.

क्लासिक 500 अभी भी है और बैंगलोर में साहेबज़ादे की हाज़िरी बजा रही है.
1. क्लासिक 500, लैंसडाउन, उत्तराखंड की ओर 2010 मॉडल   

2. थंडर बर्ड 2005 मॉडल पुष्कर राजस्थान की ओर जाती हुई  

3. कालिया भोमरा ब्रिज तेज़पुर आसाम का एक दृश्य वर्ष 1987. बुलेट 1984 मॉडल